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"कल्याणक पांच गणाए" "कल्याण" नाम मंगल का है। उसी को कल्याणक कहते हैं। सो मंगलीक पांच अवस्था प्रभुकी जिनमत में कल्याणक कही जाती है। व्यचन, १ जन्म, २ दीक्षा, ३ केवलज्ञान, ४ निर्वाण ५ अर्थात् गर्भागमन, १ उत्पत्ति, २ ब्रतधारण, ३ ज्ञानोत्पत्ति, ४ मुक्ति ५ ये पांच कल्याणक हैं। इन्ही को भाव से पंच अंग सिर १ मुख २ उर ३ भुज ४ पद ५ समझ के जैसे पंचकल्याणक का धरनेवाला एक है, इसी तरह पंच अंग का धरनेवाला अंगी अात्मा भी प्रति व्यक्ति एक है। ऐसा समझ के लक्ष्य प्रात्मा को लखना चाहिये, ऐसा गुरु अलक्ष्य लखाते हैं ॥१॥ यह पूर्वोक्तज्ञान, शुक्र १ कमल २ ससि २ श्वेतगण ४ ये चारों श्वेत वस्तु के समान रूपस्थ १ पदस्थ २ पिंडस्थ ३ रूपातीत ४ इन चार शुद्ध ध्यानों से लक्ष्य होता है। रूपस्थ ध्यानवर्णनम्
विकार स्वरूप निहारी ताकी, संगत मनसाधारी।
निजगुण अंस लहे जब कोई, प्रथम भेद उस अवसर होय ॥१॥ पदस्थ ध्यानवर्णनम्
तीर्थकर पदवी पर ध्यान, गुण अनंत को जाणी थान ।
गुण विचार निजगुण जे लहे, ध्यान पदस्थ गुरु इम कहे ॥२॥ पिंडस्थ ध्यानवर्णनम्
भेद ज्ञान अंतरगत धारे, स्वपर परणित भिन्न विचारे ।
एक विचार सांतता आवे, ते पिंडस्थ ध्यान कहवावे ॥ ३ ॥ रूपातीत ध्यानवर्णनम्
रूप रेख जामें नहीं कोई, अष्टगुणाकर शिव पद सोई, ताकुं ध्यावत तिहां समावे, रूपातीत ध्यान सो पावे ॥४॥
उत्सव के दिन भक्त लोक कल्याणकों का स्वरूप भिन्न भिन्न आभासन कर देते हैं । इन कल्याणको की मास तिथि भी ५ भिन्न
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