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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४३ ) याने रहस्य है, सो जिनमत में विशेष है । इस स्थिति में दोषारोपण करना निष्फल है। परंतु दिव्य दृष्टी विगर मान की टेक धरते हुए जो लड़ते हैं, सो बावरे हैं ॥४॥ "अरहन साधुनि को भाई" सर्थ वर्ण के आदि प्रकार है, और रकार की स्वभावतः उर्धगति है. उसमें "हकार" व्याकरण के नियमानुसार महाप्राण प्रयत घाला मिलने से "अहन्" यह पद पूज्य होता है। विशेषधात्र-जिन मत में "अह" यह पद अहपूजायां धातु से सिद्ध पूज्यवाचक होता है। अथवा अकारेणोच्यते विष्णुः, रेफे ब्रह्मा व्यवस्थितः हकारेण हरः प्रोक्तस्तदन्त्यं परमं पदं ॥१॥ इस प्रकार से भी देव प्रयात्मक निर्विकल्प परम पुरुष का वाचक है ॥१॥ यह "अर्हन" पद सर्प का आदि है। सर्व में शिरोमणि है। जिसमें अत्यंत प्रभुता शक्ति हैं। इसी से वही अर्हन् तीन लोक में पूज्य है। और उसी की सब ईश्वरता है ॥२॥ जैन मत में अईन् देव तो मूलधर्मप्ररूपक है, उन्ही की गद्दी पर जो प्राचार्य बैठते हैं, सो ही गुरु श्रीपूज्य कहे जाते हैं, वह गुरु भी स्थानिवगाय से देववत् पूज्य है, यही अभेद है ॥३॥ गुणकर के एक देवके नाम अनेक होते हैं। जिस तरह पूज्यता से "अहन्” कहते है। इसी को "तीर्थ" याने “शासन" उसके करने से 'तीर्थकर" भी कहते हैं। अंतरंग शत्रुओं को जय करने से 'जिन" कहते हैं। राग द्वेष रहितता से "वीतराग" कहते हैं। सर्वलोकालोकप्रकाशक ज्ञान युक्त होने से "सर्वो" भी कहते हैं । इत्यादि अनेक नाम है। परंतु नाम वाला एक ही है ऐसी मति गुपने सिखाई है ॥४॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020453
Book TitleKushalchandrasuripatta Prashasti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManichandraji Maharaj, Kashtjivashreeji Maharaj, Balchandrasuri
PublisherGopalchandra Jain
Publication Year1952
Total Pages69
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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