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( ५४ )
फायदे मूंड मूंडाया है ॥ २ ॥ बिना कुछ देखे वेद वचन पर किस तरह प्रतीति होगी, और प्रतीति न होने से यद्यपि ऊपर से कुछ न कहेगा, तथापि मन में सब झूठ समझेगा ॥ ३ ॥ ये साधन ग्रन्थों मैं नहीं है, गुरुगम्य से ही किसी को मिलते हैं । देवराज को भी दुर्लभ ऐसा ध्यान संत लोग लगाते हैं ॥ ४ ॥
"ज्यों का त्युं आतम को जाने"
जैसा श्रात्मा का स्वरूप है, उसको उसी तरह से यथार्थ जानना, यही असल फकीरी है, क्योंकि जैसे फकीर सर्वत्यागी होता है, इसी तरह इसने भी सर्व त्याग कर, केवल आत्मस्वरूप का ज्ञान किया है, और तन मन कि जो दुरस्ती का बनाना याने अशुभ व्यापारों ( प्रवृत्तियों) से रोक कर शुभ व्यापार में प्रवतना इसीको अमीरी कहते हैं। क्योंकि अमीर जैसे शरीरादिक की शोभा करता है, ऐसे इसने भी तन मन की दुरुस्ती करी है ॥१॥ तन मन मति को आत्मा कर मानना, यह बजीरी सेज हैं, क्योंकि आत्मा के वजीर समान तन मन मति है, इन्हीं पर यह रह गया, श्रागे बढ़ा नहीं, सुलतानी दरजा जो आगे है, जहाँ अनहत तूर बजते हैं, “सोऽहं” ज्ञान होकर, शुद्ध सच्चिदानंदमय होना, सा हो लाल गंभीरी है, क्योंकि शुद्ध ज्योति का लाल वर्ण श्रारोपतः मानते हैं ॥ २ ॥ वहां जो लज्जत उसको मिलती है, वह श्रवाच्य है, परंतु दृष्टांत कर बताते हैं कि, जगत में अमृत उत्तम पदार्थ है किन्तु श्रमृत में जो लज्जत है, सो उस लज्जत की कुछ सीरी है, अर्थात् कुछ अंश है, याने अमृत से भी बहुत अधिक अनंत वहां लज्जत है, और इस खलकत में ( दुनिया ) जो कुछ चेतनता दिखाई देती है, उसमें सब उसी चिदानंद ब्रह्म की ही अकसीरी याने शक्ति छाय रही है ॥ ६ ॥ जैन मत में ज्ञान कला सो ही धन है, जो निज रूप याने श्रात्मस्वरूप दिखा रही है, इसके साधन की भी
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