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(४७ )
इन्द्र सूत्र में
"कर्म को निदान सुनों जती सती लोग" हे जती, "सती" सर्व लोगों, कर्म का निदान, याने क्रिया का निर्णय सुनो, क्यों कि इसी में शान, और इसी में योग बसता है॥१॥ पूर्व में पूर्ण के अंग नहीं लखे जाते हैं, जिस तरह पैसे में दाम लमा रोहै, पैसा मूल है, सो अभंग है। इसी तरह पूर्ण में पूर्ण के अंग समाय रहे हैं, और पूर्ण अभंग है ॥२॥ पेला मूल यद्यपि अभंग है, तथापि उसकी कौड़ी अनेक कामों में पृथक पृथक् उपकार कर सकती है। इसी तरह पूर्ण का ज्ञान भी नाना विषयोपयोगी है। यह दोनों वस्तु जब श्रात्मा में प्रतिबिंब हो जायगी, उसी समय पूर्ण और पूर्ण के अंगों की लखान हो जायगी ॥ ३ ॥ ज्ञान, कर्म, वायु, प्रमुख लाखों प्रतिबिंब पदार्थ हैं, जैसे चंद्र का कपूर, और सूर्य का बिंब याने दर्पण प्रतिबिंब है ॥ ४॥ बिंब कुंशान किंचित् मंद लखाता है, यही प्रथम क्रिया भई, ऐसा वेद कहते हैं। पूर्णता रहित जो ज्ञान है सोई व्यापार है, व्यापार है उसीका कर्म नाम है, ऐसा निश्चय है॥६॥ कर्मों से भीतर का भाव मालुम होता है। कर्म है तो भावों के प्रतिबिंब है। यह प्रगट न्याय है ॥७॥ प्रतिबिंब, और देवन, में कहो अब क्या भेद रहा, अर्थात् कुछ न रहा। ज्ञान का विलास कर्म है, यही वेद कहता है । इति इन्द्रसूत्रम् । वृहस्पतिमत
धुरितक मति पहुंच जाय पथिक ज्युमुकाम" । जिस तरह मुसाफिर आखिरी मुकाम पर पहुंच जाता है, इसी तराजो बुद्धी "धुरितक" याने, पराकाष्टा तक पहुंच जाय, वहीअसल मत है, और उसी का नाम शान है ॥१॥ उसके साधन याग, तप, विरागादि, अनेक है, जो बेलाग सद्गुरु है, वे ही शिष्य को धुरतक
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