SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४६ ) धारण किया, ऐसा ही देव में भी धारणा, अर्थात् नग्न प्रतिमा प्रभु की एकांत में पूजनी, और समुदाय में वस सहित पूजनी ॥४॥ “धर्म के चरण च्यार यही" धर्म के यही ४ चरण हैं, दान १ शील २ तप ३ भावना, ४ इन के विना धर्म पूरा सघता नहीं, १ सर्व मतों में इसी तरह ४ चरणों की गिनती मुनियों ने कही है। सर्व मतों में एक ही बात आती है। घचन बोलने की चतुराई भिजामिन्न है, कोई इन चरणों को "अंतरंग" भीतर याने भावे मानता है, कोई "बहिरंग" बाहर याने द्रव्ये मानता है, ऐसे ही ग्रंथों में मथामथी है, परंतु भीतरं बाहर दोनों भाव मानने से सुख उपजता है, एक में केवल दुख की सहा सही है ३ अर्हन तो देव, और गुरु निग्रंथ, जो कोई से कुछ नहीं चाहते हैं, और एकांत में वास और जीवों पर दया, इतने में सर्व बात, याने धर्म का रहस्य रहा है ॥४॥ “पट् देवन के हैं सूत्र वने" इन्द्र, वृहस्पति, नारद, ब्रह्मा, विष्णु, हर, इन षट् देवों ने जो जो धर्म स्वरूप अपनी अपनी बुद्धी विलास से पृथक् पृथक एक एक बात कुं मुख्यता स्थापन करके, अपने अपने सूत्रों में रचना की है, उन सर्व रहस्यों का संग्रह, जैनमत में एकत्रित है. तद्यथाइंद्रसूत्र में कर्म प्ररूपणा, वृहस्पति सूत्र में शान स्थापना, नारद सूत्र में भक्ति की मुख्यता, ब्रह्मा सूत्र में जगत्स्वरूप, विष्णु सूत्र में जीव दशा स्वरूप, शिवसूत्र में भावना निरूपण है। इन सूत्रों में पूर्वोक्त इन छवों वस्तु का बहुत वर्णन है, और शुद्ध द्रव्य से पूजन विधि भी है। जिसके सुनने से मन को हर्ष होता है। और देवों के आयुध भूषणादिक का बहुत वर्णित है। और अवतार में भी ईश्वरता कु थाप कर डंका बजाया है। For Private And Personal Use Only
SR No.020453
Book TitleKushalchandrasuripatta Prashasti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManichandraji Maharaj, Kashtjivashreeji Maharaj, Balchandrasuri
PublisherGopalchandra Jain
Publication Year1952
Total Pages69
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy