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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५६ ) " " उतरा सो अवतार ० उतर के आया सो अवतार, वह ईश्वर किस तरह से हो सकता है, जिस तरह उतरा सहना मरदक होता है, और वह कर्ता भी नहीं है, ईश्वरता विगर पूज्य भी वह न होगा, और भगतन का उद्धार भी वह नहीं कर सकेगा ॥ १ ॥ तब अवतार क्या है ?, लाखो प्राणियों का भाव जब समुद्र सदृश बढ़ता है, और पुकार पड़ती है, तब उससे, याने उस समय में एक महाभाव याने श्रद्धितीय भाव ईश्वरता प्रादुर्भाव का कारण जो है, उसकी छाया पड़ने से, एक आकार बनता है, याने एक स्वरूप का जन्म होता है ॥ २ ॥ वह ईश्वरता के धर्मप्रवृत्ति प्रमुख कार्य लोक में साधकर सिद्ध याने मुक्त होता है, तब वहाँ भाव का विस्तार मिट जाता है, रहता नहीं, क्योंकि भाव मनोविषयक है, सो सिद्ध अवस्था में है नहीं, तब वह भाव ही के अनुसार सम्पूर्ण अवतार होता है || ३ || महाभाव की छाया पड़ने से उसमें अपार तेज चमक जाता है, तब वह देव, भाव को प्रकाशन करता है, और त्रिभुवन श्रृंगार होता है, ॥ ४ ॥ "नित पवन हिंडोला झूलि रहे" नित्य पवन हिंडोले में भूल रहे हैं, अथवा पवन का हिंडोला झूल रहा है, जीव कर्म वश, और इन्द्रिय, व मन, यह सब पवन के ही संग तन में आते हैं, और पवन ही के साथ निकल जाते हैं, ॥ १ ॥ इसी कारण से जगत में सर्व कर्म पवन के ही हैं, जीव उनको वृथा अपना कर मानता है, कर्म बंध भी इसी से है, और "चौराशी लाख योनियों में शरीर धारण भी मूर्ख इसी से करता है || २ || बात बात में जो यह चेते, याने समझे कि, सब कर्म यह पवन ही करता है, तो जड़ और चेतन की गांठ छुट जायगी, और निज स्वरूप में मगन हो जायगा ॥ ३ । तीन काल में वह अहिंसक रहेगा, उसको जप तप वगैरह साधन की कुछ जरूरत नहीं है । For Private And Personal Use Only
SR No.020453
Book TitleKushalchandrasuripatta Prashasti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManichandraji Maharaj, Kashtjivashreeji Maharaj, Balchandrasuri
PublisherGopalchandra Jain
Publication Year1952
Total Pages69
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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