Book Title: Anusandhan 2019 10 SrNo 78
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९) अनुसन्धान - ७८ श्री हेमचन्द्राचार्य प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि - अमदावाद October - 2019 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू(ठाणंगसुत्त,५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसन्धान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका | ७८ सम्पादक : विजयशीलचन्द्रसूरि ILDHIReshmmmm hiroiODDE 000VVVVVXI. श्रीहेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद ओक्टोबर - २०१९ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ७८ आद्य सम्पादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी सम्पादक : विजयशीलचन्द्रसूरि सम्पर्क: C/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ, अमदावाद-३८०००७ M. 9979852135 E-mail:s.samrat2005@gmail.com प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद-३८०००७ M. 99798 52135 (अतुल एच. कापडिया) (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१ फोन : ०७९-२५३५६६९२ प्रति : २५० मूल्य : ₹ 150-00 मुद्रक : क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोनः ०७९-२७४९४३९३) ७९-गला गाम, अमाभाई पटेल Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन एक शोध-सामयिकनुं सम्पादन ए केटली बधी सज्जता तथा निष्ठा मागी लेतुं काम छे, तेनो अहेसास 'अनुसन्धान'ना प्रत्येक अंके थतो रहे छे. कोईक साहित्यिक अने शोधपरक प्रवृत्ति करवानो शोख कहो के उत्साह, तेथी प्रेराईने सामयिकनो आरम्भ तो करी बेठा, परन्तु जेम जेम ते कार्य थतुं जाय छे, तेना विविध तबक्कामांथी पसार थवानुं बने छे, तेम तेम पोतानी ऊणपो विषे अने ओछी सज्जता विषे ख्याल आवतो जाय छे. शिक्षणनो आ पण एक प्रकार हशे ! आ प्रकारना सामयिक माटे सामग्री आपे-आपी शके तेवा लोको साव ओछा, गण्यागांठ्या ज. आ सामयिकना पांच-दश अंकोने उथलावीए तो ख्याल आवी जाय के गणतरीनां चोक्कस नामो छे, ने ते अवारनवार आवतां रहे छे. नवां नामो आववानी तो आशा अस्थाने ज, ऊलटुं, होय ए नामो पण ओछां थतां रहे. आ स्थितिमा त्रण विकल्पो संभवे : १. आ प्रवृत्तिमां रस अने भाग लेनाराओ वधारवा; जे बहु मुश्केल दीसे. २. जाते ज सतत ने सखत परिश्रम करीने सामग्री- संकलन-सर्जन करवू; आम करवू पडे ते जे ते सामयिकनो मृत्युघंट वगाडवा तुल्य ज गणाय. ३. नवोदितोने उत्प्रेरित करीने तेमने तेमना बरनी काची सामग्री आपीने तेमनी पासे लिप्यन्तरादि कराव; आमा सम्पादकनी जवाबदारी घणी बधी जाय; तेणे पेला नवोदितोए आपेली सामग्रीने सुधारवानी-मठारवानी रहे, अने तेमां तेमणे, समजण नहि पडवाने लीधे जे गरबड करी होय वा रहेवा दीधी होय, तेने वीणी-वीणीने सम्मार्जित करवी पडे. आ माटे अनेक रीतनी सज्जता जोईए, कल्पकता जोईए, सन्दर्भोनो स्मृति-बोध होवो जोईए; खास तो दरेक बाबतने शंकानी दृष्टिथी जोवानी कळा होवी जोईए. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ बधुं न होय तो प्रकाशन पामती सामग्रीमां केवी ने केटली क्षतिओ, सम्पादकीय सज्जतानी ओछाशने कारणे, रही शके ते समजवा माटे, आ अंकनुं 'विहंगावलोकन' जोQ जोईए. तेमां उपाध्याय श्रीभुवनचन्द्रजीए खूब सूक्ष्मेक्षिकाथी गताङ्कनी कृतिओ विषे अवलोकन आप्युं छे. ते वांचतां ज ख्याल आवे के सम्पादकनी सज्जता एटले शं, अने ते केवी होवी जोईए? ___'विहंगावलोकन' ए 'अनुसन्धान'- घरेणुं छे. ते न होय त्यारे अंक फीको पडी जतो अनुभवाय छे. सामग्री- सम्पादन बराबर न थयुं होय त्यारे, तेमांनी क्षतिओने शक्य प्रयत्ने सम्मार्जित करवानुं काम आ अवलोकन द्वारा थतुं रहे छे. आ माटे आपणे, अनुसन्धान, अवलोकनकारनो आभार माने तेटलो ओछो छे. ___वर्षों पूर्वे डो. मधुसूदन ढांकीए 'सिंहावलोकन' करी मोकलवा कहेलुं. एक वार मोकल्युं पण खलं. पण पछीथी न मोकली शक्या ! तेनी खोट "विहंगावलोकन' द्वारा पूरी थाय छे खरी. अस्तु. - शी. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 5 अनुक्रमणिका बे संस्कृत स्तोत्रो .. - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि १ अप्रगट पांच गुरुस्तोत्रो - सं. गणि सुयशचन्द्रविजय मुनि सुजसचन्द्रविजय ४ सागरमत छत्रीसीनी चउपई - सं. गणि सुयशचन्द्रविजय मुनि सुजसचंद्रविजय श्रीनंदिषेण रास - सं. सा. दीप्तिप्रज्ञाश्री ३२ एक हरियाळी - सार्थ - सं. सा. समयप्रज्ञाश्री ६५ पौराणिक नाम आधारित समस्यावलि - सं. उपा. भुवनचन्द्र ६८ गूढा - प्रहेलिका - समस्या हरियाली-६ - सं. उपा. भुवनचन्द्र ७४ गूढा - प्रहेलिका - समस्या हरियाली-८ - सं. उपा. भुवनचन्द ७७ जैन इतिहास, अक अजाण्युं पार्नु __ - शी. ८० विहंगावलोकन - उपा. भुवनचन्द्र ८७ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवरणचित्र-परिचय सरस्वती-हंसवाहनानुं एक प्राचीन चित्र. तेमां देवीना हाथमां अमृतभर्यु कमण्डल छे, तेमांथी अमृतरसनुं दान ते सामे ऊभेला बे साधकोने आपे छे, ते आ चित्रनी विशेषता छे. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बे संस्कृत स्तोत्रो - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि एक प्रकीर्ण पत्र, सम्भवतः १६मा शतकमां लखायेखें, तेमां बे सरस स्तोत्ररचनाओ प्राप्त थई छे. बन्ने प्रासादिक-प्रांजल रचनाओ छे. पहेली '२४ (वर्तमान) जिन नमस्कार' नामनी कृति छे. तेमां ११ पद्यो छे. एक आर्या छन्दमां अने एक त्रिभङ्गीसरीखा (द्विभङ्गी?) मात्रामेळ छन्दमां एम ११ पद्यो छे. ११मुं शार्दूलविक्रीडितमां छे. आन्तर-बाह्य प्रासनी योजना, आर्याना अन्तिम पद जेवा पद वडे ज पछीना छन्दनो उपाड-एम यमकनी छांटवाळां पद्यो, सुगम-सुग्रथित शब्दावलीबधुं मजानुं छे. तेना कर्ता, अग्यारमा पद्यमा निर्देश थया प्रमाणे 'ब्रह्मऋषि' छे. ते पार्श्वचन्द्रगच्छना साधु-कवि छे. बीजं स्तोत्र स्तम्भनपार्श्वनाथ- स्तोत्र छे, ते पण ११ पद्यप्रमाण छे. तेना कर्ता गच्छपति श्रीपार्श्वचन्द्रसूरिदादा स्वयं छे. तेओए स्तम्भनतीर्थ (खम्भात)मां ज आ रचना करेल छे. २४ जिन नमस्काराः ॥ महोपाध्याय श्रीहीरानन्दचंदसद्गुरुभ्यो नमः ।। श्रीवसुभूतितनूजं वन्दे श्रीगौतमाभिधं सदा साधुम् । सकललब्ध्येकनिलयं मलयं गुणचन्दनौघस्य ॥१॥ गुणगरिमामयं श्रीवामेयं नौमि सदा जनसौख्यकरं . सुरनरगणवन्द्यं नित्यमनिन्द्यं कष्टतरूदयमूलहरम् । शशधरसमवदनं समतासदनं पापदन्तिदलनैकहरिं कमठस्मयवारं त्यक्तविकारं भवसमुद्रसन्तारतरिम् ॥२॥ चरणकमलं गुरूणां प्रसादगेहं निरन्तरं नत्वा । स्तौमि जिनेशानित्थं ललितामलबन्धबन्धेन ॥३।। बन्धेन विहीनं शिवगतिलीनं वृषभजिनं वन्देऽहं कर्मारिभिरजितं श्रीजिनमजितं काञ्चनकोमलदेहम् ॥४॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ अभिनन्दनजिनराजं सुरासुराधीशनौतपदकमलम् । सुमतिं सुमतिसमेतं सेतुं संसारनीरनिधेः ॥५॥ नवनिधिसन्दोहं निर्जितमोहं पद्मप्रभमीडेऽहं भूषितभूपाचे प्रभुं सुपार्वं संवरवरनिधिगेहम् । चन्द्रप्रभ-सुविधी सन्मतिजलधी शीतलमपि च जिनेशं मुनिजनावतंसं श्रीश्रेयांसं परिभूताभिनिवेशम् ॥६॥ विश्वत्रयतापहरं वन्दे किल वासुपूज्यतीर्थकरम् । विमलं केवलि(ल)कलितं धर्मधुराधारकं धर्मम् ॥७॥ धर्मादरवन्तं कृतकर्मान्तं शान्ति शान्तिनिदानं प्रकटितशिवपन्थं जिनवरकुन्थु श्रीअरमाहतमानम् । कर्मद्रुकरीन्द्रं मल्लिजिनेन्द्रं मुनिसुव्रतमभिवन्दे भवभूरिभ्रमणे त्वविहितशरणे कृतमशुभं तन्निन्दे ॥८॥ नमिमानमामि नित्यं नेमि गुणशालिनं च पार्श्वप्रभुम् । सकलमहिमानिधानं सततं प्रणमामि वीरजिनम् ॥९॥ जिनजन्मावसरे मन्दरशिखरे चूडोपर्यभिषिक्ता गृहवास उषित्वाऽऽरम्भं त्यक्त्वा जाता भवाद्विरक्ताः । चिरसञ्चितपापं कृतसन्तापं मोहभटं त्वभिभित्त्वा शिवनिलयं याता जिनसङ्घातास्तनुसंयोगं हित्वा ॥१०॥ प्रत्युत्पन्नजिनेन्द्रसङ्घमनिशं ध्यायाम्यहं भावतो ये चाऽतीतजिना निरस्तवृजिना ये भाविनो भाविनः । एते मङ्गलकारका दिनमुखे संस्तूयमाना मुदा सन्तु ब्रह्ममनःसरोवरतटे हंसा इवाशाभृताः ॥११॥ इति जिन २४ नमस्काराः सम्पूर्णाः ॥ श्रीस्तम्भनपार्श्वनाथस्तवनम् ॥ मनोऽतिहन्त्रे शिवसौख्यदात्रे, संसारमज्जज्जनभीतिपात्रे । संमोहवल्लीवनराजिदात्रे श्रीस्तम्भनाधीश ! नमोऽस्तु तुभ्यम् ॥१॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ये त्वां जगन्नाथ ! जनाः प्रभात उत्थाय चित्तोद्यमतो नमन्ति । ते स्तम्भनाधीश ! तव प्रसादाद् विश्वत्रयीराज्यरमां लभन्ते ॥२॥ जिनेन्द्र ! मुक्तिं समलंचकार भवानिहाशापरिपूरणं कः । करोति भक्त्या नमतां जनानां मन्ये स च प्राभव एव भावः ॥३॥ त्वबिम्बदत्तेक्षणयामलस्य जनस्य ते भावयतः स्वरूपम् । एकाग्रचित्तस्य च पार्श्वदेव ! त्वमेव तेनेहितदायकोऽसि ॥४॥ मूर्तिस्तवेष्टे तरणेः समाना तमस्तमोध्वंसनसावधाना । विकाशयन्ती भविकाम्बुजानि संशोषयन्ती दुरितापगाम्भः ॥५॥ स्वामिन् ! ममानन्दभरस्तु तादृशो, जायेत यादृग् गदितुं न शक्यते । त्वद्दर्शनाच्चक्रचकोरबर्हिणां मार्तण्डशीतांशुघनेक्षणादिव ॥६॥ रत्नाकरः क्षारजलः शशाङ्कः साङ्क: सतापस्तपनः सुराद्रिः । कठोरभावो गतचित् सुरद्रुः कथं क्षमस्तैर्जिन ! आश्वसेने ! ॥७॥ उत्तम्भनः स्तम्भनपार्श्वदेव ! स्खलत्पदस्याहनि वा क्षपायाम् । मम त्वमेवासि - यत्र तत्र, प्रसद्य तद् देहि करावलम्बम् ॥८॥ माता पिता भ्रातृजनस्त्वमेव सखा गुरुः स्वाम्यकरस्त्वमेव । ममाऽपहर्ता विपदस्त्वमेव, श्रीपार्श्व ! भूयाः शरणं त्वमेव ॥९॥ शिरोऽक्षिदन्तश्रवणौष्ठकण्ठ-जिह्वाभुजाद्यङ्गविशेषजा माः । नश्यन्ति ते दर्शनतस्तवाशु, स्वामिन् ! मृगारेश्च यथा मृगाद्याः ॥१०॥ एवं स्तुतः प्रभुः पार्श्वः पार्श्वचन्द्रेण भक्तितः । स्तम्भनाख्ये महातीर्थे, चिन्तितार्थप्रदः सदा ॥११॥ इति श्रीस्तम्भनाधीशश्रीपार्श्वजिनस्तवनम् ॥ साध्वीश्री अजायबदे पठनाय ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ अप्रगट पांच गुरुस्तोत्रो - सं. गणि सुयशचन्द्रविजय मुनि सुजसचन्द्रविजय : : : : हस्तप्रत उपर लखायेला विशाळ के लघु, संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंशभाषामय ग्रन्थरत्नोने एक बाजु मूकी दइए तो पण, हस्तप्रतोनां छूटा-छवाया प्राप्त थता पानाओमां पण आपणुं घणुं साहित्य छुपायेलुं छे । 'पार्नु फरे... सोनु खरे...' ए वात तेमां हरहमेश सत्य पुरवार थाय छे । तेमां प्राप्त साहित्यमां अप्रकाशित पण घणुं छे । परन्तु, ते माटे सतत ज्ञानभण्डारनां छूटा पत्रो फंफोसता रहेवां पडे... अस्तु । प्रस्तुत ५ कृतिओ पण अमने २ अलग-अलग फूटकल पत्रमाथी प्राप्त थई छे, जे नीचे मुजब छे । (१) श्रीदीप्तिसागरसूरियशःस्तवः - (२) श्रीदीप्तिसागरसूरिगुरुराजवर्णनम् - (३) श्रीविजयप्रभसूरिस्तुतिकाव्यानि (४) श्रीगुरुस्तुति (५) श्रीविजयसिंहसूरिस्तुतिकाव्यानि - श्लो. १० आम जोइए तो आ पांचे कृतिओ सामान्य(सहज)गुणस्तवनामय छे; तेमां कोइपण गुरुभगवंत सम्बन्धी कोइपण ऐतिहासिक बाबतो आलेखायेली नथी । छतांय विविध छन्दोनो प्रयोग अने काव्यनी रसाळता कवि प्रत्ये आदर उपजावे तेवा छ । कृतिओ एकंदरे शुद्ध अने भावपूर्ण छ । कृतिकारे जेमनी स्तवना करी छे तेमां वि. प्रभसूरिजी अने वि. सिंहसूरिजी तो जगप्रसिद्ध छे । ज्यारे 'दीप्तिसागरसूरि' अप्रसिद्ध छ । कृतिमांथी के अन्य कोइ सन्दर्भसाहित्यमांथी तेमना जीवन-कार्यकाळ वगेरे कोइ विगत अमने प्राप्त थई नथी। तेज रीते कृतिकार अंगे पण कोइ नोंध प्राप्त थई नथी । संशोधनार्थे प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रत मेळवी आपवा बदल - 'श्रीनेमिविज्ञान-कस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर (सुरत)'ना कार्यवाहकोनो खूब खूब आभार । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ॥ श्रीदीप्तिसागरसूरियशःस्तवः ॥ सर्वर्द्धिवर्द्धिफलवर्द्धिपुरस्थपाक्, नत्वा नमद्भविकवाञ्छितसौख्यकारम् । श्रीदीप्तिसागरगणीन्द्रयशःसमूह, स्तोष्ये प्रहृष्टहृदयः सुदयः स्वभक्त्या ॥१॥ _ [वसन्त०] आखण्डलं स्माऽऽह शची कदाचिद्, याहि प्रभो ! मानुषविष्टपं द्रुतम् । तत्र व्रजित्वा कुरु मन्मनीषितं, त्यक्त्वाऽन्यकार्याणि हृदि स्थितानि ॥२॥ [उपजाति] सौभाग्यभाग्यादिगुणैर्मुनीश-श्चकास्ति यस्तद्भवकीर्तिमुक्ताहारं गुणैरेव ततः समुत्थैः, प्रोतं समानीय विधेहि ढौकितम् ॥३॥ [उपजाति] गुणा अनन्ताः किल तस्य साधोः, छिद्रं विना चारु विभाति कीर्त्तिः ।। ततः समर्थो न भवामि कर्तुं, कार्यं त्वदीयं हरिरित्यवादीत् ॥४॥ [उपजाति] क्रीडां करोति ननु यस्य यशो नवीनं, सन्मानसे सकलहंसगणच्छलेन । निःशेषदिग्गमनमाशु विधातुं(तु)कामं, कर्पूरपूरसितभं स्फुरति प्रकामम् ॥५॥ [वसन्त०] विलोक्य लोकप्रिय ! तावकीनं, यशः सितच्छत्रवपु(दु)ज्ज्वलं कलम् । धत्तेऽतिकाष्ण्यं भगणाधिराजः, स्वाङ्कस्थितैणस्य मिषाद् विजाने ॥६॥ [उपजाति] यस्तावकं शमिजनेश ! यशःसमूह, स्तोतुं मनागपि मना(सना) यतते मनुष्यः । जाग्रत्तरं लभति सोऽत्र तमेव विश्वे, कार्यं हि कारणमनुष्ठितमेव भाति ॥७॥ [वसन्त०] त्वत्तः समुद्भवयशः शरदभ्रतुल्यं, विभ्राजते सकलशुभ्रपदार्थदम्भात । जाने प्रतापनिवहश्च सुवर्णमुख्य-वस्तुच्छलेन शमिनामधिप ! त्वदीयः ॥८॥ [वसन्त०] व्योमाङ्गणं तारकितं विलोक्य, वितर्कयन्तीति बुधाः प्रकामम् । एता न ताराः किमु मण्डनानि, यत्कीर्त्तिकन्याविहितानि बाल्ये ॥९॥ [उपजाति] वदन्ति यच्चन्द्रमसि स्फुरन्तं, कलङ्कमन्ये शितितां निरीक्ष्य । बुधास्तु तन्नैव किमस्ति रोपं, निवेदयामः शृणुताऽऽशु यूयम् ॥१०॥ [उपेन्द्र०] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ निशापति पूर्णतमं सुभासं, जानीमहे कीर्त्तिकुमारिकायाः । शॉमिकां (रम्योर्मिकां) रूप्यमयीं मनोज्ञां, मुक्तां तया म्रक्षणकस्य काले ॥११॥ [उपजाति] भयं परेभ्य(:) प्रतिपद्यते जनः, क्वापि स्वतो नेति किल प्रतीतिः । चित्रं तवोदग्रतरप्रतापो(पात्)-तत्सेव(त्रस्तेव) कीर्तिर्भजते दिगन्तान् ॥१२॥ [उपजाति] तवाऽनुभावः सुधियामगम्यः, शङ्के प्रतापस्तपनातिशायी । म(मृ?)गेन्दुतापोपधिना जगत्त्रयी- दिग्-दिग्गतश्लोकवतो न कीर्तिः ॥१३।। [उपजाति] एकाकिनी यज्जगती भ्रमन्ती, यत्कीर्त्तिकन्या दधते न भीतिम् । तच्चित्रमस्मिन् हृदये ममाऽऽस्ते, किं भीरवो वाह्वयन्तो(?) हि रामाः ॥१४॥ अद्याऽपि यावल्लभते न कान्तं, यदुद्भवा कीर्त्तिकुमारिका यत् । रूपं तदस्या न हि चारु मन्ये, किं वा न सन्त्यर्हतमा गुणौघाः ? ॥१५॥ रूपं सरूपं च गुणाः सुरम्याः(म्या) जाने तु कश्चित् परिणेतुमर्हः । . अस्या न तस्मान् न वृणोति नून-मेषा धवं प्रोद्भटयौवनाऽपि ॥१६॥ युग्मम् ।। [इन्द्र०] परमसुखदं भव्यालीनां कृताघविमर्दनं, सुर-नर-वरंश्रेणीनूतं सदोज्ज्वलतान्वितम् । जलधरनिभं श्रेयःसम्पल्लतौघविवर्द्धने, स्तुतिपथमहं श्रीगौर्वीयं नव्या(या)मि यशोभरम् ॥१७॥ [हरिणी] ॥ श्रीदीप्तिसागरसूरिगुरुराजवर्णनम् ॥ सर्वर्द्धिवर्द्धिफलवर्द्धिपुरप्रसिद्धं, सम्यग् विनम्य निजभक्तिभरण पार्श्वम् । श्रीपाठकप्रवरपङ्क्तिप्रयोजभास्वत(च्)-श्रीदीप्तिसागरगणीन्द्रगुणान् स्तवीमि ॥१॥ त्वदी[य]सत्कीर्त्ति-यश:-प्रतापै-स्त्रिलोकनिःसञ्चरसन्निविष्टैः । निर्जिग्यिरे स्फाटिक-पौष्पदता(न्ता)-दयः पदार्थाः सकला अपि स्फुटम् ॥२॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ वचनरसतां पायं पायं तवाऽमरतां जनाः, शुचिगुणगणान् गायं गायं प्रमोदनिमग्नताम् । भजत सुविधौ स्थायं स्थायं जगज्जनगौरवं, चरणकमलं श्रायं श्रायं प्रयान्ति सुखास्पदम् ॥३॥ तात ! त्वत्पदपद(य)सेवनविधौ संसक्तचेता अपि, च - तानुगतां प्रवृत्तिमसकृत् कर्तुं प्रभुना(!)ऽस्म्यहम् । तन्मे मन्तुमहत्त्वमस्ति विभवः सर्वंसहाः स्युस्तथा ____ऽप्येवं चिन्त्य कृपालुतां भजत भो ! मय्याशु मत्वा शिशुम् ॥४॥ त्वत्सत्कीर्त्तिकुमारिकाकरतलक्रीडाघटः पुष्कर ___व्याजाद् राजति किं प्रकाशकरसच्छिन्नाणुभारान्वितः । मन्ये तन्मुखजप्रकाशनिवहस्यैकत्र जातश्रियः छायाभृत्प्रतिबिम्बमेष चतुरश्रेणीचमत्कारकृत् ॥५॥ तव मनःसरसीरुहसेवना-क्षणमपीह न हातुमशक्नुव(न्?) । मुनिमनोमधुपाः कुशला इवो-चितमुताशु निजार्थकृतो यतः ॥६॥ तव हृदयाम्बु-कुण्डान्-निपीय वागमृतममरतां यान्ति । विबुधा अपीह तदहो !, शङ्के नाऽतः स्मरन्ति स्वः ॥७॥ एतत् किं शशिमण्डलं ? नहि यतस्तत् सत्कलकं सदा, किं वा बिम्बमिदं रवेस्तदपि न प्रोत्तापितेजो यतः । इत्थं श्री गुरुराज ! हृष्टहृदयाः संतर्कयन्ते बुधा व्यो(व्या)लोक्याननमण्डलं गुरुतरं श्रीसुन्दर(रं) तावकम् ॥८॥ निःशेषसद्गुणनिधान ! तवाऽऽननश्री-संस्पर्द्धि पद्मपटलं सकलं प्रकामम् । स्पर्बोद्भवैः समभवद् बत पापपूरै-राजप्रसादविकल(लं) बहुकण्टकं च ॥९॥ मन्य(न्ये) त्वदीय व[द]नस्य लसद्विभूषा सम्प्राप्तये कुमुदिनीपतिरेष नूनम् । गत्वा वने प्रवरवृक्षशिखावलम्बी चक्रे तपः सुकुसुमस्तबकच्छलेन ॥१०॥ लिप्सुस्त्वदीयविलसद्वदनानुकारं, स्थ(स्था)णोः शिरःस्थित उषाधिपतिः प्रकामम् । मन्ये तपःकृशतनुं सुरशैवलिन्या-स्तीरे चिरं निवसति स्म हठात् [त]पस्वी ॥११॥ तव प्रभो ! श्रीगुरुराज ! भास्वद् - वक्त्राम्बुजं चन्द्रमिवाऽवलोक्य । सद्भक्तिभाजा(जां) भविनां प्रमोदा - दक्षीणि साक्षात् कुमुदन्ति कामम् ।।१२।। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ कलाकलापातिशयोपशोभितं, तवाऽऽननं चन्द्रमिवाऽवभासते । चित्रं नु मित्रोदयने महीयसी, बिभर्ति शोभां यददः पटीयसीम् ॥१३॥ नीतः स्तुत्या विनीतः सदसि सुरपतिश्लोकगीतः प्रतीतः ___कीर्त्या स्फीतः परीतः प्रवरगुणगणैर्दोषजालाद् बि(वि) भीतः । विश्वश्रोतः प्रपीतः प्रशमरसभरस्वान्तशीतः प्रणीतस्त्वत्सद्सा(ज्ज्ञा)नानुमीतः स्तद्ववि(?)जय चिरं भूतलेऽद्य(?)व्यतीतः ॥१४॥ इत्थं भक्त्याऽभिभूता गुणप्रभूता विशुद्धतरचित्ताः । श्रीदीप्तिसागराख्याः, प्रसन्नमनसो दिशन्तु मुदम् ॥१५॥ ॥ इति श्रीगुरुराजवर्णनम् ॥ श्रीविजयप्रभसूरिस्तुतिकाव्यानि स्वस्तिश्रियां स्थानन(म)मानसौख्य-प्रदायकं तीर्थपति प्रणम्य । सूरीश्वरं श्रीविजयप्रभाख्यं, प्रमोदवृन्दात् कवयामि काव्यैः ॥१॥ निधौतगाङ्गेयसमानदेहं, निःशेषभव्यावलिपूरितेह[म्] । कपू(y)रसंशुद्धगुणैकगेहं, श्रीमद्गुरुं हृष्टमना भजेऽहम् ॥२॥ स्वाभीष्टसौख्ये वरकल्पवृक्षं, पापान्धकारे दिनकृत्सदृक्षम् । षट्कायरक्षापरिबद्धंकक्षं, भक्त्या नमन्नागरलोकलक्षम् ॥३॥ निराकृताशेषविपद्विपक्षं, तपोग्निसम्प्लोषितकर्मकक्षम् । नारीकटाक्षाक्षतचञ्चदक्षं, नमामि भक्त्या सुगुरुं वलक्षम् ॥४॥ दुर्वादिभिर्नैव कदाऽपि जेयं, वाणीपराभूतघृतादिपेयम् । पापौघकृढुष्टजनेन हेयं, श्रीमद्गुरुं शुद्धमना नमेयम् ॥५॥ स्वर्गापवर्गाध्वनि सार्थवाहः, कल्याणकारस्करनीरवाहः । वचोरसैह(ह)र्षितकर्णजाहः, सदा गुरुर्मे जयतात् सुबाहु(ह:) ॥६॥ स्वकीयवंशे दिनकृत्समानः, प्रदत्तदुर्वादिगणापमानः । अनेकभूमीपतिसेव्यमानः, स श्रीगुरू रातु सदा रमानः ॥७॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ सम्प्राप्तविद्वत्परिषत्प्रतिष्ठः, सुगीष(ष्प)तिर्गीर(त)गुणैर्गरिष्ठः । विहारनि शितलोकरिष्टः, कुर्यात् सुखं मे सुगुरुर्वरिष्ठः ॥८॥ वर्याष्टमीचन्द्रविशालभालं, स्वकीयगत्या जितसन्मरालम् । मिथ्यात्वभाक्सर्वनृणा(णां) करालं, नमामि भक्त्या सुगुरुं त्रिकालम् ॥९॥ प्रणष्टनिःशेषमनोविकारं, सद्देशनाकृ(क्लू)प्तजनोपकारम् । गुरोः सकाश(शा)द् धृतगच्छभारं, ध्यायाम्यहं तं प्रवरावतारम् ॥१०॥ मोक्षाध्वसंसाधनसावधानं, जंजप्यमान(नं) प्रवराभिधानम् । सध्यानलीलाविहितावधानं, चारित्रलक्ष्मी(क्ष्मी) सततं दधानम् ॥११॥ अनेकशास्त्राणि विचारयन्तं, विशुद्धसिद्धान्तरसं धयन्तम् । सुदुर्जयं कामभटं जयन्तं, वन्दामहे गच्छपतिं वयं तम् ॥१२॥ [युग्मम्] भव्यावलीभूरिवनीवसन्तं, तपोमहोभिः सततं लसन्तम् । सुदर्शनं शीलगुणैर्हसन्तं, स्मराम्यहं तं हृदये वसन्तम् ॥१३।। वचोरसैरञ्जितनागराणां, गभीरिमाऽधःकृतसागराणाम् । प्रोत्सर्पदेनःकफनागराणां, पादौ श्रये साधुधुरन्धराणाम् ॥१४॥ सुधीजनैर्निर्मितसत्(त्प्र)शंसः, प्रख्यातवंशाम्बरचारुहंसः । विशालवृक्षावृषत्संदंसः(?), कुर्यात् सुखं साधुजनावतंसः ॥१५।। श्रीमद्गुरो ! तावकवक्त्रशोभया, पराजिता(तो) व्योम जगाम चन्द्रमाः । तत्राऽपि बिभ्यंस्तृणमादधौ मुखे, नो चेत् कुतस्तत्र कलङ्कपङ्कता ? ||१६|| स्पर्द्धा दधानः किल यामिनीशो, वक्त्रेण सार्द्धं तव साधुधुर्य! । कलङ्कपकं समवाप यस्मा-दश्रेयसा(सी?) साधुजनस्य गर्हणा ॥१७॥ विशालचक्षुर्द्वितयीदलाश्रितं, प्रोद्दीप्रदन्तद्युतिक(का)न्तकेसरम् । कनीनिकासद्भमरेण शोभितं, त्वद्वक्त्रपद्यं मुनिराज ! राजते ॥१८॥ विकाशमासादयति स्म शश्वन्, नक्तंदिवं म्लायति नैव कर्हिचित् । तेन त्वदीयेन मुखेन सार्द्धं, साम्यं विधत्ते कथमम्बुजन्मा(न्म) ॥१९॥ त्वदीयवक्त्रं शतपत्रमत्र, प्रभो ! विजाने कमलाश्रयत्वात् ।। जडस्य सङ्गं न करोत्यदः क्वचि-च्वेतश्चमत्कारम(मुपैति तत्र ॥२०॥ उश्म(?) स्तवाऽऽस्यं किल मानसं यं, चक्षुःसरोजद्वितयीविभूषितम् । विशुद्धदन्तच्छलतो यदीयां, सेवां विधत्ते शुचिहंसमण्डली ॥२१॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ गुरुदेह(मुख)वर्णनम् सारस्वतीयं पदपद्मयुग्मं, नत्वा कवित्वोचितबुद्धिहेतोः । प्रशस्यलावण्यगुणैकधाम, गुरोविभालङ्कृतमास्यमीडे ॥१॥ कान्त्या निर्जितमदनं, सर्वगुणैः संयुतं गुरोर्वदनम् । मौक्तिकसिताभरदनं, विपश्यतां तेजसः सदनम् ।।२।। जयत्यदो निर्मलकान्तिकान्तं, वक्त्रं त्वदीयं मुनिराज ! भव्यम् । नेत्रच्छलादब्जयुगार्चितं हि, भूयः प्रसन्नीभवता विधात्रा |३|| स्वामिन् ! त्वदाननरुचिं शुचितां दधानां, दृष्ट्वा सरोजमखिलं सुषमासुरम्याम् । जातं जलाश्रयमनूनषडंहिपङ्क्ति-व्याजाद् दधद(त्) [प्र]बलकार्ण्यमहो ! भुवीह ॥४॥ विभो ! त्वदास्यश्रियमाशु वीक्ष्य, चन्द्रः स्वकीयां तनुमुज्ज्वलामपि । चकार कृष्णां स्फुटलक्ष्मणो मिषात्, क्रुधाऽरुणः किं गगने गमित्वा ? ॥५॥ अनुचकार भवद्वदनोद्गतां, मुनिपते ! रमणीयतयाऽद्भुताम् । मुकुर एष ततोऽस्य मुखं रजा, वदति शुद्धिविधानमिषाज्जनाः ॥६॥ गौर्वीयवक्त्रामृतपात्रसुस्थं, वचोमृतं यान्ति जनाः प्रपीय । । इहाऽपि सन्निर्जरतामहो ! त-न्नैव स्मरन्ति स्वरिति प्रसिद्धिः ॥७॥ त्वदास्यलेशोद्भवचारुज्योत्स्ना-निरीक्षिताश्चन्द्रमसा स्फुरन्तीः । तस्मादुदेति स्फुटशेषरक्तो मध्ये शितिम्ना सहित]श्च सोऽयम् ॥८॥ इत्थं स्तुताः श्रीगुरवः सुभक्त्या, मया लसदेहविभाभिरामाः । नम्रीभवन्नाकिकिरीटमाला-पुष्पौघसङ्गन्धितपादपद्माः ॥९॥ -x श्रीविजयसिंहसूरिस्तुतिकाव्यानि स्वस्तिश्रियाश्रितलसच्चरणारविन्दं, नत्वा फलर्द्धिपुरपार्श्वजिनेन्द्रचन्द्रम् । सूरीश्वरं विजयसिंहगुरुं प्रमोदात्, स्तोष्ये नमद्भविककल्पितकल्पवृक्षम् ॥१॥ यद्या (दोर्ध्या) रुणद्धि दिविषत्तटिनीप्रवाहं, यो वा प्रमाणमखिलं प्रकरोति व्योम्नः । निर्माति तारकगणस्य यकश्च सङ्ख्या (ख्यां), सोऽपीह ते गुणगणान् गदितुं न शक्तः ॥२॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ सद्भक्तितः प्रणिपतामि मुनीन्द्रचन्द्रं, भव्यौघकैरवविबोध[न]चारुचन्द्रम् । दुष्पारसंसृतिदवानलदाहचन्द्रं, स्वश्वासगन्धपरिभूतसमूढचन्द्रम् ॥३॥ भव्यप्रतानमनईहितसौख्यकारं, मिथ्यात्वनैशिकतमस्तपनप्रकारम् । निःशेषविश्वजनताविहितोपकारं, श्रीमद्गुरुं श्रय सदा भुवि निर्विकारम् ॥४॥ दुर्वादिवत्रकजचन्द्र ! मुनिप्रतानः कोटीरहीर ! गिरिधीर ! मदावधीर ! । दुष्पापतापशिखरिप्रकरे समीर !, जीयाः शम(मा)ग्यसहकारविलासकीर ! ॥५॥ वाणीस्वद्(?)वचोभरविबोधितनागराणां, गम्भीरतापरिजिताखिलसागराणाम् । चेतश्चमत्कृतिविधायिगुणाकराणां, दुर्वादिवक्त्रकजमीलनभास्कराणाम् ॥६॥ निःशेषविस्मयविधायककीर्तिराजी राजीविनी भज मनोजजगत्तटाकैः । सौक्ति(प्र)युक्ति दिननायकदीप्रदीप्ति-प्रीतासुमन्निचयचञ्चुरचक्रवाकैः ॥७॥ कर्पूरपूरविशदप्रभू(भु)कीर्त्तिदीप्ति-विस्फूर्तिमूर्तिविनिरुद्धसमग्रनाकैः । प्रोन्मादिवादिनिकरोद्धरव(वा)रणेन्द्रा-हङ्कारधिक्कृतिविधानमृगात्र पाकैः ॥८॥ त्रैलोक्यमूर्द्धपरिधूननसावधान-श्चातुर्यवर्यजनरञ्जकचारुवाकैः (?) । ज्ञानप्रतानहरिदश्वमरीचिचक्र-प्रध्वस्तशस्तभुवनस्थलसत्रभाकैः ॥९॥ [वसन्त०] विश्वातिशायि-नयनप्रमदप्रधा(दा)यि-देहधुता जिन(त)लसत्कनकप्रभाकैः । विश्वम्भरावलयवल्लभमौलिमौलि-माणिक्यसुंदलिवरतर (सुंदरवर)द्युतिधौतमादैः ॥१०॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ सागरमत छत्रीसीनी चडपई - सं. गणि सुयशचन्द्रविजय मुनि सुजसचन्द्रविजय उपाध्याय धर्मसागरजी म. तथा तेमना ३६ बोल - पूर्वभूमिका तथा परिचय उपाध्याय धर्मसागरजी गणि १७मी सदीना प्रकाण्ड विद्वान, वादी तथा समर्थ ग्रन्थकार हता. तेओ तपागच्छनी परम्पराने ज जिनशासननी शुद्ध परम्परा मानता. अने तेथी ज तेमणे "उत्सूत्रकन्दकुद्दाल" ग्रन्थना आधारे पोताना नवा रचेला "औष्ट्रिकमतोत्सूत्रोद्घाटन कुलक" तथा "तत्त्वतरङ्गिणी" (सटीक) ए बन्ने ग्रन्थोमां अन्य गच्छोनी आकरी समालोचना करी हती. आ ग्रन्थोने कारणे तत्कालीन जैनसमाजमां घणो खळभळाट थयो. वळी तेना फळस्वरूपे विजयदानसूरिजीनी अध्यक्षतामां थयेल सम्मेलनमा उपाध्याय धर्मसागरजीने स्वप्ररूपणा बाबत ७ बोलना पट्टक पर "मिच्छा मि दुक्कडं" लखी आपवा पड्या हता. जो के ते पछी पण उपाध्यायजीए स्वमतनी प्ररूपणा शरु ज राखी जेने माटे पण तेमने एक वार १२ बोलना पट्टक पर तथा बीजीवार ५ बोलना पट्टक पर मिच्छामि दुक्कडं लखी आपवा पड्या हता. आम आटलुं बधुं बन्या पछी पण तेओ पोतानी प्ररूपणाओने ते ज रीते वळगी रह्या. अरे एटले सुधी के त्यारपछी सं. १६५०मां फरी तेमणे पोताना मतनी प्ररूपणाओने रजू करतो "सर्वज्ञ शतक" नामनो ग्रन्थ पण रच्यो. सं. १६५३-५४ आसपास उपाध्यायजीनो काळधर्म थतां तेमना मतना रागी पं. नेमविजयजी, पं. भक्तिसागरजी, पं. मुक्तिसागरजी जेवा विद्वानोए सागरमतनी प्ररूपणाने ३६ बोलनुं स्वरूप आपी पोते रचेला "प्ररूपणाविचार, १८ प्रश्नो, केवलीस्वरूप सज्झाय" वगेरे ग्रन्थोमां सागरमतनी प्ररूपणाने पुष्टि आपी. तो बीजी बाजु उपाध्यायजीना मतने खोटो माननारो पण एक वर्ग हतो. जेमां महोपाध्याय सोमविजयजी, महोपाध्याय यशोविजयजी, कवि ऋषभदासजी जेवा विद्वान पुरुषोए स्वरचित छत्रीस बोल स्वरूप, षट्त्रिंशज्जल्प (सटीक), प्रतिमाशतक (सटीक), बारबोल रासादि स्वतन्त्र ग्रन्थोमां तथा कल्पसूत्र-सुबोधिका टीका जेवा ग्रन्थोना अवान्तर विषयोमा उपाध्यायजी म.ना मतनुं शास्त्रपाठ आपी खण्डन कर्यु. आम बन्ने पक्ष पोतपोताना मतने सिद्ध करवाना प्रयत्नो करता रहेता. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ १३ अहीं सम्पादित कृति पण ते ज ३६ बोलनुं वर्णन करती लघुरचना छे. जो के कवि जयविजयजी उपाध्यायजीना मतने अयोग्य गणता होवाथी तेमणे अहीं शास्त्रोना नामोल्लेख करवा पूर्वक पोताना पक्षनी मान्यता रजू करी उपाध्यायजीना मतनु खण्डन कर्यु छे. एकंदरे कृतिना शब्दो सरळ छे तेथी ते सन्दर्भे बीजु कशुं न लखता अमे वाचकोनी सुगमता माटे ते बन्ने मतोनी ट्रॅकनोंध तथा कृतिमां उल्लिखित ग्रन्थोनी सूचि अहीं रजू करी छे. संलग्न बीजी कृति कवि जयविजयजीनी ज सुगुरु-कुगुरुनु वर्णन दर्शावती रचना छे. कृतिना शब्दो सरळ होइ विशेष कशुं लखवानी जरूर नथी. प्रथम कृतिनी हस्तप्रतमां ज छेवाडे उपरोक्त सज्झाय पण लखायेली होइ अहीं तेनुं साथे ज सम्पादन करायुं छे. खास तो सम्पादनार्थे प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रत Xerox आपवा बदल खम्भातना अमरशाळा ज्ञानभण्डारना व्यवस्थापकश्रीनो, मनुदादानो तथा डॉ. कीर्तिभाईनो खूब खूब आभार. कृतिकार जयविजयजी ___काव्यमां मळती नोंध मुजब तेओ उपा. कल्याणविजयजीना शिष्य हता. जैनपरम्पराना इतिहास (भा.४)मां कल्याणविजयने पू. हीरविजयसूरिजीना शिष्य कह्या छे. आम कवि जयविजयजी हीरविजयसूरिजीनी परम्पराना साधु छे. अन्यत्र तेमना जीवनचरित्रनो विशेष कोई परिचय मळतो नथी. परन्तु सं. १६६७ना मळता विजयसेनसूरिजीए आपेल क्षेत्रादेशपट्टकमां तेमनुं नाम जोवा मळे छे. जो के त्यां ज बीजुं पण एक जयविजयजी नाम लखायेलुं देखाय ३६ बोलनी ढूंकनोंध उत्तरपक्ष सागरमत १. सूक्ष्म निगोदने अव्यवहारी अने ते १. तेओ सूक्ष्म तथा बादर निगोदने तथा सिवायना पांचने व्यवहारी माने छे. सूक्ष्म पृथ्वी, सूक्ष्म अपकाय, सूक्ष्म तेउकाय तेमज सूक्ष्म वायुकाय ते ६ने अव्यवहारी माने छे. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ २. केवलीना शरीरथी त्रस जीवो २. केवलीना शरीरथी त्रस अने स्थावर अवश्यपणे हणाय. जीवनी विराधना सर्वथा थती नथी. ३. केवलीना शरीरथी जीवघात थवा ३. केवलीना शरीरथी जीवघात ज थतो छता आरंभिकी क्रिया तेमने लागती नथी. नथी. ४. मरीचीना वचनने उत्सूत्रवचन माने ४. मरीचीना वचनने दुर्भाषित वचन माने छे. ५. जमालीना पंदरथी लइ अनन्त भवो ५. जमालीना अनन्त भवो ज कहे छे. कहे छे. ६. "परपक्षीना पण धर्मकर्म (सकतो)नं ६. "परपक्षीना धर्मकर्म (सुकृतो)नुं अनुमोदन करवानी ना न कहेवी" अनुमोदन करवाथी मिथ्यामति तेवू कहे छे. थवाय" एम जणावी तेओ तेमनी अनुमोदनानी ना कहे छे. ७. उत्सूत्रभाषीने संख्यात, असंख्यात ७. उत्सूत्रभाषीने नियमेन अनन्त संसारी तथा अनन्त संसार पण होई शके कहे छे. छे तेवू कहे छे. ८. प्रभु वीर निर्वाण थकी ९९३ वर्षे ८. प्रभु वीर निर्वाण थकी ४५३ वर्षे चोथना दिवसे पर्युषणपर्वनो प्रारम्भ चोथना दिवसे पर्युषणपर्वनो प्रारम्भ थयारों कहे छे. थयार्नु कहे छे. ९. श्रावकने द्रव्यस्तव तथा भावस्तव ९. श्रावकने फक्त द्रव्यस्तव ज होय बन्ने होय तेवू कहे छे. तेवू कहे छे. १०. "कुलमण्डनसूरिजी तथा ज्ञान- १०. कुलमंडणसूरि तथा ज्ञान-सागरसरिने सागरसूरिजी तपागच्छनी पट्टावलीमा तपागच्छनी पट्टावलीमां गणे छे. नी" एवं जणावे छे. ११. तेओ देश विसंवादी ७ तथा सर्व ११. तेओ परपक्षीमात्रने पण निह्नव माने विसंवादी १ एम कुल ८ निह्नव छे. माने छे. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ १२. ऊर्ध्वलोकमां रहेली प्रतिमा ७ १२. ऊर्ध्वलोकमांनी प्रतिमा केवळ ७ हाथथी ५०० धनुष सुधीनी ऊंची हाथनी ज ऊंची होवानुं तेओ कहे होवानुं कहे छे. १३. पूनम तथा अमासनी आराधना यति १३. पूनम तथा अमासनी आराधना (साधु) तथा श्रावक बन्ने करे तेवू फक्त श्रावक ज करे तेवू कहे छे. छे. कहे छे. १४. परपक्षी कृत चैत्यो पण मोक्ष माटे १४. परपक्षी कृत्त चैत्यने (वांदवा वांदवायोग्य तथा पूजवायोग्य कहे पूजवा माटे) अन्य देवनी पेठे छे. त्याज्य गणे छे. १५. समकितदृष्टि के मिथ्यादृष्टिवाळो १५. फक्त सम्यक्त्वधारीने ज तेओ जीव होय परंतु धर्मनी रुचिवाळो क्रियावादी गणे छे. होय तो तेने क्रियावादी गणे छे. १६. (केटलाक गच्छवाळा) श्रावको रात्रे १६. "रात्रे पोसह लइ सवारे छल्ला पहोरे पोसह लइने प्रातःकाळे छल्ला सामायिक उच्चाराय" ए वचनने प्रहरमा सामायिक तो छ एवं माने उत्सूत्र माने छे. १७. दिगम्बरादि श्रावकोने पण जैन कहे १७. दिगम्बरादि श्रावकोने जैन कहेवानो. निषेध करे छे. १८. तीर्थंकरमां देवतत्त्व (पणुं) तथा १८. तीर्थंकरमां देवपणुं ज छे गुरुपणुं गुरुतत्त्व (पणुं) बन्ने होय एम नथी एम कहे छे. कहे छे. १९. नमि तथा विनमिने प्रसन्न थई १९. नमि तथा विनमिने धरणेंद्रे प्रसन्न धरणेन्द्रे ४८००० विद्या आप्यानुं थई ४८ विद्याओ ज आपी होवार्नु कहे छे. कहे छे. २०. पृथ्वीनी संख्या सात अथवा आठ २०. विमानने आधारभूत एक पृथ्वी ने माने छे. __प्रतर-प्रतर दीठ पृथ्वीओ कहे छे. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अनुसन्धान-७८ २१. अनुमोदना तथा प्रशंसा ए बने २१. अनुमोदना तथा प्रशंसा ए बन्ने . शब्दोने (अर्थथी) एक माने छे. शब्दोने अर्थथी जुदा माने छे. २२. भरतक्षेत्रमा आपणाथी अगोचर २२. तेमने मते तपागच्छ सिवाय बीजे क्षेत्रमा पण (परपक्षीमां पण) क्यांय साधुपणानी सम्भावना नथी. साधुपणुं तेओ माने छे. २३. परधर्मी- करेलुं धर्मानुष्ठान जेम २३. तेओ परपक्षीनुं धर्मानुष्ठान "उठ अकाम-निर्जरारूपे नथी होतुं तेम बेसनी जेम' निरर्थक समजे छे. ते अज्ञान कष्ट रूपे पण थतुं नथी तेवं माने छे. २४. भगवतीसूत्रनी चतुर्भंगीमां २४. ते पाठनो अर्थ कईक भिन्न करे छे. "शीलसंपन्ने"नो अर्थ सुतसंपन्न करे छे. २५. लौकिक मिथ्यामतिने भारे-कर्मी २५. तेओने मते लौकिकमिथ्यामति तथा लोकोत्तरमिथ्यामतिने हळुकर्मी करता लोकोत्तरमिथ्यामति वधु भारे कहे छे. कर्मी छे. २६. पू. हीरविजयसूरिजीए बार बोलमा २६. तेमणे "मार्गानुसारी" शब्दनो कोई "मार्गानुसारी" शब्दनो जे अर्थ कर्यो जुदो ज अर्थ को. ते जुदो हतो. २७. पू. सोमतिलकसूरिजी वडे जिनप्रभ- २७. जिनप्रभसूरिजीनी अनुमोदना करता सूरिजीनी अनुमोदना कराई ते तेमना पू. सोमतिलकसूरिजी तेमना आचरणने योग्य गणे छे. (सागर-) मते अज्ञानी हता. २८. पापकर्मनी आलोचना ते ज भवमां २८. पापकर्मनी आलोचना जो ते ज के भवान्तरमां पण करी शकाय तेवू भवमां थाय तो ज ते पापकर्म छूटे तेओ माने छे. अन्य भवमां ते पापकर्म छूटतां नथी तेवू तेओ माने छे. २९. "कुमतिकुद्दाल" ग्रन्थने तेमणे २९. तेमणे "कुमतिकुद्दाल" ग्रन्थनी जे अप्रमाणिक ठेरवी जलशरण निन्दा करे तेने समकित रहित कराव्यो हतो. कह्या. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ १७ १५ ३०. तव्वसेण य इत्यादि पाठ कोइए ३०. ठाणांगसूत्रनी वृत्तिनो "तव्वसेण बदल्यो होवानुं मानता नथी. य" इत्यादि पाठ कोइ असंयतीए बदली नाख्या- कही तेमने 'गमार' कहे छे. ३१. तेओ कुलमंडनसूरिना समर्थनथी ३१. तेओ "अट्ठमि पन्नरसीसु" ए गाथा __ "अठमि पन्नरसी" ए पाठ योग्य पाठ पण कोइ कुपाक्षिक वडे गणे छे. बदलायानुं माने छे. ३२. "कसेलानु गळी स्वच्छ करेलुं पाणी ३२. तेमना मते तो कसेलानु आq पाणी २ घडी पछी तिविहारना पच्च- (तिविहारना पच्चक्खाणवाळाने) क्खाण वाळाने कल्पे" तेवो आमनो कल्पे ज नहीं. मत छे. ३३. "उदधाविव सर्वसिन्धव" ए पाठने ३३. "उदधाविव सर्वसिन्धव" ए योग्य माने छे. वचनने असंगत माने छे. ३४. अभव्यजीवने व्यक्तमिथ्यात्व माने ३४. ते मना मते अभव्य जीवने अव्यक्तमिथ्यात्व ज होय. ३५. व्यवहार राशिमां आवेलो जीव ३५. व्यवहार राशिमां आवेलो जीव उत्कृष्टथी अनन्त पुद्गलपरावर्त उत्कृष्टथी असंख्य पुद्गल-परावर्त (भवभ्रमण) करी मोक्षे जाय. (भवभ्रमण) करी मोक्षे जाय. ३६. परपक्षीने पण नवकार मंत्र गणता ३६. परपक्षीने नवकार मंत्र गणता समये घणो लाभ थाय तेवू माने छे. समये अनन्त संसारनी वृद्धि थाय तेवो आमनो मत छे. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ शब्दकोश १. पाडइ = पाडामां, महोल्लामां २७. अधीत्य = कथित २. श्रुतलव = ज्ञाननो लेश २८. सविस्त्र = विस्तार सहित ३. नवलइ = नवा २९. माहू = ४. दंद = द्वन्द्व, झगडो ३०. गंडिका = नानी साइझनुं पुस्तक ५. गाढेरा = मोटा (?) ३१. तडोवडइ = समानपणे थाय ६. लवे = बोले ३२. उद्धत उनमाद = गविष्ट व्यक्तिना ७. आमलओ = द्वेष तोफान ८. अखइ = कहे ३३. ओदार = उदार ९. शयरि = शरीरथी ३४. बकई = बोले १०. आहेडी = शिकारी ३५. बोल्यो = डूबाड्यो ११. प्रवचन = परिखा - "प्रवचन- ३६. असरालि = सम्पूर्ण (?) परीक्षा" (ग्रन्थ, नाम) ३७. वडवडओ = प्रसिद्धि पाम्यो (?) १२. रती = एक नानुं माप, थोडंक . ३८. कहिण = कथन १३. मती = 'नहीं' ना अर्थमां ३९. फासू = प्रासुक, निर्दोष के निर्जीव १४. रोक = ४०. कसेलउ = कषायलो (तूरो स्वादनो) १५. झोटिंग = भूत, रखडेल माणस ४१. नीरिउ = ? (नीर्यु - पीरस्युं ?) १६. डींग = गपाटा ४२. सूझइ = वपराय-कल्पे-खपे १७. चूरणइ = चूर्णिमां ४३.खपी = श्रेयार्थी संयमनो अर्थी १८. कविल = कपिल (व्यक्ति नाम) ४४. मंख = भिक्षुक १९. मुणउ = जाणो ४५. नुकार = नवकार २०. सद्दहइ = स्वीकारे ४६. मणा = खामी २१. सागरमती = सागरमतवाळा ४७. निटोल = निर्लज्ज २२. तिसिउं = तेवू ४८. धणुही = धनुष्यमां २३. कालसत्यरी = काल सित्तरि (ग्रन्थ ४९. गोड = ? नाम) ५०.खोड = उणप २४. कूइ = कूवो ५१. नीड = (नेट-निश्चये)? २५. दूषी = खोटी पाडी, दूषित करी ५२. व्यासंग = आसक्ति २६. शिवाय = मोक्ष माटे Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ग्रंथ- नाम बोल नं. ग्रंथy नाम बोल नं. १. पन्नवणा सूत्र-वृत्ति → १ २७. उपदेश माला प्रकरण-हेयोपादेयावृत्ति २. उपमितभवप्रपंचाकथा →१ →५ ३. समयसार सूत्र-वृत्ति → १ २ ८. उपदेश माला प्रकरण-सर्वानन्दसूरिनी ४. योगशास्त्र सूत्र-वृत्ति → १, ४, १७ वृत्ति → ५ ५. प्रवचन सारोद्धार सूत्र-वृत्ति → १ २९. प्रश्नोत्तर समुच्चय → ५, ७ ६. भवभावना प्रकरण-वृत्ति → १, ३५ ३०. उपदेश माला प्रकरण - बालावबोध ७. कायस्थिति प्रकरण-वृत्ति → १ →५ ८. श्रावक दिनकृत्य प्रकरण-वृत्ति → १,४ ३१. चउसरण पयन्ना → ६ ९. लघु संग्रहणी प्रकरण-वृत्ति →१ ३२. आराधना-पताका → ६ १०. पुष्पमाला प्रकरण-वृत्ति → १ ३३. पंचसूत्री-वृत्ति → ६ ११. दर्शनशुद्धि प्रकरण → १, १४ ३४. महानिशीथ सूत्र → ७, २२ १२. धर्मरत्न प्रकरण-वृत्ति → १ ३५. ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र → ७, २८ १३. भगवती सूत्र-वृत्ति → २, ३, २० । ३६. आवश्यक नियुक्ति वृत्ति → ७ १४. आचारांग सूत्र-वृत्ति → २ ३७. उववाई सूत्र-वृत्ति → ७, २८ १५. प्रवचन परीक्षा → ३ ३८. विचारामृतसंग्रह → ८, २९ १६. सर्वज्ञ शतक → ३ ३९. श्राद्धविधि विनिश्चय → ८ १७. आचारांग सूत्र → ४ । ४०. काल सित्तरि प्रकरण → ८ १८. भगवती सूत्र → ४, ५, ६, ७, २४ ४१. दुःसम दंडिका प्रकरण-अवचूरि → १९. श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र-चूणि → ४ २०. पंचाशक प्रकरण-वृत्ति → ४, ९, ४२. प्रबंध-चतुर्विंशति → ८ १८, २० ४३. भरहेसर-बाहुबलि वृत्ति → ८ २१. श्राद्धविधि प्रकरण-वृत्ति → ४, ८, ४४. दीवाळी कल्प → ८ १०, १४ ४५. संदेह विषौषधि → ८ २२. उपदेश रत्नाकर प्रकरण-वृत्ति → ४, ४६. गुर्वावली → १० ९, १५ ४७. आरम्भसिद्धि-वार्त्तिक → १० २३. वीर चरित्र → ४, ७ ४८. क्रियारत्न समुच्चय → १० २४. वीर चरित्र-प्राकृत → ५ ४९. गच्छाचार पयन्ना → १० २५. उपदेश माला प्रकरण-कर्णिकावृत्ति → ५०. आवश्यक बृहद्वृत्ति → ११ ५१. विशेषावश्यक-वृत्ति → ११ २६. उपदेश माला प्रकरण-दोघट्टीवृत्ति→५ ५२. ठाणांग सूत्र-वृत्ति → ११, २९ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ ग्रंथ, नाम बोल नं. ग्रंथनुं नाम बोल नं. ५३. राजप्रश्नीय सूत्र-वृत्ति → १२ ६४. दूसम दंडिका → २१ ५४. दशाश्रुतस्कंध सूत्र-चूणि → १५ ६५. प्रश्नोत्तर संग्रह गंडिका → २२ ५५. पंचाशक प्रकरण-चूणि → १६ ६६. योगबिंदु → २५ ५६. षट्दर्शन समुच्चय-वृत्ति → १७ ६७. बार बोल → २६ ५७. ललित विस्तरा-वृत्ति → १८, २०, ६८. कुमतिकुद्दाल → २९ ६९. उपदेश पद-वृत्ति → ३३ ५८. आवश्यक सूत्र-वृत्ति → १९ । ७०. गुणस्थान क्रमारोह → ३४ ५९. ऋषभ चरित्र → १९ ७१. बृहत्संग्रहणी-वृत्ति → ३५ ६०. पन्नवणा सूत्र → २० ७२. उपदेशमाळा - वृत्ति → २३ ६१. जीवाभिगम सूत्र → २० ७३. श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र-वृत्ति → २८ ६२. तत्वार्थसूत्र-वृत्ति → २० ७४. श्राद्धविधि प्रकरण (मूळ?) → २८, ६३. तत्त्वार्थसूत्र-भाष्य → २० २१ ३२ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ सागरमत बोल छत्रीसनी चउपई ।। ६० ॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥ ढाल-चउपईनो || विजयाचिंतामणि प्रणमी पाय, पामी सरसति तणउ पसाय, अग्यारमा मत बोल छत्रीस, सुह गुरु वचन लही प[भ]णीसु(स) १ भविक जीव संसय टालिवा, सम्यगदर्शन अजूआलिवा, सूत्र वृत्ति शास्त्र अणुसारि, सागरमतनउ सुणओ विचार. २ हाजा पटलनई पाडइ रह्यां, वचन श्रीविजयसेन गुरु कह्यां, प्रगटिओ मत हवई सागर तणओ, अग्यारमउ भविअण सवि सुणओ. ३ श्रुतलव मद-मत्सरि व्यापीया, ग्रंथ पंचावन ऊथापीया, केई प्रकरण केई अंग उपांग, ग्रंथ रच्यो एक नवलइ ढंगि. ४ सर्वज्ञ शतक ग्रंथ दीधुं नाम, सकल विरोध तणुं जे धांम, वांचि(ची)ओ वंचावि(वी)ओ मान्यो जेणि, गच्छभेद वली पाडि(डी)ओ तेणि. ५ विजयसेन गुरु जाणी करी, गच्छथी सागर दुर्रि(र) करी, सिष्य प्रतिइं सीखामण दीइ, माहरउ ते सागर नवि लीइ. ६ विजयदेवि सागरपख्य करि(री)ओ, तेणि करी दंद बहु विस्तरि(री)ओ, वली अधिक ते माथइ चढ्या, गाढेरा' ते कुमतिं पड्या. ७ छानो ग्रंथ करी राख्यो गोप, गच्छ-परंपर कीधउ लोप, गच्छ चउरासी निंदा कीध, पूर्व सूरिनई गालि ज दीध. ८ नवी परूपणा मांडी इसी, मुग्ध लोकनई हीअडइ वसी, सागर धर्म कहइ ते सार, ते विण नवि लहीइ भवपार. ९ इत्यादिक बहु लोक प्रसिद्ध, वचनविरुद्ध कहइ कुमतइं ली(लि)द्ध, जिनवचन विघटाडइ सवे, आप तणउ मत साचओ लवे. १० सकल धर्म ऊथापइ वली, आप कहावइ श्रुतकेवली, माया केलवी कहइ एणी रीति, मुग्ध लोकनई आवइ चीति. ११ हवइ आगम वचन सांभलउ(ओ), मूंकी निज मनथी आमलओ', राग दोस बइ दूरइं करी, श्रीजिनवचन हियामां धरी. १२ श्रीपन्नवणा वृत्ति मझारि, उपमितभवप्रपंच विचारि, समयसार सूत्र वृत्ति कही, योगशास्त्र सूत्र वृत्ति सही. १३ । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ प्रवचन-सारोद्धार सुवृत्ति, भवभावना वृत्ति प्रवृत्ति, कायस्थिति स्तवन वृत्ति भणी, श्रावकदिनकृत वृत्ति पणि गणी. १४ लघु संग्रहणी वृत्ति वखाणि, पुष्पमाला वृत्ति पणि जाणि, दर्शनसुद्ध प्रकरण ते भणओ, धर्मरत्न प्रकरण वृत्ति सुणउ (ओ). १५ इत्यादिक ग्रंथ अणुसारि, सूक्ष्म अनादि निगोद विचारि, कह्या जीवने अव्यवहारिया, ते टाली सवे व्यवहारिया. १६ सागरोवाचनिगोद सूक्षम बादर बेउ, सूक्षम पृथ्व्यादिक चउ भेउ, ए छएनइं अव्यवहारी भणइ, सागर सकल सास्त्र अवगणइं. १७ बोल-१ भगवति(ती) सूत्र वृ[त्ति] नई विषइ, आचारांग वृत्ति पणि अखइ', अवश्यइं भावी पणि सदीव, केवली-शयरि' हणाइं त्रस जीव. १८ सागसेवाचजउ केवली त्रस थावर हणई, तउ ते केवलीनइं कुण गणई, . ते केवली आहेडी० जाणि, एहवी छइ ए सागर वाणि. १९ बोल-२ भगवती सूत्र वृत्तिथी लहिउं, प्रवचन-परीखोमाहिं कडं (हिउं), जीवघात केवलीनइं थाइ, क्रिया आरंभ(भि)की नवि कहिवाइ. २० सर्वज्ञशतकमाहिं ऊचरइ, केवली जीव आरंभ नवि करइ, वडा सागर तणी दोइ वाणि, कहउ कुण खोटी कुण प्रमाण. २१ बोल-३ श्रीजिनवचन ऊथापइ रती१२, तेहनइं आपण कहीइ मती१३, तेहगें धर्म कर्म सवे फोक, अनंत संसारी कहीइ रोक ४. २२ आचारांग सूत्र भगवती, ऊथापइ ते कां नही मती, आपणा पुत्र परना झोटींग१५, एणइं न्याइं सागरमत डींग१६. २३ श्राद्ध-प्रतिक्रमण सूत्र-चूरणइं१७, पंचासक सूत्र वृत्ति भणई, श्राद्धविधिनी वृत्ति संभाली, प्रमुख ग्रंथमाहिं कहिउं पवित्र. २४ श्रावकदिनकृत वृत्ति सांभलउ, उपदेश रत्नाकर वृत्ति मिलउ, योगशास्त्र वृत्ति वीर चरित्र, प्रमुख ग्रंथमाहिं कहिउ पवित्र.1 २५ 1. २४-२५ कडीमां चोथु चरण समान छे. २४मां ते जुदुं होवू जोईए. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ २३ मरीचि भणई कविला१८ तुझे सुणउ, धर्म अछइ तिहां ईहां पणि मुणउ९, गच्छ चउरासी उत्सूत्र ए कहइ, सागर दुरभाषित सद्दहइ२० २६ बोल-४ जूउ विचारी भगवति(ती) सूत्र, प्राकृतबंध श्रीवीरचरित्र, उपदेश मालानी कर्णिका, दोघट्टी आगम-वणिका. २७ सर्वानंदसूरि कृत वली, उपदेशमाला वृत्ति अति भली, प्रश्नोत्तर समुच्चय सार, प्रमुख ग्रंथ तणइं अणुसारि. २८ जमालिनइं भव पन्नर कह्या, अपर शास्त्रि अधिकेरा थया, वली वृत्ति हेयोपादेय, उपदेशमालानी छइ जेय. २९ उपदेशमाला, उदार, बालावबोध तणइं अणुसारि, भव अनंता बोल्या वली, तत्त्वारथ जाणई केवली. ३० सागरमती२२ बोलइ एकांति, जमालि(ली)नई भव कह्या अनंत, भव पन्नर वली मानई जेह, मिथ्यामती कहीजइ तेह. ३१ बोल-५ श्रीचउसरण पइन्ना साखि, आराधना-पताका भाखि, पंचसूत्री ग्रंथ वृत्ति वखाणि, भगवतिसूत्र वृत्ति पणि जाणि. ३२ इत्यादिक सवे शास्त्र मझारि, वीतराग वचन अणुसारि, धर्म कर्म परपक्षी तणुं, अनुमोदवानुं ना नही भणिउ(गुं). ३३ सागर आहसागरमती ते एहq कहइ, अनुमोदना मिथ्यामति लहइ, जाणी आगम ऊथापइ जेह, भव अनंता पामइ तेह. ३४ बोल-६ श्रीमहानिशीथ सूत्र साचिलुं, ज्ञाताधर्म कथा पणि भलूं(लुं), आवश्यक नियुक्ति वृत्ति भली, भगवतीसूत्र विचारी आगली. ३५ उ[व]वाई वृत्तिमां बोलिउं इसिउं, प्रश्नोत्तर समुच्चय तिसिउं२३, वीर चरित्रादिक अणुसारि, उत्सूत्रभाषीनइ हुइ... (?) [संसारि?] ३६ अध्यवसायनई मेलइ कह्यउ, संख्यातउ असंख्यातउ गयु, अनंतउ पणि होइ संसार, श्रीजिनवचन इस्या उदार. ३७ सागरोवाचअत्सूत्रभाषीनइं अनंत संसार, सागरमती बोलइ निरधार, ज्ञानमदइं ते देखइ तहीं, एकांतई मिथ्यामति कही. ३८ बोल - ७ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ श्रीविचारामृतसंग्रहइ, श्राद्धविधि-विनिश्चि(श्च)य कहइ, श्राद्धविधि पणि सूधू भणइ, काल-सत्यरी४ मानो घणइ. ३९ दुसम-दंडिका तणी अवचूरि, भरहेसर-बाहुबलिवृत्ति पूरि, दीवाली कल्प कीजीइ, संदेह-वि[षौ]षधि लीजीइ. ४० कीजइ चउवीस प्रबंध विचार, इत्यादिक ग्रंथ अणुसारि, वीर थकी नवसई त्राणुंइ (९९३), कालिक चउथि पजूसण भणइं. ४१ तेणई समइ जे हुआ सूरीस, मानिउं तेणई नामी सीस, सागर कहइ च्यारसई त्रिहिपनइं (४५३), चउथि पजूसण आणिउं गणइ. ४२ अणघडतुं जे बोलइ वचन्न, ते ऊपरि किम मानइं मन्न, डाहा नर विचारी जूइ, देखी पेखी न पडइ कूइ२५ ४३ बोल-८ पंचासक सूत्र वृत्ति भली, उपदेश रत्नाकर वृत्ति वली, प्रमुख ग्रंथ तणइं अणुसारि, श्रावकनई बोल्यां जयकार. ४४ द्रव्यस्तव भावस्तव दोइ, जेणइ करी परमपद होइ, भावस्तव श्रावकनइं नहीं, एह परूपणा सागरि कही. ४५ बोल-९ । भरतेश्वर मरुदेवी मात, एलाचीपुत्र जूउ विख्यात, इत्यादिक गृहवासि वसंत, भावस्तवि पाम्या भव-अंत. ४६ श्राद्धविधिनइं गुर्वावली, आरंभसिद्धिनुं वार्तिक वली, क्रियारत्न-समुच्चय भणउ, गच्छाचार पइन्नइ सुणउ. ४७ ग्रंथ-पंच प्रशस्ति अणुसारि, ज्ञानसागरसूरि गणधार. श्रीकुलमंडणसूरीसरू(रु), ज्ञानगुणे जाणइं सुरगुरु. ४८ घणा ग्रंथ वली जोया मथी२६, तपगछपट्टमाहिं ए नथी, सागर संप्रति पटमां गण, बासट्ठिमां श्रीविजयदेव भणइ. ४९ बोल-१० वडी वृत्ति आवश्यक तणी, विशेषावश्यक वृत्ति भणी, श्रीठाणांग वृत्ति विख्यात, देश-विसंवादी निह्नव सात. ५० सर्व-विसंवादी निह्नव एक, निह्नव आठ बोल्या सुविवेक, पूनमियादिक निह्नव कहइ, ते कुण गुरुपरंपर लहइ. ५१ बोल-११ राजप्रश्नीयनी वृत्ति मझारि, ऊर्ध्व लोकि जिनप्रतिमा सार, पंच धनुःशत केरुं मान, संघाचार वृत्ति अनुमानि. ५२ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ सप्त हस्तनी प्रतिमा सही, एहवी वात जिणेसरि कही, राजप्रश्नीय वृत्ति दूषी२७ करी, थापी सप्त हस्तनी खरी. ५३ जो जो सागर- मतिज्ञान, सूत्र वृत्ति दूष्यां अभिमानि, श्रीजिनवचन ऊथापणहार, केहओ किम लहसइ भवनुं पार. ५४ बोल-१२ पुंनिम अमांसि सदा आराधि, यती श्रावकनई शिवसुख साधि, केवल श्रावकनई आराध्य जे कहइ, सही ते आगम अर्थ नवि लहइ. ५५ बोल-१३ श्राद्धविधिनइं दर्शनशुद्धि, प्रकरण सूत्र वृत्ति प्रसिद्धि, इत्यादिक ग्रंथ अणुसारि, सुविहित साधु परंपर सार. ५६ परपक्षीकृत चैत्य शिवाय, वांदिवा पूजिवा योग्य जणाय, सागर कहइ परपक्षी-चैत्य, होलीराय समान अधीत्य२९. ५७ बोल-१४ दशाश्रुतस्कंध चूरण(णि) भणी, उपदेश रत्नाकर वृत्ति घणी, समकित दृष्टि सुधा कह्या, अथवा मिथ्यामति सवि ग्रह्या. ५८ जेहनइं धर्म तणी रुचि होइ, क्रियावादी कहीजइ सोइ, सागर कहइ. विण समकितधारि(री), क्रियावादी नवि होइ लगारि (२). ५९ बोल-१५ पंचासक चूरणि सविशेष, सामाचारी तणइं विशेष, रात्री पोसह श्रावक करइ, चउथइ प्रहरि सामायक धरइ. ६० एहवो सूत्र कहिओ विचार, ते ऊथापीनइं निरधार, सागर कहइ उत्सूत्र कहिउं एह, पूछी निर्णय करयो तेह. ६१ बोल-१६ षट्दर्शन समुच्चय वृत्ति ठाम, योगशास्त्र वृत्ति अभिराम, इत्यादिक ग्रंथ अणुसारि, दिगंबरादिक जैन विचारि. ६२ भण्या गण्या पणि मूरख तेह, लोक व्यवहार न जाणइं नेह, सागर कहइ मिथ्यामति लीन, परपक्षी नवि कहीइ जैन. ६३ बोल-१७ पंचासक सूत्र वृत्ति मझारि, ललित-विस्तरा वृत्ति संभारि, तीर्थंकर पासइ दोइ तत्त्व, आराधक जाणी सवे सत्त्व. ६४ देवतत्त्व गुरुतत्त्व प्रधान, तीर्थंकर कह्नइ हुइ समान, तिहां गुरुतत्त्व न मानइं जेह, जिनशासनथी बाहिर तेह. ६५ बोल-१८ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ अनुसन्धान-७८ आवश्यक सूत्र वृत्ति विचारि, ऋषभदेव चरित्र अणुसारि, नमि विनमी(मि) जिन भगता दोइ, श्रीधरणेंद्र प्रसन्न थई जोइ. ६६ सहस अठतालीस विद्या दीध, तेहना सकल मनोरथ सिद्ध, जे कहइ विद्या अठतालीस, तेहनइ तु पुहुचे जगदीश. ६७ बोल-१९ भगवति(ती) सूत्र वृत्ति विख्यात, पन्नवणा उपांगई वात, श्रीजीवाभिगम उपांग, तत्त्वारथ वृत्ति भाष्य सुचंग. ६८ इत्यादिक वली ग्रंथ प्रयोग, पृथ्वी सात आठ कहइ लोग, पणि तेणि केणि अधिक न थाइ, ओछी पणि ते नवि कहिवाय. ६९ विमान सर्वनइं आधारभूत, पृथ्वी एक हुइ अदभूत, प्रतर प्रतर दीठ पृथ्वी कहइ, आगम परमारथ ते नवि लहइ. ७० बोल-२० पंचासकसूत्र वृत्ति पवित्र, ललित विस्तरा वचन सविस्त्र३०, इत्यादिक ग्रंथ भणई विवेक, अनुमोदना प्रसंसा एक. ७१ सागर अरथ करइ जूजूआ, उत्सूत्र भाषता माहूर हुआ, पूर्वाचार्यनइं लोपइ वली, तेहनइं सदगति गई वेगली. ७२ बोल-२१ महानिशीथ दूसमदंडिका, प्रश्नोत्तर संग्रह गंडिको, सर्वे ग्रंथ तणइं अणुसारि, भरत खेत्र छइ देस अपार. ७३ जे आपणई अगोचरि देस, तिहां बोल्यो छइ साधु सुवेस, सागर कहइ एक तपगच्छ विना, साधु तणी नहीं संभावना. ७४ बोल-२२ उपदेस-माल वृत्ति अनुमान, परपक्षी धर्मानुष्ठान, थोडूं(९) होइ आगम तडोवडइ३३, घणुं अज्ञान कष्टमां पडइ. ७५ अकामनिर्जरा पणि नवि कोइ, अज्ञान कष्ट म कहिजो सोइ, उभय अर्थ सागर नवि कहइ, तओ सिउं ऊठि बइसि सद्दहइ. ७६ बोल-२३ भगवतीइं चउ-भंगी कही, भविक जीवनइं काजइं सही, सीलसंपन्ने नो सुतसंपन्न, एहनो अर्थ सागर कहइ भिन्न. ७७ बोल-२४ योगबिंदु वृत्ति अणुसारि, लौकिक मिथ्यामति अति भारि, लोकोत्तर मिथ्यामती(ति) जेह, हलुकर्मा बोल्या छइ तेह. ७८ लौकिक जे वली मिथ्यामती(ति), लोकोत्तर भारे तेह थकी, जे कुमती(ति)शेखर इंम भण, एहनइं कुण पंडितमां गणइं. ७९ बोल-२५ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ २७ श्रीहीरविजयसूरी(रि) करी प्रसाद, टालेवा उद्धत-उनमाद३४, विसंवाद टालेवा काजि, बार बोल लिख्या मुनिराजि. ८० मार्गानुसारी शब्द लिखीत, सागर अर्थ करइ विपरीत, भविक जीव तुझे पूछउ एह, निश्चय करी टालओ संदेह. ८१ बोल-२६ सोमतिलकसूरि सूधा यती(ति), जेहनी सुमति गुपति दीपति, विचरंता आव्या जंघरालि, सकल जीवदया प्रतिपाल. ८२ श्रीजिनप्रभसूरइं सांभल्या, नगरमाहिं ते आवी मिल्या, कर जोडीनइं वांदी ताम, लेई आज्ञा बइठा एक ठामि. ८३ "स्तवन कोस" दीधओ तेणी वारि(र), छत्र दंडिका मंत्र ओदार२५, श्रीगुरु तास प्रसंसा कीध, तुझे प्रभावक पुरुष प्रसिद्ध. ८४ कीध प्रसंसा जेणइं एह, सागर कहइ अज्ञानी तेह, पूर्व सूरिनी निंदा करइ, ते ऊपरि सुमती(ति) किम ठरइ३६. ८५ बोल-२७ पाप कर्म कर्ता इणइं भवई, आलोइ तओ छूटइ सवे, भवांतरि आलोई नवि सकइ, अणघड(ट)तुं ए सागर बकइ.३७ ८६ ज्ञातासूत्र उ[व]वाई वृत्ति, श्राद्धविधि भावो एक चित्ति, सूत्रवृत्ति विघटाडइ सही, तास वचन पणि घटतुं नही. ८७ बोल-२८ ग्रंथ विरोधी कुमतकुद्दाल, बोलिओ३८ जलमाहिं असरालि२९, श्रीविजयदान गुरु कीधुं सही, सागर कहइ तस समकित नहीं. ८८ केवल अरथी कीरति तणउ, माया कपट तणउ अंस घणउ, तेणइं कपटइं लोक पडीओ बहू, जे देखइ ते मोहइ सहू. ८९ जैनाभासमाहि० अति वडओ, सहू ए तास पख्य पडवडओ४९, श्रीहीरविजयसूरि परमदयाल, तेहनई सागर दइ इंम गालि. ९० बोल-२९ ठाणा (णांग) सूत्रनी वृत्तिं मझारि, "तव्वसेण य" पाठ ओदार, ते आश्री कहइ सागरमती, पाठ फेरविओ छइ असंयती. ९१ एह पाठनो लेखणहार, अछइ अज्ञानी वडउ गमार, एहवं कहिण४२ न कहिq घटइ, पूर्व सूरि वचन सवे मिटइ. ९२ विचारामृतसंग्रहमाहि, पूर्व सूरि वचन छइ त्यांहिं, पाठ एहनो जोयो मथी, एहनो भाव जणातउ नथी. ९३ बोल-३० Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ "अट्ठमि पन्नरसीसु" एह, गाथा पाठ इत्यादिक जेह, कुपाक्षिकि पाठ फेरवि(वी)ओ, सागरमती वडउ इंम लविउ(वीओ). ९४ कुलमंडनसूरि जेहनूं, जूऊ समर्थन करिउं तेहनूं, ते आश्री पूछेवं करउ(5), मनथी सवे संका परिहरूं. ९५ बोल-३१ श्राद्धविधि ग्रंथि बोलिउं एह, त्रिविधई करी टालउ संदेह, फासू४३ नीर कसेलइ४४ करिउं, घडी दोय नंतरि नीरिउं४५. ९६ गली स्वछ करिउं ते जाणि, सूझइ४६ त्रि(ति)विहारनई पचखाणि, सागर कहइ ए आणिउं सही, पणि ते पाणी कल्पइ नहीं. ९७ बोल-३२ उपदेशपद वृत्तिनइं विषइ, "उदधाविव सर्वसिंधव" लिखइ, संमति पणि ए आणिउं काव्य, पंडित जन मन सुंदर भाव. ९८ कुमति पडिउ सागर इंम भणिं, आणिउं ए काव्य असंगतिपणइं, ए आश्रि करवउ सुविचार, जिम हुइ सवे संका परिहार. ९९ बोल-३३ गुणस्थानक क्रमारोहणइं, ग्रंथई पूरव सूरी भणइं, अभव्य जीवनइं हुइ मिथ्यात, व्यक्त सदा जिनशासनि ख्याति. १०० . सागर कहइ अव्यक्त मिथ्यात, अभव्य जीवनइं हुइ संघाति, पूर्व सूरिना ग्रंथ ऊथ(था)पी, कूडी युक्ति मा(मां)डइ बहु स्वपी. १०१ बोल-३४ भवभावना वृत्ति ओदार, वडी संग्रहणी वृत्ति अणुसारि, व्यवहार रासि जे आविओ जीव, उत्कृष्टी स्थिति हुइ सदीव. १०२ अनंत पुद्गलपरावर्त करइ, पछइ मुगति तणा सुख वरइ, सागर आह-पुद्गलपरावर्त करइ असंख, सागरमती भाखइ जिउं८ मंख ९. १०३ बोल-३५ चउद पूरवनुं बोलिउं सार, पंच परमेष्टि मंत्र नवकार, परपक्षी मिथ्यामति गणउ, गणतां लाभ हुइ अति घणु(णउ). १०४ सागरमती ते एणी परि भणई, जे परपक्षी नुकार गणई, समइ समइ अनंत संसार, वृद्धि करइ नवि पामइ पार. १०५ बोल-३६ बोल छत्रीस ए सागर तणा, जेहमां उत्सूत्र तणी नही मणा५१, उत्सूत्र जाणी श्रीविजयसेनसूरि, गछथी सागर कीधा दूरि. १०६ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ २९ केवलि प्रमुख कयां पंच बोल, मिछा-दुक्कड देई निटोल'२, तेह जि बोल ऊथापी करी, ग्रंथ रच्यो मनि मत्सर५३ धरी. १०८ सन्निपातिओ बोलइ जिसिउं, ग्रंथमाहिं पणि बोलिउं तिसिउं, स्व-परपक्षीनई बहु गालि(ल), ज्ञान गर्व बहू निंदा ढाल. १०९ तास पख्य वलि(ली) लीधउ जेणि, अनंत संसार वधारिओ तेणि, अमारि हण्यानुं पातक लीध, जेणि ए सागरनुं मत कीध. ११० उपशम-सार श्रमणगुण धरउ, निंदा विकथा दूरई करु(रउ), श्रीजिनवरनी मानउ आण, जिम शिवसुख पामउ निरवाणि(ण). १११ श्रीहिरविजयसूरीसर-सीस, श्रीविजयसेनसूरी(रि) महा मुनीस, तस पटि उदयो अविचल भाण, श्रीविजयतिल[क]सूरि संप्रति जाणि(ण). ११२ साहि सलेम दत्त अभिराम, जाहागीर विजयतिलक गुरु नाम, उपशम-सार सुधारस भरिओ, सोहइ चउविह संघ परिवरिओ. ११३ सागरमतनइं विषइ अगस्ति, कुमततिमिर-वारणइं-गभस्ति५, तस- गणधरवर वाचकराज, सोभायमान जेणि कीधां काज. ११४ सोमविजय वर वाचक जेणि, तपगछि सोह चडावि(वी)ओ तेणि, सागरमत-कंसासुर-कान्ह, टालिओ तेह तणओ अभिमान. ११५ सकल शास्त्र नय जाणई वली, जाणई संप्रति श्रुतकेवली, बोल छत्रीसे संग्रह करइ, भविक जीवना संसय हरइ. ११६ संवत सोल वर्ष चउंओतरइ(१६७४), महा सुदि पंचमि रवि वासरइ, श्रीकल्याणविजय उवझाय, पामी तेह तणओ सुपसाय. ११७ पंडित जयविजय इंम भणइं, सूधूं समकित तेहनुं गणई, सुद्ध परूपइ निंदा तिजइ, तेहनी सेवा सुर नर भजइ. ११८ धिन नर नारी तेह सुजाण, सुद्ध परूपक पालइ आण, श्रीजिनवचन आराधइ जेह, अविचल पदवी पामई तेह. ११९ ॥ इति सागरमत बोल छत्रीसनी चउपई सम्पूर्णाः ।। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अनुसन्धान-७८ ॥ सुगुरु कुगुरु सज्झाय ॥ ॥ राग-मेवाडउ ॥ आतमरामे शाल - ए ढाल ।। विजयचिंतामणि पाय प्रणमी करी, मनि धरी सरसति माय, सुगुरु कुगुरुनो रे अंतर भावीइ, मुगति तणु रे ऊपाय. १ आतम गुरुगुण जोई सेवीइ, सुगुरु तारइ संसार, कुगुरु कुगतिमां घालइ वेगलउ, जेह तणओ नहीं पार (आंचली). सूरिगुणे करी सोहइ सूरीसरू, गुण छत्रीस विराजि, गुण पंचवीसइ दीसइ रे वाचकपद धरु सत्तावीस गुणइं मुनिराज. २ आतम... ज्ञान गुणे करी सोहइ दीपता, षट्काया-प्रतिपाल, माया ममता रे क्रोध नहीं रती, ते वांदुं त्रण काल. ३ आतम... पदवी पांमी रे साची तेहनी, जेहनो नहीं अपवाद, ते गुरु केरी रे सेवा कीजीइ, मूंकी सयल प्रमाद. ४ आतम... सुद्ध परूपी रे गुणई आदर करी, मुगति गया सूरी(रि) केवि५६, पदी(दवी) पामी रे अवगुण आदरी, नरकि पड्या वली केवि. ५ आतम... मोटी पदवी रे देखि न राचीइ, गुणि राचइ सहु कोइ, गुण विण धणुही रे जेहवी लाकडी, गुण विण नमई न कोइ. ६ आतम... गुणहीणा गुरु सेवा मूंकीइ, अंगारमर्दकसूरी(रि) जिम, जेहनो अपवाद न मांहि घणउ, ते छांडीजइ रे तई(ति)म. ७ आतम... पाट अहमारे मूढमती भणइ, ते नर भूला रे वाट, पाट-परंपर वचन ओलंघीया, ते किम कही रे वाट. ८ आतम... एक दृष्टरागी रे मूले मोहीया, एक कहइ अह्म गोड, मूढमती एक रागइं रीझीया, नवि लहइ अंतर खोडि५९. ९ आतम... मूलविणट्ठ रे नीच संगति करी, विषय घुणि खाधु रे गोड, रां(रा?)गि पूराणी रे कूडी वासना, कवि कहइ एह नीड०. १० आतम... तीर्थंकः मते सूरी कह्या, जेहनइं नहीं रे व्यासंग, सम्यग जिन : करइ परूपणा, संयमरमणीस्युं रंग. ११ आतम.... मोटी पदती । साची हीरनी, तीर्थंकर सम जाण, सुद्ध परूप. निंदा परिहरइ, पालिइ जिणवर आण. १२ आतम... Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ श्रीहीरविजयसूरि जेसंगजी गणधरु, श्रीविजयतिलक गणधार, दोइ कर जोडी रे अहनिशि वंदीइ, चउविह संघ जयकार. १३ आतम... दिनकरनी परि सोहइ दीपता, श्रीगुरु विजया रे णंद, संप्रति हीरना वचन मना[व]तउ, चिर जयो जगदा रे णंद १४ आतम... सयल वाच[क] सिरि सोहइ चूडामणी, श्रीकल्याणविजय उवझाय, सीस जयविजय कर जोडी करी, हरख धरी गुण गाय. १५ आतम... ॥ इति सुगुरु-कुगुरुसज्झायः सम्पूर्णः । गणि नयविजय पठनार्थम् ॥ श्रीः । नोंध : आ रचनाओ सत्तरमा शतकमां ज्यारे विजयदेवसूर तथा आणसूर एम बे पक्षो थयेला अने विवाद थयेलो ते समय अने सन्दर्भमां रचाई छे. पाछळथी ते बन्ने पक्षो एक थया अने विवाद शमी गया होवाथी आवी रचनाओ एक ऐतिहासिक मूल्य धरावती रचनाओ गणाय तेम छे. - शी. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अनुसन्धान-७८ श्रीनंदिषेण रास - सं. सा. दीप्तिप्रज्ञाश्री अंचलगच्छना श्री गजसागरसूरि - ललितसागर - माणिक्यसागर शिष्य ज्ञानसागर, जेमणे १८मी सदीना प्रारम्भे अनेक महापुरुषना रासनी रचना करेली. 'जैन गूर्जर कविओ - भाग-४'मां - शुकराजरास, धम्मिलरास, इलाचीकुमार रास, श्री शान्तिनाथ रास, चित्रसंभूति चोपाइ, धन्नाकाबंदी अणगार स्वाध्याय, रामचन्द्रलेख, आषाढाभूति रास, परदेशीराजा रास, नन्दिषेण रास, श्रीपाल रास, आर्द्रकुमार रास, सनत्चक्रीरास, शाम्बप्रद्युम्नरासं, तथा चोविशी, स्थूलभद्र नवरसो, अने अनेक स्तवन गीत वगेरे कृतिओ तेमना नामे नोंधाई छे. जेमांनी एक अप्रगट रचना 'श्रीनन्दिषेण रास'नी अहीं पांच प्रतिना आधारे वाचना तैयार करी छे. सं. १७२५ मां आ रासनी रचना कविश्रीए राजनगरमां कार्तक वद८ना दिवसे कर्यानो उल्लेख छेल्ली ढाळमां छे. १६ ढाळमां पथरायेल आ रासनी गाथा (गणतां) २८४ छे, अने ग्रंथाग्र ४२१ श्लोक प्रमाण छे. . पांच प्रतिमां एक हस्तप्रत छे, जे सं. १७३३मां उसमांपुर (अमदावादनुं आजनुं उस्मानपुरा होइ शके)मां उपा. श्री अमृतविजय गणिना शिष्य ग. श्री दीप्तिविजयना हाथे लखायेली छे, जेनो पाठ मान्य राखेल छे. (आदर्श प्रति तरीके राखी छे) जेना पत्र-१७ छे, अक्षर मोटा ने सुवाच्य छे. एमां छेल्ली (१६मी) ढालनी - ९ गाथा रही गयानुं हांसियामां लखेल छे 'गाथा ६-७-८-९ अने १११२-१३-१४-१५मी गाथा रही हुती ते लखी छइ' अने पत्र १७मुं पूरुं थाय छे. शक्य छे ए गाथाओ बीजा पछीना पत्र पर लखी हशे परन्तु ग्रन्थ पूर्ण समजी ए पत्र आमां नहि सचवायुं होय, माटे ए गाथाआ [ ]मां क संज्ञक प्रतिमांथी लई नोंधी छे. बाकीनी ४ प्रति झेरोक्स छे. जेने अ-ब-क-ड संज्ञा राखी तेना जरूरी/ योग्य पाठभेद नोंध्या छे. अ → प्रतिनी झेरोक्स - ला.भे.सू. - १८०६३ नी छे, जेना पत्र-७ छे. . ब → प्रतिनी झेरोक्स - ला.भे.सू. - ६४१७ (ला.द.भे. सुरक्षा)नी छे, Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ३३ जेना पत्र - ९ छे. क → प्रतिनी झेरोक्स - ला.भे.सु. ११३३७ नी छे, जेना पत्र - १३ छे. उपरोक्त - मूल प्रति अने अ-ब-क संज्ञक - झेरोक्स प्रति पू. आ. .. श्री विजयशीलचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. द्वारा प्राप्त थई छे. अने . ड → प्रतिनी झेरोक्स - श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र - कोबा, आ. श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर द्वारा प्राप्त थई छे, जेना ऊपर - 'प्रति नंबर - ९१२८'- 'नंदिषेण मुनि चौपाइ' लखेल छे. जेना पत्र - ९ छे. __ प्रति-झेरोक्स आपवा बदल सहुनो आभार. * क - संज्ञक प्रत प्रायः मूल प्रत साथे मळती छे. हा, हुस्व इकार के दीर्घ ईकार व. मां फेरफार छे. * अ - अने ड - प्रतमां इ अंतवाळा प्रयोग अइं रूपे छे. दा.त. करी ना स्थाने करई रूपे छे. ब - प्रतमां इ ना अंतवाळा प्राये ऐकारान्त रूपे छे. दा.त. करी ना स्थाने करै - छे. * मूळ प्रतमा घणां स्थाने त ना स्थाने त देखाय छे. दा.त. ते ना स्थाने त्ते छे, ए बधा स्थाने त करेल छे. भाषाप्रयोग बधी प्रतमां अलग अलग मळे छे, दा.त. अणओदरि - बीजामां अणउदरि - त्रीजामां अणोदरि. उयारणि - उवारणी - उवारणा.... आवा प्रयोगभेद शब्दोमां घणा छे जे नोंध्या नथी. तेमांथी वाचनामां मूळ प्रतनो ज शब्द राख्यो छे. हा, एमां अर्थभेद होय तो ते नोंध्या छे- पाठभेदमां नीचे. वळी जे पाठभेद खोटो लाग्यो ते पण नोंध्यो नथी. एकज चरणमा आगळ-पाछळ शब्द लखायेला छे ते नोंध्या नथी तात्पर्य ___ ज्यां एकज कहेवा मांगे छे तेनी नोंध लखवी जरूरी न लागी तेथी छोडी * अ-ब-क प्रतमां क्यांक पंक्ति के चरण आगळ-पाछळ गाथामां जोवा मळे Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अनुसन्धान-७८ छे जे नोंध्या नथी, क्यांक पंक्ति छूटी गई छे ते नोंधी नथी, परन्तु अ प्रतिमां बीजी जे अलग गाथा छे तेने बना चिह्न वच्चे मूकीने वाचनामां मूकी छे. मूळ प्रतमा कोइक शब्द पर हरताल लगावी शब्द बदलेल छे, ह्रस्व-दीर्घ पण बदलेल छे, परन्तु हरताल नीचे जे शब्द देखाय छे ते बाकीनी चारे प्रतमां छे. दा.त. ढाळ-१० - दूहा - गाथा-१मां ‘पणि नवि बूझइ सोय' चरणमां मूळ प्रतमां 'समझें' शब्द पर हरताल लगावी बाजुमां 'बुझइ' शब्द लखेल छे, अने बाकीनी चारे प्रतमां 'समझें' शब्द छे, आq ज्यां छे त्यां मूळ प्रतनो पाठ राखी चारे प्रतनो शब्द-पाठभेद तरीके नोध्यो छे. * → - आ चिह्न वच्चेनो पाठ ब प्रतनो समजवो. * खोटा लागता पाठने सुधारीने बाजुमां ( )मां मूकेल छे, प्राये-पांचमांथी एकाद प्रतिमां साचो पाठ मलतां एने पाठभेदमां न जवा देतां (· ) करीने आ रीते ज लखी दीधो छे. कथासार : परमात्मा महावीरनी देशना सांभळी वैरागी बनेलो, श्रेणिक-धारिणी - पुत्र नन्दिषेण ५०० रमणीनो त्याग करी दीक्षा लेवा तत्पर बने छे. त्यारे देववाणी द्वारा एने अटकाववा प्रयत्न थाय छे. परन्तु तीव्र वैरागी नन्दिषेण प्रभु वीर पासे दीक्षा ले छे. १० पूर्वधर थाय छे. उग्र तप करे छे. उत्तम चारित्र पाळे छे, अने पूर्वना निकाचित भोगकर्मनो उदय थतां गणिकाने घरे पहोंचे छे. वली १२ वर्षे निकाचित भोगकर्म पूर्ण थतां निमित्त पामी त्यांथी पाछो फरी प्रभु वीरना शरणे जइ दीक्षा स्वीकारे छे त्यारे श्री इन्द्रभूति (गौतम गणधर) प्रभुने पूछे छे के तीव्र वैरागी - दश पूर्वधर नन्दिषेण चारित्र मूकी गणिकाने त्यां केम रह्या ? क्यारे । कया पूर्वभवमा एमणे निकाचित भोगकर्म - तप के दान द्वारा बांध्यु हतुं ? ए प्रश्नना उत्तररूपे प्रभु महावीर नन्दिषेणना पूर्वभवनी वात करे छे. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ३५ श्री ज्ञानसागर-कृत नंदिषेण रास एं६० ॥ दूहा ॥ सुत सिद्धारथ भूपनो, वरधमान जिनचंद प्रणमूं तेह परमेसरू, उच्छग परमाणंद ॥१॥ नंदिषेण मुनिवरतणा, गातां गुण उल्लास सेवक संभारी करी, देयो वचन विलास ॥२॥ माणिकसागर मुझरे गुरु, महासत्वी माहंत प्रणमुं तेहना पययुगल, मुझ गुरु महिमावंत ॥३॥ महानिसीथमां वीरनिं, पूछइं गोयमस्वामि (म) छट्ठई अध्ययनि भलु, श्रुतमहिमा हितकाम ॥४॥ कहु प्रभु सूत्र भणे जि के, चिंतइ करइ वखाण अनाचार ते आचरि, रहि थिर चारित्र ठाण ।।५।। अक्षर एक सिद्धांतनो, जेह भणिया मुनि जाण अनाचार तेह आचरि, सुणि गोअम गुण खाणि(ण) ॥६॥ दस पूरवधर दीपतो, नंदिषेण मुनिराज किम रहिओ गणिकाने घरे, मुंकी श्रुतनी लाज ॥७॥ भोग निकाचित तेहनी, चरम शरीरी तेह विण वेदि किम नींपजइ, असरीरी गुणगेह ॥८॥ किम चारित्त छंडी वली, तेणि मंडिओ घरवास तास चरित्त सुणयो भविक, धुरिथी लीलविलास ॥९॥ पाठभेद - १. श्री सारदाय नमामी(मि) नमोनमः । - अ। ए६०॥ऐनमः । -क २. मुनिवरू - अ.ब.क.ड। १. ए६० ॥ सकल पंडित मानस मानस मानस प्रवर ३. चीत्त ठामि - ब । चारु पंडित श्री पु.श्री तेजकुशल गणि गुरु - क्रमण पंकजेभ्यो नमः ॥ - ड Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ अनुसन्धान-७८ ढाल - [१] थारां मुहला ऊपरि मेह झरुंखइ बीजली हो लाल - ए देशी ॥ मगध महीनइ भालि तिलक परि दीपतु हो लाल, तिल० । दीपइ देसि विचालि अमरपुर जिपतु हो लाल अप(म०) ॥१॥ राजगेह गुणगेह छई नाम नयर भलो हो लाल, छइं० । इंद्र जिस्यो नृप तेह श्रेणिक तिहां सिंहलो हो लाल, श्रेणि० ॥२॥ आवी जाणी रीसायकें इंद्रनिं अवगुणि हो लाल, इंद्र० । आसरी नृपनि आई इंद्राणि धारणी हो लाल, इंद्रा० ॥३॥ तेहनो सुत नंदिषेण सोभागी गुणनिलो हो लाल, सो० ।। वयणि अमीरस जेणि हरायो चंदलो हो लाल, ह० ॥४॥ यौवनि आयो जाम ताम तोति सही हो लाल, ताम० ।। परणाओ गुणगेह पांचसि वल्लही हो लाल, पां० ॥५॥ मणि माणिक धन खास दीयां वली तेहनई हो लाल, दी० ।। रहि नितु रंग आवास दिइ सुख देहनि हो लाल, दिइ० ॥६॥ वीणा वंश मृदंग तूरसुं सर्वदा हो लाल, तू० । नाटिक चंग सुरंग बत्तीस बद्धस्युं सदा हो लाल, ब० ॥७॥ दोगुंदुग जिम देव रमणिसु विलाससुं हो लाल, र० । विलसि सुख नितिमेव तरुणि मुख हांससुं हो लाल, त० ॥८॥ ॐ खावें पीवें गेह गाट लीइं रस भव तणा हो लाल, ली० । - प्रीउ उपरइं आठों यांम नारी लीइं भांमणा हो लाल, ना० ॥ एहवि जिन महावीर धीर गुण आगरू हो लाल, धी० । समोसर्या गंभीर तारण भवसागरू हो लाल, ता० ॥९॥ पहिली ढाल रसाल न्यानसागर भणि हो लाल, न्या० । देसि जई वनपाल नृपतिनई वधामणि हो लाल, नृ० ॥१०॥ आरामिक जई विनविउं, श्रीश्रेणिक भूपाल वनमां वीर समोसर्या, जिनपति देवदयाल ॥१॥ ४. रांणी - क । ५. तेहनें - अ । ६. मुदा - अ । ७. महावीर - ब । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ३७ . ढाल - [२] नराणानी → बदल भला , सोरठी रे ए देशी छे ।जिनवर आया जाणिनइं रे, भंभसार राजान । भावई स्युं, उठि करइ भावि वंदनाजी । वारू आपी वधामणी रे, एक सहस सोवनमान, भा० ॥१॥ उ० । चातुरंग दल लेईनई रे, ख्यायक समकित धार, भा० । उ० । गुणशिल वनहि रोम(म)चिओ रे, आयु तेणिवार, भा० ॥२॥ उ० । अभिगम पांचे साचवि रे, त्रणि प्रदक्षिण देइ, भा० । उ० । विधि सेत्ती वांदी करी रे, बिठो जाय [आ]गिलेई, भा० ॥३॥ उ० । पदवंदन प्रभुनई करी रे, नंदिषेणकुमार, भा० । उ० । कहइ उपगारी वीरजी रे, ए जग आलपंपाल, भवियणां । मूंको ममता मोहनीजी । बाह्यकुटंब ए कारिमो रे, जाणी करोलीया जाल, भ० ॥५॥ मुं० । । मातपिता- सुत कामिनी रे, कोय न आडो थाय, भ० । मु० ।। अशरण यमपुर जीवडा रे, निज करमिं करी जाय, भ० ॥६॥ मू० । नानारूपि नचाविओ रे, कर्म नीवि जीव, भ० । मु० । चउदराज चारें गति रे, भव करि फरिसिउ सदीव । भ० ॥७॥ मु० । जोगाभ्यास पिता करो रे, विषयनी विरति ते माय । भ० । मु० । भाई विवेक ख(ख)धो धरु रे, रहु तिणस्युं चित लाय । भ० ॥८॥ मु० ॥ करिइ न वंछा केहनी रे, ते भगति सुखदाय । भ० । मु० । निसदिन करइ उयारणि रे, दोहँग दूरि पलाय, भ० ॥९॥ मु० । ८. दीनदयाल - अ । ९. नारायणां तेरे विना ओर नां धरुंगी, पेला पारिं बगलां उहि रे मि जाणिउं असवार नारायणा तेरे विना० ए देशी - ड १०. सहित - क। ११. जिम - ड। १२. नचावै - ब । १३. भगिनी - ड। १४. दूरगति - ड। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ अनुसन्धान-७८ रमो उपशम रंगमुहलमि रे, रमणि खिमास्युं रंग, भ० । मु० । परोपगार प्रीय५ ए भलो रे, आदरो मित्र एकंगि, भ० । ॥१०॥ मु० । सुत विनय सुखकारीओ रे, धरणि सेजसु रंग, भ० । मु० । भोजन ज्ञान अमी करो रे, सुमति रसोइणि संगि, भ० ॥११॥ मु० । सबल वइराँग सखाईओ रे, वाहन रथ सीलंग, भ० । मु० । चढो चतुर तप उपर रे, मयमत बार मातंग, भ० ॥१२॥ मु० । अंतरंग परिवारमि रे, रहु अहनिसि आणंद, भ० । मु० । बि(बी)जी ढालमांहिं दिओ रे, ए उपदेश जिणंद, भ० ॥१३।। मु० । दहा ॥ वांदीनई श्रीवीरनि, नृप आदि नरनारि पोहत्ता पोतानइं घरि, सफल करी अवतार ॥१॥ नंदिषेण मंदिर जई, माने चरणे सीस नामिनई कहि मायनि, कहुं सुणि विस्वावीस ॥२॥ श्रीमुखि वीर वखाणीओ, ए संसार असार अनुमति आपो मायजी, लेस्युं संयमभार ॥३॥ तं निसुणि कहि धारणी, सुणी वछ जीव समान ए दाडा नहि योगना, भोगवि भोगप्रधान ॥४॥ मूर्छागति धरणी ढली, लहि वली चेतन वाय९ ऊठी तव कुंअर कहि, आपो अनुमति माय ॥५॥ कोलाहल नारी सूणी, मली आवी सय पंच वार्लिभ वयरागी थयो, सो हवि करस्यां संच ॥६॥ करजोडि कहइं कामिनी, वालेसर सुणो वात सरखे मलि संयोगडि, छोडण री सी धात ॥७॥ १५. प्रांहिं - ड । प्रिय एकलो रे - अ। १६. चंग - ड। १७. सारसु चंग - अ । १८. विवेक - अ. । १९. थाय - ब. । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ३९ ढाल - [३] हो लाई बांभणीआ - ए देशी ॥ हो प्रीउ पातलीआ, [आंकणी] थे छो सघला नरमां इंद्र जो, में छां इंद्राणी सवि नारिमां रे लो, हो० बीजा नर तारा थे चंद जो, में छां रोहिणी मंकी(खी) मा(ना)रिमा रे लो ॥१॥ हो०॥ थे छो कीकी मे छां आख्य जो, मे छां घर थे छो घररा धणी रे लो, हो० मे छां पंखी थे छो पांख जो, मे धण२० थे छो गोवाला गुणी रे लो ॥२॥ हो०॥ मे छां थाहरा पगरी धूलि जो, थे छो मांहरा सिररा सेहरा रे लो, हो० थे छो माहरा देव अमूल जो, मे छां प्रीतम थाहरां देहरा रे लो ॥३॥ हो०॥ थे छो तरवर मे छां वेलि जो, मे छां वाडी थे छो सूअडा रे लो, हो० थे छो मोरा मे छां ढ(ढे)लि जो, थे छो माली में छां रुंखडां रे लो ॥४॥ हो०॥ थे छो मधुकर चतुर२२ सुजाण जो, मे तुम्ह प्रेम सरोवर कमलनी रे लो, हो० पीडइ मयणनां पूरां बाण जो, म्हां परि प्रीति ढाल धरो अमलनी रे लो ॥५॥हो०॥ मे छां हंसी थे छो हंस जो, थे छो चकवा मे चकवी सही रे लो, हो० मे मुंदरडी थे अवतंस जो, थे छो सायर मे गंगा ल(स)ही रे लो, ॥६॥ हो०॥ पाली इतरा दिन ईउं प्रीतिजो, हवई किउं विरचो(विचरो) छो विण कारणि रे लो, हो० मे छां रंग मजीठी जेम जो, पाये पडां प्रीउ २४जावां उआरणि रे लो ॥७॥हो० इउं किउं छटकि दीजई छेह जो, मे तु नेह निवड थांसुं किउ रे लो, हो० जन देखत चोरीमां जेह जो, किण कामई करमई कर घेलीओ रे लो ॥८॥ हो० स्त्रीनइं आलंबन कहिआं तीन जो, पहिलु बालपणि मातापिता रे लो, हो० जोवन आलंबन प्रीउ कीन जो, बूढपणि आलंबन सुतहिता रे लो ॥९॥ हो० जीवन थे जल मे छां मीन जो, जल विण मीन मरइं प्रिउ तडफडी रे लो, हो० कंत विहूणी कामिणि दीन यो, विरहणी वनिता किउं रहई अधघडी रे लो, ॥१०॥हो० १९. थाय - ब. । २१. रजरेणि - अ। २३. प्रीत धरो रुडें मनि रे - अ। २०. में छां धणि थे छो धणिरा धणी रे - अ । २२. भमर - अ। २४. जाण(वा) न दारे - अ । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ थां थी वसती प्राणाधार जो, थां विण जग सूंनो सघलो प्रभू२५ रे लो, हो । सुनजरि जोई कीजई सार जो, न्यान करी त्रीजी ढालई विभू रे लो, ॥११|हो० दूहा ॥ म्हे तु किउंहीं कीउ नथी, गयरन(गयर) गरिब निवाज । गुनहा विण किउं गोरडी, छयल छोडी जि आज ॥१॥ थंक पडइ जिहां थाहरु, रेडां लोही तेथि ।। मांडां शिर मे माहरां, २६पाउधरो थे जेथि ॥२॥ ॐ अमृत बिंदू आंखे झरें, करे विलाप सवि बाल । सिरखें मिले संयोगडे, इंम कांइ तजो भूपाल 卐 नंदिषेण वलतुं वदई, मे तो लेश्यां दीख । इण संसार असारमां, सार जिणंदरी सीख ॥३॥ ढाल - [४] उठी कलालणी भरि घडो हे - ए देशी ॥ रमणी पांचइसिं मिली हे, सासूनि कहि माय । मे तु प्रीउ दुहव्यो नथी हे, कांइ रीसावि जाय ॥१॥ रायजादो राखो हे मनाय, बाई बहु बलिहारि कराय, रा० आंचली । कालिजि कोउ मेहली इणि हो (हे), घालि छानो थाय विरहतणी काती वडी हे, छाती तेणि कपाय ॥२॥ रा० उंडो जाणी आदर्यो हे, छीछेर तो किउं थाय । आंबो जाणी ओलग्यो हे, आकफलां दिइं काय ॥३॥ रा० बिशां छां जाण्युं हतुं हे, कल्पतरुरी छाय कंत थयुं तेह कयरडो हे, बाई देखों बोलाय ॥४॥ रा० नयणां आंसूधारसूं हे, वरसी सींचइ तेह नवरावि नारी सहू हे, नंदिषेणरी देह ॥५॥ रा० वनिता गदगद वयणस्युं हे, एम करि अरदास नाहनि हेजे नारिने हे, सासरडे सो वास ।।६।। रा० २५. अम मने रे - अ। २६. महोलें पधारो एथि - अ । २७. छिलर - अ। २८. बैसी - ब। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ४१ महोल वडां ए मालिआं हे, नाटिक गीत विनोद सरस सुभोजन साहिबा हे, २९मीठां थाहरी गोद ॥७॥ रा० चीर गरहणां चातुरी हे, फूल विछाई सेज थांथी प्रीतम विछडां हे, कांटा ३०पिं तेह छेज ॥८॥ रा० मोहतणि वसि माननी हे, कीधा एम विलाप लाडण तेह लूखो थयो हे, न करि फेरि संलाप ॥९॥ रा० चोथी ढालिं चाहसुं हे, न्यान कहि नेह पासि न पड्या तेह धन मानवी हे, सो पामि साबासि ॥१०॥ रा० दूहा ॥ मातपिता नइ माननी, वड वैरागी जाणि जोरिं पणि जो राखीइं, न रहइ ए निरवाणि ॥१॥ एम लही अनुमति दीइं, पूरो मनलं कोड मोह महाभड जीपजो, कहां छां बे२१ करजोडि ॥२॥ [ ढाल - ५] राग-सारंग, नीदरली वैरणि रही - ए देशी ॥ भंभसार राजा हवइ, मंडि उत्सव हो मनरंगि अपार के ___अवसर लाहो लीजीइं । कीजइ निरमल हो समकित सुखकार के, अ० कौटंबिकनई आपसि, त्रणि लख द्रव्य हो लिओ जाइ भंडार कि ॥१॥अ० रजोहरण रलीआमणो, वली आणो हो पडिगह एक सार कि, अ० कुंतीआवणनई कनकदे, ले आवो हो मत लाओ वार कि ॥२॥ अ० काश्यपनइं लख कनकना, दे टंका हो जई आणो तेडि३२ के, अ० धरम करीजई धसमसी, विचमांहि हो नवि कीजइ जेडि के ॥३॥ अ० च्यार अंगुल वरजी तिहां, कतरावि हो चोटी नंदिषेण कि, अ० स्वेतवस्त्र धरी धारणी, केस लीधा हो तेहेनी ततखेण कि ॥४॥ अ० २९. तिहां राखोनी सवाद ॥७॥ - अ। ३०. पिडइ - ड । ३१. मे - क, म्हें - ड। ३२. तेह - अ। ३३. सुतना - अ । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ सिर उपरि सरवौषधी, मूंकीनि हो नवरावि नीर३४ कि, अ० लूही अंग अंगजतणूं, पहरावि हो वली वस्त्र सरीर के ॥५॥ अ० मुगटादिक मणीमें जड्यां, पहिरावी हो आभरण अनेक के, अ० बसार्यो बहू नेहस्युं, सहसवाहिनि हो सिं बिकाई विवेक के ॥६॥ अ० चातुरंग दल परवर्यो, ३६चल्यो चारित हो लेवा थई सूर के, अ० वनि गुणस(सि)ल आव्यो वही, वाजंति हो बहु मंगलतूरके |७|| अ० तिहां शिबिकाथि उतरि, असोकतलि हो ईशानि आइके, अ० आभरणां वोसिरावर्ति, धरई खोलो हो तव धारणी माय के ॥८॥ अ० लोच करि पंचमुष्टिनो, थई आगई हो लोई माता "लारिके, अ० वांदि वीर जिणंदनि, कहि कुंअर हो प्रभु तारि हो तारि के ॥९॥ अ० धूल३८ मेलि धर्मरयणनि, मिथ्यामति हो तेह दरि निवारिके, अ० चिहुंगति हर चारित्त दीयु, सुखदायक हो दुखीयां साधार के ॥१०॥ अ० गगनथकी ३९कहे देवता, मत लि व्रत हो कहि वारोवारि के, अ० भोग निकाचित ताहरी, विण भोगवि हो व्रतभंग विचार के ॥११॥ अ० तात कहि तव तेहनि, घरि आवी हो दिन कोएक पूत कि, अ० भोगकरम पूरा करी, व्रत लेयो हो थायो अवधूत कि ॥१२॥ अ० वारी ति कहि वीरनि, उचरावो हो चारित्त एकंग के, अ० मा कहि भिख्या शिष्यनी, विहरो प्रभु हो देउं छु मनरंग के ॥१३॥ अ० इष्ट कां(क)त ए माहरि, जगगुरुजी हो जिउं रयणकरंड कि, अ०। उंबरपुष्प जिउं दोहिलो, सुणो साहिब हो तारणीक तरंड के ॥१४॥ अ० न रह्यो राख्यो ए देवनो, वयरागी हो वछ थयो वधमान के, अ० सार सीखामण दाखयो, जिउं राखि हो चित्त धरमनिधान के ॥१५।। अ० कणग रयण मातंग जे, वोसिरावि हो घोडा नि गाम के, अ० वहिल सुखासन पालखि, वोसिरावि हो अंतेउर ताम के ॥१६॥ अ० ३४. नारि - अ। ३५. धरी अधिक विवेक - अ। ३६. चढ्य - अ। ३७. थई माता हो आगे लेइ नारि के - अ । ३८. धर्मरयण मत छंडजे - अ, धूलि मेलै ज्ञानरतननै - ब । • ३९. तव - ब, एहवई गगनथकी कहें - अ । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ देवदयाल दुखियो घj, थयो संयम हो विण चिहुंगति मांहिं के, अ० हुं सुखियो थयो साहिबा, जिनवरजी हो वलगो तुम बाहि के ॥१७॥ अ० पंचमहाव्रत उच्चरी, लीउं चारित्त हो चडति परमाणि(परिणाम)के, अ० ढाल कहि ए पांचमी, ना(न्या)नसागर हो निरजरानि कामिके ॥१८॥ अ० दूहा ॥ तिणिवेला थिविरनइं, सुंपइइं जगदाधार, नंदिषेण अणगारनइं, सीखववा आचार ॥१॥ मातपिता आदि सह, अंतेउर परिवार वांदि निजमंदिर वल्या, कीधो वीर विहार ॥२॥ [ढाल-६] माहरी सही रे समाणी - ए देशी ।। आवश्यक षट् आदिथी मांडी, अंग इग्यारई वारु रे भणइ वीरनी आ(वा)णी, [आंकणी] नंदिषेण मुनि थिविरनि पासई, थया दस पूरव ४९धारू रे ॥१॥ भ० जेह घj साकरथी मीठी, जेहवी अमीरस खाणी रे, भ० आंबिलि नीवी नई छट्ठअट्ठम, दसम दुवालसम जाणी रे ॥२॥ भ० मासखमण दुढमासी बिमासी, तप करि उलट आणी रे, भ० ॐ संयममांहि अति मनभीनों, सही साधु सुंमति गुणखांणी रे ॥३॥ भ० ॥ उग्रपणइ करतां इम तपथी, उपनि लबधि उद्योति रे, ॥३॥ भ० साढि बारह कोडि सोनानी, धरि कर तिहां वृष्टि होते(ति) रे, भ० एकदिन जिन कह्नई आज्ञा मागि, विहार करेवानी सारी रे, [भ०] तन्निसुणी प्रभू मुखं यंपइ, भोगकरम छइ भारी रे ॥४॥ भ० तो पणि एम सुणि मुनि तिहांथी, विचरइ उग्रविहारि रे, भ० तीव्र घणुं तप करतां तेहनइं, काम नडि दुरवारी रे ॥५॥ भ० ४०. देवरतन - ड। ४२. पाणी - अ। ४३. चारी - ब । ४१. पूरवनाणी - अ। ४२. पाणी - अ। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अनुसन्धान-७८ मनमथनई जीपेवानि अरर्थि, अरस विरस आहारी रे, भ० महामयमत्त गयंद तप ऊपरि, कीधी फिरिअ सवारी रे ॥६॥ भ० उt अन्न नि षटविगय आदि, सरसतणो परिहारी रे, भ० व्रत चोथु चोखं पालेवा, अणओदरि मनधारि रे ॥७॥ भ० बोरकूटनि अडद जे जूना, बाफिल निबल सभावि रे, भ० यापनानि कार्मि पारणडई, साधुओ सोधीनइं लावि रे ॥८॥ भ० जिम जिम तप करइं नीरस लेई, तिम तिम काम संतापइं रे, भ० जिम जिम लि आतापना आकरी, तिम तिम विषय ज व्यापई रे ॥९॥ भ० तव नंदिषेण थओ चिंतातुर, चित्तमां एम विमासई रे, भ० किम राखीसुं शील रूडी परि, सी परि ४४अनंग ए जासि रे ॥१०॥ भ० लहि विरुइ वयरागी पंचसि, रमणी तजी जे नाठो रे, भ० केडिं पडी तेहसिउं करि खटपटि, जूउ जूउ मदन ए माठो रे ॥११॥ भ० न्यानसागर कहि छट्ठी ढालई, सांभलयो सहू कोई रे, भ० । सील राखेवा सो मुनि करस्यइ, विधि भलो सूत्रथी जोई रे ॥१२|| भ० दूहा ॥ नीरस आहारि तप करई, जो न रहि मन ठाम वरतइं काम विकारमां, साधु करइ स्युं ताम ॥१॥ श्री वीर कहिउं सूत्रमां, सांभलि गोअम वात वर(रि) व्रतभंग कर्या थकी, करवो आतमघात ॥२॥ विसभक्खण अणसण गिरि, झंपापात करेह जिम जिम व्रत राखइ मुणी, आराधक कह्यो तेह ॥३॥ [ढाल-७] राग - केदारो । ए मोती मेरो म जीउका प्यारा आयारकी सूरति परनाथ में ऊतारा - ए देशी ॥ एम मनि सूत्रनो न्याय विचारि, नंदिषेण मुनि साहस धारि साधुजी सीलरतननो रागी, जे करई व्रत यतन सोहागी, सोहि हो मुनिवरजी ॥१॥ सा०, आंकणी । ४४. जनम - ब. । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ भयरव झंप करेवा सारई, गिरि सिखरि चढिओ तेणि वारइं ॥२॥ सा० करि पचखाण देई त्रणि ताली, जव झंपास दीइ उजमाली ॥३॥ सा० तव आकाश थकी सुरवाणी, कहि सुणि रे सुणि रे गुणखाणि ॥४॥ सा० जो तुं पडिस तुहई महाभाग, नहि थाई तुझ प्राण त्याग ॥५॥ सा० इम सुणी अरहुं परहुं जव निरखइं, चारण श्रमण देखी चित्त हरखइ ।।६।। सा० चारण मुनि नि जई कहई वंदी, नंदिषेण निज आतम नंदि६ ॥७॥ सा० चारण रिषि बोल्या ततखेव, मृत्यु अकालि नथी तुझ हेव ॥८॥ सा० वली विहरिं विचर[इं] महीमंडलि, लबधिनी ऋद्धि जिस्यो आखंडल ॥९॥ सा० दे प्रतिबोध भविक बूझवतो, दुःकर तप करि तनु खेट(द)वतु(तो) ॥१०॥ सा० तो पणि श्रीनंदन संतापई, जिम तप करइ तिम तिम तेह व्यापि ॥११॥ सा० पीड्यो कामे घj कामातुर, तव मुनि तेह थयो चिं[ता]तुर ॥१२॥ सा० कुंदचंद सोना- वासण, निर्मल तेहथी एह जिणसासण ॥१३॥ सा० कलि कलूस रहीत निरलंछण, हूं पापी ते करीश सलंछण ॥१४॥ सा० जिउं जिनसासण मइलो करीजइ, तिउं व्रत राखण मरण आदरीजइ ॥१५॥ सा० टंकु(टुंक) “छिन्न गिरि उपरि जाम, भयरव झंप चढि करि ताम ॥१६॥ सा० मा रे मां गगने कहि देवा, लहिस केवल करिसइं सुर सेवा ॥१७॥ सा० सुभट सिरोमणि साहस धीर, एह छई ताहरु चरम शरीर ॥१८॥ सा० पूरवबद्ध निकाचित भोग, भोगवीनइ आदरजे योग ॥१९॥ सा० चारण श्रमण कहि तेणि अवसरि, चरम सरीरी तुं मरि किणि परि ॥२०॥ सा० एम सुणि श्री जिन वीर कह्नई आवी, ओघो मुहपती आगलि ठावी ॥२१॥ सा० लो प्रभुजी यतीलिंग ए तुमचुं, दीप्यओ काम न रहिउ चित अमचुं ॥२२॥ सा० न्यानसागर कहि सातमी ढालि, धन नर-नारि जे चारित्र पालई ॥२३॥ सा० दूहा ॥ वांदी वीर जिणंदनि, जां(जि)हां नवि जाणई कोइ . कहीइं विहार कर्यो नथी, तेणि देसि गयो सोय ॥१॥ राजध्या(धा)न एक नयरमां, फिरतो फिरतो तेह आहारतणइं अरथिं तदा, गयो गणिकानइं गेह ॥२॥ ४५. मुंनी - अ। ४७. मन दृढ जांणे मेरु जिम निश्चल ॥९॥ सा० - अ ४६. निंदी - ब । ४८. टुंक चढी - क. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अनुसन्धान-७८ धर्मलाभ दीधो जसि, कहि हसी गणिका ताम अरथलाभ इंहां जोईजइ, सुणि मुनिवर गुणधाम ॥३॥ लबधिवंत लटकि करी, ते पणि बोलइ एम अरथलाभ ताहरि हुयो, मनवंछित फल जेम ॥४॥ उक्तं हि - महानिसीथे, षष्ठाध्ययने; धम्मलाभ(भं) जा भणइ, अत्थलाभं विमग्गीओ तेणावि लद्धिजुत्तेण(णं), एवं भवओ तिअं(त्ति) भाणि ॥१॥ एम कहितां सोवनतणी, साढी बारह कोडि वृष्टि थई तेहनइं घरिं, कुण करइ तपनी होडि ॥५॥ उपदेशमालनी वृत्तिमां, तरणुं ताण्युं तेण . ऋषिमंडलनी वृत्तिमां, एम संबंध को एम ॥६॥ महानीसीथ सूत्रई कही, वचन थकी वसुधार ग्रंथ ग्रंथ इम फेर छे, वृष्टितणई अधिकार ॥७॥ जूळू साचुं किम कहूं, विसंवाद जे थाइ ते तो जाणई केवली, हुं नवि जाणुं काई (कांइ) ॥८॥ जिणइ ग्रंथइ जे जिम कहिउं, ते तिम आणुं आंहिं एहमां दोस को माहरो, मत आणो मनमांहिं ।।९।। [ढाल-८] राग - मारु, थारि माथई पचरंग पाग सोनानो छोगलो मारूजी - ए देशी । मुनि वलवा लागो जाम, आगलि आडी फरि वारूजी लेई जावोजी सोवन स्वामि, गाडी उंटे भरि ॥१॥ वा० मे तु न ल्यां अणहक एक दाम, किणिरू दोकडो, वा० थे तु किउ ढिग आईण ठामि, कंचणरो रोकडो ॥२॥ वा० मे तु नाटिक गीत विनोद, विविधपरिस्युं करी, वा० म्हें तु पुरुषंनइं द्यां परमोद, तनि करि चाकरी ॥३॥ वा० ४९. गणिका - अ। ५०. न - अ। ५१. मारे गेह - अ, आणि - उ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ४७ पछि ल्यांजी फूलनि पान, म्हे तु गणिका गुणी, वा० साहिबजी आणो सान, थे तु ग्यानी मुंणी ॥४॥ वा० करि तन-मन-नयन विलास, कटाक्ष ते कामिनी, वा० कला चोसद्विरो आवास, गोरी गजगामिनी ॥५॥ वा० आणी लहकती आगलि वेणि, वामा जसी वीजली, वा० मुखि जीत्यो निशापति जेण, वाणी मिसरी गली ॥६॥ वा० करशुं कर झाली तेह३, कहि रिषजी सुणो, वा० नहिं जावा दिउं गुणगेह, लीओ धन आपणो ॥७॥ वा० सोभागी मि सुरताण, मुंकी मन चणेचणो, वा० नायकजी चतुर सुजाण, लीओ रस अम्हतणो ॥८॥ वा० वरतुल घट सम उत्तग, पयोहर पीनस्युं, वा० आलिंग्यो गाढ सुरंग, मयणरस लीनस्युं ॥९॥ वा० यदुक्तं - महानिशीथे, उत्तंग घोर घणवट्टा, गणिआ आलिंगिउं दड़े भद्दे कि जासि मं दविणं, अविहिए दाउ चुल्लगा ॥१०॥ एक नकरी बारह कोडि, ईहा रही विलसीजइ, वा० कहि कमलसेना करजोडि, ए काम किओ अलसीजइ ॥११॥ वा० लही मनमां भाविभोग, निकाचित जे कहिओ, वा० सो आय मिल्यो संयोग, विमासी तिहां रहिओ ॥१२॥ वा० दिन प्रति दस नर प्रतिबूधि, पछि जीमवू सही, वा० ए नेम करि मनसुद्धि, पइठो मंदिर वही ॥१३॥ वा० मारू रागि रसाल, न्यानसागर भली, वा० । एह तो कही आठमी ढाल, सरस छि सोहिली ॥१४॥ वा० - सोरठी - । दूहा ॥ रहिओ गणिकानइं गेह, सूत्र अरथ संभारतो नंदिषेण अति नेह, श्रावकनां व्रत धारतो ॥१॥ ५२. गुणी - अ। ५४. सुलतान - अ-क। ५३. नारि - अ । ५५. सणसणो - अ । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अनुसन्धान-७८ सर्वविरतिनो संग, मुंकाणु निज' करमथी देशविरति धरि रंग, परवतिथि पोषह करि ॥२॥ सामायक बि वार, सो करि सांझ सवारनी राति पणि दुविहार, परभाति पोरिसि वली ॥३॥ [ ढाल-९] राग - → सारिंग - । हुँ [उ]५८ आरि रसिआ रे साहिबा - ए देशी बइठक मंदिर बाहिरई, दडेबड उदडी राय, मोरा लाल तिहां पशमीनि मुखमली, गिलम दुलिचा बिछाय, मो० ॥१॥ मनरो लूखो रे भोजमइ, दि६१ दिन प्रति प्रतिबोध, मो० म० ॥ आकणी केशरीआ वागा करी, चूआ अवल लगाय मो० सूंधासू सोर मिसमिसो, बइसइ बिठक आय, मो० ॥२॥ म० . ले मिठाई नवनवी, पांन डबी ले पासि, मो० टोडर ६२छाबई फूलरां, धरि बइंसि सुविलास, मो० ॥३॥ म० विसनी नर आवि जि के, वेश्यावाडा माहिं मो० ताणी करशुं तेहनि, बिसारि उच्छाहि मो० ॥४॥ म० दे मीठाई दोलती, दे बिडां दो च्यार मो० चूआ लोइनि ठवी, कंठि कुसुमरा हार मो० ॥५॥ म० सरस सलूणा साहिबा, तुहमे आया किण कामि मो० पूछी आदरस्युं पछि, समझावि सुणि स्वामि मो० ॥६॥ म० कहु गुण गणिकामां किस्यो, पडिआ जें तुमे पासि मो० विट५ अनेक आविं इहां, तेणे मुख चुंबित जास मो० ॥७॥ म० ५६. संवरविरति - अ। ५७. मुझ - अ-ब-क। ५८. वारि - अ । ५९. सुंदर ओढीक भाय भोरा० - अ; दडवड उढीक राय - ब, दडबड दउढीक राय - क, दडबड दोडी कराय - उ। , ६०. गलिमें - अ, गीलीमि - क, गलिमई - उ। ६१. दिये दस दिन - अ । ६२. अति मसमस्यौं - अ, मिसिमिस्यो - ब, मिसिमिसिउ - क.।। ६३. बहबहें फूल - अ, ठावे - उ। ६४. ल्यावी. - ब, लावीनें - ड। ६५. वरण -- अ, विटल - क। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ कहो मुख६ कुण गणिकातणों, चुंबइ चतुर सुजाण मो० जे जूठिल जिमण जिस्युं, चुंबइ चतुर सुजाण मो० ॥८॥ म० मदिरा नई मांसिं घj, मलिन थयां मुख जास मो० नगरतणी ए नायका, द्रव्यतणी जे दासि(स) मो० ॥९॥ म० कोयक आवि कोढीओ, लेई बहुला दाम मो० लोभणि तेहनि लालचिं, कहि तुं माहरि काम मो० ॥१०॥ म० धन देखि ८तां धाईनि, लंपटि लागि लार मो० कनक वधु कपटणि घj, दुरगतिनी दातार मो० ॥११॥ म० मुंहिनी मीठी मानिनी, जूठी मननी जेह मो० सुंदरि स्वारथनी सगी, झटकि देखाडि छेह मो० ॥१२॥ म० दस दस दिहाडी बुझवइ, देई इम उपदेश मो० वीर कह्नई सवि मोकलि, लेवा व्रत ऋषि वेस मो० ॥१२(१३)॥ म० इणिपरि बूझवतां थकां, बार वरसनि छेह मो० एक दिनि नव प्रतिबूझव्या, दसमु आव्यो जेह मो० ॥१३(१४)।। म० ते दुरबोध बूझइ नहीं, सोनिडो शठ जाति मो० न्यान कहि नवमी ढालमां, जाति दीसइ भाति मो० ॥१४(१५)। म० दूहा ॥ साहमी आणइं चोअणा, पणि नवि बूझ्इ सोय दुरमुख डुहरी लाविनि, वालि वचन त्ति कोय ॥१॥ महिला मंदिरमांहिथी, पोरिसि पहुती जाम वेला भोजननी थई, आवीनिं कहि ताम ॥२॥ जीवन प्रांण जिमणभणी, असुर करो का एम पोरस उपरि दिन चवेरा, हवई पिउ पारो नेम ॥३॥ ६६. सुख - क। ६७. सोभागी आव्या भले, पिउं तुमस्युं अमारें काम मो० ॥१०॥ - अ ६८. तिहां - अ। ६९. चोजणा - क, चोयणा - उ । ७०. समझे - अ-उ, समझै - ब-क । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ [ढाल-१०] मारु अणं(ण)वटडो गमिओ, थे घरि हालो रे - ए देशी थावई रसवतडी टाढी, जेमणि आवोजी हो रायजादाजी प्रीतम, जिमणि आवोजी हो साहिबाजी तुम जेमणि० जी, हो रंगीलाजी राजन जे० हो हठिलाजी साजन जि०, थाव० । आंकणी इम कहि पदमणि पातली हो प्रीउ, हुं राधि रही जोउं वाट[डी] हो प्रीउ, था० । ए तु न प्रतिबूधोजी हो प्रीउ, एहनो स्यो उचाट हो प्रीउ ॥१॥ था० जेम घडी बिघडी जोई वाटडी हो रामा, आवी प्रीउनइ पासि हो श्यामा, था० करजोडी "वली कंतनी हो रामा, एम करी अरदास हो श्यामा ।।२।। था० जेमणि० एक सीतल थई रसवती हो स्वामी, ते भिक्षुकनि दीध हो स्वामी, था० तिणि माटि ताजी हवइ हो स्वामी, बीजी रसोई कीध हो स्वामी ॥३।। था०, जेमणि० नंदिषेण वलतुं वदइ हो रामा, आ प्रतिबोधी एक ही श्यामा, था. जेमण आवांजी; हो ससनेही रे श्यामा जे०, हो गुणगेही रे रामा जे०, था० इहां कणिअ जर नथी हवइ हो श्यामा, पडखोजी पलक एक हो रामा ॥४॥ था० हो ससनेही रे श्यामा जेमणि आवांजी, हो गुणगेही रे रामा जेमणि आवांजी ॥ मंदिरमांहिं मलपती हो रामा, पहुती पाछी प्रीति हो श्यामा, था० वार्लिभनी जोई वाटडी हो रामा, रूडी विनयनी रीति हो श्यामा ॥५॥ था०, जेमणि सो सीतल थई रसवती हो रामा, नवी नींपाई ताम हो श्यामा, था० अलवेसर ऊठो अजी हो स्वामी, दिवस चढ्यो दोय याम हो स्वामी ॥६॥ था०, जेमणि परउपगारी पति कहि हो श्यामा, करउ उतावलि कांइ हो रामा, था० जेमणि आवांजी, हो ससनेही रे श्यामा जेमणि आवांजी, हो गुणगेही रे रामा जेम०, था० आ एक दसमु बूझवी हो श्यामा, आवां मत अकुलाइ हो रामा ॥७॥ था० जेमणि आ० जीमी पछई प्रतिबोधयो हो स्वामि, मार्थि आवा सूर हो स्वामी, था० न्यानसागर कहि सांभलु हो स्वामी, दसमी ढाल सनूर हो स्वामी ॥८॥ था० ७१. कहे - अ। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ दूहा तव दूरमूख सोनी कहि, आपि रह्यो तुं मुंझि; साहामानि तुं सीख दि, बुझि बुझि रे बुझि ॥१॥ मगन थई रहिल महुलमि, महिला गणिका साथि धरम कल्पतरु वेचिनई, कां दिइ बाउल बाथि ॥२॥ त्रीजइ पहुरिं तारुणी, आवी प्रिउनि पासि भूख त्रिषा पीडी घणुं, बोलि वदन विकासि ॥३॥ उठोजी उठो हविं, मूंको एहनी केडि आज थया दसमा तुम्हे, कंतजी करो निमेड ॥४॥ [ढाल-११] राग - केदारु, करेलनां घडि दि रे - ए देशी । नंदिषेण चिति चितवई, साच कह्यो सो नारि आप दरिद्रि उरकुं, किंउं करइ दोलतिदार २ ॥१॥ मुंकिजइ अब मोहनि रे, कामिनी फल किंपाक, मुं० विषमा विषय विपाक, मुं० आंकणी ॥ धिग् धिग् धिग् ए काम कुं, धरम छोड्यो धीठ दुनियामि दुरजन अइओ, दूजो कोई न दीठ ॥२॥ मुं० मई घरवास भजि धर्यो, अमृतमई विष बिंद किउं छुटउंगो कुकर्मथि, इउं करइ आतमनिंद ॥३॥ मुं० कों न अकारय मीं कीओ, कंपइ थर थर काय रयण यतीध्रम हारीओ, हाय हाय हाय हाय ॥४॥ मुं० दे डुबकी गहरइ जलिं, तारे ढूंढि तोय सायरम सूई गडि, किउं पावीजइ सोय ॥५॥ मुं० तिउं ललनांकी लालचिं, खोहिउ सुंदर सील अब संसार समुद (द्र)को, किउं तरि लहुंगउ तीर ॥६॥ मुं० ७२. दातार - ड । ७३. तजी लीओ - अ। ७४. करि - क। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अनुसन्धान-७८ श्यामा संग तजी अबहुं, जाई जिनके पासि आलोअण ले उचलं, फिरि महाव्रत उल्हासि ॥७॥ मुं० इउं चिंती आयउ गुणी, जिहां हि°५ वीर जिणंद तीन प्रदक्षिण देयकई, प्रणमइ पद अरविंद ॥८॥ मुं० लोचनके जलधारसुं, पाउं पखालि दोय चरणे सीस नमावतो, गदगद स्वरि कहि रोय ६ ॥९॥ मुं० गुनही गरिब निवाज हुं, कीनो व्रत को भंग त्रिभुवनपति तारो प्रभु, छोड्यो गणिका संग ॥१०॥ मुं० दि फिर चारित वीरजी, नंदिषेणकुं हेव रजोहरण मुखवस्त्रिका, दिइं तब सासणदेव ॥११॥ मुं० समझाए उपदेश दे[इ], बार वरसमि जेह्य सहस तिआलिस दोयसइं, एके उंणा तेह ॥१२॥ मुं० न्यानसागरि कही नेहस्यु, एह इग्यारमी ढाल समतारस से ती बणी, मीठी अमीअ रसाल ॥१३॥ मुं० दूहा इंद्रभूति अणगार तवं, गोयम सुधर बजीर परम भगत पूछई प्रसन, कहो जगनायक वीर ॥१॥ नंदिषेण अणगार इणि, चढतई मन परिणामि रमणि पंचसय परिहरी, लीधुं तुं व्रत स्वामि ॥२॥ वली चारित मुंकी रहिओ, किम गणिका घर वासि भोगकरम बांधिउं किहां, भगवन तेह प्रकासि ॥३॥ पूरवभवि इणि तप किउ, केइ दत्त दीधुं कांई भोगनिकाचित जेहथी, बांध्यं ते कहो साईं ॥४॥ परउपगारी कहि प्रभु, सुणि गोअम विरतंत तुं पूरवभव एहनो, राखी मन एकंत ।।५।। . ७५. रहि - क, इह - उ। ७६. सोय - अ। ७७. मुनि - अ। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ [ ढाल-१२] राग - काफी, वीर विघनहर खेतला - ए देशी ॥ प्रथिवी भूषण पुरवरिं, हतो मुखप्रीय ब्राह्मण एक हो सहसविप्र सो दिन प्रति, जिमाडे मिथ्या विवेकि हो ॥१॥ दउलति दाई दीजीई, सुणि गोअम जिणि विधि दान हो लहिइ तेणि विधि संपदा, छई दान ते भोगनुं थान हो ॥२॥ द० ॥ दासी सूत एक भीमडो, तेहनि मिल्यु तेणी वार हो । ते कहि काम हुं ताहरूं करूं, जां करि जमणवार हो ॥३॥ द० ॥ वाडव सहस जीम्या पछ, जे वाधइ ताहरइ अन्न हो । जो ते दे तुं मुंहनि, मसगतिनुं फल एक मन्न हो ॥४॥ द० ॥ तेणि पणि इम अनुमनिउं, ते आपिस अन हुं तुझ हो । मन मूकीनि भीमडा, जो काम करेस तुं मुझ हो ॥५॥ द० ॥ वासण मांजी वेगि तुं, पूंजी मही करजे पवीत्त हो । चोकु देई चतुर तुं, जल इंधण अरपे झत्ति हो ॥६॥ द० ॥ आणि मूंकि अनुदनि, कढाईयां चरु नि थाल हो । पुरमां पुर बाहिर यति, जिहां होवि तिहां आवइ भालि हो ॥७॥ द० ॥ पहुर रहि तव पाछिलि, तव परवारि ते भीम हो । जिहां होवि मुणि साहुणि, तिहां जई वंदि कहि ईम हो ॥८॥ द० ॥ उन्हांजल अणगारजी, वली एषणीक छई आहार हो । जोईइ ते आवी लीओ, देवानइं देह आधार हो ॥९॥ द० ॥ आमंत्री इम साधुनि, पडिलाभई पोति हाथि हो । जनम कृतारथ मानतो, कहि तुठा श्री जंगनाथ हो ॥१०॥ द० ॥ जावजीव अणगारनि, देई इम दान सुपात्रि हो । भोगकरम बांधी घणं, चवी देव थयो सुभगात्रि हो ॥११॥ द० ॥ सुरनी संपदा भोगवी, दासी सुत भीमनो जीव हो । नंदिषेण ए अवतरिओ, सोभागी सुभग अतीव हो ॥१२॥ द० ॥ ७८. दांन - अ। ७९. कत्ति - अ। ८०. दिन - अ-क. ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ करि असती पोषण घj, करि मुखिप्रीय तिहांथी काल हो । योनि घणी मांहिं भमी, एक गिरि छई अरण्य विचाल हो ॥१३॥ द० ॥ तिहां हाथी बह हाथिणी, करिणीनी कुखि तेह हो । आवि कलभपणि उपनो, मुखप्रीयनु जीव छि जेह हो ॥१४॥ द० ॥ बोली ढाल ए बारमी, न्यानसागर काफी राग हो । पात्र कुपात्र पटंतरो, लहि देवू दान सुजागि हो ॥१५॥ द० ॥ दूहा जे जूथाधिप हाथीओ, विषयतणि रसि रत्ति । कलभ जणइं जे कामिनी, मारइ ते मयमत्त ।१।। [ ढाल-१३] नाहानु नाहलो रे - ए देशी ॥ हवइं जूउ चिंतई हाथिणी रे, गरभवती ते त्यांहि । धिग् धिग् मोहनी रे... करमतणइ योगई करी रे, जउ गज प्रसवीश आंहि ॥१॥ धिग् धिग् मोहनी रे ॥ तउ पति माहरउ पापीउ रे, सुतनई मारसि साहि । धिग् धिग् मोहनी रे ॥ पहिला पणि नंदन इणि रे, मार्या छि पग गाहि ॥२॥ धि० ॥ देई दंतूसल को हण्या रे, को हण्या पाय प्रहारि । धि० । कोईक सुंडा दंडसुं रे, नाखिआ महीतलि मारी ॥३॥ धि० ॥ पहिलइ तो तिण कारणिं रे, करीइ यतन जो “काइ । धि० । किमहीं तु सूत उगरि रे, मांडिउ चिंति उपाय ॥४॥ धि० ॥ यूथ सकल चरवा भणी रे, जव अटवीमां जाय । धि० । हलूइ हलूइ हीडती रे, आवि खोडइ पाय ॥५॥ धि० ॥ पाछिलिथी आवी मिलि रे, पहुर बि च्यारिं तेह । धि० । मयगल कहि दुखेणी घणुं रे, रांक-३ बिच्यारी एह ॥६॥ धि० । इम कुंजरनि कुंजरी रे, उपाई वेसास । धि० । दिन बीजइ त्रीजइ तिकारे, किहारिं को मिलि तास ॥७॥ धि० । ८१. जे पार्थे - क॥ ८२. उपाय - ब ॥ ८३. एक - क॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ . ५५ समय थयु जव प्रसवनो रे, तव मातंगी सोय । धि० ॥ तृण पूला वांसे धरी रे, तापस आश्रम जोय ॥८॥ धि० । आवी तापस आश्रमि रे, प्रसविओ तेणी बाल । धि० । जिम पीहरि प्रसवइ सुता रे, तिम करइ तापस चा(बा)ल ॥९॥ धि० । दिन केताएक तिहां रही रे, गई गजी टोलामाहि । धि० । पालि तापस कलभनि रे, सूतनी परि उच्छाहि ॥१०॥ धि० । तापस जव कलस करी रे, वनमां सिंचइ वृक्ष । धि० । तव कलसो सुंडि ग्रही रे, ते पणि सींचइ दक्ष ॥११॥ धि० । दिन प्रति देखी सींचता रे, कहि तापसपति ताम । धि० । सेचनक कहियो सहू रे, ए मयगलनुं नाम ॥१२॥ धि० । अनुक्रमि यौवनि आवीओ रे, थयो मयमत्त गजराज । धि० । पीतां जल दीठो पिता रे, तिणि एक दिने करिराज ॥१३॥ धि० । आ तरुणो बूढो ति के रे, दे दंतूसल घाय । धि० । चरणे सिउं गुंदी घणुं रे, पहुचाड्यो यम ठाय ॥१४॥ धि० ॥ यूथाधिप पोतइं थयो रे, ले तेहनो परिवार । धि० । मातंगीसुं विलसतां रे, ते चिंतइ तेणि वारि ॥१५॥ धि० ॥ तापस आश्रमि कलभनि रे, मत वली मूकइ कोय । धि० । मई करिउं जिम मुझ तातनि रे, तिउं करइ कलभ ति कोइ ॥१६॥ धि० । एम चिंतीनई तेहना रे, अडूआ पाडया आय । धि० तापस कहि वछ एहवो रे, कृतघन कां तुं थाय ॥१७॥ धि० ॥ फिरि अडूआ तेणि कीया रे, आवी पाड्या तेम । धि० । फिरि ६पाडि फिरि फिरि करि रे, रंजाडी गज एम ॥१८॥ धि० ॥ तापसपति चिति चितवइ रे, करीइ कोय उपाय । धि० । ए अटवीमांथी हवि रे, वारण जिण परि जाय ॥१९॥ धि० । तापस गया सरवि मिली रे, जिहां छइ श्रेणिकराय । धि० । न्यान कहि ढाल ए तेरमी रे, सुणो श्रोता चित्त लाय ॥२०॥ धि० ॥ दूहा सुणि राजन वन गहनमां, मातु मयगल एक । गज लक्षण शोभित घj, छइ सुंदर अतिरेक ॥१॥ ८४. कलभो - उ॥ ८५. वृक्ष - अ॥ ८६. मांडे - उ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ तंन्निसुणी नृप कौतकी, सेना साथि लेय । आव्यो अटवीमां वही, जिहां गयंद छि तेह ॥२॥ पासादिक उपायस्युं, झाली ते मातंग । आणी आलानि धर्यो, भंभसारि मनरंगि ॥३॥ जोरावर "झुमिउ घj, लोहना संकल सोय । ते तापस आवी तिहां, टोकइ तेहनि जोइ ॥४॥ लाली पालीनि करिओ, पोढो तुझ पापीष्ट । तई जेहवं अमस्युं करिउं, तेहq पाम्युं रिष्ट ॥५॥ कां करतु नथी८ मोकलि, मातंगीस्युं केलि । जेहवा ऋषि तई दूहव्या, तेहवी वीती हेलि९ ॥६॥ [ढाल-१४] राग - बंगालो । राजा जो मलि - ए देशी ॥ . ऋषिनां वचन सुणी रीसाल, सेचनक खींजिउ सुंडाल । मोडि महाबली । नाखि आलान खंभ उथेडि, तोडी सांकल कीधी केडि ॥१॥ मो० । मार्यो माहुतनि ततकाल, गजसालामां करी ढकचाल । मो० । पाडि पोलि अनि घर हाट, मदिरानां ढोल्यां तिणि माट ॥२॥ मो० । ढोल्यां सुरहीऑनां चंपेल, मोगरेल ९जावेल चंमेल । मो०. । भर्या पगर मालीने फूलि, तंबोली तेणि मेल्या धूलि ॥३॥ मो० । नाणावटी नाठा सोनार, दोडिं दोसी करि पोकार । मो० । बिहना सोई१२ सुतार तूंनार, नाठा लोक न लाभइ पार ॥४॥ मो० ॥ हाथी इम करी हाल कल्लोल, पुर बाहिरि नीसरीउ पोलि । मो० । अरण्य भणी धायो यम रूपि, ते सूणिउं मृगयांई चढि भूपि ॥५॥ मो० ॥ पुत्रसहीत ते श्रेणिक भूपाल, कोणिक हल्ल विहल्ल निं काल । मो० । ८७. जकडयो - अ, जोज्यो - क, कूटे - उ ॥ ८८. तुं - ड ॥ ८९. हे ति - क॥ ९०. तेल - अ॥ ९१. केवडेल ने जावेल - अ॥ ९२. मोचीनें - उ। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ५७ मृगनी परि घेर्यो मातंग, कोप्यो मयगल माड्यो जंग ॥६॥ मो० । राजकुमर रंजाड्या तेणि, काल कुमर नि कोणिक जेणि । मो० । दूरे थकु देखी नंदिषेण, इहापोहु मांडिओ तेणि ॥७॥ मो० । अवधिज्ञान उपन्, तांम, पूरवभव दीठो तिणि ठामि । मो० । हु तु मुखप्रिय एह तु भीम, इण साथि बल करीइ कीम ॥८॥ मो० । देखी भव प्रगटी नेहरासि, नंदिषेण आव्यो तस पासि । मो० । देवा लागो इम उपदेश, कां तुं आणी क्रोधई खेस ॥९॥ मो० । कां वधबंधि दमाइ छि वीर, तप संयमस्युं दमीइ सरीर । मो० । परसंसइ तेह दमन जिणंद, सही वधबंधि दमाइ ते दंद ॥१०॥ मो० । सुणी उपदेस थयु सो संत, खंधि चढी नंदिषेण माहंत । मो० ।। ग्यानी गज आणी आलानि, कुंअर ऊतरीउ तिणि थानि ॥११॥ मो० । आवी नृपे पटहस्ती कीध, महापसाउ कुंअरनि दीध । भो० । सोनहरी बंधावी सार, आपि कुंडल नवसर हार ॥१२॥ मो० । को युवराज तणी परे तेह, गोअम नंदिषेण रिषि एह । मो० । न्यानसागरि कही चउदमी ढाल, पूरवभवनी वात रसाल ॥१३।। मो० । दूहा सहिस तेआलीस दोय सई, एकिं उंणा साध । साथि लेई शुभमति, नंदिषेण निराबाध ॥१॥ वांदी वीर जिणंदनई, महीयलि करी विहार । तप संयमस्युं आतमा, भावतां सुविचार ॥२॥ [ढाल-१५] हुं दासी हो राम तुमारी → ए देशी - ॥ परमाद ज पंचइ छोडी, मुनिवर मद आठे मोडी । करि बारइ (ह) तप मन कोडी, करि ते ऋषिनी कुण होडी । हो साधु ॥१॥ विचरइं थई विइंरागी । जूउ योगदि(द)शा जस जागी, हो साधु ॥ वि० । आंकणी ।। कूरमनी पर जेणि, गोपवीआं इंद्रीय तेणि । करि क्षमा खडग धरिउं एणि, धरिउ सील कवच नंदिषेणइं हो साधु ॥२॥ वि० ९३. हस्ती इहापो० - अ। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ अनुसन्धान-७८ थया निर्मम निरहंकारी, करि जे तप नीरस आहारी । संनिधिनइं संचय वारी, थया कूखीशंबलधारी हो साधु ॥३॥ वि० । देहिं मइल रोमावलि धारइं, जाणि दोय गरहरणां ए माहरि । नारीनी संगति वारि, सोय आप तरइ पर तारइ हो साधु ॥४॥ वि० । धारइं वस्त्र धउला तेह, जीरण नि मइलां तेह । वली नवि सोभावि देह, रहई निसदिन समता गेहिं (गेह) हो साधु ॥५॥ वि० । एक लेई वासलि छेदि, उपसरग करि एक वंदि । चरचि एक चंदन बिंदि, एकइनई स्तवइ यन नं(नि)दि हो साधु ॥६॥ वि० । परीग्रह एक कउडी न राखइ, वली सत्य वचन मुखि भाखइ । भूचियां मुखि५ सचित न चाखंइ, सहइ परिसह पणि व्रत राखइ हो साधु ।।७॥ वि० । इम रहितां समता भावि, ऋषि घातीकरम खपावं । शुभ ध्यानि केवल पावि, सुर कनकनई कमलि ठावि हो साधु ॥८॥ वि० ॥ करि आगलि नाटक देवा, सारइ कर जोडी सेवा । भवसंचित पाप हरेवा, समकितनु लाभ९८ लहेवा हो साधु ॥९॥ वि० ॥ न्यानसागर कहि नरनारि, सुणो ढाल पनरमी सारी । एह तो नावा सुखकारी, देसि भवजलधि उतारी हो साधु ॥१०॥ वि० ॥ दूहा नंदिषेण ऋषि केवली, विचरी उग्रविहारि । अंतइ अणसण लेयनिं, वरिया मुगति वरनारि ||१|| अजरामर पाम्या तुह्मे, ज्योतिरूप जगदीस । देयो परमाणंद प्रभू, आणंदी निशिदीस ॥२॥ [ढाल-१६ राग - धन्यासी । दीर्छ दीर्छ रे वामाको नंदन दीठो । ए देशी ॥ अक्षर एक जे सूत्रनो जाणि, पडिबोहि भविवंद ।। सुणि गोयम नंदिषेणतणी परिं, ते लहि आणंद कंद रे ॥१॥ भवि सूत्र भणो मनरंगि ॥ करमतणां दल कापई आपे, अविहड सुख एकांगि रे ॥२॥ भवि० ॥ ९४. भूख चिता मनमां न राखइ - अ. । भूख्या - ब-क-ड ॥ ९५. वनि - ब - ड । वन - क॥ ९६. चावै - ब। ९७. घणघातीकरम - अ॥ ९८. भाव - ड। ९९. जीपई - अ ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ गारुडमंत्र सरीखो जाणी, एह सिद्धांत आराधओ । हरय करमविष करय सकल सुख, लही मानवभव साधो रे ॥३॥ भ० ॥ सूत्र थकी सरिउ अरथसे लगनउ, बोलि न्याता अंग । सुरतरु सरिखा सूत्र लहीनइं, ए सुणो अंग उपांग रे ॥४॥ भ० । हवई मसंगतिनो फल मागिजि, नंदिषेण मुनि पासि । जे तुह्मो (तुझे) पाम्या ते मुझ देवे, सासतां सुख सुविलास रे ॥५॥ भ० । [गच्छ अंचलें गिरूआ गच्छनायक, जे तप तेज १०दिणंद । राजहंस कमला उअर सरि, गजसागर सूरिंद रे ॥६॥ भ० । पुन्यरतनसूरि तेहनें पाटें, विद्यमान विराजि । श्री गुंणरतनसूरि १०२गच्छनायक, दोलतिवंत दिवाजि रे ॥७॥ भ० । अधिक प्रतापी तेहनें पाटें, आचारज गुणवंत । क्षमारतनसूरी शील क्षमा गुंणि, साधु १०२सिरोमणि संत रे ॥८॥ भ० । गुरु गजसागरसूरि तणा शिष्य, वचन सुधारसधारी । ललितसागर बुध तेहतणा शिष्य, मुझ गुरु सुभ सुखकारी रे ॥९॥ भव] माणिकसागर मुनिनु०४ एमई, पामी परम०५ पसाय । गिरुओ नंदिषेण ऋषि गायउ, श्रेणिक सुत सुखदाय०६ रे ॥१०॥ भ० । [महानिशीथमां छठें अध्ययनें, इम अधिकार ए भाख्यो । वली उपदेशमाला ऋषिमंडलि, वृत्तिमां विस्तर दाख्यो रे ॥११॥ भ० । हेमसूरिकृत वीरचरितमां, इम संबंध कह्यो एह । तिणथी न्यून अधिक जे भाख्यो, मिच्छामिदुकडं तेह रे ॥१२॥ भ० । रह्यो गणिका घरि ते दिन संख्या, महानिसीथें नांहि । में उपदेसमाला रिषिमंडलि, वृत्तिथी आणी आर्हि रे ॥१३।। भ० । वीरचरितें कह्यो नंदिषेण ए, देवलोके थयो देव । महानिसीथे का केवल पांम्यो, जांणि ते जिनदेव रे ॥१४॥ भ० । १००. समकितनो - अ । १०१. जिणंद - ड ॥ १०३. गुणसंयुत्तरे - अ॥ १०५. चरण - अ-ब-क-ड। १०२. गुणनायक - अ ॥ १०४. मुनिकृपाथी - अ, मुनिन ओपमे - ब ।। १०६. ऋषिरायो - अ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ गुंणि अक्षर ग्रंथागर कीनो, च्यारसें इकवीस, गुणवंतना गुंण लिखी लिखावी, लहिजो सुजस जगीस रे ॥१५॥ भ० ।] संवत सतरसि पंचवीसिं, राजनगर कुंजवारिं । काति(ति)क वदि आठिम उतराइ, सिद्धिजोग सुखकार रे ॥१६॥ भ० । धन्यासिरीइं ढाल ए सोलमी, न्यानसागरि कही नेहिं । ए रास भणतां अविचल थासि, रिद्धि सिद्धि०७ निति नेहि रे ॥१७॥ भ० । [सर्वगाथा - २८४] ॥ १० इति श्री नंदिषेणरासः संपूर्णः । लिखितः । संवत-१७३३ वर्षे । कार्तिक सुदि ५ दिने । श्री उसमांपुरे । श्री वजीरपुर वास्तव्य । सा. धरमदास सुत सा. आसकरण पठनार्थं । उपाध्याय श्री प. श्री अमृतविजय गणि शिष्य ग. दीप्तिविजयेन ॥छ। १०७. वृद्धि नित० - क । १०८. भट्टारक श्री विजयप्रभसूरीश्वर शिष्य प. श्री लब्धिविजय ग. तस्य चरणसेवक शिष्य श्री दीपविजय लपीकृतं. सं. १७६५ वर्षे श्रावण सुदि १० दिने शुक्रवासरे ग. दानविजय वाचनार्थं ॥ भग्नपृष्टि कटिीवा, बधष्टीरधोमुखं । कष्टे लखितं ग्रंथं जत्नेन परिपालयेत् ॥१॥ उमत्तानगरे चोमासूं रह्या ६५ वर्षेस्तु ।। ॥ इति श्री नंदिषेण मुंणिइ रास श्रेणिक धारणीनो पुत्र नंदिषेण ५०० प्रीआ तजी चारीत्र ग्रही मुक्ति पुहता तस्य गुंण संपूर्णं, शुभंभवतुः ॥श्री।। - अ इति नंदिषेणऋषि चओ(उ) पई समाप्ताः । श्लोक संख्या - ४२१ । सकल पंडित शिरोमणि पं. श्री प. श्री रत्नविजय गणि शिष्य पं. गुलाबविजयेन लिखीतं । संवत् - १७६८ वर्षे माह सुदि १ - रवै लिखीतं दर्भावतीनगरे शुभंभवतुः कल्याणमस्तुः ॥ श्री रस्तुः ॥ श्री लेखक पाठक चिरंजीयात् ॥श्री।। -ब इति श्री नंदिसेण ऋषिरासः संपूर्णः । लिखितश्च संवत् १७८६ वर्षे आश्विन शुदि १०-रविवासरे ॥ सकल सकल भट्टारक परिषत्प्राप्त सत्प्रतिष्ट विशिष्ट भ ! श्री १९ श्री विजय ऋद्धिसूरि चरण सरोरुह षट्चरणोपम पंडित प्रधान पंडित श्री ॥ श्री हस्तीविजय गणि शिष्य मुख्य पं. । श्री ज्ञानविजय गणि चरणकमलोपासिना चतुरविजयेन । स्ववाचन कृते । श्री राजनगरे ॥ लेखक पाठकयोः शुभं भवतात् ॥ - क इति श्री नंदिषेण चोपई संपूर्णा - सर्वगाथा - २८३ (२८४) संवत १७३० संवति फाल्गुनाद्यपक्ष नवमी दिवे षोडशार्चिवारे सकल पण्डित शिरोरत्न पण्डित श्री श्री। श्री श्री भक्तिकुशल गणि तत् शिष्य मुनि राजकुशलेनेयं प्रति श्री जीर्णदुर्गे श्री नेमिनाथ प्रसादात् श्रीरस्तु कल्याणमस्तु || - ड Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ शब्दकोश चरण अर्थ ढाल १-दूहो गाथा १ یہ शब्द उच्छग तातिं आरामिक ख्यायक २-दूहो مر or or ہ ه उत्सुक - आतुर 'त्यारे तेने माळी - वनपालक क्षायिक (सम्यक्त्वनो एक प्रकार) सहित कानरूपी कचोळु क्षमा .साथे उपाय २ ४ س ہ सेत्ती करणकचोले खिमास्युं संच به ہ س ३-दूहो ه مر س तमे س » س مر ه ४-दूहो مر ه जतां वारदुं एम केम कंइपण छेल-चतुर पांचसो (५००) काळजामां » ه mo or w or ou or or ar rrr m so urrr जावां उआरणि इउं किउं किउंही छयल पांचइसि कालिजि कोउ काती वडी ओलग्यो बिशां छां مر ه له ه به ه سه س ه ه مر ه مر गरहणां ५-दूहो २ م मनरूं पडिगह कुंतीआवण मोटी छरी ओळख्यो बेठां त्यारे घरेणां मननो पात्रां कुत्रिकापण = ज्यां बधु मळे ते बजार वाळंद - हजाम विलंब पाछल ہ م س م مر م ५ ३ in mo ४ काश्यप जेडि । लारि م ه Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ गाथा चरण शब्द . अर्थ नौका संयम-निर्वाह ६ ८ ३ तरंड यापनानि आखंडल मइलो ढूंक छिन्न ल्यां किणिरू मेलु ढूंकनुं शिखर ? लउं 30 r or on a miss ढिग ü 170 ! 5 w 9 9 9 vvvvvvvvvvoooooo arvoa or rrrrrwvvoor or or or so oo نہ مر आइण ठामि जसी सुरताण चणचणो वरतुल नकरी ہ مر مر कोइनो ढगलो अहींया स्थाने जेवी । जाणे सुलतान चणचणाट गोळाकार नगद । सुवर्ण मखमलनी गलीमां / ओसरीमां (?) गालीचा व्यसनी सुगंधीद्रव्य । अगरचूवो ल्यावीने / लावीने (के लोचनमां) वटलेला س मुखमली ه ه م गिलम दुलीचा विसनी चूआ लोईनिं س س س س مر oo on ă ă ă wao or as ar (विटल - अ) जूठिल कनकवधु' दिहाडी चोअणा दुरमुख डुहरी सोनु-रुपुं आपे तेनी धणिआणी दिवसमां चोदना-प्रेरणा दुर्जन مر १०-दूहो १ १० १ سه سه Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ढाल गाथा चरण م or our س ३ १० ११-दूहो ४ शब्द लाविनि रसवतडी जर निमेड उरकुं ध्रम लहुंगउ अर्थ बोलीने रसोई जराक / थोडंक निवेडो लावो । पुरुं करो बीजाने धरम | धर्म ४ > سه ه पामुं ه له و हि १२ سه ہ » मुंहनि मसगति अनुमनिउं अन ہ مر له ہ سه चोकु w v_0033 ww 9 or rm - 9 9 छ । रह्या छे मने श्रम / कष्ट / महेनत मान्युं । स्वीकार्यु अन्न रसोइ वगेरे माटे जमीन पर थतुं लींपण जल्दी दररोज / प्रत्येक दिवस निर्दोष पकडमां लइ / नाश ہ » ہ مر झत्ति अनुदनि एषणीक गाहि ہ ه س ه س सुंडा सूंढ ه س ه س ه س ه س مر س له १७ २ १४-दूहो ४ १ १४ १४ १४ २ १ १४ २ २ १४ ९ ४ किमही तु वेसास किहारिं केताएक अडूआ झूमिउ उथेडि माहुतनि ढकचाल खेस तो कोइपण रीते विश्वास क्यारे केटलाएक । केटलाक उटज (कुटिरो) झझुम्यो उखेडि महावतने धमाल क्लेश(?) م » Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ अनुसन्धान-७८ ढाल १४ १४ १५ १५ गाथा १० १२ २ ३ चरण ४ ३ ३ ३ शब्द दंद सोनहरी कूरमनी संनिधि अर्थ द्वन्द्वसुवर्णनी (सोनेरी) काचबानी आहार आदि वासी पदार्थो राखवारूप / संग्रह कुक्षि प्रमाण भोजन लेनारा ज्ञातासूत्रकथांग (जैनोना एक आगमनुं नाम) س कूखी शंबलधारी न्याता अंग १६ سه २ C/0. जैन उपाश्रय केबीन चोक, महुवा - ३६४२९० Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ एक हरियाळी - सार्थ कर्ता : मुनि विनयसागर - सं. सा. समयप्रज्ञाश्री ॥६० ॥ हरीयाली सेवक आगलि साहिब नाचइ, बहइ गंगजल खारी । गर्धभ साटइ गइबर बेच्यउ, इहु उचरिज मोहि भारि ॥१॥ चतुरनर बुझो ए हरीयाली, जिम उत्तर देहु संभालि : आंकणी ।। कर्मरूपिया सेवकनइं आगलि जीव रुपीओ राजा नाचइ छइ । जिनवाणी रूप गंगाजल समानि मीठां ते पोतानी मति अर्थ खोटा करतो खाराजल समानि करइ । प्रमादरुपीओ गईभ अंगीकरीनइं संजमधर्मरूपीओ हाथी बेच्यउ । जीव प्रमादनइ वसि पड्यो चोखु चारित्र पाली सकइ नहीं ए मोटूं आश्चर्य ॥१॥ 'माकडकइ वसि योगी नाच्यो, मार्यो सीह सीयालइ । इक.चिंटीनै परबत ढायो, अचरज इणै कलिकालइ ॥२॥ च० ॥ मन मांकडनइ वसिं जोगी कहीइं संजती ते नाचइ छइ । सील रुपीओ सीह कामरुपीए सीआलई मार्यो, टाल्यो । तृष्णारुपणी कीडीइं संतोषरुपीओ पर्बत पाड्यो छइ । ए अचरिज एणइ कलयुगई घणूं वर्तेइ छइ ॥२॥ सुरतरु साखइ काग ज बइठो, विषधर गरुड विदारै । कस्तूरी परनालै वाहि, ल्हसण भर्यो भंडारै ॥३॥ च० ॥ जिनशासनरूपीओ कल्पवृक्ष, तिहां कुगुरुरुपीओ कागडो छइ । क्रोध रुपीओ साप, तेणइ ज्ञानरूपीओ गरुडनइ विदार्यो छइ । समतारुप कस्तूरी परी नांखीनइ, असत्यवचनरूप दुर्गंध लसणनो संचय-भंडार भरे छइ ॥३॥ अंब आक फल एक तरु लागा, हंस काग एक मालइ । मी? नाहर लातै मर्यो, अचरीज इण कलिकालै ॥४॥ च० ॥ एक-एक जीव रुपीओ वृक्ष, तेणइ सुख ते आंबा फल समांनि, दुःख ते आकफल समानि, समानि फलगां छे । एक जीव रूप माले पुन्यहंस पापकाग Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ - २ छे । अभी(भि)मांन मीढे विवेक नाहरनइं लाते मार्यो - टाल्यो । एतई जीव वनइं अभी(भि)मांन आवइ तिवारई विवेक नासे एही अचीरज ।४। माछरकै मुखी मैगल मायउ, राजा घरि घरि हीडै । एक थंभै पंच गज बांध्या, राणी हो इकण खंडै ॥५॥ च० ॥ कलीकालना जीव मच्छर समांनि जांणवा । जे भणी पुन्याई थोडी, तेणइ मिथ्यातपणुं घणुं ते जिनवचननइ योगई मिथ्यात तजी एकेक जीव समकित रूपीयो मेगल पांमइ छइ । राजा ते जीव कर्मनइं वसि ८४ लक्ष जीवाजोन्यमांहिं भमे । एक सरीररूपीइ थांभइ ५ इंदिरुपीया हाथी बांध्या छे । अवृत-रूपणी राणी ते वृत्तिरूपीया कणनी खंडना करे छइ ॥५॥ आठ नारि मिलि इक सुत जायो, बेटइ बाप पढायो । चोर वसियो मिंदर मिआइ, घरथी साह कढायो ॥६॥ च० ॥ मूल आठ कर्मनी प्रकृति संसाररुपीयो पुत्र प्रगट कीधो छइ । कपट बेटइ मोह रूप पितानइ वधार्यो छे । विषयरुपीयो चोर ते कायारूप मंदिरमांहिं वस्यो छइ । साहासीकपणारूप सीह तथा साह घरमांहिंथी काढीने ॥६॥ एक आगि सगलो जल पीवइ, वेस्या घुघट काढइ । कुलवंति कुल-लाज तजी करी, घरि घरि बाहिरि हिडइ ॥७॥च० ॥ लोभ - तृष्णा रूपणी आगि सत्य-संतोष रूपीउं जल सोषइ छइ । माया रूपणी वेस्या ते मीठां वचनरूपीयो बूंघटो करइ । सर्ववृत्तिरुपणी कुलवंती स्त्री पोतानी लाज छांडीनइं असंयमरुपीयां थानक घणां घर छइ, तिहां जाइ ॥७॥ ए परमारथ ग्यान सुणी करी, आत्मध्यान सुध्यावउ । विनयसागर मूनिवर उपदेसइ, धर्मे निज मति लावो ॥८॥च० ॥ ए वातनो परमार्थ ज्ञानमय श्री वीतरागना वचननी परिं सांभलीनइ, आत्मध्यांन कहीइं शुकलध्यान ते ध्यावो-प्रवर्तो । विनयसागर कहे छइ, धर्मेइं मति आंणो । जिम संसारनां जन्म-जरा-मरणनां दुःखी टालीनइं मुगतिनां सुख पांमो ॥८॥ ॥ इति हरियाली ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ६७ शब्दकोश गइबर - हाथी ढायो - पाड्यो परनालैबाहि - नीकमां ढोळी दीधी मीढ - मेंढो-घेटो नाहर - नार अवृत-अविरति । वृत्ति- विरति मिआइ - मांहि-अंदर सर्ववृत्ति - सर्वविरति C/o. जैन देरासर जय नमिनाथ जैन संघ डोम्बीवली (वेस्ट) थाणे Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ अनुसन्धान-७८ पौराणिक नाम आधारित समस्यावलि - सं. उपा. भुवनचन्द्र एक प्रखर विद्वान आचार्य द्वारा रचित समस्याओनी एक मौलिक-स्वतंत्र रचना अहीं सर्वप्रथम वार प्रगट थाय छे. कर्ताना स्वहस्ते लखायेल प्रत परथी आ रचना लिपिबद्ध करी छे. कर्ताए जरूरी स्पष्टीकरण पण दरेक कडी ऊपर लख्या छे तेना आधारे अहीं समस्याना उकेल पण नोंध्या छे. कर्ताए कृतिने नाम नथी आप्यु विषयने अनुरूप शीर्षक अमे प्रयोज्युं छे.. गूढा करतां आवी पौराणिक समस्याओ जरा जुदी पडे छे. सामान्य प्रहेलिका-गूढामां जाणीती वस्तुने जुदां ज लक्षणो द्वारा सूचववामां आवे छे, जेना उकेल माटे लक्षणा-व्यंजना-अनुमाननो उपयोग करवानो थाय छे. पौराणिक पात्रोनां नाम पर आधारित समस्याना उकेल माटे पौराणिक कथाओ, ज्ञान जरूरी बने छे. आवी प्रहेलिकाओ अनेक मळे छे. आ दृष्टिए पौराणिक समस्यानो एक स्वतन्त्र प्रकार गणवो होय तो गणी शकाय. प्रस्तुत कृतिना रचयिता आ. हर्षकीर्तिसूरि नागपुरीय बृहत्तपागच्छना एक पट्टधर छे अने इतिहासमां सुप्रसिद्ध छे. 'शारदीया नाममाला' वगेरे घणी कृतिओ तेमणे सर्जी छे. प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रत कुशल दीप-देव ज्ञानभण्डार-नानी खाखरमांथी प्राप्त थई छे. गंगारिपुरिपु सू पहरणवदनी, घणरिपुवाहण अछइ नयणी; पावस मंडण अग्गलि सारी, तिणि कारणि धणि प्रियह प्यारी. १ (गंगानो शत्रु = पाप, तेना शत्रु धर्म = युधिष्ठिर, तेनुं प्रहरण (?) कमल, तेना जेवू मुख धरावती. घन = मेघ, तेनो शत्रु = पवन, तेनुं वाहन मृग, तेना जेवा नेत्रवाळी. वर्षानो अलंकार वीजली, तेनाथी पण वधारे सारी. धणि : पत्नी । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ वनरिपु-रिपु-रिपु वाहणनयणी, शशिहर वाण भूषण वेणी; जलसू वदनी अति गुण सारी, तिणि कारणि धणि प्रीयह पियारी. २ (वननो शत्रु अग्नि, तेनो शत्रु मेघ, तेनो शत्रु पवन, तेनुं वाहन मृग, तेना जेवा नेत्रवाळी. शशधर - चंद्र, तेनुं वाहन शंकर, तेनुं भूषण नाग, तेना जेवी वेणी धरावनार, जलसू - कमल, तेना जेवं वदन धरावनार) शशिवाहणसू वाहणह, तसु रिपु चेला भक्ष; सो सुंदरि तोरइ अंगि नहि, एह पटंतर दक्ष. ३ (शशिवाहन - महादेव, तेना पुत्र गणेश, तेनुं वाहन उंदर, तेनो शत्रु बिलाडो, तेनो चेलो सिंह, ते भक्ष्य मांस.) शशिवाहण वाहण मइं पायउ, रविसू सारहि पितु भागि (लागि) न आयउ; एह पटंतर दाखउं तुज्झ, दुइ पखि तिणि अंगि नाही मुज्झ. ४ (शशिवादन महादेव, तेनुं वाहन बळद; रवि - सूर्य, तेनो पुत्र कर्ण, तेनो सारथि शल्य, तेनो पिता बकरो) इंद्रह आसणि रविय सू, सुग्रीवह भंडार, तई त्रिन्होइ एकठ किया, कहि सुंदरि कवण विचार. ५ भीम न दीधी भारवइ, रामायण हणवेण; त्रिपुर न दीधी संकरइ, सा मो दिद्ध प्रियेण. ६ माथइ वाढइ जीवता, अणवाढिए मुएण; सो मो लागा हे सही, तिण परिहरी प्रियेण. ७ [नख] रामसहोयर कणयरिपु, कोदंडाकउ सार; ए त्रिन्हइ तो माहि नही, तउ छंडी भरतार. ८ (लखन, सोहाग, धनुषनी दोरी - गुण, ए त्रण नथी) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० अनुसन्धान-७८ दादुरभोयण अहिघसण हररिपुवाहण सोइ; ए त्रिन्हइ मइ सुंपिया, तउ प्री अप्पणउ न होइ. ९ (माटी(शरीर), हृदय, मन-त्रणे सोप्या) शशिवाहण सू वाहणे खरी संतावी नाह; गयगंजण गुरु आणि दे, कइ घर छंडवि जाह. १० (महादेव सुत गणेश, तेनुं वाहन उंदर; गज-गंजन - सिंह, तेनो गुरु बिलाडो, ते लाव) कासपसू वाहण खडे, नव सत्त सल्ले तेण; कुंभकरण की वल्लही, नयणे रही घुलेण. ११ अजगिरि गुरु जागतउ, परिमल अंग गंधाइ; अह ए रंग न वाहु --, कहि सुंदरि कित भाय. १२ (अजगिरि = रात्रि, तेनो गुरु = दीवो.) (?) वनरिपु तसु रिपु तासु रिपु तह रिपु सुतह ज सामि; . तसु अरि सहोयर वल्लही, लेइ रही किति ठामि. १३ (वनरिपु = सीत (ठंडी), तेनो शत्रु अग्नि, तेनो शत्रु मेघ, तेनो शत्रु पवन, तेनो पुत्र हनुमान, तेना स्वामी राम, तेनो शत्रु रावण, तेनो भाई कुंभकर्ण, तेने प्रिय उंघ) चकवा चकवी अरिचर पति, तासु रिपु भिच्च जासु धजपति; तासु सूअ सू अरि दमण, पूछउं पंडित सो नर कवण. १४ (चकवीनो शत्रु रात, राते चरनार राक्षस, तेनो राजा रावण, तेनो शत्रु राम, तेनो सेवक हनुमान, ते जेनी ध्वजामां छे ते अर्जुन, तेनो पुत्र अहिवन, तेनो पुत्र परीक्षित, तेनो शत्रु साप, तेनुं दमन करनार कृष्ण). चकवाचकवी अरि उज्जोय, तसु वाहण वाहण पिय मोय; सल्ह पिता मो नही जु माह कहि किणि ऊपरि करउं छांह. १५ (?) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ७१ बि सहस जास पलोयणा, सहसो एक फणाई, सखी सवाणी वीनवइ, तउं तास वरन्नी कांइ. १६ छप्पा वाहण वाहणेण मंडण भखण सुएण; जिम दुइ-पंचा सिर नयर, तिम हुँ किद्ध प्रियेण. १७ (भ्रमर-कमल-महेश-सर्प-पवन-हणवंत-दशसिर रावण - लंकाने बाळी, तेम मने बाळी.) गिरिस् कंत आभरणे, तसु भख अंगि म लाउ, अंबुह अलविहि जो चवइ तसुजं -- उ मिलाउ. १८ गिरिपुत्ति कंताह स, तस वाहणची नारि; कामकं-सण जिहि तिहां सा जीवु री संसारि. १९ (पार्वती-महादेव-कार्तिकेय-मोर-ढेलि-ढील) (?) अख ग्रह अंतरि जो वसइ तस वइरी वइरेण; तसु स्वामी अरि कारणइ, खरी संताई तेण. २० (चंद्र-वादल-पाणी-पवन-सर्प-महादेव-कंदर्प) श्रीपति सू अरिमंडणउ भोयण नंदण नाह; तसु अरि बंधव लही, तसु उपरि ऊछाह. २१ (कृष्ण-कंदर्प-महादेव-सर्प-पवन-हनुमान-रामचंद्र-रावण-कुंभकर्ण-नींद) सायर सू सारिखावदनी, घणरिपुवाहण अछइ नयंनी; कासव सू तसु रिपु रिपु वाहण, सीस सूआ सू धण लागी चाहण. २२ (सागर सुत चंद्र. मेघ-पवन-मृग. सूर्य-राहु-दान-हस्त-आंगुली-नख) वि-सू मंदिर सारवइ, जे तूं घत्तइ मुझ; तउ इंद्रावाहण तसु डसण हूं पहिरावउं तुझ. २३ (रावण-वायु. गज-दंत (चूडो). Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ अनुसन्धान-७८ इंद्रावाहण तसु डसण सो सगलां करि होइ; जिण दीठइ कंचण गलइ, कंता देई सोइ. २४ (गज-दंत(चूडो) - सोहाग.) . संतन सुतथी ऊतर्या, नेइडे वसइ तूं कांइ; हररिपु वाहण जे वसइ, ते दूरे नेइडा चाई. २५ (संतन सुत - चित्त. हर - काम - मन.) जलसू तस सू तास सू तिहि वल्लही म मंडि: हरिणाखी वालंभ कहइ, का छंडिसि का छंडि. २६ (कमल-ब्रह्मा-नारद-कलि.) शशिवाहण सू वाहणो सद्दे जउ न मरेसुः तउ कमलसूआ सू वल्लही, जनमंतरि न करेसु. २७ (महादेव-कार्तिकेय-मोर. ब्रह्मा-नारद-कलि) वनरिपु तसु रिपु तासु रिपु तसु रिपु रिपुह रिपेण; जइवि ण मूकी धाहडी, ता मो मूकि प्रियेण. २८ (सीत-अग्नि-मेह-पवन-सर्प-मोर-कूकडो) मउडाला सुंदरि भणइ, किणि गुण मूंकी धाह; तो दिउं सुर तेतीसां धुरि धवल, तसु वाहण रिपु साहि. २९ (कूकडो. देवोमां पहेला देव = गणेश, - उंदर - मार्जार) राग बिलावल. जलसुत प्रीतम सुत रिपु बंधव, आवध आणण विलष भयो री; सारंग सुतापति मस्तकि राजति, कोटि प्रकाश रिसाय गयो री. १ (कमल-सूर्य-कर्ण-अर्जुन-युधिष्ठिर-तेनुं आयुध = कमल. पर्वत-पार्वतीमहेश-चंद्रमा) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ७३ मारुतसुतपति अरि पुरवासी, पितु वाण भोजन सुहाइ [री]; शिवसुतवाहण भक्ष सनेही, मार्नु अनल देह दव लाइ [री]. २ (पवन-हनुमान-रावण-लंका-अगस्त्य-ब्रह्मा-हंस-मोती. महादेव-कार्तिकेयमोर-सर्प-चंदन). दधिसुता पति वाहण कुं सखी री, ता वाहण कइसइं समझावौरी; सूरदा[?स] प्रभु धरम सुयन रिपु ता अवतारई सलिल वहावौ री. ३ (लक्ष्मी-कृष्ण-गरुड-मन. युधिष्ठिर-सुत-दुर्योधन-मान- जलांजलि). पावक अरि सुत मित्र तासु नंदन भ्राता गणि, तासु जननी बंधु तासु बाहन चितउ हमनि; तसु अरि भख सुत स्वामि तेहि ज बंधीयउ तास सुअ; 'तासु नाम धरि आदि अंति जिह सुणत हर्ष हूअ; १ जे ग्रंथ दुघट कवि भोग भणि, तत्प्रवीण त्रणमति मुणी; तसु अर्थ गुपत षट्वर्ष लगि, कहउ सकल पंडित गुणी. श्री हर्षकीर्तिसूरिभिरलेखि. (अभय ग्रन्थालय, बीकानेर, क्र. ४०३६४) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ अनुसन्धान-७८ गूढा - प्रहेलिका - समस्या हरियाली-६ - सं. उपा. भुवनचन्द्र पुरुष पेटे पदमिनी सृष्टि करतार उपाइ, बाप कहीथी नीकली जीवित कही न जाइ; पुरुष विहूणी नारी फिरै नव खंड मज्झारि, उत्तम सेवि(ति) संगति करै, रहइ ठउड अति भारि; सामलवरणे गुण घणा, मन भूपाला रंजणी, ता ता ऊ बूझइ चतुरनर जायै चतुरापण घणी. [कस्तूरी] १ नारि एक निरुपण जाणि ते नरह नीपाइ, जिम जिम अलगी जाइ, ता - था खरी सुहाइ; तेडी आवइ पासि, तास कर किमइ न खंडइ, स्वर्गभूमि संचरइ, वृद्धि(ख)स्युं प्रीति न मंडइ, एरीसी नारी अन्या विना, गुणवंता बंधन सहइ, नगरमांहि दीसइ बहू, गुण मोहइ सुंदर कहइ.[पडाई (पताका)] २ एक नारी पग च्यारि वदन तस एक भणीजइ, श्रवण छइ तस एक नयण-नासि न मुणीजइ; जिमतां दूबल होइ जब तब गले ग्रहीजइ, अहिसि(?)बंधन ते सहइ, कबाह (?) न रोध र नरा, समरसिंघ इम उचरइ, कहो अर्थ पंडित नरा. [त्रपणी (तरपणी)] ३ एक सो उजल नारी, रेहांक जल रेहांवइ, वेणी विण दीसइ बंध चंग चाप बखां बंधावइ; कडि विण पहिरइ वस्त्र सीस विण सेंथो भरावइ, चतुर नर करीइं प्रीति, चंग चालो करावइ. [पोथी] ४ बीज विण नीपजइ, तो स्युं केलि ? केलि नहीं पण उजलवरणो, तो स्युं हंस ? हंस नहीं पण जल उपनो, तो स्युं कमल ? कमल नहीं पिण जलसि हाथ, तो स्युं आगि ? Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ७५ आगि नहीं पण सहू को खाय, तो स्युं अनफल ? अन नहीं फल नहीं, कवि गद कहि रे विचक्षणो एह जो अर्थ विरलो लहइ रे. [लवण] ५ चंद्र तणइ आकारि नयनइं हरख धरंति, हव्यणापुर उप्पन्न अगि सेज्य पोढंति; विहुं अक्षर जसु नाम, मानवनां मन मोहेति पतिव्रता नहीं ते पंथीजन साथि चलंति नर-नारी मन वल्लही पुन्यवंत स्यूं रमइ अपार, ता विण सुख न उपजइ सूरता लहो विचार. [अंगाकरी] ६ एक नारी नीरमाहि बुडी, तरस कारणि पाडोसिणि कुटी, सावइं(?) नारी पुकारि, किस कारणि मो बंभण मारि, मारुं नहि तो रूसइ राय, सुरता हुइ सो समझाय.[घडीआलु] ७ एकणि मंदिर रहि नारी-नर. कदी न दीठो नर नहि दीठी नारि, सदा वंजइ सुनुठो(?) नित्य आवइ नित्य जाइ, पिंड न प्राण न चक्षु-चलण, मही ऊपरि अछइं अमर, सतरसलराय (?) सुणि वीनति, कवण सा नारी, कवण नर ? [रात-दिवस] ८ दही नहीं पणि दहियावन्नो मछ नहीं पणि जल उप्पन्नो, चोर नहीं पणि बांध्या लीजइ, पुत्र नहीं पण कोको दीजइ. [संख] ९ बाप-बेटो एक ज नाम, बेटो हीडइ गामोगाम, बेटा पेट ऊपनी बाली, कहो पंडित तुम्हे हरिआली.[आंबो] १० बापे जायो बेटडो, बेटीइ जायो बाप; कहो पंडिता, धर्म के पाप ? [आंबो] ११ प्रथम अक्षर विण पातसाह घर सोहे, मध्य अक्षर विण घर घर डोले; Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ अनुसन्धान-७८ अन्त्य अक्षर विण जग में मीठो, ए अचंभो त्रिया सिर डीठो. [ ] १२ दधिसुता दधिसुतमुखी, दधिसुत पहिरै जात; दधिसुत करमें ग्रह्यो, दधिसुत देखन जात. [ ] १३ अहिवरणांथी ऊतर्या, पासें तोहि दूर; हररिपुवाहन जे वसै, ते अलगा तोहि हजूर. [ ] १४ वाहामझे तीनि जणा, अज्ज में दीठा कंत; एक मरड्यो, एक फाडियो, एक देखाडै दंत. [ ] में गया कछु ओर है, तें गया कछु ओर; मेरा ठाठ कुठाठ है, तेरा ठाठ है ठौर. [ ] १६ भूमिडसनरिपु बोलीउ, छाडि चल्यो प्रिया मोहि; हरसुतवाहन तास रिपु, आनि मिलावू तोहि. [ ] १७ सूक सरोवर बहोत जल, अलप अणो न पाय; कर झालै आघो कियो, नर झीलै उण माय. [ ] १८ सूक सरोवर अथाग जल, जिनमें बूडै न राई; पीयै हाथी-घोडला, देख सरोवर की चतुराई. [स्तन] १९ सांजै आंबो रोपियो, पाको माझम रात; सवारे ऊठी वेडियो, बिक्यो हाटोहाट. [दहीं] २० मध्यम घरे ऊपजै, उत्तमरे घर जाय; चतुर होय तो समझज्यो, वो रोजी खाली थाय. [सूपडो] २१ थोडी मोली घण सही, नारी माथै नार; करण हीयाली पाठवै, राजा भोज विचार. [इंढवणी] २२ गगन सीचाणो पाडियो, नगर पहोतो सेस; कंता ! | ई मेलज्यो, जिण रे कालजा में केस. [आंबो] २३ पाल चढे कंता केही, सोटी मोटी समूली लही; करण हीयाली परठवै, मरद रे पेटे अवतरी रही. [भांग] २४ C/o. जैन देरासर नानी खाखर (कच्छ) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ ओक्टोबर - २०१९ गूढा - प्रहेलिका - समस्या हरियाली-८ - सं. उपा. भुवनचन्द्र गूढा : मालतीकुसुमइ भ्रमर भाग छठाना बइठा, विकचकमलवनखंडि भाग त्रीजाना पइठा; केतकी संगि वली भाग चुथु ते जाणुं, पाडल केरे फूलि भाग पंच सु वखाणुं; त्रीसमु भाग जातीकुसुमि एक भमर गगनइ फिरइ, तुझे कहु विबुध बुद्धि करी भमरसंख केती सिरइ ॥ [१६०] विवहारी नर चतुर मधुर दाडिमफल लाविउ, बीजउ तेहनउ भाग भूपनइ भेटि चलाविउ; . पंचम सुंदर भाग मित्रमंदिर पाठविउ, अठम भागि जेह तेह जिन आगलि ठवीउ, दसमु ज भाग सुतनई दिउ त्रणि मधुर फल तिहां रह्यां कल्याणसोम कहइ बुधजनो सवि संख्या केतां कह्यां ? [१४०] अचर चरइं चर परिहरई, चरई नई चरवा जाय; बारई मास वलोइइं, डुकइं(?) पणि नवि जाय. [सराण] जलधारीमा ईश्वर मोटो फरतां पाणी काढइ रे; आंखि भरी पोढा पनोता, सीआलानई दिहाडइं रे. [घाणी] नारि नारिकांने चडी, प्रजापति सुथारं घडी; अबला सबला ताणइ दोर, ए अरथ न कहइ ते माणस ढोर. . [वलोj] चित्रालंकी कहइंडई पातली, तुरंग पग चल्लइ बाली; न जीव नारि हलावी हल्लइ, चढ्यो पुरुष पणि पालो चल्लइ, करण हरिआली कहइ, चतुर होइ ते समझी लहइ. [चाखडी] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ अनुसन्धान-७८ एक नारी छइ झाकझमाली, तेहनई पासि आवइ वनमाली; चोसठि चांपां लावि भेटइ, राजा सरीखो तेहनइं पेटइं; व्यवसाया कुल ऊपनी, ऊभी राजदुआरी; करण हरिआली पाठवइ, राजा भोज विचारि. [पालखी] काली छइ पण नवि कस्तूरी, टांगां नाखइ पणि नहि सूरी; वरण अढार तणइं भक्षि आवइ, तेहनई अंगि स्नान ज नावइ. [माखी] एक नारी रहइ नगर मझारि, कोलं-काचुं करइ आहार; छपर लइ बिडं चालइ, बइ लेइ नई ऊपरि घालइ; च्यार आंखि नई न देखइ, ए हरिआली कहो कुण लेखइ. [घंटी] त्रिपुर न दीधी शंकरह रामायणि हणूएण । भारथि भीम न दीन्ही या सा मुझ दिन्ह पिएण ॥ [पीठ] एक नारी ओचंता आवे, वस्ती नगरी उजड कहावे; नारी नारीने ठिकाने गई, उजड नगरी वसति थई. [ऊंघ] एक नारी संसारि(र)मां प्रीत पुरुषसुं मांडे, जोगी-जती-तापसी(स) तिहांसुं ततखिण छांडे; वांकासुं वांकी रहे, समासुं समवड रहे, ददु भख्यण (?) इम कहे ते जूनेगढ वासे वसे. [पाघडी] तेलकर्करये (?) दस वीस जल-रणमांहे माणे, ताके भमर नही पण पंख भू उपरि ते चाले: नरके नाम नाम है वसिहर जैसा मुक्ख, कवि गद्द कहे सुणो ठक्कुरा उसे च्यार पग सौ नक्ख. [काछबो] कन्या-मीन-मिथुन मिलि चले, कुंभ रास साथे संचरे; वृषरास हे ताको नाम, कहो अरथ के छांडो गाय. [बीडो] पातसरोवर नै कठफाल रहै सदा सिवालै, भरीयो झोला खाय रहै धर-आभ विचालै; Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ---- ---- ---- ---- ---- आभ तणो नही नीर नही कछु माणस भरीयो, --- सदा सनूरो अछ कछक सगलां ही सिर हथ सहे, इम आखे सिगरामसुत, पात सरोवर नाम कहे. [श्रीफल ?] सजडु न संकरू सीअहरू लंकाहिवइ न होइ । एह हीयाली पंडिआ विरलउ जाणइ कोइ ॥ [कंबल] असद दुण च (?) नरनार रहै सब आप सुरंगी; चलण विना फिर चलै चिरत बोह करै सु चंगी; पुरष मुरटतिणपत(?) च्यार ले ओर चलावे, करै रांड बोहकोड(?) वडा नरनार चिढावै, न न फोज नेज आवध नही, मरजीवै फिर फिर भरै कव(वि) करो अरथ सकरो कहे, कैसी नार भारथ कर. [?] प्रहेलिका : पाण्डवानां सभामध्ये दुर्योधन उपागतः । तस्मै गां च हिरण्यं च सर्वाण्याभरणानि च । (क्रियागुप्त)[०ध्येऽदुः] नदन्ति वाजिनो द्वारे, परा भूतिः प्रजायते । सदातुष्टेन ते राजन् शत्रूणां स्यादिति स्थितिः ॥ ___(सदाऽतुष्टेन) (न दन्ति०) [पराभूतिः = पराभवः] पर्वताग्रे रथो याति, भूमौ तिष्ठति सारथिः । चलते वायुवेगेन पदमेकं न गच्छति ॥ [कुलालचक्रम्] किं जीवियस्स सारं, का भज्जा होइ मयणरायस्स । किं पुप्फाण पहाणं परिणीया किं कुणइ बाला ॥ [सास रइ जाइ] चउवयणो नवि बंभो बहुसीसो नेव रावणो होइ । . सरणागयरक्खकरो भामो नहु होइ जाणेह ॥ [दुर्ग] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० अनुसन्धान-७८ जैन इतिहासवें ओक अजाण्यु पार्नु - शी. शेठ अम्बालाल साराभाई ए जैन संघ-समाजना, वीसमी सदीना, एक प्रतिष्ठित अने आबरुदार महाजन हता. भारतना गुजराती अग्रणी उद्योगपति तो ते हता ज, राष्ट्रना नेताओ तेम अंग्रेज सरकारना उच्च सत्ताधीशो वगेरेमां पण तेमनी मोटी प्रतिष्ठा हती. पण ते साथे ज, तेओ जैन हता, अने शेठ आणंदजी कल्याणजी पेढीना मुख्य वहीवटकर्ता पण हता. तेओ अमदावादनी दशा श्रीमाळी वणिक ज्ञातिना मोवडी हता. तेमना पूर्वजोए अनेक जिनालयो बंधाव्यां छे. घीकांटा परनुं प्रख्यात शंखेश्वर पार्श्वजिनालय तेमनुं ज हतुं. पेढीना माध्यमथी तीर्थोनी रक्षाना तथा तेना विवादो उकेलवामां तेमणे मोटो-अगत्यनो भाग भजव्यो छे. तेओ नेमिसूरि महाराजने पोताना गुरु मानता, अने तेमना कोई पण आदेशने विना दलीले तेओ स्वीकारी लेता. ई. १९२६ मां तेमना जीवननो एक प्रसंग एवो बन्यो के तेमना मिल कम्पाउन्डमां के आसपास कोई कूतरुं हडकायुं थयुं; ते बीजां घणांने करडतां भय प्रसो. शेठ जैन हता, अहिंसाधर्ममां मानता हता. छतां आ कूतरांने कारणे घणा जनो मरशे तेवू लागवाथी तेमणे केटलांक कूतरांने मरावी नाख्यां. स्वाभाविक रीते ज आथी दयाप्रेमी अने धर्मी जनोनी लागणी दूभाई. आ मुद्दाने महत्त्वनो बनावी जैन मनि रामविजयजी तथा तेमना गुरुजनोए आ बाबते जाहेर झुंबेश उपाडी. जाहेर सभाओ तथा प्रवचनो तेम ज पोताना अंगत पेपरोमां शेठनी आ बाबतने वखोडतां लखाणो द्वारा तेमणे आन्दोलन चलाव्यु. आ समग्र प्रसंगर्नु पोताना वखाण थाय अने शेठ- घसातुं थाय तेवू आलेखन, तेओनां जीवनचरित्रनां पुस्तकोमां थयुं छे. जे लगभग सन्दिग्ध अने अर्धसत्य प्रकार- गणाय तेम छे. वास्तविक वात एवी बनेली के ते साधुओनां तथा तेमना पेपरोना तन्त्री वगेरेनां लखाणोथी शेठ अम्बालाल नाराज थया. तेमने लाग्युं के आमां Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ तो आ लोकोए मारी बदनक्षी करी छे, एटले तेमणे ते बधा पर बदनक्षीनो दावो मांड्यो. ते बधामा २ साधु (गुरु-शिष्य) अने २ गृहस्थो. केस चाल्यो. अमां लेखोना शब्दो तथा तेना अर्थघटनो माटे वकीलो उपरांत दिग्गज साक्षरो - आनन्दशंकर ध्रुव, नरसिंहराव दिवेटिया वगेरेनो पण सहयोग लेवायेलो. आरोपी पक्षने ख्याल आव्यो के आ दावो साबित थशे ज, अने तेनो अर्थ एक ज - जेलमां जवानू. साधु जेलमां जाय, अपराधी बने, तो जैन शासननी केटली अपभ्राजना थाय ! पण हवे निरुपाय हता. छेवटे ते साधुओ नेमिसूरि महाराजना शरणे गया. महाराजे बधी वातनो क्यास मेळव्यो. आवी झंबेश बदल कडवो ठपको पण आप्यो. पण छेवटे साधु हता अने धर्मशासननी इज्जतनो सवाल हतो. तेमणे ते लोकोने बचावी लेवानुं नक्की कर्यु. शेठ मळवा नियमित आवे, पेढीना कामे. महाराजे तेमने केस पाछो खेंचवा समजाव्या. शेठे मक्कमताथी ना पाडी, ने पोतानी व्यथा ठालवी. तेमनी वात साची पण हती के माराथी तमारी दृष्टिए भूल थई, तो तमारे मने बोलावीने समजाववो जोईए, ठपको पण आपो, पण आ रीते जाहेर आक्रमण ? मारा जेवा आबरुदार माणस माटे आ सहन थाय नहि. महाराजे समजाव्या. छेवटे कडं के 'अम्बालाल ! हवे तारो केस ए साधुओ (प्रेमविजय-रामविजय) सामे नहि, पण नेमिसूरि सामे छे, एम समजजे.' शेठे ए आज्ञा मानी, अने बे साधुओ सामेनुं आरोपनामुं कोर्टमां पार्छ खेंची लीधुं. साधुओने काळो डाघ लागतां रही गयो. पण बे गृहस्थोने सखत केद (प्रायः ४ वर्ष) थई ज. .. पण आ पछी शेठ- मन चगडोळे चडी गयुं. तेमणे विचार्यु के 'मारी विचारधारा मुजब में कूतरां मार्यां तेमां घणा लोकोनी तथा जीवोनी रक्षा थई छे. आ हिंसा होवा छतां तेमां पाप छे एवं मानवाने मन कबूल थतुं नथी. ज्यारे जैन धर्मना सिद्धान्त मुजब आ कृत्य स्पष्ट रीते हिंसानुं कृत्य छे. हवे ए वात पर मने विश्वास न होय, तो मने 'जैन' कहेवडाववानो कोई अधिकार नथी. जेना सिद्धान्तोमां मने विश्वास न होय ते संस्थाना सभ्य तरीके माराथी केम रहेवाय ?' Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ खूब मन्थन कर्यु. नेमिसूरि महाराज साथे मोकळे मने आनी चर्चा पण करी. महाराजे खूब समजाव्या के आवं न विचारो, बधी वातना खुलासा होय, उपाय-उकेल होय. तमारे कांई छोडवानुं नथी. आ लोकोए अविवेकी वर्तन दाखव्युं छे. पण तेथी तमारे 'जैन' मटी न जवाय. शेठने गळे आ न ऊतयं. महिनाओना मनोमन्थन पछी एक सवारे तेओ साबरमती नदीना पटमां गया. कलाको सुधी विचारो कर्या. छेवटे अन्तरात्मानो अवाज के 'जे सिद्धान्तने हुं पूरा विश्वासथी मानवा तैयार न होउं तेना सभ्य रहेवानो मने कोई हक नथी' - ए प्रमाणे तेमणे 'जैन' तरीके राजीनामुं लख्यु. ते राजीनामानो असल पत्र आ साथे छाप्यो छे. ते पछी संघ-समाजमां भारे ऊहापोह थाय ते स्वाभाविक छे. अनेक तीर्थो वगेरेना प्रश्नोमां बुद्धि, बल, वग, धन इत्यादिनो सतत भोग आपनार महाजन, अमुक नकारात्मक लोकोनी अणछाजती हरकतोने कारणे, संघनो अने धर्मनो त्याग करे ए कोण बरदास्त करे ? संघमां थयेला ऊहापोहनी असर राजीनामाना पत्र पछी ते उपर विचार करवा मळेला संघे करेला ठरावमां जोवाजाणवा मळे छे. ते ठराव पण आ साथे छे. जो आ ठराव न थयो होत, संघे राजीनामुं पार्छ खेंचाव्युं होत तो साराभाई परिवार जैन परिवार होत; तो विक्रम साराभाई सहित तमाम परिवार जैन रह्या होत. जोके जे लोकोए पोताना मान-महत्त्व पामवा-वधारवा माटे विरोध करेलो, ते लोको तो, शिक्षात्मक पगलांथी बची गया पछी, पोते महान धर्मकार्य कर्यु, जीती गया, अहिंसानो ध्वज फरकाव्यो, पोते न होत तो महा-अनर्थ थात, आवी आवी वार्ताओ रचतां अने लखतां रह्या छे. ए पण विषम कलियुगनी बलिहारी छे. वर्षोथी अंधारामां दटायेलो इतिहास, वारंवार अवळी रीते रजू थतो रहे छे, अने मुग्ध लोको तेने ज साचो मानी ले छे, त्यारे बनेली घटनानो यथातथ इतिहास प्रस्तुत करवो ए आवश्यक जणाय छे. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ८३ AMBALAL SARABHAI Telegraphic address, “BUSINESS” POST BOX 28. Ahmedabad 20-4-27. No. 1723 To, The Nagarsheth & the Sanghpati Of the Ahmedabad Shwetambar Jain Sangh, Ahmedabad Dear Sir, I hereby beg to resign the membership of your Sangh with of fact from today. I resign as I feel that my convictions and views in general, and particularly in so far as they refer to social customs and to the interpretation of the tenets of religion - I use the word Religion' in the widest sense - have since 1910 been, and may continue to be, a source of irritation to certain sections of the Sangh. This I am anxious to avoid, which I do hope I may succeed in doing by my remaining outside the Sangh. Yours faithfully, (Signature) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ 28 POST BOX 28. AHMEDABAD OS The the Sanshpa nyatambar Jain Annadabad, gour Sangh with oto et from de Porto NONS and particularly wor customs and the interpretation at: FOIS LOVE the words thauntant more sonus - kava manen 1910 boon, and may continuo to be, a source of irritation to certain sections of the Sanghe thig iaw anxious to avoia, which I do nope I'ma y puedood tissosho by ne romain16 outode soura faithfully, на и ее да Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ ८५ आज रोज अटले १९८३ना श्रावण वद ४ने मंगळवार ता. १६-८२७ना रोज रातना आठ वागता अमदावादना जैन श्वेतांबर मुर्तिपुजक संघनी मीटींग संघना आगेवानो अने संभावित गृहस्थो साथेनी नगरशेठना वंडामां भरवामां आवी तेमां नीचे जणाव्या प्रमाणेनो छेवटनो ठराव सर्वानुमते मंजुर करवामां आवे छे. शेठ अंबालाल साराभाई) ता. २०-४-२७ना रोज, जे लेखीत राजीनामुं संघमां मोकलावेलु छे ते राजीनामु शेठ अंबालाल साराभाई आजनी तारीखथी चार मासनी अंदर "रद करीने पाछु खेंची लउं छु" ए प्रमाणे लखीने लेखीत लखाण संघमां तेओ लखी मोकली आपे अने जो ते प्रमाणे तेओ उपर जणावेली मुदतनी अंदर उपर जणाव्या प्रमाणे- लेखीत लखाण लखीने संघमां मोकली ना आपे तो तेमणे ज ता. २०-४-२७ना रोज- मंजुर राजीनामु संघमां लेखीत लखी मोकल्युं छे ते राजीनामु मंजुर अने पास करवामां आवे छे. उपर जणाव्या मुजबनो ठराव छेवटनो सर्वानुमते मंजुर करवामां आव्यो छे. १९८३ना श्रावण वदी ४ ने वार मंगळ. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ Lyocera MalaV3 or by memur? apar. 15-cing oud eram donjennou anserunt on พมหy yet nail ดินสอ axt tioufaa yetem trebajaspolyancipiaisparixi 20087 ani de armando dia mai dera magna sign steroider del sets anderen Protimet anderingarinho ཤུ" ཁེར་འ༧༡ལཚབཅུ ༦ ༧ རྩ་བོwཨེཔེ ལ་སཨུ་པ་ diemenet sotianfamom cumcha tupovation inity Ki sözług mnij & gjine dommen einad tieni centamoswamindaddizmet conse Boy see yechirazvте, әтэрытоестес and tiuni si mon sam da oni draga oboj nozi estening tenni timia com suzeze dring "} *n) Үну, заче...59. носене гре от 5-м яамна Secessioned tue pour space cor dansing Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ lo विहंगावलोकन - उपा. भुवनचन्द्र अनुसन्धान-७७नी प्रमुख, प्रशिष्ट, प्रौढ कृति छे : 'सिद्ध हेमव्याकरणकतिपयोदाहरणमयाः स्तवाः' सिद्धहेम व्याकरणना अनुसारे नाम अने धातुओनां रूपो, नियमो अने प्रयोगोने, अध्याय अने पादना क्रमे, गूंथी लईने आ स्तव रचाया छे. आवी रचना भाषा-व्याकरण-छन्द-अलङ्कार जेवा विषयो पर केवं ने केटलुं प्रभुत्व मागी ले - एनी कल्पना तो आ क्षेत्रना अभ्यासीओ ज करी शके. आनन्दनी वात छे के आवी प्रगल्भ-प्रौढ कृति हवे प्रकाशमां आवी छे. दुःखनी वात ए छे के आनी हस्तप्रत क्या हती के छे ते विशे कशी ज जाणकारी नथी. महो. विनयसागरजीए वर्षों पूर्वे आ कृतिनी प्रतिलिपि करी राखेली, तेथी आ कृति बहार आवी. आनुं सम्पादन-संशोधन आ विषयना अभ्यासी श्री विमलकीर्तिविजयजी महाराजना हाथे थयुं ए एक सुखद संयोग छे. 'संस्कृत गेय पञ्चस्तवी'ना पांच स्तवनो सुन्दर प्रासादिक रचनाओ छे. संस्कृतनी जीवंतता, मधुरता अने क्षमतानी परिचायक आवी गेय स्तवन प्रकारनी रचनाओ पुष्कळ छे अने हजी पण हस्तलिखित ग्रन्थ भण्डारोमा प्रकीर्ण-चूटक पत्रोमां दटायेली पडी हशे. पहेली अने बीजी रचना 'त्रूटक' अने 'चाल'नी ढबे गवाय एवी छे. बाकीनी रचनाओ शास्त्रीय अथवा देशी ढाळोमां गाई शकाय एवी छे. एक संस्कृत 'थोय' पण आ अंकमां प्रगट थई छे. लौकिक छन्दमां रचायेली आ स्तुति भाववाही अने कर्णप्रिय कृति छे. ___ '१२ बोल पट्टक'नो बालावबोध एक गम्भीर अने संघ माटे दिशाबोधक कृति छे. जगद्गुरु श्री हीरसरि महाराजे संघना 'मार्गदर्शन अर्थे जे बार बोल - मुद्दा जाहेर करेला, तेनी पृष्ठभूमि तथा ते माटेना शास्त्राधार साथे १२ बोलनी समजूती आमां अपाई छे. सूत्रोना-शास्त्रोना पाठ साथे सामान्य नीतिशास्त्रना श्लोको पण आमां उद्धृत छे. सम्पादक मुनिराजनो आ प्रथम सम्पादन प्रयास छे. सम्पादन सरस थयुं छे. पृ. ६६ पर 'कुम्भभित्ति०' ए श्लोकना त्रीजा चरणमां रुष्टता० छे त्यां रुज्झता० होवानी सम्भावना छे. ए ज पृष्ठमां बे स्थळे 'लिखीय Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ छइ' छपायुं छे. मध्यकालीन गुजराती भाषामा 'लिखीयइ छइ'' एवं रूप थाय. पृ. ६९ पर मिथ्यादृशो० श्लोकमां 'न वरं(राः)' छे, आमां 'वराः' एवो सुधारो दर्शाव्यो छे तेनी जरूर नथी. आ ज श्लोकना प्रथम चरणमां 'वरं' प्रयोग छे ज. 'वर'ने अहीं अव्यय गणवानो छे, विशेषण नहि. पृ. ७२ उपर नीचेथी छठ्ठी पंक्तिमां 'कल्पावती' कर्यु छे पण अहीं 'कल्पावता' जोईए. मंगलदीवाना गीतनी मूल रचना आ अंकमां प्रगट थई छे. वर्तमानमां प्रचलित मंगलदीवोनी कडीओ आ मूल कृतिमां देखाय छे. हालमां गायनना हेतुथी गीत संक्षिप्त करी देवामां आव्युं छे. जे रचना लोकजीभे गवाती होयप्रसारमा होय तेमां परिवर्तन सहज रीते थया करतुं होय छे; एवं ज मंगलदीवाना प्रचलित गीतमां थयुं छे. 'श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्तवन' एक दस्तावेजी रचना छे. कवि वीरविजयजी पासेथी आवी अनेक रचनाओ प्राप्त थई छे. तेमां एकनो उमेरो थाय छे. कडी ५ मां 'गुणनीलो' छे, त्यां 'गुणलीनो' पाठ साचो गणाय. गुणनिलो (गुणनिलय) भगवान होइ शके, ज्यारे 'गुणलीनो' भक्त होई शके. अहीं वात भक्तनी छे. वीरविजयजी जेवा समर्थ कविनी रचनामां प्रास तो अनायास बनी जाय. प्रथम चरणना 'नगीनो'नी साथे बीजा चरणना अन्ते 'लीनो' नो प्रास बने छे. प्राचीन कृतिना सम्पादनमां आ दृष्टिए पण पाठनी समीक्षा थवी जोइए. 'करमबत्तीसी' अने बे स्तवनोनी भाषामां अशुद्धता जणाय छे, परन्तु ते समये अने ते प्रांतमां आवा ज उच्चार थता हशे, ए दृष्टिए आ पाठ शुद्ध ज गणाय. सम्पादक आवा पाठोने 'सुधारी' न शके. कडी १३मां 'मारण माड्यो पणि नवि मूक्यो' - आ पाठनो अर्थ संगत थतो नथी. सम्पादकने अहीं शंका पडवी जोइए; अन्य नकल तपासवी जोइए. संभव छे के बीजी प्रतिमां साचो पाठ मली जाय. अन्य प्रति न मळे तो, विषयनो सम्बन्ध, भाषा, प्रास वगेरे बिंदुओने ध्यानमा राखी शुद्ध पाठ शुं होई शके ते विचारवं जोइए अने ते पाठ वाचनामां कौंसमां सूचववो जोइए. अहीं कथानो सम्बन्ध एवो छे के शेठ दमनकने मारवा लाग्या पण ए मर्यो नहि; ए वातना आधारे 'मूक्यो' शब्द अहीं खोटो ठरे छे. तेनी जग्याए 'मूओ' शब्द सुसंगत बने. वाचनामां अहीं सुधारो सूचववो १. प्रतिगत पाठ 'लिखीय' एवो छे. 'लिखीय' ए 'लखीए'नु ज रूप होवानुं समजाय छे. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओक्टोबर - २०१९ जोइए : 'मूक्यो(ओ)'. _ 'बे स्तवनो'मांना शान्तिनाथ स्तवननी अन्तिम कडीनो अन्तिम शब्द 'अरस' न होई शके. अहीं 'आस' शब्द जोइए. आवा शङ्कास्पद स्थाने सम्पादके सुसंगत पाठ मेळववानी कोशीश करवी पडे, एमने एम वाचना ऊतारी लेवाथी सम्पादन नहीं, लिप्यन्तर कर्यु गणाय. 'शङ्केश्वर पार्श्वनाथ स्तवन'नी ७मी कडीमां 'आरी सम बढे कपोल' एवी पंक्ति छे. अहीं 'आरी' जेवा कपोल (लमणां) एवी उपमा अपाई छे, परन्तु 'आरी' एटले शुं ? ते सम्पादके तपासवू रह्यु. अर्थ न समजाय तो प्रश्नचिह्न मूकीने ध्यान दोरवू अथवा विषय, भाषा, प्रासने मळतो शब्द सूचववो रह्यो. आरी (?) अथवा आरी[सउ] के आरी[सा] एवो सम्भवित पाठ सूचववानी जरूर गणाय. कडी १०मां लिपि/अक्षरो न समजायाथी भूलभरेलुं वाचन थयुं छे. 'आवे श्री संघ कुल द्या ए' - अहीं कुल द्या जेवा अर्थहीन शब्दो आवी गया छे. कवि उत्तम कक्षाना छे तेथी कवितामां कचाश न ज होय. विषय अने भाषाने अनुरूप शुद्ध पाठ सम्पादके विचारवो जोइए. ए रीते विचारतां अहीं 'ऊलट्या' शब्द होवानी पूरी सम्भावना छे. जूनी लिपिना कारणे 'ऊ' नो 'कु' वंचायो छे.. _ 'पांच हरियाली'मांथी चारना उकेल सूझ्या छे : १. साकरना गांगडा. २. बत्रीश घडी, चार प्रहर, एक दिवस. ३. अंगूठा अने आंगळीथी चपटी वगाडाय ते. ५. काया, पांच इन्द्रिय, त्रण दण्ड, विरति, २३ विषय. चोथी हरियालीमां दरेक पंक्तिमा प्रहेलिका छ जेना जवाब आध्यात्मिक विषयना छे. ___ 'अञ्जनासुन्दरी-पवनञ्जय रास' आ अंकमां पूरो थाय छे. प्रहेली ढाळना दूहा २ मां ‘पडसू धी' एम छपायुं छे. शब्द न समजायाना कारणे विचित्र 'इदं तृतीयं' सर्जावा पाम्युं छे. सम्पादके आवा भ्रामक पाठने ओछामा ओछु प्रश्नचिह्नथी सचित तो करवो ज जोइए. सम्पादके जुदा जुदा रूपे आ शब्द मध्य. गूज. कोशमां अथवा भगवद्गोमंडल जेवा कोशमां शोधवो जोइए. मध्यकालीन गुजरातीना शब्दोनी जोडणी सैके सैके बदलाती होय छे, माटे शक्य एटला रूपो विचारी कोशोमां खोळवा जोईए. वस्तुतः अहीं ‘पडसूधी' जूनी गुजरातीनो जाणीतो शब्द छे, हजी क्यांक पडसूदी छे पडसुंदी जेवा रूपे चलणमां पण छे. अर्थ छ : घउंनो झीणो लोट, मेदो. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७८ दूहानो अर्थ बेसाडवानी कोशीश करी होत तो पण अर्थनो अंदाज आवतः "मेदो अने घी भेगा थाय तो पण मोळु ज लागे, त्रीजी वस्तु मीठाइमीठाश भळे तो स्वाद आवे." दूहा १५९मां सार्दू दे (?)मां प्रश्नचिह्न तो कयुं छे परन्तु म.गू.कोश तपास्यो होत तो एवी जरूर न रहेत. मध्यकालीन गूजरातीनुं काम करतां म.गू. कोश हाथवगो रहेवो जोइए. एनो उपयोग करवाथी म.का.शब्दोनुं ज्ञान वधे, पाठ शुद्ध थाय, निरर्थक कल्पनाओ न करवी पडे. साइं = आलिंगन. कृतिना अन्ते शब्दकोश आप्यो छे पण ढाळ/कडीना अङ्क साथे आप्या नथी तेथी कृतिमां ए शब्दो शोधवा अघरा पडे छे. दुःखरीव : दुखना पोकार. अणेख-अणख : अदेखाई. विखरो : विषनो (ष.ए.व.) क. ६६मां 'धुरथी' शब्द छे, पण शब्दकोशमां तेना बदले घुरथी शब्द आवी गयो छे अने 'घेरा अवाजथी. हृदयपूर्वक" जेवा भळता ज अर्थ कर्या छे. 'धुरथी' पाठ साचो छे अने तेनो अर्थ छ : पहेलेथी, शरुआतथी. 'हारेख' शब्द प्रश्नार्थ साथे नोंध्यो छे पण कृतिमां तेवो शब्द छ ज नहि. क. ११५ मां 'किहां रेख' छे. भांधिर, खलकलो शब्द पण कृतिमां जड्या नहि. संप्रेडो (१७६) अने गुड (१८६) जेवा शब्दो शब्दकोशमां नोंधवा जोईए ते सम्पादिकाए नोंध्या नथी. 'चरम तीर्थपति दीक्षा महोत्सव अधिकार स्तवन' शुद्ध प्रायः छे. क. ५मां 'उ(पूरण)' छे त्यां 'उरण' पाठ साचो छ, 'पूरण' कल्पवानी जरूर नथी. अरण = अनृणी, ऋणमुक्त. 'कुंड:पुर'मां विसर्ग करवानी जरूर नथी. लिपिकारे प्रतमा विसर्ग- चिह्न कर्यु होय तो सम्पादके वाचना तैयार करतां एवी भूलो दूर करवी जोइए. लहियाओ अनुस्वार, दंड, विसर्ग जेवा चिह्नो जरूर न होय त्यां पण करी देता होय छे. क. ४०मां 'भामणमहे (छे)' - अहीं 'छे'नी आवश्यकता नथी. अहीं 'भामणडे' शब्द होवो जोइए. श्री भगवानदास पटेलने श्री पुण्यविजयजी चंद्रक प्रदान समारोहमां श्री हसु याज्ञिके आपेलुं वक्तव्य पण आ अंकमां छे. लोकसाहित्यना संशोधनक्षेत्रे केवा प्रकारनी कामगीरी करवानी आवे छे तथा तेमां केवी समस्याओ सामे आवती होय छे तेनी रसप्रद चर्चा आ लेखमां थई छे. जैन देरासर नानी खाखर-३७०४३५. जि. कच्छ, गुजरात. 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