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अनुसन्धान-७८
गूढा - प्रहेलिका - समस्या हरियाली-६
- सं. उपा. भुवनचन्द्र
पुरुष पेटे पदमिनी सृष्टि करतार उपाइ, बाप कहीथी नीकली जीवित कही न जाइ; पुरुष विहूणी नारी फिरै नव खंड मज्झारि, उत्तम सेवि(ति) संगति करै, रहइ ठउड अति भारि; सामलवरणे गुण घणा, मन भूपाला रंजणी, ता ता ऊ बूझइ चतुरनर जायै चतुरापण घणी. [कस्तूरी] १ नारि एक निरुपण जाणि ते नरह नीपाइ, जिम जिम अलगी जाइ, ता - था खरी सुहाइ; तेडी आवइ पासि, तास कर किमइ न खंडइ, स्वर्गभूमि संचरइ, वृद्धि(ख)स्युं प्रीति न मंडइ, एरीसी नारी अन्या विना, गुणवंता बंधन सहइ, नगरमांहि दीसइ बहू, गुण मोहइ सुंदर कहइ.[पडाई (पताका)] २ एक नारी पग च्यारि वदन तस एक भणीजइ, श्रवण छइ तस एक नयण-नासि न मुणीजइ; जिमतां दूबल होइ जब तब गले ग्रहीजइ, अहिसि(?)बंधन ते सहइ, कबाह (?) न रोध र नरा, समरसिंघ इम उचरइ, कहो अर्थ पंडित नरा. [त्रपणी (तरपणी)] ३ एक सो उजल नारी, रेहांक जल रेहांवइ, वेणी विण दीसइ बंध चंग चाप बखां बंधावइ; कडि विण पहिरइ वस्त्र सीस विण सेंथो भरावइ, चतुर नर करीइं प्रीति, चंग चालो करावइ. [पोथी] ४ बीज विण नीपजइ, तो स्युं केलि ? केलि नहीं पण उजलवरणो, तो स्युं हंस ? हंस नहीं पण जल उपनो, तो स्युं कमल ? कमल नहीं पिण जलसि हाथ, तो स्युं आगि ?