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ओक्टोबर - २०१९
एक हरियाळी - सार्थ कर्ता : मुनि विनयसागर
- सं. सा. समयप्रज्ञाश्री ॥६० ॥ हरीयाली
सेवक आगलि साहिब नाचइ, बहइ गंगजल खारी । गर्धभ साटइ गइबर बेच्यउ, इहु उचरिज मोहि भारि ॥१॥ चतुरनर बुझो ए हरीयाली, जिम उत्तर देहु संभालि : आंकणी ।।
कर्मरूपिया सेवकनइं आगलि जीव रुपीओ राजा नाचइ छइ । जिनवाणी रूप गंगाजल समानि मीठां ते पोतानी मति अर्थ खोटा करतो खाराजल समानि करइ । प्रमादरुपीओ गईभ अंगीकरीनइं संजमधर्मरूपीओ हाथी बेच्यउ । जीव प्रमादनइ वसि पड्यो चोखु चारित्र पाली सकइ नहीं ए मोटूं आश्चर्य ॥१॥
'माकडकइ वसि योगी नाच्यो, मार्यो सीह सीयालइ । इक.चिंटीनै परबत ढायो, अचरज इणै कलिकालइ ॥२॥ च० ॥
मन मांकडनइ वसिं जोगी कहीइं संजती ते नाचइ छइ । सील रुपीओ सीह कामरुपीए सीआलई मार्यो, टाल्यो । तृष्णारुपणी कीडीइं संतोषरुपीओ पर्बत पाड्यो छइ । ए अचरिज एणइ कलयुगई घणूं वर्तेइ छइ ॥२॥
सुरतरु साखइ काग ज बइठो, विषधर गरुड विदारै । कस्तूरी परनालै वाहि, ल्हसण भर्यो भंडारै ॥३॥ च० ॥
जिनशासनरूपीओ कल्पवृक्ष, तिहां कुगुरुरुपीओ कागडो छइ । क्रोध रुपीओ साप, तेणइ ज्ञानरूपीओ गरुडनइ विदार्यो छइ । समतारुप कस्तूरी परी नांखीनइ, असत्यवचनरूप दुर्गंध लसणनो संचय-भंडार भरे छइ ॥३॥
अंब आक फल एक तरु लागा, हंस काग एक मालइ । मी? नाहर लातै मर्यो, अचरीज इण कलिकालै ॥४॥ च० ॥
एक-एक जीव रुपीओ वृक्ष, तेणइ सुख ते आंबा फल समांनि, दुःख ते आकफल समानि, समानि फलगां छे । एक जीव रूप माले पुन्यहंस पापकाग