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| अहिंसा की प्रासङ्गिकता
प्रो० सागरमल जैन
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी (उ० प्र०)
प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म०प्र०) आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर (राज०)
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समर्पण
C
परम पूज्या साध्वीवर्या श्री पानकुँवरजी म.सा.
जन्म : ई. सन् 1902, दीक्षा : ई. सन् 1937, स्वर्गवास : ई.सन् 1997
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प्रकाशन सहयोगी
श्रीमति इन्दुमति मदनसिंहजी जैन
प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.)
Education International
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प्रधान सम्पादक प्रो0 सागरमल जैन
ওছিলা জ্ঞী সাড়ি
प्रो० सागरमल जैन
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी (उ०प्र०)
प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म०प्र०) आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर (राज.)
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पुस्तक : अहिंसा की प्रासङ्गिकता लेखक : प्रो० सागरमल जैन प्रकाशक : पार्श्वनाथ विद्यापीठ,
आई० टी० आई० रोड, करौंदी, वाराणसी- २२१००५ : दूरभाष ०५४२ - ३१६५२१, ३१८०४६ : फैक्स ०५४२ - ३१८०४६ : प्राच्य विद्यापीठ, दुपाड़ा रोड, शाजापुर (म०प्र०)
आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर (राज०) प्रथम संस्करण : २००२ ई० मूल्य : ५०.०० रूपये मात्र अक्षर सज्जा : विनय श्रीवास्तव
शाजापुर (मध्य प्रदेश)
: वर्द्धमान मुद्रणालय, भेलूपुर, वाराणसी । Book : Ahiṁsā ki Prāsangiktā Author : Prof. Sagarmal Jain Publisher : Pārswanātha Vidyāpitha
I.T.I. Road, Karaundi, Varanasi- 221005 : Phone 0542-316521,318046 : Fax 0542 - 318046
Prācya Vidyāpitha Dupara Road, Shajapur (M.P.)
मुद्रक
Agam Ahimsa-Samtā and Prākşta Sansthān
Udaipur (Raj.) First Edition : 2002 Price : 50.00 Rs. Only Type Setting : Vinay Srivastava
Shajapur (M.P.) Printed at : Varddhamana Mudranalaya,
Bhelupur, Varanasi.
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प्रकाशकीय
अहिंसा मानव जीवन का ही नहीं, बल्कि प्राणी मात्र का जीवन आधार है। अहिंसा के बिना किसी जीवन की कल्पना करना कोई अर्थ नहीं रखता । अहिंसा के बिना न किसी व्यक्ति का और न ही किसी समाज का विकास हो सकता है। अहिंसक प्रवृत्ति से ही मानव में प्रेम, दया, सद्भाव सहानुभूति आदि फलित होते हैं। आज विश्व में जितने भी धर्म है, लगभग सभी ने किसी न किसी रूप में अहिंसा को स्वीकार किया है। वैदिक धर्म हो या अवैदिक, जैन धर्म हो या बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म हो या इस्लाम धर्म, पारसी धर्म हो या सिक्ख, फर्क इतना है कि किसी ने अहिंसा के सिद्धान्त को आंशिक रूप में स्वीकार किया है तो किसी ने उसकी साधना में पूरा जीवन लगा दिया
प्रस्तुत पुस्तक में अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान् प्रो० सागरमल जैन ने विभिन्न धर्मों में समावेशित अहिंसा को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करते हुये वर्तमान की कुछ ज्वलंत समस्याओं के समाधान के रूप में अपना चिन्तन प्रस्तुत किया है। डॉ० जैन जैसे विद्वान् के इस सारगर्भित आलेख को पाठकों के बीच प्रस्तुत करते हुये हमें अनुपम हर्ष हो रहा है।
इस पुस्तक के प्रकाशन में सहयोगी रहे संस्थाओं प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म०प्र०) और आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर (राज.) का मैं हृदय से आभारी हूँ । साथ ही प्रेस सम्बन्धी कार्य के निर्वहन के लिए डॉ० विजय कुमार, प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, सुन्दर अक्षर-सज्जा के लिए विनय श्रीवास्तव, शाजापुर और सत्वर मुद्रण हेतु महावीर प्रेस, वाराणसी को धन्यवाद देता हूँ।
दिनांक : 4-4-2002
इन्द्रभूति बरड़
संयुक्त, सचिव पार्श्वनाथ विद्यापीठ
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विषयानुक्रमणिका
प्रथम अध्याय- अहिंसा की सार्वभौमिकता
द्वितीय अध्याय- अहिंसा का अर्थ विस्तार और उसके विविध आयाम
तृतीय अध्याय - भारतीय धर्मों में अहिंसा का स्थान
चतुर्थ अध्याय - हिंसा - अहिंसा विवेक
पंचम अध्याय- अहिंसा के आदर्श की उपलब्धि की सम्भावनाएँ
षष्ठ अध्याय- सकारात्मक अहिंसा
सप्तम अध्याय - सकारात्मक अहिंसा और सामाजिक जीवन अष्टम अध्याय- पर्यावरण प्रदूषण की समस्या और अहिंसा नवम अध्याय- अहिंसा और शाकाहार
१-५
६-११
१२-१८
१९-२६
२७-३२
३३-४५
४६-५१
५२ -६०
६१-६४
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अध्याय- १. अहिंसा की सार्वभौमिकता
अहिंसा की अवधारणा के विकास का इतिहास मानवीय सभ्यता और संस्कृति के विकास के इतिहास का सहभागी रहा है । जिस देश, समाज एवं संस्कृति में मानवीय गुणों का जितना विकास हुआ, उसी अनुपात में उसमें अहिंसा की अवधारणा का विकास हुआ है। चाहे कोई भी धर्म, समाज और संस्कृति हो, उसमें व्यक्त या अव्यक्त रूप में अहिंसा की अवधारणा अवश्य ही पाई जाती है । मानव समाज में यह अहिंसक चेतना स्वजाति एवं स्वधर्मी से प्रारम्भ होकर समग्र मानव समाज, सम्पूर्ण प्राणी जगत और वैश्विक पर्यावरण के संरक्षण तक विकसित हुई है । यही कारण है कि विश्व में जो भी प्रमुख धर्म और धर्म प्रवर्तक आये उन्होंने किसी न किसी रूप में अहिंसा का संदेश अवश्य दिया है । अहिंसा की अवधारणा जीवन के विविध रूपों के प्रति सम्मान की भावना और सह अस्तित्व की वृत्ति पर खड़ी हुई है । हिन्दूधर्म में अहिंसा
वैदिक ऋषियों ने अहिंसा के इसी सहयोग और सह-अस्तित्त्व के पक्ष को मुखरित करते हुए यह उद्घोष किया था 'संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्, समानो मंत्र, समिति समानी' अर्थात् हमारी गति, हमारे वचन, हमारे विचार, हमारा चिन्तन और हमारी कार्यशैली समरूप हो, सहभागी हो । मात्र यही नहीं ऋग्वेद (६.७५.१४ ) में कहा गया कि 'पुमान् पुमांसं परिपातु विश्वतः' अर्थात् व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वे परस्पर एक-दूसरे की रक्षा करें। ऋग्वेद का यह स्वर यजुर्वेद में और अधिक विकसित हुआ । उसमें कहा गया मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे ।
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षा महे ।। यजुर्वेद, ३६.१८
अर्थात् मैं सभी प्राणियों को मित्रवत् देखूं और वे भी हमें मित्रवत् देखें 'सत्वेषु मैत्री' का यजुर्वेद का यह उद्घोष वैदिक चिन्तन में अहिंसक भावना का प्रबल प्रमाण है।
उपनिषद काल में यह अहिंसक चेतना आध्यात्मिक जीवन- दृष्टि के आधार पर प्रतिष्ठित हुई । छान्दोग्योपनिषद् ( ३/१७/४ ) में कहा गयाअथ यत्तपो दानमार्जवमहिंसा सत्यवचनमिति ता तस्य दक्षिणाः । अर्थात् इस आत्म-यज्ञ की दक्षिणा तप, दान, आर्जव, अहिंसा और सत्य वचन है । इसी छान्दोग्योपनिषद् (८.१५.१) में स्पष्टतः यह कहा गया है
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...अहिंसन् सर्वभूतान्यन्यत्र तीर्थेभ्यः स खल्वेवं ब्रह्मलोकमभिसम्पद्यते न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते। अर्थात् धर्म तीर्थ की आज्ञा से अन्यत्र प्राणियों की हिंसा नहीं करता हुआ वह निश्चय ही ब्रह्मलोक (मोक्ष) को प्राप्त होता है, उसका पुनरागमन नहीं होता है, पुनरागमन नहीं होता है।
__ आत्मोपासना और मोक्षपार्ग के रूप में अहिंसा की यह प्रतिष्ठा औपनिषदिक ऋषियों की अहिंसक चेतना का सर्वोत्तम प्रमाण है।
वेदों और उपनिषदों के पश्चात् स्मृतियों का क्रम आता है। स्मृतियों में मनुस्मृति प्राचीन मानी जाती है। उसमें भी ऐसे अनेक संदर्भ है, जो अहिंसा के सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं। यहाँ हम उसके कुछ सन्दर्भ प्रस्तुत कर रहे हैं -
अहिंसयैव भूतानां कार्य श्रेयोऽनुशासनम्। - मनुस्मृति २/१५६ अर्थात् प्राणियों के प्रति अहिंसक आचरण ही श्रेयस्कर अनुशासन है।
___अहिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते। - मनुस्मृति ६/६० अर्थात् प्राणियों के प्रति अहिंसा के भाव से व्यक्ति अमृतपद (मोक्ष) को प्राप्त करता है। ___ अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
एतं सामासिक धर्म चतुर्वण्येऽब्रवीन्मनुः। - मनुस्मृति १०/६३ अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, पवित्रता और इन्द्रिय निग्रह- ये मनु के द्वारा चारों ही वणों के लिये सामान्य धर्म कहे गये हैं।
हिन्दू परम्परा की दृष्टि से स्मृतियों के पश्चात् रामायण, महाभारत और पुराणों का काल माना जाता है। महाभारत, गीता और पुराणों में ऐसे सैकड़ो सन्दर्भ हैं, जो भारतीय मनीषियों की अहिंसक चेतना के महत्त्वपूर्ण साक्ष्य माने जा सकते हैं - अहिंसा सकलोधर्मो हिंसाधर्मस्तथाहित।
- महाभारत शां.पर्व अध्याय २७२/२० अर्थात् अहिंसा को सम्पूर्ण धर्म और हिंसा को अधर्म कहा गया है। न भूतानामहिंसाया ज्यायान् धर्मोस्तथाहित।
- महाभारत शां. पर्व २६२/३० अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति अहिंसा की भावना से श्रेष्ठ कोई धर्म नहीं है।
अहिंसा परमोधर्मस्तथाहिंसा परो दमः। अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः।।
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अहिंसा परमोयज्ञस्तथाहिंसा परं फलम्। अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् ।।
___ -महाभारत अनुशासन पर्व ११६/२८-२६ अर्थात् अहिंसा सर्वश्रेष्ठधर्म है, वही उत्तम इन्द्रिय निग्रह है। अहिंसा ही सर्वश्रेष्ठ दान है, वही उत्तम तप है। अहिंसा ही सर्वश्रेष्ट यज्ञ है और वही परमोपलब्धि है। अहिंसा परममित्र है, वही परमसुख है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक एवं हिन्दुधर्म में ऐसे अगणित संदर्भ हैं, जो अहिंसा की महत्ता को स्थापित करते हैं। बौद्ध धर्म में अहिंसा
__ मात्र यही नहीं भारतीय श्रमण परम्परा के प्रतिनिधिरूप जैन एवं बौद्ध धर्म भी अहिंसा के सर्वाधिक हिमायती रहे हैं। वौद्धधर्म के पंचशीलों, जैनधर्म के पंच महाव्रतों और योगदर्शन के पंचयमों में अहिंसा को प्रथम स्थान दिया गया है । भगवान बुद्ध ने कहा है -
न तेन आरियो होति येन पाणानि हिंसति। अहिंसा सव्वपाणानं अरियोति पवुच्चति।।
-धम्मपद धम्मट्ठवग्ग १५ अर्थात् जो प्राणियों की हिंसा करता है, वह आर्य (सभ्य) नहीं होता, अपितु जो सर्व प्राणियों के प्रति अहिंसक होता है, वही आर्य कहा जाता है।
अहिंसका ये मुनयो निच्चं कायेन संवुता। ते यन्ति अच्चुतं ठानं यत्थ गत्वा न सोचरे।।
-धम्मपद कोधवग्ग ५ अर्थात् जो मुनि काया से संवृत होकर सदैव अहिंसक होते हैं, वे उस अच्युत स्थान (निर्वाण) को प्राप्त करते हैं, जिसे प्राप्त करने के पश्चात् शोक नहीं रहता। धम्मपद में अन्यत्र कहा गया है -
निघाय दण्डं भूतेषु तसेसु थावरेसु च।
यो न हन्ति न घातेति तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।। अर्थात् जो त्रस एवं स्थावर प्राणियों को पीड़ा नहीं देता है, न उनका घात करता है और न उनकी हिंसा करता है, उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
इस प्रकार पिटक ग्रन्थों में ऐसे सैकड़ों बुद्धवचन हैं, जो बौद्ध धर्म में अहिंसा की अवधारणा को स्पष्ट करते हैं।
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जैन धर्म में अहिंसा
जैनधर्म में अहिंसा को धर्म का सार तत्त्व कहा गया है। इस सम्बन्ध में आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, मूलाचार आदि अनेक ग्रन्थों में ऐसे हजारों उल्लेख हैं, जो जैनधर्म की अहिंसा प्रधान जीवन- दृष्टि का सम्पोषण करते हैं। इस सम्बन्ध में आगे विस्तार से चर्चा की गई है। यहाँ हम मात्र दो तीन सन्दर्भ देकर अपने इस कथन की पुष्टि करेंगे। दशवैकालिक सूत्र में कहा
गया है
धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो। - दशवैकालिक १/१ अर्थात् अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म ही सर्वश्रेष्ठ मंगल है। सूत्रकृतांग में कहा गया है -
एयं खु णाणिणो सारं जं ण हिंसति कंचण।
अहिंसा समयं चेव एतावंतं वियाणिया।। - सूत्रकृतांग ११/१० ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी जीव की हिंसा नहीं करते। अहिंसा ही धर्म (सिद्धान्त) है- यह जानना चाहिये। अन्यत्र कहा गया है -
सब्वे जीवा वि इच्छन्ति जीविउं न मरिज्जिउं।
तम्हा पाणवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंतिणं ।। अर्थात् सभी सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है। इसीलिए निर्ग्रन्थ प्राणी वध (हिंसा) का निषेध करते है। सिक्खधर्म में अहिंसा
___ भारतीय मूल के अन्य भागों में सिक्खधर्म का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस धर्म के धर्मग्रन्थ में प्रथम गुरु नानकदेवजी कहते हैं --
जे रत लग्गे कपडे जामा होए पलीत।
जे रत पीवे मांसा तिन क्यों निर्मल चित्त।। अर्थात् यदि रक्त के लग जाने से वस्त्र अपवित्र हो जाता है, तो फिर जो मनुष्य मांस खाते हैं या रक्त पीते हैं, उनका चित्त कैसे निर्मल या पवित्र रहेगा? अन्य धर्मों में अहिंसा
न केवल भारतीय मूल के धर्मों में अपितु भारतीयेतर यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्मों में भी अहिंसा के स्वर मुखर हुए हैं। यहूदी धर्म के धर्मग्रन्थ Old Testament में पैगम्बर मोजेज ने जिन दस धर्मादेशों का उल्लेख किया है, उनमें
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छठा धर्मादेश है - 'Thou shall not kill' अर्थात् 'तुम किसी को मत मारो'। वस्तुतः यहूदी धर्म में न केवल हिंसा करने का निषेध किया गया, अपितु प्रेम, सेवा और परोपकार जैसे अहिंसा के विधायक पक्षों पर भी बल दिया गया है।
यहूदी धर्म के पश्चात् ईसाई धर्म का क्रम आता है। इस धर्म के प्रस्तोता हजरत ईसा माने जाते हैं। यह सत्य है कि ईसामसीह ने ओल्ड टेस्टामेन्ट में वर्णित दस धर्मादेशों को स्वीकार किया, किन्तु मात्र इतना ही नहीं, उनकी व्याख्या में उन्होंने अहिंसा की अवधारणा को अधिक व्यापक बनाया है। वे कहते हैं - “पहले ऐसा कहा गया है कि किसी की हत्या मत करो....लेकिन मैं कहता हूँ कि बिना किसी कारण अपने भाई से नाराज मत होओ।" इससे भी एक कदम
और आगे बढ़कर वे कहते हैं कि “यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर तमाचा मार देता है, तो दूसरा गाल भी उसके सामने कर दो। यदि कोई तुम्हारा कोट लेना चाहता है, तो तुम अपना अंगरखा भी दे दो। पुराना धर्मादेश कहता है - पड़ोसी से प्यार करो और शत्रु से घृणा करो, मैं तुमसे कहता हूँ कि शत्रु से भी प्यार करो। जो तुम्हे शाप दे उसे वरदान दो, जो तुम्हारा बुरा करे, उसका भला करो।" ईसा के इन कथनों से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने यहूदी धर्म की अपेक्षा भी अहिंसा पर अधिक बल दिया है और उसके निषेधात्मक पक्ष कि 'हत्या मत करो' की अपेक्षा 'करूणा, प्रेम, सेवा' आदि विधायक पक्षों को अधिक महत्त्व दिया है।
इस्लाम धर्म में कुरान के प्रारम्भ में ईश्वर (खुदा) के गुणों का उल्लेख करते हुए उसे उदार और दयावान (रहमानुर्रहीम) कहा गया है। उसमें बिना किसी उचित कारण के किसी को मारने का निषेध किया गया है और जो ऐसा करता है वह ईश्वरीय नियम के अनुसार प्राणदण्ड का भागी बनता है। मात्र यही नहीं, उसमें पशुओं को कम भोजन देना, उन पर क्षमता से अधिक बोझ लादना. सवारी करना आदि का भी निषेध किया गया है, यहाँ तक कि हरे पेड़ों के काटने की भी सख्त मनाही की गई है। इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि इस्लाम धर्म में भी अहिंसा की भावना को स्थान मिला है।
इस प्रकार हम देखते है कि प्रायः विश्व के सभी प्रमुख धर्मों में अहिंसा की अवधारणा उपस्थित है।
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अध्याय-२. अहिंसा का अर्थविस्तार और उसके विविध आयाम.
अहिंसा के सिद्धान्त की सार्वभौम स्वीकृति के बावजूद भी अहिंसा के अर्थ को लेकर सब धर्मों में एकरूपता नहीं है। हिंसा और अहिंसा के बीच खींची गई भेद-रेखा सभी में अलग-अलग है। कहीं पशुवध को ही नहीं, नरबलि को भी हिंसा की कोटि में नहीं माना गया है, तो कहीं वानस्पतिक हिंसा अर्थात् पेड़-पौधे को पीड़ा देना भी हिंसा माना जाता है। चाहे अहिंसा की अवधारणा उन सबमें समानरूप से उपस्थित हो, किन्तु अहिंसक चेतना का विकास उन सबमें समानरूप से नहीं हुआ है। क्या मूसा के इस आदेश 'Thou shall not kill' का वही अर्थ है, जो महावीर की 'सव्वेसत्ता न हंतव्वा' की शिक्षा का है? यद्यपि हमें यह बात ध्यान रखनी होगी कि अहिंसा के अर्थविकास की यह यात्रा किसी कालक्रम में न होकर मानव जाति की सामाजिक चेतना तथा मानवीय विवेक एवं संवेदनशीलता के विकास के परिणामस्वरूप हुई है। जो व्यक्ति या समाज जीवन के प्रति जितना अधिक संवेदनशील बना, उसने अहिंसा के प्रत्यय को उतना ही अधिक व्यापक अर्थ प्रदान किया। अहिंसा के अर्थ का यह विस्तार भी तीन रूपों में हुआ है - एक ओर अहिंसा के अर्थ को व्यापकता दी गई, तो दूसरी ओर अहिंसा का विचार अधिक गहन होता चला गया है। एक ओर स्वजाति और स्वधर्मी मनुष्य की हत्या के निषेध से प्रारंभ होकर षट्जीवनिकाय की हिंसा के निषेध तक इसने अर्थविस्तार पाया है, तो दूसरी ओर प्राणवियोजन के बाह्य रूप से द्वेष, दुर्भावना और असावधानी (प्रमाद) के आन्तरिक रूप तक, इसने गहराईयों में प्रवेश किया है। पूनः अहिंसा ने 'हिंसा मत करो' के निषेधात्मक अर्थ से लेकर दया, करूणा, दान, सेवा और सहयोग के विधायक अर्थ तक की अपनी यात्रा की है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अहिंसा का अर्थविकास त्रि-आयामी (थ्री डाईमेन्शनल) है। अतः जब भी हम अहिंसा की अवधारणा को लेकर कोई चर्चा करना चाहते हैं, तो हमें उसके सभी पहलुओं की ओर ध्यान देना होगा।
जैनधर्म के संदर्भ में अहिंसा के अर्थ की व्याप्ति को लेकर कोई चर्चा करने के पूर्व हमें यह देख लेना होगा कि अहिंसा की इस अवधारणा ने कहाँ कितना अर्थ पाया है। भारतीय चिन्तन में अहिंसा का अर्थ-विस्तार
चाहे वेदों में 'पुमान् पुमांसं परिपातु विश्वतः' (ऋग्वेद, ६.७५.१४) के रूप में एक-दूसरे की सुरक्षा की बात कही गई हो अथवा 'मित्रास्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे' (यजुर्वेद, ३६.१८) के रूप में सर्वप्राणियों के प्रति
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मित्र-भाव की कामना की गई हो, किन्तु वेदों की यह अहिंसक चेतना भी मानवजाति तक ही सीमित रही है। मात्र इतना ही नहीं, वेदों में अनेक ऐसे प्रसंग हैं, जिनमें शत्रु वर्ग के विनाश के लिए प्रार्थनाएँ भी की गई हैं। यज्ञों में पशुबलि स्वीकृत रही और वेद विहित हिंसा को हिंसा की कोटि में नहीं माना गया। इस प्रकार उसमें धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा का समर्थन ही किया गया । वेदों में अहिंसा की अवधारणा का अर्थविस्तार उतना ही है जितना कि यहूदी और इस्लाम धर्म मे । वैदिक धर्म की पूर्व-परम्परा में भी अहिंसा का सम्बन्ध मानव जाति तक ही सीमित रहा । ' मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' का उद्घोष तो हुआ, लेकिन व्यवहारिक जीवन में वह मानव-प्राणी से अधिक ऊपर नहीं उठ सका। इतना ही नहीं, एक ओर पूर्ण अहिंसा के बौद्धिक आदर्श की बात और दूसरी ओर मांसाहार की लालसा एवं रूढ़ परम्पराओं के प्रति अंध आस्था ने अपवाद का एक नया आयाम खड़ा किया और कहा गया कि ' वेदविहित हिंसा हिंसा नहीं है ।" श्रमण परम्पराएँ इस दिशा में और आगे आयीं और उन्होंने अहिंसा की व्यवहारिकता का विकास समग्र प्राणी-जगत तक करने का प्रयास किया और इसी आधार पर वैदिक हिंसा की खुल कर आलोचना भी की गई। कहा गया कि यदि यूप के छेदन करने से और पशुओं की हत्या करने से और खून का कीचड़ मचाने से ही स्वर्ग मिलता हो, तो फिर नर्क में कैसे जाया जावेगा ? यदि हनन किया गया पशु स्वर्ग को जाता है, तो फिर यजमान अपने माता-पिता की बलि ही क्यों नहीं दे देता?' अहिंसक चेतना का सर्वाधिक विकास हुआ है श्रमण परम्परा में। इसका मुख्य कारण यह था कि गृहस्थ जीवन में रहकर पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार कर पाना सम्भव नहीं था । जीवनयापन अर्थात् आहार, सुरक्षा आदि के लिए हिंसा आवश्यक तो है ही, अतः उन सभी धर्म परम्पराओं में जो मूलतः निवृत्तिपरक या संन्यासमार्गीय नहीं थीं, अहिंसा को उतना अर्थविस्तार प्राप्त नहीं हो सका जितना श्रमणधारा या संन्यासमार्गीय परम्परा में सम्भव था । यद्यपि श्रमण परम्पराओं के द्वारा हिंसापरक यज्ञ-यागों की आलोचना और मानवीय विवेक एवं संवेदनशीलता के विकास का एक परिणाम यह हुआ कि वैदिक परम्परा में भी एक ओर वेदों के पशुहिंसापरक पदों का अर्थ अहिंसक रीति से किया जाने लगा ( महाभारत के शान्तिपर्व में राजा वसु का आख्यान - अध्याय ३३७-३३८ इसका प्रमाण है), तो दूसरी ओर धार्मिक जीवन के लिए कर्मकाण्ड को अनुपयुक्त मानकर औपनिषदिक धारा के रूप में ज्ञान-मार्ग का और भागवत् धर्म के रूप में
१. " वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति".
२. अभिधान राजेन्द्रकोष, खण्ड ७, पृ. १२२६
३. भारतीय दर्शन (दत्त एवं चटर्जी), पृ. ४३ पर उद्धृत.
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भक्ति-मार्ग का विकास हुआ। इसमें अहिंसा का अर्थविस्तार सम्पूर्ण प्राणीजगत अर्थात् स जीवों की हिंसा के निषेध तक हुआ। वैदिक परम्परा में संन्यासी को कन्द-मूल एवं फल का उपभोग करने की स्वतन्त्रता है, इस प्रकार वहाँ वानस्पतिक हिंसा का विचार उपस्थित नहीं है। यह बात तो सत्य ही है कि अहिंसक चेतना को सर्वाधिक विकसित करने का श्रेय श्रमण परम्पराओं को ही है । भारत में ई.पू. छठी शताब्दी का जो भी इतिवृत्त हमें प्राप्त होता है, उससे ऐसा लगता है कि उस युग में पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार बनाने में श्रमण सम्प्रदायों में होड़ लगी हुई थी। कम से कम हिंसा ही श्रामण्य - जीवन की श्रेष्ठता का प्रतिमान था । सूत्रकृतांग में आर्द्रककुमार की विभिन्न मतों के श्रमणों से जो चर्चा है, उसमें मूल प्रश्न यही है कि कौन सबसे अधिक अहिंसक है (देखिये सूत्रकृतांग, २।६ ) ? त्रस प्राणियों (पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि) की हिंसा तो हिंसा थी ही, किन्तु वानस्पतिक और सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा को भी हिंसा माना जाने लगा था। मात्र इतना ही नहीं; मनसा, वाचा, कर्मणा, और कृत, कारित और अनुमोदित के प्रकारभेदों से नवकोटिक अहिंसा का विचार प्रविष्ट हुआ, अर्थात् मन, वचन और शरीर से हिंसा करना नहीं, करवाना नहीं और करनेवाले का अनुमोदन भी नहीं करना । बौद्ध और आजीवक परम्परा के श्रमणों ने भी इस नवकोटिक अहिंसा के आदर्श को स्वीकार कर उसके अर्थ को गहनता और व्यापकता प्रदान की, फिर भी बौद्ध परम्परा में षट्जीवनिकाय का विचार उपस्थित नहीं था। बौद्ध भिक्षु नदी-नालों के जल को छानकर उपयोग करते थे। दूसरे उनके यहाँ नवकोटि अहिंसा की यह अवधारणा भी स्वयं की अपेक्षा से थी, दूसरे द्वारा हमारे निमित्त से की जाने वाली हिंसा का भी विचार नहीं किया गया । निर्ग्रन्थ परम्परा का कहना था कि केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है कि हम मनसा, वाचा, कर्मणा हिंसा न करें, न करावें और न उसे अनुमोदन दें, अपितु यह भी आवश्यक है कि दूसरों को हमारे निमित्त हिंसा करने का अवसर भी नहीं देवें और उनके द्वारा की गई हिंसा में भागीदार न बनें। यही कारण था कि जहाँ बुद्ध और बौद्ध भिक्षु निमन्त्रित भोजन को स्वीकार करते थे, वहाँ निर्ग्रन्थ परम्परा में औद्देशिक आहार भी अग्राह्य माना गया था, क्योंकि उसमें नैमित्तिक हिंसा के दोष की सम्भावना थी । यद्यपि पिटकग्रन्थों में बौद्ध भिक्षु के लिये ऐसा भोजन निषिद्ध माना गया है, जिसमें उसके लिये त्रस प्राणीहिंसा की गयी हो और वह इस बात को जानता हो या उसने ऐसा सुना हो। फिर भी यह अतिशयोक्ति नहीं है कि अहिंसा को जितना व्यापक अर्थ जैन परम्परा में दिया गया है, उतना अन्यत्र अनुपलब्ध ही है। 1
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जैन और बौद्ध परम्पराओं में अहिंसा सम्बन्धी जो खण्डन-मण्डन हुआ, उसके पीछे सैद्धान्तिक मतभेद न होकर उसकी व्यवहारिकता का प्रश्न ही प्रमुख रहा है। पं. सुखलालजी लिखते हैं- दोनों की अहिंसा सम्बन्धी व्याख्या में कोई तात्त्विक मतभेद नहीं है। जैन परम्परा ने नवकोटिक अहिंसा की सूक्ष्म व्यवस्था को अमल में लाने के लिए जो बाह्य प्रवृत्ति को विशेष नियन्त्रित किया, वह बौद्ध परम्परा ने नहीं किया। जीवन सम्बन्धी बाह्य प्रवृत्तियों के अति नियन्त्रण और मध्यवर्गीय शैथिल्य के प्रबल भेद में से ही वौद्र और जैन परम्पराएँ आपस में खण्डन-मण्डन में प्रवृत्त हुई। जब हम दोनों परम्पराओं के खण्डन-मण्डन को तटस्थ भाव से देखते हैं तब निःसंकोच कहना पड़ता है कि बहुधा दोनों ने एक-दूसरे को गलत रूप से ही समझा है। इसका एक उदाहरण मज्झिमनिकाय के उपालिसुत्त का और दूसरा सूत्रकृतांग का है।
यद्यपि जैन परम्परा ने नवकोटिपूर्ण अहिंसा के पालन पर बल दिया, लेकिन नवकोटिक अहिंसा के पालन में जब साधु-जीवन के व्यवहारों का सम्पादन एवं संयमी जीवन का रक्षण भी असम्भव प्रतीत हुआ तो यह स्वीकार किया गया कि शास्त्रविहित प्रवृत्तियों में हिंसा-दोष का अभाव होता है। इसी प्रकार मन्दिर-निर्माण, प्रतिमापूजन, तीर्थयात्रा आदि के प्रसंग पर होनेवाली हिंसा विहित मान ली गयी। परिणाम यह हुआ कि 'वैदिक हिंसा हिंसा नहीं है', इस सिद्धान्त के प्रति की गयी उनकी आलोचना स्वयं निर्बल हो गयी। वैदिक पक्ष की ओर से कहा जाने लगा कि यदि तुम कहते हो कि शास्त्रविहित हिंसा हिंसा नहीं है, तो फिर हमारी आलोचना कैसे कर सकते हो? इस प्रकार आलोचनाओं और प्रत्यालोचनाओं का एक विशाल साहित्य निर्मित हो गया, जिसका समुचित मूल्यांकन यहाँ सम्भव नहीं है। फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि इस समग्र वाद-विवाद में जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में मौलिक रूप से सैद्धान्तिक मतभेद अल्प ही हैं। प्रमुख प्रश्न व्यवहार का है। व्यवहारिक दृष्टि से जैन और वैदिक परम्पराओं में निम्न अन्तर खोजे जा सकते हैं(१) जैन परम्परा पूर्ण अहिंसा के पालन सम्बन्धी विचार को केवल उन्हीं स्थितियों में शिथिल करती है जिनमें मात्र संयममूलक मुनि-जीवन का अनुरक्षण हो सके, जबकि वैदिक परम्परा में अहिंसा के पालन में उन सभी स्थितियों में शिथिलता की गयी है जिनमें सभी आश्रम और सभी प्रकार के लोगों के जीवन जीने और अपने कर्तव्यों के पालन का अनुरक्षण हो सके।
४. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृ. ४१५. ५. अभिधान राजेन्द्रकोश, खण्ड ७, पृ. १२२६.
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(२)
यद्यपि कुछ जैन आचार्यों ने संयममूलक जीवन के अनुरक्षण के लिए की गयी हिंसा को हिंसा नहीं माना है, तथापि परम्परा के आग्रही अनेक जैन आचार्यों ने उस हिंसा को हिंसा के रूप में स्वीकार करते हुए केवल अपवाद रूप में उसका सेवन करने की छूट दी और उसके प्रायश्चित्त का विधान भी किया । उनकी दृष्टि में हिंसा, चाहे वह किसी भी स्थिति में हो, हिंसा है। यही कारण है कि आज भी जैन सम्प्रदायों में संयम एवं शरीर-रक्षण के निमित्त भिक्षाचर्या आदि दैनिक व्यवहार में होनेवाली सूक्ष्म हिंसा के लिए भी प्रायश्चित्त का विधान है। (३) वैदिक परम्परा में हिंसा धार्मिक अनुष्ठानों का एक अंग मान ली गया और उनमें होनेवाली हिंसा हिंसा नहीं मानी गयी । यद्यपि जैन - परम्परा में कुछ आचार्यों ने धार्मिक अनुष्ठानों, मन्दिर निर्माण आदि कार्यों में होनेवाली हिंसा का समर्थन अल्प-हिंसा और बहु - निर्जरा के नाम पर किया, लेकिन जैन - परम्परा में • सदैव ही ऐसी मान्यता का विरोध किया जाता रहा और जिसकी तीव्र प्रतिक्रियाओं के रूप में दिगम्बर सम्प्रदाय में तेरापंथ और तारणपंथ तथा श्वेताम्बर सम्प्रदाय में लोकागच्छ, स्थानकवासी एवं तेरापंथ ( श्वेताम्वर आम्नाय) आदि अवान्तर सम्प्रदायों का जन्म हुआ, जिन्होंने धर्म के नाम पर होनेवाली हिंसा का तीव्र विरोध किया । (४) वैदिक परम्परा में जिस धार्मिक हिंसा को हिंसा नहीं माना गया उसका बहुत कुछ सम्बन्ध पशुओं की हिंसा से है, जबकि जैन - - परम्परा में मन्दिर निर्माण आदि के निमित्त से भी जिस हिंसा का समर्थन किया गया, उसका सम्बन्ध मात्र एकेन्द्रिय अथवा स्थावर जीवों से है
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(५) जैन परम्परा में हिंसा के किसी भी रूप को अपवाद मानकर ही स्वीकार किया गया, जबकि वैदिक परम्परा में हिंसा आचरण का नियम ही बन गयी । जीवन के सामान्य कर्तव्यों जैसे यज्ञ, श्राद्ध, देव, गुरू, अतिथि पूजन आदि के निमित्त से भी हिंसा का विधान किया गया है । यद्यपि परवर्ती वैष्णव सम्प्रदायों ने इसका विरोध किया ।
(६) प्राचीन जैन मूल आगमों में संयमी जीवन के अनुरक्षण के लिए ही मात्र अत्यल्प स्थावर हिंसा का समर्थन अपवाद रूप में उपलब्ध है, जबकि वैदिक परम्परा में हिंसा का समर्थन सांसारिक जीवन की पूर्ति तक के लिए किया गया है । जैन - परम्परा भिक्षु के जीवन निर्वाह की दृष्टि से अपवादों का विचार करती है, जबकि वैदिक परम्परा सामान्य गृहस्थ के जीवन के निर्वाह की दृष्टि से भी अपवाद का विचार करती है ।
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यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में अहिंसा का अर्थविस्तार
मूसा ने धार्मिक जीवन के लिए जो दस आदेश प्रसारित किये थे उनमे एक है 'तुम हत्या मत करो' किन्तु इस आदेश का अर्थ यहूदी समाज के लिए व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए अपने जातीय भाई की हिंसा नहीं करने से अधिक नहीं रहा। धर्म के नाम पर तो हम स्वयं पिता को अपने पुत्र की बलि देता हुआ देखते हैं। इस्लाम ने चाहे अल्लाह को 'रहमानुर्रहीम' (करूणाशील) कहकर सम्बोधित किया हो, और चाहे यह भी मान लिया हो कि सभी जीवधारियों को जीवन उतना ही प्रिय है, जितना तुम्हें अपना है, किन्तु उसमें अल्लाह की इस करूणा का अर्थ स्वधर्मियों तक ही सीमित रहा। इतर मनुष्यों के प्रति इस्लाम आज तक संवेदनशील नहीं बन सका है। पुनः यहूदी और इस्लाम दोनों ही धर्मों में धर्म के नाम पर पशुबलि को सामान्य रूप से आज तक स्वीकृत किया जाता है। इस प्रकार इन धर्मों में मनुष्य की संवेदनशीलता स्वजाति और स्वधर्मी अर्थात् अपनों से अधिक अर्थविस्तार नहीं पा सकी है। इस संवेदनशीलता का अधिक विकास हमें ईसाई धर्म में दिखाई देता है। ईसा शत्र के प्रति भी करूणाशील होने की बात कहते हैं। वे अहिंसा, करूणा और सेवा के क्षेत्र में अपने और पराये, स्वधर्मी और विधर्मी, शत्रु और मित्र के भेद से ऊपर उठ जाते हैं। इस प्रकार उनकी करूणा सम्पूर्ण मानवता के प्रति बरसी है। यह बात अलग है कि मध्ययुग में ईसाइयों ने धर्म के नाम पर खून की होली खेली हो और ईश्वर-पुत्र के आदेशों की अवहेलना की हो, किन्तु ऐसा तो हम सभी करते हैं। धर्म के नाम पर पशुबलि की स्वीकृति ईसाई धर्म में नहीं देखी जाती है। इस प्रकार उसमें अहिंसा की अवधारणा अधिक व्यापक बनी है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें सेवा तथा सहयोग के मूल्यों के माध्यम से अहिंसा को एक विधायक दिशा भी प्रदान की गई है। फिर भी सामान्य जीवन में पशुवध और मांसाहार के निषेध की बात वहाँ नहीं उठाई गई है, अतः उसकी अहिंसा की अवधारणा मानवता तक ही सीमित मानी जा सकती है, वह भी समस्त प्राणी-जगत की पीड़ा के प्रति संवेदनशील नहीं बन सका।
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अध्याय-३. भारतीय धर्मों में अहिंसा का स्थान. अहिंसा जैन आचार-दर्शन का प्राण है। अहिंसा वह धुरी है जिस पर समग्र जैन आचार-विधि घूमती है। जैनागमों में अहिंसा को भगवती कहा गया है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि, “भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषितों को जैसे जल, भूखों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे औषध और वन में जैसे सार्थवाह का साथ आधारभूत है, वैसे ही अहिंसा प्राणियों के लिए आधारभूत है। अहिंसा चर एवं अचर, सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। वह शाश्वत धर्म है, जिसका उपदेश तीर्थकर करते हैं। आचारांगसूत्र में कहा गया है- "भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी अर्हत यह उपदेश करते हैं कि किसी भी प्राण, भूत, जीव और सत्व को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए, न किसी का हनन करना चाहिए। यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत् धर्म है। समस्त लोक की पीड़ा को जानकर अर्हतों ने इसका प्रतिपादन किया है। सूत्रकृतांगसूत्र के अनुसार "ज्ञानी होने का सार यह है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। अहिंसा ही समग्र धर्म का सार है, इसे सदैव स्मरण रखना चाहिए। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि "सभी प्राणियों के हित साधन में अहिंसा के सर्वश्रेष्ठ होने से महावीर ने इसको प्रथम स्थान दिया है। अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है।"" आचार्य अमृतचन्द्रसूरि के अनुसार तो जैन आचार-विधि का सम्पूर्ण क्षेत्र अहिंसा से व्याप्त है, उसके बाहर उसमें कुछ है ही नहीं। सभी नैतिक नियम और मर्यादाएँ इसके अन्तर्गत हैं; आचार-नियमों के दूसरे रूप जैसे असत्य भाषण नहीं करना, चोरी नहीं करना आदि तो जनसाधारण को सुलभ रूप से समझाने के लिए भिन्न-भिन्न नामों से कहे जाते हैं, वस्तुतः वे सभी अहिंसा के ही विभिन्न पक्ष हैं।" जैन-दर्शन में अहिंसा वह आधार वाक्य है जिससे आचार के सभी नियम निर्गमित होते हैं। 'भगवतीआराधना' में कहा गया है-अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है, सब शास्त्रों का गर्भ (उत्त्पत्ति स्थान) है।"
६. प्रश्नव्याकरणसूत्र, २।१।२१।२२. ७. आचारांग, १।४।१।१२७. ८. सूत्रकृतांग, १।४।१०. ६. दशवैकालिक, ६६. १०. भक्तपरिज्ञा, ६१. ११. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, ४२. १२. भगवती-आराधना, ७६०.
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बौद्धधर्म में अहिंसा का स्थान
बौद्ध-दर्शन के दश शीलों में अहिंसा का स्थान प्रथम है । चतुःशतक में कहा है कि तथागत ने संक्षेप में केवल 'अहिंसा', इन अक्षरों में धर्म का वर्णन किया है।" बुद्ध ने हिंसा को अनार्य कर्म कहा है । वे कहते हैं कि जो प्राणियों की हिंसा करता है, वह आर्य नहीं होता, सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा का पालन करने वाला ही आर्य कहा जाता है । *
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बुद्ध हिंसा एवं युद्ध के नीतिशास्त्र के घोर विरोधी हैं । धम्मपद में कहा गया है- विजय से वैर उत्पन्न होता है । पराजित दुःखी होता है। जो जय-पराजय को छोड़ चुका है, उसे ही सुख है, उसे ही शान्ति है ।
अंगुत्तरनिकाय में यह बात और अधिक स्पष्ट कर दी गयी है। हिंसक व्यक्ति जगत् में नारकीय जीवन का और अहिंसक व्यक्ति स्वर्गीय जीवन का सृजन करता है। वे कहते हैं- “भिक्षुओं, तीन धर्मों से युक्त प्राणी ऐसा होता है, जैसे लाकर नरक में डाल दिया गया हो।" कौन से तीन ? " स्वयं प्राणी हिंसा करता है, दूसरे प्राणी को हिंसा की ओर घसीटता है और प्राणी - हिंसा का समर्थन करता है। भिक्षुओं, इन तीन धर्मों से युक्त प्राणी ऐसा ही होता है, जैसे लाकर नरक में डाल दिया गया हो ।”
“भिक्षुओं, तीन धर्मों से
युक्त प्राणी ऐसा होता है, जैसे लाकर स्वर्ग में डाल दिया गया हो।" कौन से तीन ? " स्वयं प्राणी हिंसा से विरत रहता है, दूसरे को प्राणी-हिंसा की ओर नहीं घसीटता और प्राणी - हिंसा का समर्थन नहीं करता ।"" बौद्धधर्म के महायान सम्प्रदाय में करूणा और मैत्री की भावना का जो चरम उत्कर्ष देखा जाता है, उसकी पृष्ठभूमि में यही अहिंसा का सिद्धान्त रहा है। हिन्दूधर्म में अहिंसा का स्थान
गीता में अहिंसा का महत्त्व स्वीकृत करते हुए उसे भगवान् का ही भाव कहा गया है। उसे दैवी सम्पदा एवं सात्विक तप भी कहा है। महाभारत में तो जैन विचारणा के समान ही अहिंसा में सभी धर्मों को अन्तर्भूत मान लिया गया है। यही नहीं, उसमें धर्म के उपदेश का उद्देश्य भी प्राणियों को हिंसा से विरत करना है । अहिंसा ही धर्म का सार है । महाभारतकार का कथन है कि, “प्राणियों
१३. चतुःशतक, २६८.
१४. धम्मपद, २७०.
१५. धम्मपद, २०१.
१६. अंगुत्तरनिकाय, ३।१५३.
१७. गीता, १०।५-७, १६२, १७११४.
१८. महाभारत, शान्ति पर्व, २४५ ।१६.
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की हिंसा न हो, इसलिए धर्म का उपदेश दिया गया है, अतः जो अहिंसा युक्त है, वही धर्म है।"""
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लेकिन प्रश्न यह हो सकता है कि गीता में बार-बार अर्जुन को युद्ध करने के लिए कहा गया है, फिर गीता को अहिंसा की समर्थक कैसे माना जाए ? इस सम्बन्ध में गीता के व्याख्याकारों के दृष्टिकोणों को समझ लेना आवश्यक है । आद्य टीकाकार आचार्य शंकर 'युद्धस्व ( युद्ध कर ) ' शब्द की टीका में लिखते हैंयहाँ (उपर्युक्त कथन से) युद्ध की कर्तव्यता का विधान नहीं है। इतना ही नहीं, आचार्य 'आत्मौपम्येन सर्वत्र' के आधार पर गीता में अहिंसा के सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं - 'जैसे मुझे सुख प्रिय है वैसे ही वह सभी प्राणियों को अनुकूल है और जैसे दुःख मुझे अप्रिय या प्रतिकूल है। वैसे ही सब प्राणियों को अप्रिय, प्रतिकूल है, इस प्रकार जो सब प्राणियों में अपने समान ही सुख और दुःख को तुल्य भाव से अनुकूल और प्रतिकूल देखता है, किसी के भी प्रति प्रतिकूल आचरण नहीं करता, वही अहिंसक है। इस प्रकार का अहिंसक पुरूष पूर्ण ज्ञान में स्थित है, वह सब योगियों में परम उत्कृष्ट माना जाता है ।" "
और तमस् गुणों के कहती है । ( फिर वह
महात्मा गांधी भी गीता को अहिंसा का प्रतिपादक ग्रन्थ मानते हैं । उनका कथन है- " गीता की मुख्य शिक्षा हिंसा नहीं, अहिंसा है। 'हिंसा' बिना क्रोध, आसक्ति एवं घृणा के नहीं होती और गीता हमें सत्त्व, रज रूप में घृणा, क्रोध आदि अवस्थाओं से ऊपर उठने को हिंसा की समर्थक कैसे हो सकती है) ।” डॉ. राधाकृष्णन् भी गीता को अहिंसा का प्रतिपादक ग्रन्थ मानते हैं । वे लिखते हैं - "कृष्ण अर्जुन को युद्ध करने का परामर्श देता है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह युद्ध की वैधता का समर्थन कर है । युद्ध तो एक ऐसा अवसर आ पड़ा है; जिसका उपयोग गुरू उस भावना की ओर संकेत करने के लिए करता है, जिस भावना के साथ सब कार्य, जिनमें युद्ध भी सम्मिलित है, किये जाने चाहिए। यह हिंसा या अहिंसा का प्रश्न नहीं है, अपितु अपने उन मित्रों के विरूद्ध हिंसा के प्रयोग का प्रश्न है, जो अब शत्रु बन गये हैं। युद्ध के प्रति उसकी हिचक आध्यात्मिक विकास या सत्त्वगुण की प्रधानता का परिणाम नहीं है, अपितु अज्ञान और वासना की उपज है। अर्जुन इस बात को स्वीकार करता है कि वह दुर्बलता और अज्ञान के वशीभूत हो गया है। गीता हमारे सम्मुख जो आदर्श उपस्थित करती है, वह अहिंसा का है और यह बात
रहा
१६. महाभारत, शान्ति पर्व, १०६।१२.
२०. गीता (शांकर भाष्य), २।१८.
२१. गीता, ६ । ३२.
२२. दि भगवद्गीता एण्ड चेंजिंग वर्ल्ड, पृ. १२२.
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सातवें अध्याय में व्यक्ति की मन, वचन और कर्म की एकरूपता के और बारहवें अध्याय में भक्त की मनोदशा के वर्णन से स्पष्ट हो जाती है। कृष्ण अर्जुन को आवेश या दुर्भावना के बिना, राग या द्वेष के बिना युद्ध करने को कहता है और यदि हम अपने मन को ऐसी स्थिति में ले जा सकें, तो हिंसा असम्भव हो जाती
है
इस प्रकार स्पष्ट है कि गीता हिंसा की समर्थक नहीं है । मात्र अन्याय के प्रतिकार के लिए अद्वेषबुद्धिपूर्वक विवशता में कर्तव्यवश हिंसा करने का जो समर्थन गीता में दिखाई पड़ता है, उससे यह नहीं कहा जा सकता कि गीता हिंसा की समर्थक है। अपवाद के रूप में हिंसा का समर्थन नियम नहीं बन जाता। ऐसा समर्थन तो हमें जैन और बौद्ध आगमों में भी उपलब्ध हो जाता है ।
अहिंसा का आधार
マイ
अहिंसा की भावना के मूलाधार के सम्बन्ध में विचारकों में कुछ भ्रान्त धारणाओं को प्रश्रय मिला है, अतः उस पर सम्यक्रूपेण विचार कर लेना आवश्यक है। मेकेन्जी ने अपने ग्रन्थ 'हिन्दूएथिक्स में इस भ्रान्त विचारणा को प्रस्तुत किया है कि अहिंसा की अवधारणा का विकास भय के आधार पर हुआ है । वे लिखते हैं - " असभ्य मनुष्य जीव के विभिन्न रूपों को भय की दृष्टि से लेकिन कोई भी
देखते थे और भय की यह धारणा ही अहिंसा का मूल है।" प्रबुद्ध विचारक मेकेन्जी की इस धारणा से सहमत नहीं होगा ।
आचारांग में अहिंसा के सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक आधार पर स्थापित करने का प्रयास किया गया है। उसमें अहिंसा को आर्हत प्रवचन का सार और शुद्ध एवं शाश्वत् धर्म बताया गया है। सर्वप्रथम हमें यह विचार करना है कि अहिंसा को ही धर्म क्यों माना जाय ? सूत्रकार इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक उत्तर प्रस्तुत करता है। वह कहता है कि सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, पुनः सभी को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है।" अहिंसा का अधिष्ठान, यही मनोवैज्ञानिक सत्य है। अस्तित्व और सुख की चाह प्राणीय स्वभाव है। जैन विचारकों ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर अहिंसा को स्थापित किया है । अहिंसा का आधार 'भय' मानना गलत है, क्योंकि भय के सिद्धान्त को यदि अहिंसा का आधार बनाया जायेगा तो व्यक्ति केवल सबल की हिंसा से विरत होगा, निर्बल की हिंसा से नहीं। जिससे भय होगा उसी के प्रति अहिंसक बुद्धि बनेगी, जबकि जैनधर्म तो सभी प्राणियों के प्रति यहाँ तक कि वनस्पति, जल और
२३. भगवद्गीता (रा.), पृ. ७४-७५.
२४. हिन्दू एथिक्स, मेकेन्जी
२५. अज्झत्थ जाणइ से बेहिया जाणई एयं तुल्लमन्नसिं, १1१1७.
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पृथ्वीकायिक जीवों के प्रति भी अहिंसक होने की बात कहता है, अतः अहिंसा को भय के आधार पर नहीं, अपितु अभय, जिजीविषा और सुखाकांक्षा के मनोवैज्ञानिक सत्यों के आधार पर अधिष्ठित किया जा सकता है। पुनः जैनधर्म ने इन मनोवैज्ञानिक सत्यों के साथ ही अहिंसा को आत्मतुल्यता बोध का बौद्धिक आधार भी दिया गया है। वहाँ कहा गया है कि जो अपनी पीड़ा को जान पाता है, वही तुल्यता बोध के आधार पर दूसरों की पीड़ा को भी समझ सकता है। प्राणीय पीड़ा की तुल्यता के बोध के आधार पर होने वाला यह आत्मसंवेदन ही अहिंसा की नींव है।
वस्तुतः अहिंसा का मूलाधार जीवन के प्रति सम्मान, समत्वभावना एवं अद्वैत भावना है। समत्वभाव से सहानुभूति तथा अद्वैतभाव से आत्मीयता उत्पन्न होती है और इन्हीं से अहिंसा का विकास होता है। अहिंसा जीवन के प्रति भय से नहीं, जीवन के प्रति सम्मान से विकसित होती है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता, अतः निर्ग्रन्थ प्राणवध (हिंसा) का निषेध करते हैं। वस्तुतः प्राणियों के जीवित रहने का नैतिक अधिकार ही अहिंसा के कर्तव्य को जन्म देता है। जीवन के अधिकार का सम्मान ही अहिंसा है। उत्तराध्ययनसूत्र में समत्व के आधार पर अहिंसा के सिद्धान्त की स्थापना करते हुए कहा गया है कि भय और वैर से मुक्त साधक, जीवन के प्रति प्रेम रखने वाले सभी प्राणियों को सर्वत्र अपनी आत्मा के समान जान कर उनकी कभी भी हिंसा न करे। यह मेकेन्जी की इस धारणा का, कि अहिंसा भय पर अधिष्ठित है, सचोट उत्तर है। आचारांगसूत्र में तो आत्मीयता की भावना के आधार पर ही अहिंसा-सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना की गयी है। उसमें लिखा है- जो लोक (अन्य जीव समूह) का अपलाप करता है, वह स्वयं अपनी आत्मा का भी अपलाप करता है। आगे पूर्णआत्मीयता की भावना को परिपुष्ट करते हुए महावीर कहते हैं- जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तु शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है। भक्तपरिज्ञा में भी लिखा है -किसी भी अन्य प्राणी की हत्या वस्तुतः अपनी ही हत्या है और अन्य जीवों की दया अपनी ही दया है।" इस प्रकार जैनधर्म में अहिंसा का आधार आत्मवत् दृष्टि ही है।
२६. सव्वे पाणा पिआउया सुहसाया दुःखपडिकूला, १।२।३. २७. दशवैकालिक, ६।११. २८. उत्तराध्ययन, ६७. २६. आचारांग, १३३. ३०. आचारांग, १।५।५. ३१. भक्तपरिज्ञा-६३.
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बौद्धधर्म में अहिंसा का आधार
भगवान बुद्ध ने भी अहिंसा के आधार के रूप में इसी 'आत्मवत सर्वभूतेषु' की भावना को ग्रहण किया है। सूत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं- "जैसा मैं हूँ वैसे ही ये सब प्राणी हैं, और जैसे ये सब प्राणी हैं वैसा ही मैं हूँ। इस प्रकार अपने समान सब प्राणियों को समझकर न स्वयं किसी का वध करे और न दूसरों से कराएँ । ३२ गीता में अहिंसा के आधार
गीताकार भी अहिंसा के सिद्धान्त के आधार रूप में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की उदात्त भावना को लेकर चलता है। यदि हम गीता को अद्वैतवाद की समर्थक मानें, तो अहिंसा के आधार की दृष्टि से जैन-दर्शन और अद्वैतवाद में यह अन्तर है कि जहाँ जैन परम्परा में सभी आत्माओं की तात्त्विक समानता के आधार पर अहिंसा की प्रतिष्ठा की गई है, वहीं अद्वैतवाद में तात्त्विक अभेद के आधार पर अहिंसा की स्थापना की गई है। वाद कोई भी हो पर अहिंसा की दृष्टि से महत्त्व की बात एक ही है कि अन्य जीवों के साथ समानता, जीवन के अधिकार का सम्मान और अभेद की वास्तविक संवेदना या आत्मीयता की अनुभूति ही अहिंसा की भावना का उद्गम है। जब मनुष्य में इस संवेदनशीलता का सच्चे रूप में उदय हो जाता है, तब हिंसा का विचार एक असम्भावना बन जाता है। हिंसा का संकल्प सदैव 'पर' के प्रति होता है, 'स्व' या आत्मीय के प्रति कभी नहीं, अतः आत्मवत् दृष्टि का विकास ही अहिंसा का आधार है। जैन आगमों की अहिंसा का व्यापक स्वरूप
जैन-विचारणा में अहिंसा का क्षेत्र कितना व्यापक है, इसका बोध हमें प्रश्नव्याकरणसूत्र से हो सकता है। उसमें अहिंसा के साठ पर्यायवाची नाम वर्णित हैं।" -१. निर्वाण, २. निवृत्ति, ३. समाधि, ४. शान्ति, ५. कीर्ति, ६. कान्ति, ७. प्रेम, ८. वैराग्य, ६. श्रुतांग, १०. तृप्ति, ११, दया, १२. विमुक्ति, १३. शान्ति, १४. सम्यक् आराधना, १५. महती, १६. बोधि, १७. बुद्धि, १८. धृति, १६. समृद्धि, २०. ऋद्धि, २१. वृद्धि, २२. स्थिति (धारक), २३. पुष्टि (पोषक), २४. नन्द (आनन्द), २५. भद्रा, २६. विशुद्धि, २७. लब्धि, २८. विशेष दृष्टि, २६. कल्याण, ३०. मंगल, ३१. प्रमोद, ३२. विशुद्धि, ३३. रक्षा, ३४. सिद्धावास, ३५. अनाम्नव, ३६. कैवल्यस्थान, ३७. शिव, ३८. समिति, ३६. शील, ४०. संयम, ४१. शील परिग्रह, ४२. संवर, ४३. गुप्ति, ४४. व्यवसाय, ४५. उत्सव,
३२. सुत्तनिपात, ३३७।२७. ३३. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृ. १२५. ३४. प्रश्नव्याकरणसूत्र, १।२१.
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४६. यज्ञ, ४७. आयतन, ४८ यतन, ४६. अप्रमाद, ५०. आश्वासन, ५१. विश्वास, ५२. अभय, ५३. सर्व अमाघात ( किसी को न मारना ), ५४. चोक्ष ( स्वच्छ), ५५. पवित्र, ५६. शुचि, ५७. पूता या पूजा, ५८. विमल, ५६. प्रभात और ६०. निर्मलतर ।
इस प्रकार जैन आचार - दर्शन में अहिंसा शब्द एक व्यापक दृष्टि को लेकर उपस्थित होता है। उसके अनुसार सभी सद्गुण अहिंसा में निहित हैं और अहिंसा ही एकमात्र सद्गुण है । वस्तुतः अहिंसा सद्गुण-समूह की सूचक है ।
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अध्याय ४.
हिंसा-अहिंसा विवेक. अहिंसा क्या है?
हिंसा का प्रतिपक्ष अहिंसा है। यह अहिंसा की एक निषेधात्मक परिभाषा है, लेकिन हिंसा का त्याग मात्र अहिंसा नहीं है। निषेधात्मक अहिंसा जीवन के समग्र पक्षों को स्पर्श नहीं करती। वह आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं कही जा सकती। निषेधात्मक अहिंसा मात्र बाह्य हिंसा नहीं करना है, यह अहिंसा का शरीर हो सकता है, अहिंसा की आत्मा नहीं। किसी को नहीं मारना, यह बात अहिंसा के सम्बन्ध में मात्र स्थूल दृष्टि एवं बहिर्मुखी दृष्टि तक सीमित रही है। जैन-दर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त 'अहिंसा' शाब्दिक दृष्टि से चाहे नकारात्मक है, लेकिन उसकी अनुभूति नकारात्मक नहीं है। उसकी अनुभूति सर्दव ही विधायक रही है। सर्वत्र आत्मभाव मूलक करूणा और मैत्री की विधायक अनुभूतियों से अहिंसा की धारा प्रवाहित हुई है। अहिंसा क्रिया नहीं, सत्ता है। वह आत्मा की एक अवस्था है। आत्मा की प्रमत्त अवस्था ही हिंसा है और अप्रमत्त अवस्था ही अहिंसा है। आचार्य भद्रबाहु 'ओघनियुक्ति' में लिखते हैं कि पारमार्थिक दृष्टि से आत्मा ही हिंसा है और अहिंसा है। प्रमत्त आत्मा हिंसक है और अप्रमत्त आत्मा अहिंसक है। आत्मा की प्रमत्त दशा हिंसा की अवस्था है और अप्रमत्त दशा अहिंसा की अवस्था है। द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा
___ अहिंसा को सम्यक् रूप से समझने के लिए पहले यह जान लेना आवश्यक है कि जैन-विचारणा के अनुसार हिंसा क्या है? जैन-विचारणा हिंसा का दो दृष्टि से विचार करती है। एक हिंसा का बाह्य पक्ष है, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में द्रव्य हिंसा कहा गया है। द्रव्य हिंसा स्थूल एवं बाह्य घटना है। यह एक क्रिया है जिसे प्राणातिपात, प्राणवध, प्राणहनन आदि नामों से जाना जाता है। जैन-विचारणा आत्मा को सापेक्ष रूप में नित्य मानती है। अतः हिंसा के द्वारा जिसका हनन होता है, वह आत्मा नहीं वरन् प्राण है। प्राण जैविक शक्ति है। जैन-विचारणा में प्राण दस माने गये हैं। पाँच इन्द्रियों की शक्ति, मन, वाणी और शरीर का त्रिविध बल, श्वसन-क्रिया एवं आयुष्य- ये दस प्राण हैं। इन प्राण-शक्तियों का वियोजीकरण ही द्रव्य-दृष्टि से हिंसा है। हिंसा की यह
३५. दशवकालिक-नियुक्ति, ६०. ३६. ओघनियुक्ति, ७५४. ३७. ओघनियुक्ति, ७५४.
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परिभाषा उसके बाह्य पक्ष पर बल देती है। द्रव्य-हिंसा का तात्पर्य प्राण-शक्तियों का कुण्ठन, हनन तथा विलगाव करना है।
भाव-हिंसा हिंसा का विचार है। यह मानसिक अवस्था है, जो प्रमादजन्य है। आचार्य अमृतचन्द्र हिंसा के भावात्मक पक्ष पर बल देते हुए हिंसा-अहिंसा की परिभाषा करते हैं। उनका कथन है कि रागादि कषायों का अभाव अहिंसा है और उनका उत्त्पन्न होना ही हिंसा है। यही जैन-आगमों की विचार दृष्टि का सार है। हिंसा की पूर्ण परिभाषा 'तत्त्वार्थसूत्र' में मिलती है। 'तत्त्वार्थसूत्र' के अनुसार, "राग-द्वेष या कषाय आदि प्रमादों से युक्त होकर किया जाने वाला प्राण-वध हिंसा है।"२८ अहिंसा के बाह्य पक्ष की अवहेलना उचित नहीं
हिंसा-अहिंसा के विचार में जिस भावात्मक आन्तरिक पक्ष पर जैन-आचार्य इतना अधिक बल देते रहे हैं, उसका महत्त्व निर्विवाद रूप से सभी को स्वीकार्य है। यही नहीं, इस सन्दर्भ में जैनदर्शन, गीता और बौद्ध-दर्शन में विचार साम्य है, जिस पर हम विचार कर चुके हैं। यह निश्चित है कि हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में भावात्मक या आन्तरिक पहलू ही मूल केन्द्र हैं, लेकिन दूसरे बाह्य पक्ष की अवहेलना भी कथमपि सम्भव नहीं है। यद्यपि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से आध्यात्मिक एवं आन्तरिक पक्ष का ही सर्वाधिक मूल्य है; लेकिन जहाँ सामाजिक एवं व्यवहारिक जीवन का प्रश्न है, हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में बाह्य पहलू को भी झुठलाया नहीं जा सकता, क्योंकि व्यवहारिक जीवन और सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से जिस पर विचार किया जा सकता है, वह तो आचरण का बाह्य पक्ष ही है।
गीता और बौद्ध आचार-दर्शन की अपेक्षा भी जैन-दर्शन ने इस बाह्य पक्ष पर गहनतापूर्वक समुचित विचार किया है। जैन-परम्परा यह मानती है कि किन्हीं अपवाद की अवस्थाओं को छोड़कर सामान्यतया जो विचार में है, वही व्यवहार में प्रकट होता है। अन्तरंग और बाह्य अथवा विचार और आचार के सम्बन्ध में द्वैत दृष्टि उसे स्वीकार्य नहीं है। उसकी दृष्टि में अन्तरंग में अहिंसक वृत्ति के होते हुए बाह्य हिंसक आचरण करना, यह एक प्रकार की भ्रान्ति है, छलना है, आत्मप्रवंचना है। सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि यदि हृदय पापमुक्त हो. तो (हिंसादि) क्रिया करने पर भी निर्वाण अवश्य मिलता है, यह एक मिथ्याधारणा है। यदि गीता का यह मन्तव्य हो कि अन्तर में अहिंसक वृत्ति के होते हुए भी हिंसात्मक क्रिया की जा सकती है, तो जैन-दर्शन का उससे स्पष्ट
३८. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ७, पृ. १२२८.
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विरोध है। जैनधर्म कहता है कि अन्तर में अहिंसक वृत्ति के होते हुए हिंसा की नहीं जा सकती, यद्यपि हिंसा हो सकती है। हिंसा करना सदैव ही संकल्पात्मक होगा और आन्तरिक विशुद्धि के होते हुए हिंसात्मक कर्म का संकल्प सम्भव ही नहीं ।
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वस्तुतः हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में जैन- दृष्टि का सार यह है कि हिंसा चाहे वह बाह्य हो या आन्तरिक, वह आचार का नियम नहीं हो सकती ।
दूसरे, हिंसा - अहिंसा की विवक्षा में बाह्य पक्ष की अवहेलना भी मात्र कतिपय अपवादात्मक अवस्थाओं में ही क्षम्य है। हिंसा का हेतु मानसिक दुष्प्रवृत्तियाँ या कषायें हैं, यह मानना तो ठीक है, लेकिन यह मानना कि मानसिक वृत्ति या कषायों के अभाव में होने वाली द्रव्यहिंसा हिंसा नहीं है, उचित नहीं । यह ठीक है कि संकल्पजन्य हिंसा अधिक निकृष्ट और निकाश्चित कर्म - बंध करती है, लेकिन संकल्प के अभाव में होने वाली हिंसा, हिंसा नहीं है या उससे कर्म - आम्रव नहीं होता है, यह जैनकर्म - सिद्धान्त के अनुकूल नहीं है । व्यवहारिक जीवन में हमें इसको हिंसा मानना होगा। इस प्रकार के दृष्टिकोण को निम्न कारणों से उचित नहीं माना जा सकता
(१) जैन-दर्शन में आस्रव का कारण तीन योग है- (अ) मनयोग ( ब ) वचनयोग और (स) काययोग। इनमें से किसी भी योग के कारण कर्मों का आगमन (आस्रव) होता अवश्य है । द्रव्यहिंसा में काया की प्रवृत्ति है, अतः इसके कारण आस्रव होता है। जहाँ आस्रव है, वहाँ हिंसा है । प्रश्नव्याकरणसूत्र में आस्रव के पाँच द्वार (9 . हिंसा, २. असत्य, ३. स्तेय, ४. अब्रह्मचर्य, ५. परिग्रह ) माने गये हैं, जिसमें प्रथम नवद्वार हिंसा है । ऐसा कृत्य जिसमें प्राण वियोजन होता है, हिंसा है और दूषित है। यह ठीक है कि कषायों के अभाव में उससे निकाश्चित कर्म-बंध नहीं होता है, लेकिन क्रिया दोष तो लगता है
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(२) जैन - शास्त्रों में वर्णित पच्चीस क्रियाओं में 'ईर्यापथिक' क्रिया भी है जैनतीर्थंकर राग-द्वेष आदि कषायों से मुक्त होते हैं, लेकिन काययोग के कारण उन्हें ईर्यापथिक क्रिया लगती है और ईर्यापथिक बंध भी होता है । यदि द्रव्य - हिंसा मानसिक कषायों के अभाव में हिंसा नहीं है, तो कायिक व्यापार के कारण उन्हें ईर्यापथिक क्रिया क्यों लगती है? इसका तात्पर्य यह है कि द्रव्यहिंसा भी हिंसा है 1 (३) द्रव्य हिंसा यदि मानसिक प्रवृत्तियों के अभाव में हिंसा ही नहीं है तो फिर यह दो भेद - भाव हिंसा और द्रव्यहिंसा नहीं रह सकते ।
३८. सूत्रकृतांग, २।६।३५.
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(४) वृत्ति और आचरण का अन्तर कोई सामान्य नियम नहीं है । सामान्य रूप से व्यक्ति की जैसी वृत्तियाँ होती है, वैसा ही उसका आचरण होता है । अतः यह मानना कि आचरण का बाह्य पक्ष वृत्तियों से अलग होकर कार्य कर सकता है, एक भ्रान्त धारणा है ।
हिंसा के प्रकार
जैन विचारकों ने द्रव्य और भाव, इन दो रूपों के आधार पर हिंसा के चार विभाग किये है- १. मात्र शारीरिक हिंसा, २. मात्र वैचारिक हिंसा, ३. शारीरिक एवं वैचारिक हिंसा, और ४. शाब्दिक हिंसा । मात्र शारीरिक हिंसा या द्रव्य हिंसा वह है, जिसमें हिंसक क्रिया तो सम्पन्न हुई हो, लेकिन हिंसक विचार का अभाव है। उदाहरणस्वरूप, सावधानीपूर्वक चलते हुए भी दृष्टिदोष या जन्तु की सूक्ष्मता के कारण उसके नहीं दिखाई देने पर हिंसा हो जाना । मात्र वैचारिक हिंसा या भाव हिंसा वह है जिसमें हिंसा की क्रिया तो अनुपस्थित हो, लेकिन हिंसा का संकल्प उपस्थित हो। इसमें कर्ता हिंसा के संकल्प से युक्त होता है, लेकिन बाह्य परिस्थितिवश उसे क्रियान्वित करने में सफल नहीं हो पाता है । जैसे- कैदी का न्यायाधीश की हत्या करने का विचार ( जैन परम्परा में इस सम्बन्ध में तंदुलमच्छ एवं कालसौकरिक कसाई के उदाहरण प्रस्तुत किये जाते है ) । वैचारिक एवं शारीरिक हिंसा, जिसमें हिंसा का विचार और हिंसा की क्रिया, दोनों ही उपस्थित हो । जैसे- संकल्पपूर्वक की गई हत्या । शाब्दिक हिंसा, जिसमें न तो हिंसा का विचार हो न हिंसा की क्रिया, मात्र हिंसक शब्दों का उच्चारण हो । जैसे- सुधार की भावना से माता-पिता का बालकों पर या गुरू का शिष्य पर कृत्रिम रूप से कुपित होना । नैतिकता की या बन्धन की तीव्रता की दृष्टि से हिंसा के इन चार रूपों में क्रमशः शाब्दिक हिंसा की अपेक्षा संकल्प रहित शारीरिक हिंसा, संकल्प रहित शारीरिक हिंसा की अपेक्षा वैचारिक हिंसा और मात्र वैचारिक हिंसा की अपेक्षा संकल्पयुक्त शारीरिक हिंसा अधिक निकृष्ट मानी गयी है 1 हिंसा की विभिन्न स्थितियाँ
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वस्तुतः हिंसक कर्म की तीन अवस्थाएँ हो सकती हैं- १. हिंसा की गयी हो, २. हिंसा करनी पड़ी हो और ३. हिंसा हो गयी हो। पहली स्थिति में यदि हिंसा चेतन रूप से की गई है, तो वह संकल्पयुक्त है; यदि अचेतन रूप से की गई है, तो वह प्रमादयुक्त है । हिंसक क्रिया, चाहे संकल्प से उत्पन्न हुई हो या प्रमाद के कारण हुई हो, कर्ता दोषी माना जाता है। दूसरी स्थिति में हिंसा चेतन रूप से किन्तु विवशतावश करनी पड़ती है, यह बाध्यता शारीरिक हो सकती है
४०. पुरूषार्थसुद्धयुपाय, ४४
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अथवा बाह्य परिस्थितिगत, यहाँ भी कर्ता दोषी है। वह कर्म का बन्धन भी करता हैं, लेकिन पश्चात्ताप या ग्लानि के द्वारा वह उससे शुद्ध हो जाता है। बाध्यता की अवस्था में की गई हिंसा के लिए कर्ता को दोषी मानने का आधार यह है कि समग्र बाध्यताएँ स्वयं के द्वारा आरोपित है। बाध्यता या बन्धन के लिए कर्ता स्वयं उत्तरदायी है। बाध्यताओं की स्वीकृति कायरता का प्रतीक है। बन्धन में होना और बन्धन को मानना, दोनों ही कर्ता की विकृतियाँ हैं -कर्ता स्वयं दोषी है ही। नैतिक जीवन का साध्य तो इनसे ऊपर उठने में ही है। तीसरी स्थिति में हिंसा न तो प्रमाद के कारण होती है और न विवशतावश ही, वरन् सम्पूर्ण सावधानी के बावजूद भी हो जाती है। जैन-विचारणा के अनुसार हिंसा की यह तीसरी स्थिति कर्ता की दृष्टि से निर्दोष मानी जा सकती है, क्योंकि इसमें हिंसा का संकल्प पूरी तरह अनुपस्थित रहता है; मात्र यही नहीं, हिंसा से बचने की पूरी सावधानी भी रखी जाती है। हिंसा के संकल्प के अभाव में एवं सम्पूर्ण सावधानी के बावजूद भी यदि हिंसा हो जाती है तो वह हिंसा के सीमाक्षेत्र में नहीं आती है। हमें यह भी समझ लेना होगा कि किसी अन्य संकल्प की पूर्ति के लिए की जानेवाली क्रिया के दौरान यदि सावधानी के बावजूद कोई हिंसा की घटना घटित हो जाती है, जैसे -गृहस्थ उपासक द्वारा भूमि जोतते हुए किसी त्रस-प्राणी की हिंसा हो जाना अथवा किसी मुनि के द्वारा पदयात्रा करते हुए त्रसप्राणी की हिंसा हो जाना, तो कर्ता को उस हिंसा के प्रति उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि उसके मन में उस हिंसा का कोई संकल्प ही नहीं है। अतः ऐसी हिंसा हिंसा नहीं है। हिंसा की उन स्थितियों में, जिनमें हिंसा की जाती हो या हिंसा करनी पड़ती हो, हिंसा का संकल्प या इरादा अवश्य होता है। यह बात अलग है कि एक अवस्था में हम बिना किसी परिस्थिगत दबाव के स्वतंत्ररूप में हिंसा का संकल्प करते है और दूसरे में हमें विवशता में संकल्प करना होता है, फिर भी पहली अधिक निकृष्ट कोटि की है, क्योंकि आक्रमणात्मक है। हिंसा के विभिन्न रूप
हिंसक कर्म की उपर्युक्त तीन अवस्थाओं में यदि हिंसा हो जाने की तीसरी अवस्था को छोड़ दिया जाये तो हमारे समक्ष हिंसा के दो रूप बचते हैं१. हिंसा की गयी हो और २. हिंसा करनी पड़ी हो। वे दशाएँ जिनमें हिंसा करनी पड़ती है, दो प्रकार की हैं -१. रक्षणात्मक और २. आजीविकारात्मक। इसमें दो बातें सम्मिलित हैं- जीवन जीने के साधनों का अर्जन और उनका उपभोग।
जैन दर्शन में इसी आधार पर हिंसा के चार रूप माने गये हैं
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१. संकल्पजा (संकल्पी हिंसा) - संकल्प या विचारपूर्वक हिंसा करना। यह
आक्रमणात्मक हिंसा है। २. विरोधजा - स्वयं और दूसरे लोगों के जीवन एवं स्वत्वों (अधिकारों) के
रक्षण के लिए विवशतावश हिंसा करना। यह सुरक्षात्मक हिंसा है। ३. उद्योगजा - आजीविका उपार्जन अर्थात् उद्योग एवं व्यवसाय के निमित्त होने
वाली हिंसा। यह उपार्जनात्मक हिंसा है। ४. आरम्भजा - जीवन-निर्वाह के निमित्त होने वाली हिंसा, जैसे- भोजन का
पकाना। यह निर्वाहात्मक हिंसा है। हिंसा के कारण
जैन आचार्यों ने हिंसा के चार कारण माने हैं। १. राग, २. द्वेष, ३. कषाय अर्थात् क्रोध, अहंकार, कपट एवं लोभवृत्ति और ४. प्रमाद। हिंसा के साधन
जहाँ तक हिंसा के मूल साधनों का प्रश्न हैं, वे तीन हैं - मन, वचन और शरीर। सभी प्रकार की हिंसा इन्हीं तीन साधनों द्वारा होती या की जाती है। हिंसा और अहिंसा मनोदशा पर निर्भर
जैन विचारणा के अनुसार न केवल पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि एवं वनस्पति जगत ही जीवनयूक्त है, वरन समग्र लोक सूक्ष्म जीवों से व्याप्त है। अतः प्रश्न होता है कि क्या ऐसी स्थिति में कोई पूर्ण अहिंसक हो सकता है? महाभारत में भी जगत् को सूक्ष्म जीवों से व्याप्त मानकर यही प्रश्न उठाया है। जल में बहतेरे जीव हैं, पृथ्वी पर तथा वृक्षों के फलों में भी अनेक जीव (प्राण) होते हैं। ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है, जो इनमें से किसी को कभी नहीं मारता हो। फिर कितने ही ऐसे सूक्ष्म प्राणी हैं, जो इन्द्रियों से नहीं मात्र अनुमान से ही माने जाते हैं, मनुष्य की पलकों के गिरने मात्र से ही जिनके कंधे टूट जाते हैं, अर्थात् मर जाते हैं। तात्पर्य यह है कि जीवों की हिंसा से नहीं बचा जा सकता है।"
प्राचीन युग से ही जैन-विचारकों की दृष्टि भी इस प्रश्न की ओर है। आचार्य भद्रबाहु इस सन्दर्भ में जैन दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए लिखते हैंत्रिकालदर्शी जिनेश्वर भगवान् का कथन है कि अनेकानेक जीव-समूहों से परिव्याप्त विश्व में साधक का अहिंसकत्व अन्तर में अध्यात्म विशुद्धि की दृष्टि से ही है. बाह्य हिंसा या अहिंसा की दृष्टि से नहीं है। जैन-विचारधारा के अनुसार भी बाह्य हिंसा से पूर्णतया बच पाना सम्भव नहीं।
४१. महाभारत, शान्ति पर्व १५२५-२६ ४२. ओघनियुक्ति, ७४७
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हिंसा और अहिंसा का प्रत्यय बाह्य घटनाओं पर उतना निर्भर नहीं है, जितना वह साधक की मनोदशा पर आधारित है। हिंसा और अहिंसा के विवेक का आधार प्रमुख रूप से आन्तरिक है। हिंसा में संकल्प की प्रमुखता है। भगवती सत्र में एक संवाद के द्वारा इसे स्पष्ट किया गया है। गणधर गौतम महावीर से प्रश्न करते हैं - हे भगवन्! किसी श्रमणोपासक ने किसी त्रस प्राणी का वध न
करने की प्रतिज्ञा ली हो, लेकिन पृथ्वीकाय की हिंसा की प्रतिज्ञा नहीं ग्रहण की हो; । यदि भूमि खोदते हुए उससे किसी प्राणी का वध हो जाय तो क्या उसकी प्रतिज्ञा
भंग हुई? महावीर कहते हैं कि यह मानना उचित नहीं-उसकी प्रतिज्ञा भंग हुई।३ इस प्रकार संकल्प की उपस्थिति अथवा साधक की मानसिक स्थिति ही हिंसा-अहिंसा के विचार में प्रमुख तत्त्व है। परवर्ती जैन साहित्य में यही धारणा पुष्ट होती रही है। आचार्य भद्रबाहु का कथन है कि सावधानीपूर्वक चलने वाले साधु के पैर के नीचे कभी-कभी कीट-पतंग आदि क्षद्र प्राणी आ जाते हैं और दब कर मर भी जाते हैं, लेकिन उक्त हिंसा के निमित्त से उसे सूक्ष्म कर्म बंध भी नहीं बताया गया हैं, क्योंकि यह अन्तर में सर्वतोभावेन उस हिंसा व्यापार से निर्लिप्त होने के कारण निष्पाप है। जो विवेक सम्पन्न अप्रमत्त साधक आन्तरिक विशद्धि से युक्त है और आगमविधि के अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा हो जाने वाली हिंसा भी कर्म-निर्जरा का कारण है। लेकिन जो व्यक्ति प्रमत्त है, उसकी किसी भी चेष्टा से जो भी प्राणी मर जाते हैं, वह निश्चित रूप से उन सबका हिंसक होता है। इतना ही नहीं, वरन् जो प्राणी नहीं मारे गये हैं, प्रमत्त मनुष्य उनका भी हिंसक है, क्योंकि वह अन्तर में सर्वतोभावेन पापात्मा है। इस प्रकार आचार्य का निष्कर्ष यही है कि केवल दृश्यमान पापरूप हिंसा से ही कोई हिंसक नहीं हो जाता।
आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में कहते है कि बाहर में प्राणी मरे या जिए, असंयताचारी प्रमत्त को हिंसा का दोष निश्चित रूप से लगता है; परन्तु जो अहिंसा की साधना के लिए प्रयत्नशील है, समितिवान या संयताचारी है, उसको बाहर से होने वाली हिंसा के कारण कर्म-बन्धन नहीं होता। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं कि रागादि कषायों से ऊपर उठकर नियमपूर्वक आचरण करते हुए भी यदि प्राणघात हो जाये तो वह हिंसा नहीं है। निशीथचूर्णि में भी
४३. भगवतीसूत्र, ७।१६-७ ४४. ओघनियुक्ति, ७४८-४६ ४५. ओघनियुक्ति, ७५६ ४६. ओपनियुक्ति, ७५२-५३ ४७. ओपनियुक्ति, ७५८ ४८. प्रवचनसार, ३१७ ४६. पुरुषार्थसिद्धियुक्ति, ४५
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कहा गया है कि प्राणातिपात (हिंसा) होने पर भी अप्रमत्त साधक अहिंसक है और प्राणातिपात न होने पर भी प्रमत्त व्यक्ति हिंसक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार्यों की दृष्टि में हिंसा अहिंसा का प्रश्न मुख्य रूप से आन्तरिक रहा है। इस दृष्टिकोण के पीछे प्रमुख विचार यह है कि एक और व्यवहारिक रूप से पूर्ण अहिंसा का पालन और दूसरी ओर आध्यात्मिक साधना के लिए जीवन को बनाये रखने का प्रयास, यह दो ऐसी स्थितियाँ है जिनका साथ-साथ चलाना सम्भव नहीं होता है। अतः जैन-विचारकों को अन्त में यही स्वीकार करना पड़ा कि हिंसा-अहिंसा का सम्बन्ध बाहरी घटनाओं की अपेक्षा आन्तरिक वृत्तियों से है।"
इस दृष्टिकोण का समर्थन हमें गीता और धम्मपद में भी मिलता है। गीता कहती है- जो अहंकार की भावना से मुक्त है, जिसकी बुद्धि मलिन नहीं है, वह इन सब मनुष्यों को मारता हुआ भी नहीं मारता है और वह (अपने इस कर्म के कारण) बन्धन में नहीं पड़ता। - धम्मपद में भी कहा है कि (नैष्कर्म्य-स्थिति को प्राप्त) ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को एवं प्रजा-सहित राष्ट्र को मारकर भी निष्पाप होकर जाता है (क्योंकि वह पाप-पुण्य से ऊपर उठ जाता है)।
यहाँ गीता और धम्मपद में प्रयुक्त 'मारकर' शब्द पर आपत्ति हो सकती है। जैन परम्परा में सामान्यतया इस प्रकार का प्रयोग नहीं है, फिर भी जैनागमों में ऐसे अपवाद स्थानों का विवेचन उपलब्ध है, जब कि हिंसा अनिवार्य हो जाती है। ऐसे अवसरों पर अगर की जाने वाली हिंसा से डर कर कोई उसका आचरण नहीं करता (वह हिंसा नहीं करता), तो उलटे दोष का भागी बनता है। यदि गीता में वर्णित युद्ध के अवसर को एक अपवादात्मक स्थिति के रूप में देखें, तो सम्भवतः जैन-विचारणा गीता से अधिक दूर नहीं रह जाती है। दोनों ही ऐसी स्थिति में व्यक्ति के चित्त-साम्य (कृतयोगित्व) और परिपक्व शास्त्रज्ञान (गीतार्थ) पर बल देती है।
५०. निशीथचूर्णि, ६२ ५१. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृ. ४१४ ५२. गीता, १७-१८ ५३. धम्मपद, २६४ ५४. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृ. ४१६
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अध्याय - ५.
अहिंसा के आदर्श की उपलब्धि की सम्भावनाएँ.
यद्यपि आन्तरिक और बाह्य रूप से पूर्ण अहिंसा के आदर्श की उपलब्धि जैन दर्शन का साध्य है, लेकिन व्यवहार के क्षेत्र में इस आदर्श की उपलब्धि सहज नहीं है। अहिंसा एक आध्यात्मिक आदर्श है और आध्यात्मिक स्तर पर ही इसकी पूर्ण उपलब्धि सम्भव है, लेकिन व्यक्ति का वर्तमान जीवन अध्यात्म और भौतिकता का एक सम्मिश्रण है। जीवन के आध्यात्मिक स्तर पर पूर्ण अहिंसा सम्भव है, लेकिन भौतिक स्तर पर पूर्ण हिंसा की कल्पना समीचीन नहीं है । अहिंसक जीवन की सम्भावनाएँ भौतिक स्तर से ऊपर उठने पर विकसित होती हैं । व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिकता के स्तर से ऊपर उठता जाता है, वैसे-वैसे अहिंसक जीवन की पूर्णता की दिशा में बढ़ता जाता है । इसी आधार पर जैन धर्म में अहिंसा की दिशा में बढ़ने के लिए कुछ स्तर निर्धारित हैं ।
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हिंसा का वह रूप, जिसे संकल्पजा हिंसा कहा जाता है, सभी के लिए त्याज्य है । संकल्पजा हिंसा हमारे वैचारिक या मानसिक जगत् पर निर्भर है। मानसिक संकल्प के कर्ता के रूप में व्यक्ति में स्वतंत्रता की सम्भावनाएँ सर्वाधिक विकसित हैं। अपने मनोजगत् में व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्र है । इस स्तर पर पूरी तरह से अहिंसा का पालन अधिक सहज एवं सम्भव है । बाह्य स्थितियाँ इस स्तर पर हमें प्रभावित कर सकती हैं, लेकिन शासित नहीं कर सकतीं । व्यक्ति स्वयं अपने विचारों का स्वामी होता है, अतः इस स्तर पर अहिंसक होना सभी के लिए आवश्यक है । व्यवहारिक दृष्टि से संकल्पजा हिंसा आक्रमणकारी हिंसा है । यह न तो जीवन के रक्षण के लिए है और न जीवन निर्वाह के लिए है, अतः यह सभी के लिए त्याज्य है ।
हिंसा का दूसरा रूप विरोधजा है। यह प्रत्याक्रमण या सुरक्षात्मक है । स्व एवं पर के जीवन एवं स्वत्वों के रक्षण के लिए यह हिंसा करनी पड़ती है। इसमें बाह्य परिस्थितिगत तत्त्वों का प्रभाव प्रमुख होता है । बाह्य स्थितियाँ व्यक्ति को बाध्य करती हैं कि वह अपने एवं अपने साथियों के जीवन एवं स्वत्वों के रक्षण के लिए प्रत्याक्रमण के रूप में हिंसा करे। जो भी मनुष्य शरीर एवं अन्य भौतिक संस्थानों पर अपना स्वत्व रखना चाहते हैं अथवा जो अपने और अपने साथियों के अधिकारों में आस्था रखते हैं, वे इस विरोधजा हिंसा को छोड़ नहीं सकते । गृहस्थ या श्रावक हिंसा के इस रूप को पूरी तरह छोड़ पाने में असमर्थ होते हैं, क्योंकि वे शरीर एवं अन्य भौतिक वस्तुओं पर अपना स्वत्व रखना चाहते हैं ।
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इसी प्रकार शासक वर्ग एवं राजनैतिक नेता, जो मानवीय अधिकारों में एवं राष्ट्रीय हितों में आस्था रखते हैं, इसे पूरी तरह छोड़ने में असमर्थ हैं।।
यद्यपि आधुनिक युग में गांधी एक ऐसे विचारक अवश्य हुए हैं, जिन्होंने विरोध का अहिंसक तरीका प्रस्तुत किया और उसमें सफलता भी प्राप्त की, तथापि
अहिंसक रूप से विरोध करना और उसमें सफलता प्राप्त करना हर किसी के लिए सम्भव नहीं है। अहिंसक प्रक्रिया से अधिकारों का संरक्षण करने में वही सफल हो सकता है, जिसे शरीर का मोह न हो, पदार्थों में आसक्ति न हो और विद्वेष भाव न हो। इतना ही नहीं, अहिंसक तरीके से अधिकारों के संरक्षण की कल्पना एक सभ्य एवं सुसंस्कृत मानव समाज में ही सम्भव हो सकती है। यदि विरोधी पक्ष मानवीय स्तर पर हो, तब तो अहिंसक विरोध सफल हो जाता है; लेकिन यदि विरोधी पक्ष पाशविक स्तर पर हो, तो अहिंसक विरोध की सफलता सन्देहास्पद बन जाती है। मानव में मानवीय गुणों की सम्भावना की आस्था ही अहिंसक विरोध का केन्द्रीय तत्त्व है। मानवीय गुणों में हमारी आस्था जितनी बलशाली होगी और विरोधी में मानवीय गुणों का जितना अधिक प्रकटन होगा, अहिंसक विरोध की सफलता भी उतनी ही अधिक होगी।
जहाँ तक उद्योगजा और आरम्भजा हिंसा की बात है, एक गृहस्थ उससे नहीं बच सकता; क्योंकि जब तक शरीर का मोह है, तब तक आजीविका का अर्जन और शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति- दोनों ही आवश्यक हैं। यद्यपि इस स्तर पर मनुष्य अपने को त्रस प्राणियों की हिंसा से बचा सकता है। जैन धर्म में उद्योग-व्यवसाय एवं भरण-पोषण के लिए भी त्रस जीवों की हिंसा करने का निषेध है, लेकिन जब व्यक्ति शरीर और सम्पत्ति के मोह से ऊपर उठ जाता है तो वह पूर्ण अहिंसा की दिशा में और आगे बढ़ जाता है। जहाँ तक श्रमण साधक या संन्यासी की बात है, वह अपरिग्रही होता है। उसे अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं होता, अतः यह सर्वतोभावेन हिंसा से विरत होने का व्रत लेता है। शरीर धारण मात्र के लिए कुछ अपवादों को छोड़कर वह संकल्पपूर्वक और विवशतावश, दोनों ही परिस्थितियों में त्रस और स्थावर हिंसा से विरत हो जाता है। मुनि नथमलजी के शब्दों में- कोई भी व्यक्ति एक ही डग में चोटी तक नहीं पहुँच सकता। वह धीमे-धीमे आगे बढ़ता है। भगवान महावीर ने अहिंसा की पहुँच के कुछ स्तर निर्धारित किये थे, जो वस्तुस्थिति पर आधारित हैं। उन्होंने हिंसा को तीन भागों में विभक्त किया - (१) संकल्पजा (२) विरोधजा और (३) आरम्भजा। संकल्पजा हिंसा आक्रमणात्मक हिंसा है। वह सबके लिए सर्वधा परिहार्य है। विरोधजा हिंसा प्रत्याक्रमणात्मक हिंसा है। उसे छोड़ने में वह असमर्थ होता है, जो भौतिक संस्थानों पर अपना अस्तित्त्व रखना चाहता है। आरम्भजा हिंसा आजीविकात्मक
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'हिंसा है। उसे छोड़ने में वे सब असमर्थ होते हैं, जो भौतिक साधनों के अर्जन संरक्षण द्वारा अपना जीवन चलाना चाहते हैं। प्रथम स्तर पर हम आसक्ति, तृष्णा आदि के वशीभूत होकर की जाने वाली अनावश्यक आक्रमणात्मक हिंसा से बचें, फिर दूसरे स्तर पर जीवनयापन एवं आजीविकोपार्जन के निमित्त होनेवाली त्रस हिंसा से विरत हों। तीसरे स्तर पर विरोध के अहिंसक तरीके को अपनाकर प्रत्याक्रमणात्मक हिंसा से विरत हों। इस प्रकार जीवन के लिए आवश्यक जैसी "हिंसा से भी क्रमशः ऊपर उठते हुए चौथे स्तर पर शरीर और परिग्रह की 'आसक्ति का परित्याग कर सर्वतोभावेन पूर्ण अहिंसा की दिशा में आगे बढ़ें।
इस प्रकार पूर्ण अहिंसा का आदर्श पूर्णतया अव्यवहारिक भी नहीं रहता है। मनुष्य जैसे-जैसे सम्पत्ति और शरीर के मोह से ऊपर उठता जाता है, अहिंसा का आदर्श उसके लिए व्यवहार्य बनता जाता है। पूर्ण अनासक्त जीवन में पूर्ण अहिंसा व्यवहार्य बन जाती है। है यद्यपि शरीरधारी रहते हुए पूर्ण अहिंसा एक आदर्श ही रहेगी, वह यथार्थ नहीं बन पायेगी। जब शरीर के संरक्षण का मोह समाप्त होगा, तभी वह आदर्श यथार्थ की भूमि पर अवतरित होगा। फिर भी एक बात ध्यान में रखनी होगी, वह यह कि जब तक शरीर है और शरीर के संरक्षण की वृत्ति है, चाहे वह साधना के लिए ही क्यों न हो, यह कथमपि सम्भव नहीं है कि व्यक्ति पूर्ण अहिंसा के आदर्श को पूर्णरूपेण साकार कर सके। शरीर के लिए आहार आवश्यक है। कोई भी आहार बिना हिंसा के सम्भव नहीं होगा। चाहे हमारा मुनिवर्ग यह कहता भी हो कि हम औद्देशिक आहार नहीं लेते हैं, किन्तु क्या उनकी विहार-यात्रा में साथ चलनेवाला पूरा लवाजिमा, सेवा में रहने के नाम पर लगनेवाले चौके औद्देशिक नहीं हैं? जब समाज में रात्रिभोजन सामान्य हो गया हो, क्या सन्ध्याकालीन गोचरी में अनौद्देशिक आहार मिल पाना सम्भव है? क्या , कश्मीर से कन्याकुमारी तक और बम्बई से कलकत्ता तक की सारी यात्राएँ औद्देशिक आहार के अभाव में निर्विघ्न सम्भव हो सकती हैं? क्या आहेत-प्रवचन की प्रभावना के लिए मन्दिरों का निर्माण, पूजा और प्रतिष्ठा के समारोह, संस्थाओं का संचालन, मुनिजनों का स्वागत और विदाई समारोह तथा संस्थाओं के अधिवेशन षटकाय की नवकोटियुक्त अहिंसा के परिपालन के साथ कोई संगति रख सकते हैं? हमें अपनी अन्तरात्मा से यह सब पूछना होगा। हो सकता है कि कुछ विरल सन्त और साधक हों, जो इन कसौटियों पर खरे उतरते हों, मैं उनकी बात नहीं कहता। वे शतशः वन्दनीय हैं, किन्तु सामान्य स्थिति क्या है? फिर भिक्षाचर्या, पाद-विहार, शरीर संचालन, श्वासोच्छ्वास- किसमें हिंसा नहीं है?
५. तट दो प्रवाह एक, पृ. ४०
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पृथ्वी, अग्नि, वायु वनस्पति आदि सभी में जीव हैं। ऐसा कोई मनुष्य नहीं जो इन्हें नहीं मारता हो । पुनः कितने ही ऐसे सूक्ष्म प्राणी हैं, जो इन्द्रियों से नहीं अनुमान से जाने जाते हैं, मनुष्य की पलकों के झपकने मात्र से ही जिनके कंधे टूट जाते हैं, अतः जीव - हिंसा से बचा नहीं जा सकता। एक ओर षट्जीवनिकाय की अवधारणा और दूसरी ओर नवकोटियुक्त पूर्ण अहिंसा का आदर्श, जीवित रहकर इन दोनों में संगति बिठा पाना अशक्य है। अतः जैन आचार्यों को भी यह कहना पड़ा कि अनेकानेक जीव-समूहों से परिव्याप्त विश्व में साधक का अहिंसकत्व अन्तर में आध्यात्मिक विशुद्धि की दृष्टि से ही है ( ओघनिर्युक्ति, ७४७), लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि हम अहिंसा को अव्यवहार्य मानकर तिलांजलि दे देंवें । यद्यपि एक शरीरधारी के नाते यह हमारी विवशता है कि हम द्रव्य और भाव दोनों की अपेक्षा से पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध नहीं कर सकते हैं, किन्तु उस दिशा में क्रमशः आगे बढ़ सकते हैं और जीवन की पूर्णता के साथ ही पूर्ण अहिंसा के आदर्श को भी उपलब्ध कर सकते हैं। कम से कम हिंसा की दिशा में आगे बढ़ते हुए साधक के लिए जीवन का अन्तिम क्षण अवश्य ही ऐसा है, जब वह पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार कर सकता है। जैनधर्म की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो पादोपगमन संथारा एवं चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान की अवस्थाएँ ऐसी हैं, जिनमें पूर्ण अहिंसा का आदर्श साकार हो जाता है ।
पूर्ण अहिंसा सामाजिक सन्दर्भ में
पुनः अहिंसा की सम्भावना पर हमें न केवल वैयक्तिक दृष्टि से विचार करना है, अपितु सामाजिक दृष्टि से भी विचार करना है । चाहे यह सम्भव भी हो कि व्यक्ति शरीर, सम्पत्ति, संघ और समाज से निरपेक्ष होकर पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध कर सकता है; फिर भी ऐसी निरपेक्षता किन्हीं विरल साधकों के लिए ही सम्भव होगी, सर्व सामान्य के लिए तो सम्भव नहीं कही जा सकती है । अतः मूल प्रश्न यह है कि क्या सामाजिक जीवन पूर्ण अहिंसा के आदर्श पर खड़ा किया जा सकता है? क्या पूर्ण अहिंसक समाज की रचना सम्भव है? इस प्रश्न का उत्तर देने के पूर्व मैं आपसे समाजरचना के स्वरूप पर कुछ बातें कहना चाहूँगा । एक तो यह कि अहिंसक चेतना अर्थात् संवेदनशीलता के अभाव में समाज की कल्पना ही सम्भव नहीं है। समाज जब भी खड़ा होता है- आत्मीयता, प्रेम और सहयोग के आधार पर खड़ा होता है, अर्थात् अहिंसा के आधार पर खड़ा होता है, क्योंकि हिंसा का अर्थ है- घृणा, विद्वेष, आक्रामकता और जहाँ भी ये वृत्तियाँ बलवती होंगी, सामाजिकता की भावना ही समाप्त हो जायेगी, समाज ढह जायेगा, अतः समाज और अहिंसा सहगामी हैं। दूसरे शब्दों में, यदि हम
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मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी मानते हैं, तो हमें यह मानना होगा कि अहिंसा उसके लिए स्वाभाविक ही है । जब भी कोई समाज खड़ा होगा और टिकेगा तो वह अहिंसा की भित्ति पर ही खड़ा होगा और टिकेगा । किन्तु एक दूसरा पहलू भी है, वह यह कि जहाँ अस्तित्त्व की सुरक्षा और हितों के संरक्षण का प्रश्न है, वहाँ हिंसा अपरिहार्य है 1
हितों में टकराव स्वाभाविक है । अनेक बार तो एक का हित दूसरे के महित पर, एक का अस्तित्त्व दूसरे के विनाश पर खड़ा होता है। ऐसी स्थिति में समाज - जीवन में भी हिंसा अपरिहार्य होगी । पुनः समाज का हित और सदस्य - व्यक्ति का हित भी परस्पर विरोध में हो सकता है। जब वैयक्तिक और सामाजिक हितों के संघर्ष की स्थिति हो, तो बहुजन हितार्थ हिंसा अपरिहार्य भी हो सकती है। जब समाज या राष्ट्र का कोई सदस्य या वर्ग अथवा दूसरा राष्ट्र अपने हितों के लिये हिंसा पर अथवा अन्याय पर उतारू हो जाये, तो निश्चय ही अहिंसा की दुहाई देने से काम न चलेगा। जब तक जैन आचार्यों द्वारा उद्घोषित 'मानव जाति एक है' की कल्पना साकार नहीं हो पाती, जब तक सम्पूर्ण मानव समाज ईमानदारी के साथ अहिंसा के पालन के लिए प्रतिबद्ध नहीं होता; तब तक अहिंसक समाज की बात करना कपोलकल्पना ही कहा जायेगा। जैनागम जिस पूर्ण अहिंसा के आदर्श को प्रस्तुत करते हैं, उसमें भी जब संघ की या संघ के किसी सदस्य की सुरक्षा या न्याय का प्रश्न आया तो हिंसा को स्वीकार करना पड़ा । गणाधिपति चेटक और आचार्य कालक के उदाहरण इसके प्रमाण हैं। यही नहीं, निशीथचूर्णि में तो यहाँ तक स्वीकार कर लिया गया है कि संघ की सुरक्षा के लिए मुनि भी हिंसा का सहारा ले सकता है। ऐसे प्रसंगों में पशु-हिंसा तो क्या मनुष्य की हिंसा भी उचित मान ली गयी है। जब तक मानव समाज का एक भी सदस्य पाशविक प्रवृत्तियों में आस्था रखता है, यह सोचना व्यर्थ ही है कि सामुदायिक जीवन में पूर्ण अहिंसा का आदर्श व्यवहार्य बन सकेगा । निशीथचूर्णि में अहिंसा के अपवादों को लेकर जो कुछ कहा गया है, उसे चाहे कुछ लोग साध्वाचार के रूप में सीधे मान्य करना न चाहते हों; किन्तु क्या यह नपुंसकता नहीं होगी जब किसी मुनि संघ के सामने किसी तरूणी साध्वी का अपहरण हो रहा हो या उस पर बलात्कार हो रहा हो और वे अहिंसा की दुहाई देते हुए मौन दर्शक बने रहें? क्या उनका कोई दायित्व नहीं है? यह बात चाहे हास्यास्पद लगती हो कि अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा आवश्यक है, किन्तु व्यवहारिक जीवन में अनेक बार ऐसी परिस्थितियाँ आ सकती हैं, जिनमें अहिंसक संस्कृति की रक्षा के लिए हिंसक वृत्ति अपनानी पड़े। यदि हिंसा में आस्था रखनेवाला कोई समाज किसी अहिंसक समाज को पूरी तरह मिटा देने को तत्पर हो जावे, तो क्या उस अहिंसक समाज को
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अपने अस्तित्त्व के लिए कोई संघर्ष नहीं करना चाहए? हिंसा-अहिंसा का प्रश्न निरा वैयक्तिक प्रश्न नहीं है। जब तक सम्पूर्ण मानव-समाज एक साथ अहिंसा की साधना के लिए तत्पर नहीं होता है, किसी एक समाज या राष्ट्र द्वारा अपने हितों के लिए की जानेवाली हिंसा समाज जीवन के लिए अपरिहार्य है। समाज-जीवन में इसे मान्य भी करना होगा। इसी प्रकार उद्योग-व्यवसाय और कृषि कार्यों में होनेवाली हिंसा भी समाज-जीवन में बनी ही रहेगी। मानव-समाज में मांसाहार एवं तद्जन्य हिंसा को समाप्त करने की दिशा में सोचा तो जा सकता है, किन्तु उसके लिए कृषि के क्षेत्र में एवं अहिंसक आहार की प्रचुर उपलब्धि के सम्बन्ध में व्यापक अनुसंधान एवं तकनीकी विकास की आवश्यकता होगी। यद्यपि हमें यह समझ भी लेना होगा कि जब तक मनुष्य की संवेदनशीलता को पशुजगत् तक विकसित नहीं किया जायेगा और मानवीय आहार को सात्विक नहीं बनाया जावेगा, मनुष्य की आपराधिक प्रवृत्तियों पर पूरा नियन्त्रण नहीं होगा। आदर्श अहिंसक समाज की रचना हेतु हमें समाज से आपराधिक प्रवृत्तियों को समाप्त करना होगा और आपराधिक प्रवृत्तियों के नियमन के लिए हमें मानव जाति में संवेदनशीलता, संयम एवं विवेक के तत्त्वों को विकसित करना होगा।
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अध्याय-६.
सकारात्मक अहिंसा प्रस्तुत चर्चा में हमारा मुख्य प्रतिपाद्य दया, करूणा, दान, सेवा और सहयोग के रूप में अहिंसा का वह सकारात्मक पक्ष है, जो दूसरों के जीवन-रक्षण के एवं उनके जीवन को कष्ट और पीड़ाओं से बचाने के प्रयत्नों के रूप में हमारे सामने आता है। यह सत्य है कि अहिंसा शब्द अपने आप में निषेधात्मक है। युत्पत्ति की दृष्टि से उसका अर्थ हिंसा मत करो तक ही सीमित होता प्रतीत होता है, किन्तु प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा के जो साठ पर्यायवाची नाम दिये गये हैं, उन साठ नामों में सम्भवतः दो-तीन को छोड़कर शेष सभी उसके सकारात्मक या विधायक पक्ष को प्रस्तुत करते हैं।
. हिंसा का प्रतिपक्ष अहिंसा है। यह अहिंसा की एक निषेधात्मक परिभाषा है, लेकिन हिंसा का त्याग मात्र अहिंसा नहीं है। निषेधात्मक अहिंसा जीवन के समग्र पक्षों को स्पर्श नहीं करती। वह आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं कही जा सकती। निषेधात्मक अहिंसा मात्र बाह्य हिंसा नहीं करना है। यह अहिंसा के सम्बन्ध में मात्र स्थूल दृष्टि है, लेकिन यह मानना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि जैनधर्म अहिंसा की इस स्थूल एवं बहिर्मुखी दृष्टि तक सीमित रहा है। जैन-दर्शन का यह केन्द्रीय सिद्धान्त शाब्दिक दृष्टि से चाहे नकारात्मक है, लेकिन उसकी अनुभूति नकारात्मक नहीं है। उसकी अनुभूति सदैव ही विधायक रही है। अहिंसा सकारात्मक है, इसका एक प्रमाण यह है कि जैनधर्म में अहिंसा के पर्यायवाची शब्द के रूप में 'अनुकम्पा' का प्रयोग हुआ है। 'अनुकम्पा' शब्द जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण अब्द है। उसमें सम्यक्त्व के एक अंग के रूप में भी अनुकम्पा का उल्लेख हुआ है। अनुकम्पा शब्द मूलतः दो शब्दों से मिलकर बना है -अनु+कम्पा (कम्पन)। अभिधानराजेन्द्रकोश में अनुकम्पा शब्द की व्याख्या में कहा गया है – 'अनुरूपं कम्पते चेष्टते इति अनुकम्पा'। वस्तुतः अनुकम्पा पर-पीड़ा का स्व-संवेदन है, दूसरों की पीड़ा या दुःख की समानाभूति है। उसी में अनुकम्पा को स्पष्ट करते हुए यह भी कहा गया है कि पक्षपात अर्थात् रागभाव से रहित होकर दुःखी-प्राणियों की पीड़ा को, उनके दुःख को समाप्त करने की इच्छा ही अनुकम्पा है। यदि अहिंसा की अवधारणा के साथ अनुकम्पा जुड़ी हुई है, तो फिर उसे मात्र निषेधपरक मानना एक प्रान्ति है। अनुकम्पा में न केवल दूसरों की पीड़ा का स्व-संवेदन होता है, अपितु उसके निराकरण के सहज निःस्वार्थ प्रयत्न भी होते हैं। जब दूसरों की पीड़ा हमारी पीड़ा बन जाय तो यह असम्भव है कि उसके निराकरण का कोई प्रयत्न न हो। वस्तुतः जीवन में जब तक अनुकम्पा का उदय
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नहीं होता, तब तक सम्यक्-दर्शन भी सम्भव नहीं है। दूसरों की पीड़ा हमारी पीड़ा के समतुल्य तभी हो सकती है, जब हम उसका स्व-संवेदन करें। वस्तुतः दूसरों की पीड़ा का स्व-संवेदन ही वह स्रोत है, जहाँ सम्यक्-दर्शन का प्रकटन होता है और सकारात्मक अहिंसा अर्थात् पर-पीड़ा के निराकरणार्थ सेवा की पावन गंगा प्रवाहित होती है। सर्वत्र आत्मभावमूलक करूणा और मैत्री की विधायक अनुभूतियों से अहिंसा की धारा प्रवाहित हुई है। वस्तुतः “आत्मवत् सर्वभूतेषु" की विवेक-दृष्टि एवं जीवन के विविध रूपों के प्रति संवेदनशीलता की भावना को जब हम अहिंसा का तार्किक आधार मानते हैं, तो उसका अर्थ एक दूसरा रूप ले लेता है। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की विवेक-दृष्टि एवं सहानुभूति के संयोग में अहिंसा का एक सकारात्मक पक्ष सामने आता है। अहिंसा का अर्थ मात्र किसी को पीड़ा या दुःख न देना ही नहीं है, अपितु उसका अर्थ 'दूसरों के दुःखों को दूर करने का प्रयत्न' भी है। यदि मैं अपनी करूणा को इतना सीमित बना लूँ कि मैं किसी को पीड़ा नहीं पहुँचाऊँगा, तो वह सही अर्थ में करूणा नहीं होगी। करूणा का अर्थ है- दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा के रूप में देखना। जब दूसरों की पीड़ा मेरी अपनी पीड़ा बन जाती है, तो फिर उस पीड़ा को दूर करने के प्रयत्न भी प्रस्फुटित होते हैं। यदि कोई व्यक्ति यह प्रतिज्ञा कर ले कि मैं किसी की हिंसा नहीं करूँगा, किसी को कष्ट नहीं दूंगा और चाहे वह यथार्थ में इसका पालन भी करता हो, लेकिन यदि वह दूसरों की पीड़ा से द्रवीभूत होकर उनकी पीड़ा को दूर करने का प्रयत्न नहीं करता है, तो वह निष्ठुर ही कहलायेगा। वस्तुतः जब 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की विवेक-दृष्टि संवेदनशीलता की मनोभूमिका पर स्थित होती है, तो दूसरों की पीड़ा हमारी पीड़ा बन जाती है। वस्तुतः अहिंसा का आधार मात्र तार्किक-विवेक नहीं है, अपितु भावनात्मक विवेक है। भावनात्मक विवेक में दूसरों की पीड़ा अपनी पीड़ा होती है और जिस प्रकार अपनी पीड़ा को दूर करने के प्रयत्न सहज रूप से होते हैं, उसी प्रकार दूसरों की पीड़ा को दूर करने के प्रयत्न भी सहज रूप में अभिव्यक्त होते हैं। दूसरों की पीड़ाओं को दूर करने के इसी सहज प्रयत्न में अहिंसा का सकारात्मक पक्ष सन्निहित है।
यदि अहिंसा में से उसका यह सकारात्मक पक्ष अलग कर दिया जाता है, तो अहिंसा का हृदय ही शून्य हो जाता है। मिसेस स्टीवेन्शन ने जैन अहिंसा को जो हृदय शून्य बताया है, उसके पीछे उनकी यही दृष्टि रही है (The Heart of Jainism, P. 296)। यद्यपि यह उनकी भ्रान्ति ही थी, क्योंकि उन्होंने जैनधर्म में निहित अहिंसा के सकारात्मक पक्ष को, जो न केवल सिद्धान्त में अपितु व्यवहार में भी आज तक जीवित है, देखने का प्रयत्न ही नहीं किया। उन्होंने मात्र
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अपने काल के सम्प्रदाय - विशेष के कुछ जैन मुनियों के आचार, व्यवहार और उपदेश के आधार पर ऐसा निष्कर्ष निकाल लिया था ।
अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष की प्रमुखता के तात्त्विक आधार
यह सत्य है कि श्रमण परम्परा ने और विशेष रूप से जैनधर्म ने अहिंसा के अर्थ-विस्तार को एक व्यापकता प्रदान की है, किन्तु इसके साथ यह भी सत्य है कि इस अहिंसा के अर्थ-विस्तार के साथ अनेक दार्शनिक समस्यायें भी उत्पन्न हुई । अहिंसा के क्षेत्र का विस्तार करते हुए जब एक ओर यह मान लिया गया कि जीवन के किसी भी रूप को दुःख या पीड़ा देना अथवा उसके अहित और अकल्याण का चिन्तन करना हिंसा है, साथ ही दूसरी ओर यह भी स्वीकार कर लिया गया कि न केवल मनुष्य - जगत् वरन् पशु-जगत् और वनस्पति-जगत् में भी जीवन है, तो यह समस्या उत्पन्न हुई कि जब जीवन के एक रूप के अस्तित्त्व के लिए उसके दूसरे रूपों का विनाश या हिंसा अपरिहार्य हो, तो ऐसी स्थिति में चुनाव हिंसा और अहिंसा के बीच न करके दो हिंसाओं के बीच ही करना पड़ेगा। जिन चिन्तकों ने जीवन के सभी रूपों को समान मूल्य और महत्त्व का समझा, उन्हें अहिंसा के सकारात्मक पक्ष की उपेक्षा करनी पड़ी, क्योंकि सकारात्मक अहिंसा अर्थात् सेवा, दान, परोपकार आदि की सभी क्रियाएँ प्रवृत्यात्मक हैं और प्रवृत्ति, जैन पारिभाषिक शब्दावली में योग, चाहे किसी भी रूप में क्यों न हो, उसमें कहीं-न-कहीं हिंसा / आस्रव का तत्त्व तो होता ही है । यदि हम प्रवृत्ति के पूर्ण निषेध को ही साधना का लक्ष्य मानें, तो ऐसी स्थिति में स्वाभाविक रूप से अहिंसा की अवधारणा निषेधमूलक होगी। ज्ञातव्य है कि उन सभी धर्मों के लिए जिन्होंने पृथ्वी, जल, वायु, वनस्पति आदि में जीवन ही नहीं माना अथवा यह मान लिया कि जीवन के ये विविध रूप समान मूल्य या महत्त्व के नहीं हैं अथवा यह कि परमात्मा ने जीवन के इन दूसरे रूपों को मनुष्य के उपयोग के लिए ही बनाया है, उन्हें अहिंसा के सकारात्मक पक्ष को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं आई । समस्या केवल उनके लिए थी, जो जीवन के इन विविध रूपों को समान मूल्य या महत्त्व का मान रहे थे 1
यह सत्य है कि जैन - परम्परा में निवृत्ति और जीवन के विविध रूपों की समानता पर अधिक बल दिया गया और परिणामस्वरूप जैनधर्म में अहिंसा का निषेधात्मक पक्ष अधिक प्रमुख बना । विशेष रूप से उन जैन श्रमणों के लिए, जो निदृत्यात्मक साधना को ही जीवन का एक मात्र उच्चादर्श मान रहे थे, उनके जीवन-व्यवहार एवं आचार - नियमों को इस रूप में ढाला गया कि वे मुख्य रूप से अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष के समर्थक बनकर रह गये। जैनधर्म के प्राचीनतम आगम ग्रन्थों में ऐसे कुछ सन्दर्भ अवश्य हैं, जो अहिंसा के नकारात्मक पहलू
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ही प्रमुखता देते हैं। सूत्रकृतांग (१/११/१८-१६) में एक उल्लेख है कि जब मुनि से कोई गृहस्थ यह पूछे कि मैं दानशाला आदि बनवाना चाहता हूँ, इसमें आपकी क्या सम्मति है?, तो मुनि उस समय मौन रहे। सूत्रकार ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि मुनि उसकी उस प्रवृत्ति का निषेध करता है, तो वह उसके द्वारा जिन प्राणियों का कल्याण, हित एवं सुख होने वाला है, उसमें बाधक बनता है। यदि वह इस प्रवृत्ति का समर्थन करता है, तो अनाज, पानी, अग्नि आदि की हिंसा की अनुमोदना करता है, अतः दोनों ही स्थितियों में कहीं-न-कहीं हिंसा का कोई तत्त्व अवश्य ही रहता है। यही कारण था कि ऐसी स्थिति में उसे मौन रहने की सम्मति दी गयी। जैनागमों का यह प्रसंग एक ऐसा प्रसंग है, जिसे सामान्य रूप से अहिंसा के नकारात्मक पक्ष की पुष्टि हेतु प्रस्तुत किया जाता रहा है, किन्तु इस आधार पर जैनधर्म में अहिंसा की नकारात्मक व्याख्या को स्वीकार करना भी एक भ्रान्ति ही होगी, क्योंकि हिंसा के अल्प-बहुत्व के विचार के साथ-साथ जैन आगमों में ऐसे भी उल्लेख हैं, जो अनिवार्य हिंसा में अल्प हिंसा को वरेण्य मानते
यह सत्य है कि सकारात्मक अहिंसा अर्थात् जीवन-रक्षण, सेवा, दान, परोपकार आदि के प्रयत्नों में कहीं-न-कहीं हिंसा का तत्त्व अवश्य उपस्थित रहता है, क्योंकि ये सब प्रवृत्यात्मक हैं। जहाँ प्रवृत्ति है, वहाँ क्रिया (योग) होगी; जहाँ क्रिया होगी, वहाँ आस्रव होगा और जहाँ आस्रव होगा, वहाँ बन्ध भी होगा। जहाँ बन्ध होगा, वहाँ हिंसा होगी; चाहे वह स्व-स्वरूप की हिंसा ही क्यों न हो। बस इस तर्क शैली ने अहिंसा की निषेधमूलक व्याख्या को बल दिया।
प्रथम प्रश्न तो यह है कि क्या जैनधर्म एकान्त रूप से निवृत्यात्मक ही है? दूसरे, क्या समाधिमरण के अन्तिम क्षणों को छोड़कर जीवन में प्रवृत्ति का पूर्ण निषेध सम्भव है? क्या महावीर का उपदेश एकान्त रूप से निवृत्ति या श्रमण जीवन के लिए ही है? क्या जीवन के सभी रूप समान मूल्य एवं महत्त्व के हैं? जैन दर्शन की अनेकान्तिक दृष्टि ।
आयें इन प्रश्नों पर थोड़ी गम्भीरता से चर्चा करें। जैनधर्म और दर्शन मूलतः अनेकान्त दृष्टि पर अधिष्ठित है और अनेकान्त दृष्टि कभी भी एकपक्षीय नहीं होती। दूसरे, जब तक जीवन है, तब तक पूर्ण रूप से निवृत्ति सम्भव नहीं . है। प्रवृत्ति प्राणीय जीवन या हमारे जातीय अस्तित्त्व का लक्षण है। गीता (३/५) में भी कहा गया है कि जीवन में कोई भी क्षण ऐसा नहीं होता, जिसमें प्राणी कर्म या क्रिया से पूर्णतः निवृत्त होते हैं। प्रवृत्ति प्राणी-जीवन की अनिवार्यता है। जब तक हमारा सांसारिक अस्तित्त्व रहता है, कहीं-न-कहीं प्रवृत्ति होती ही रहती है। पूर्ण निवृत्ति का आदर्श चाहे कितना ही उच्च क्यों न हो, वह एक आदर्श ही है,
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यथार्थ नहीं। जैनदर्शन के अनुसार निर्वाण प्राप्ति के कुछ क्षण पूर्व के सांसारिक अस्तित्त्व को छोड़कर पूर्व निवृत्ति का आदर्श कभी भी यथार्थ नहीं बनता है। चाहे हम मुनि जीवन ही क्यों नहीं जीयें, पूर्ण अहिंसा का पालन तो वहाँ भी सम्भव नहीं है। शारीरिक गतिविधियों, श्वसन, आहार-विहार और शारीरिक मलों के विसर्जन आदि सभी में कहीं-न-कहीं हिंसा होती तो अवश्य है। यथार्थ जीवन में प्रवृत्ति से या क्रिया से पूर्ण रूप से निवृत्त हो पाना सम्भव ही नहीं है और यदि यह सम्भव नहीं है, तो ऐसी स्थिति में हमें प्रवृत्ति के उन रूपों को ही चुनना होगा, जिनमें हिंसा अल्पतम हो। जब प्रवृत्ति या हिंसा जीवन की एक अपरिहार्यता है, तो हमें यह विचारना होगा कि हमारी प्रवृत्ति की दशा ऐसी हो, जिसमें हिंसा कम-से-कम हो। वह हिंसा कर्म-आस्रव या कर्मबन्ध का हेतु न बने। यहीं से सकारात्मक अहिंसा को एक आधार मिलता है। सकारात्मक अहिंसा : विष मिश्रित दूध नहीं
सकारात्मक अहिंसा में निश्चित रूप से अंशतः हिंसा का कोई-न-कोई रूप समाविष्ट होता है, किन्तु उसे विष-मिश्रित दूध कहकर त्याज्य नहीं कहा जा सकता। उसमें चाहे हिंसा रूपी विष के कुछ कण उपस्थित हों, किन्तु ये विष-कण विषौषधी के समान मारक नहीं, तारक होते हैं। जिस प्रकार विष की मारक शक्ति को समाप्त करके उसे औषधी रूपी अमृत में बदल दिया जाता है, उसी प्रकार सकारात्मक अहिंसा में जो हिंसा या रागात्मकता के तत्त्व परिलक्षित होते हैं, उन्हें विवेकपूर्ण कर्त्तव्य भाव के द्वारा बन्धन के स्थान पर मुक्ति के साधन के रूप में बदला जा सकता है। जिस प्रकार विष से निर्मित औषधी अस्वास्थ्यकर न होकर आरोग्यप्रद ही होती है, उसी प्रकार सकारात्मक अहिंसा भी सामाजिक स्वास्थ्य के लिए आरोग्यकर ही होती है। जब हम अपने अस्तित्त्व के लिए, अपने जीवन के रक्षण के लिए प्रवृत्तिजन्य आंशिक हिंसा को स्वीकार कर लेते हैं, तो फिर हमारे इस तर्क का कोई आधार नहीं रह जाता कि हम सकारात्मक अहिंसा को इसलिए अस्वीकार करते हैं कि उसमें हिंसा का तत्त्व होता है और वह विष-मिश्रित दूध है। अपने अस्तित्त्व के लिए की गई हिंसा क्षम्य है, तो दूसरों के अस्तित्त्व या रक्षण हेतु की गई हिंसा क्षम्य क्यों नहीं होगी?
पुनः जब दूसरों के अस्तित्त्व के रक्षण के लिए की जाने वाली प्रवृत्तियों में रागात्मकता मानें, तो क्या अपने हेतु की गयी प्रवृत्ति में रागात्मकता नहीं होगी? हमें प्रवृत्ति या क्रिया को वह रूप देना होगा, जो बन्धन और हिंसा के स्थान पर विमुक्ति और अहिंसा से जुड़े। मात्र कर्तव्य बुद्धि से की गई परोपकार की प्रवृत्ति ही ऐसी है, जो हमारी प्रवृत्ति को बन्धक से अबन्धक बना सकती है।
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यही कारण था कि जैन-परम्परा में ईर्यापथिक क्रिया और ईर्यापथिक बन्ध की अवधारणा अस्तित्त्व में आयी। ये बाह्य रूप से चाहे क्रिया और बन्ध कहे जाते हों, किन्तु ये वस्तुतः बन्धन के नहीं, विमुक्ति के ही सूचक हैं। तीर्थंकर की लोककल्याण की समस्त प्रवृत्तियाँ भी ईर्यापथिक क्रिया और ईर्यापथिक बन्ध मानी गयी हैं। उनका प्रथम समय में बन्ध होता है और द्वितीय समय में निर्जरा हो जाती हैं। इस प्रकार वीतराग पुरूष की प्रवृत्ति रूप क्रिया के द्वारा जो आसव
और बन्ध होता है, उसका स्थायित्व एक क्षण भी नहीं होता है। उत्तराध्ययनसूत्र (२५/४२) में कहा है कि जैसे गीली मिट्टी का गोला दीवाल पर फेंकने से चिपक जाता है, किन्तु सूखी मिट्टी का गोला नहीं चिपकता अपितु तत्क्षण गिर जाता है, उसी प्रकार की स्थिति वीतरागभाव या निष्काम भाव से की गयी क्रियाओं की होती है। उनसे जो आसव होता है, वह आत्मप्रदेशों से मात्र स्पर्शित होता है, वस्तुतः बन्धक नहीं होता। बन्धन का मूल कारण तो राग-द्वेष या कषायजन्य प्रवृत्ति है। अतः निष्काम भाव से लोक-मंगल के लिए दूसरों के दुःखहरण के हेतु सेवा, परोपकार आदि जो प्रवृत्ति की जाती है, वह क्रिया रूप होकर के भी बन्धक नहीं है और इस प्रकार जो लोग 'सकारात्मक अहिंसा' में बन्धन की सम्भावनाओं को देखते हैं, उनका चिन्तन सम्यक् नहीं हैं। तीर्थकरों की जीवन शैली और सकारात्मक अहिंसा
जैन-परम्परा में तीर्थंकर का पद सर्वोच्च माना जाता है। उसकी श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में तीर्थकर नामकर्म उपार्जन के जिन कारणों की चर्चा हुई, उनमें हम देखते हैं कि सेवा और वात्सल्यमूलक प्रवृत्तियों को सबसे प्रमुख स्थान मिला है। उसमें वृद्ध, ग्लान-रूग्ण, बालक आदि की सेवा का स्पष्ट निर्देश है। यही नहीं परम्परागत रूप में तीर्थकर जीवन की जिन विशेषताओं की चर्चा की जाती है, उनमें हम पाते हैं कि प्रत्येक तीर्थकर दीक्षित होने के पूर्व एक वर्ष तक प्रतिदिन करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं का दान करते हैं। यह अवधारणा स्वतः ही इस तथ्य की सूचक है कि दान और सेवा की प्रवृत्ति तीर्थकरों के द्वारा आचरित एवं अनुमोदित है। जैन कथा-साहित्य में यह बताया गया है कि भगवान् शान्तिनाथ ने अपने पूर्वभव में एक कबूतर की रक्षा करते हुए अपने शरीर का मांस तक दे दिया था। इस प्रकार अन्य तीर्थकरों के जीवनवृत्तों में भी प्राणियों के जीवनरक्षण के साथ-साथ उनकी सेवा, दान आदि की प्रवृत्ति के उदाहरण देखे जा सकते हैं। स्वयं महावीर ने दीक्षित होने के पश्चात् न केवल निर्धन बाह्मण को अपना वस्त्र दान कर दिया, अपितु शीतलेश्या फेंक कर मिथ्यादृष्टि गोशालक की जीवन-रक्षा भी की।
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मात्र यही नहीं, केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भी तीर्थंकर मुख्यतः लोककल्याण हेतु ही पदयात्रा करते हुए अपना प्रवचन देते हैं। केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात तीर्थकर के जीवन में ऐसा कुछ शेष नहीं रहता, जो उनके लिए प्राप्तव्य हो। प्रश्नव्याकरण में स्पष्ट कहा गया है कि - "सव्वजगजीवरक्खणदयट्टयाए पावयणं सुकहिपं" (२/१) अर्थात् भगवान ने समस्त जागतिक जीवों के रक्षण और दया के हेतु ही अपना उपदेश दिया। इससे यह प्रतिफलित होता है कि वीतराग परमात्मा में भी लोकमंगल व लोककल्याण की भावना उपस्थित रहती है। यदि यह लोकमंगल की वृत्ति रागात्मक होती तो फिर वीतराग में यह कैसे उपस्थित रह सकती थी। इसका एक तात्पर्य यह है कि संयमी जीवन में भी अपनी मर्यादाओं को ध्यान में रखते हुए व्यक्ति लोकमंगल की प्रवृत्तियों से जुड़ा रह सकता है। क्या पुण्यकर्म बन्धन के हेतु हैं?
सकारात्मक अहिंसा अर्थात् जीवों की रक्षा और सेवा तथा उस हेतु की जाने वाली दान-परोपकार आदि की प्रवृत्तियों के महत्त्व और मूल्य को स्वीकारने में सबसे अधिक बाधक अवधारणा यह है कि परोपकार, सेवा और प्राणीकल्याण की अन्य सभी प्रवृत्तियाँ पुण्य-बन्ध की हेतु हैं, निर्जरा की हेतु नहीं और बन्धन चाहे पुण्य का हो या पाप का, वह बन्धन ही है और इसलिए अध्यात्म-साधना का विरोधी है। पुण्य को भी बन्धन का हेतु मानकर इन विचारकों ने अहिंसा के सकारात्मक पक्ष की उपेक्षा की। आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य और पाप का अन्तर स्पष्ट करते हुए पुण्य को सोने की और पाप को लोहे की बेडी कहा और अन्त में पुण्य और पाप दोनों से ऊपर उठने की बात कही है (समयासार, १४६)। यह सत्य है कि पुण्य और पाप की अधिकांश परिभाषाएँ इस अवधारणा पर खड़ी हैं कि दया और जीवन-रक्षण के जो कार्य हैं, वे पुण्य हैं और जो दूसरों के अहित
और दुःख के कार्य हैं, वे पाप हैं। सामान्य रूप से यह कहा जाता है कि 'परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।' गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है"परहित सरिस धरम नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई ।।" यह सत्य है कि परोपकार पुण्य है और तत्त्वार्थसूत्र (६/२-४) में उमास्वाति ने पुण्य और पाप दोनों को आनव का एक भेद भी माना है और आसव को बन्ध का हेतु मानने के कारण बाद में यह अवधारणा दृढ़ीभूत हो गयी कि पुण्य बन्धन का ही हेतु है, किन्तु यह दृष्टिकोण जैन सिद्धान्त की दृष्टि से भी भ्रामक ही है। प्रथम तो सभी आनव वस्तुतः बन्धन के कारण नहीं होते हैं। दूसरे, यह मानना भी भ्रान्ति है कि पुण्य मात्र आम्रव है। प्राचीन आगमों में वह स्वतन्त्र तत्त्व है। वह आसव और बन्ध हैं, तो साथ ही संवर और निर्जरा भी है और निर्जरा का हेतु भी है। पुण्य तो उस साबुन के समान है, जो पाप रूपी मल को निकालने के साथ स्वतः बिना
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प्रयास के निर्जरित हो जाता है। ज्ञातव्य है कि पाप के बन्ध की निर्जरा करना होती है। पुण्य तो स्वतः निर्जरित हो जाता है।
- जैन धर्म के कर्म सिद्धान्त में जितनी भी पुण्य प्रकृतियाँ मानी गई हैं, वे सभी अघानी कर्मों की हैं, अर्थात् पुण्य कमों से आत्मा के स्व-स्वभाव का घात नहीं होता है, उनके आधार पर जन्म-मरण की परम्परा आगे नहीं बढ़ती है। वे संसार परिभ्रमण के कारण नहीं है।
___ यह सत्य है कि यदि सेवा, परोपकार और जीवों के रक्षण के पीछे रागात्मकता का भाव है, तो वे बन्धन के कारण हैं, किन्तु सेवा, परोपकार और जीवों के रक्षण की सभी प्रवृत्तियाँ रागात्मकता से प्रेरित होकर नहीं होती हैं, अपितु वे परपीड़ा के स्व-संवेदन के कारण भी होती हैं। जब दूसरों के प्रति आत्मवत् दृष्टि का विकास हो जाता है, तो उनकी पीड़ा हमारी पीड़ा बन जाती है
और ऐसी स्थिति में जिस प्रकार अपनी पीड़ा को दूर करने के प्रयत्न होते हैं, उसी प्रकार दूसरों की पीड़ा को दूर करने के भी प्रयत्न होते हैं। ज्ञानात्मक दृष्टि से आत्मतुल्यता का विचार और भावात्मक दृष्टि से परपीड़ा का स्व-संवेदन स्वाभाविक रूप से लोक-कल्याण की प्रवृत्तियों को अर्थात् रक्षण, सेवा, दान, परोपकार आदि को जन्म देते हैं। अतः यह मानना भ्रान्त है कि लोक-कल्याण की सभी प्रवृत्तियों के पीछे राग-भाव होता है। व्यवहारिक जीवन में भी ऐसे अनेक अवसर होते हैं, जब दूसरे प्राणी की पीड़ा से हमारी अन्तरात्मा करूणाई हो जाती है और हम उसकी पीड़ा को दूर करने के प्रयत्न करते हैं। वहाँ रागात्मकता नहीं होती है। वहाँ केवल विवेक-बुद्धि और परपीड़ा के स्व-संवेदन से उत्पन्न कर्त्तव्यता का भाव ही होता है, जो उस सकारात्मक अहिंसा का प्रेरक होता है। दूसरों के प्रति रागात्मकता में और कर्त्तव्य-बोध में बड़ा अन्तर होता है। राग के साथ द्वेष अवश्य रहता है, जबकि कर्त्तव्य-बोध में उसका अभाव होता है। किसी राहगीर की पीड़ा से जो हृदय द्रवित होता है, वह राग के कारण नहीं, अपितु परपीड़ा के स्व-संवेदन या आत्मतुल्यता के भाव के कारण होता है। पालतू कुत्ते की पीड़ा को दूर करने में और किसी सड़क पर पड़े कुत्ते की पीड़ा को दूर करने में अन्तर हैं। पहले में रागभाव है, दूसरे में मात्र परपीड़ा का आत्मसंवेदन। जब दूसरों के रक्षण, पोषण, सेवा और परोपकार के कार्य मात्र कर्त्तव्य बुद्धि अथवा परपीड़ा के आत्मसंवेदन से होते हैं, तो उनमें रागात्मकता का तत्त्व नहीं होता और यह सुस्पष्ट है कि रागात्मकता के अभाव में चाहे कोई क्रिया कर्मानव का कारण भी बनें, तो भी वह बन्धन कारक नहीं हो सकती, क्योंकि उत्तराध्ययन (३२/७) आदि जैन ग्रन्थों में बन्धन का मुख्य कारण राग और द्वेष की वृत्तियाँ ही मानी गयी हैं। दूसरों के रक्षण और सम्पोषण के प्रयत्नों में चाहे किसी सीमा तक हिंसा
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की बाह्य प्रवृत्ति भी हो सकती है, किन्तु वह यथार्थ रूप में बन्धन का हेतु नहीं है। यदि हम ऐसी प्रवृत्तियों को बन्धन रूप मानेंगे तो फिर तीर्थकर की लोक-कल्याणकारी प्रवृत्तियों अर्थात् लोकमंगल के लिए विहार और उपदेश के कार्य को भी बन्धन का हेतु मानना होगा, किन्तु आगम के अनुसार उपदेश संसार के जीवों के रक्षण के लिए होता है, वह बन्धन का निमित्त नहीं होता है। निष्काम कर्म हिंसक नहीं ।
___ इस समग्र चर्चा से यह फलित होता है कि पुण्य कर्म यदि मात्र कर्त्तव्य बुद्धि से अथवा राग-द्वेष से ऊपर उठकर किये जाते हैं, तो वे हिंसक नहीं हैं। पुण्य बन्ध का कारण केवल तभी बनता है, जब वह रागभाव से युक्त होता है। ज्ञातव्य है कि अपने किसी परिजन के रक्षण के प्रयत्नों की और मार्ग में चलते हुए पीड़ा से तड़पते किसी प्राणी के रक्षण के प्रयत्नों की मनोभूमिका कभी भी एक ही स्तर की नहीं होती है। प्रथम स्थिति में रक्षण के समस्त प्रयत्न रागभाव से या ममत्वबुद्धि से प्रतिफलित होते हैं, जबकि दूसरी स्थिति में आत्मतुल्यता के आधार पर परपीड़ा का स्व-संवेदन होता है और यह परपीड़ा का स्व-संवेदन अथवा कर्तव्य बुद्धि ही व्यक्ति को परोपकार या पुण्य कर्म हेतु प्रेरित करती है। जैन परम्परा में सम्यक्दृष्टि जीव के आचरण के सम्बन्ध में कहा गया
सम्यक् दृष्टि जीवडा करे कुटुम्ब प्रतिपाल। अन्तर सू न्यारो रहे ज्यूं धाय खिलावे बाल।।
यह अनासक्त दृष्टि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः अलिप्तता और निष्कामता ही एक ऐसा तत्त्व है, जो किसी कर्म की बन्धक शक्ति को समाप्त कर देता है। जहाँ अलिप्तता है, निष्कामता है, वीतरागता है, वहाँ बन्धन एवं हिंसा नहीं। जिस पुण्य को बन्धन कहा जाता है, वह पुण्य रागात्मकता में संपृक्त पुण्य है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि विश्व में समस्त प्रवृत्तियाँ राग से ही प्रेरित होती हैं। अनेक प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं जो मात्र कर्त्तव्य बुद्धि से फलित होती हैं। दूसरे की पीड़ा हमारी पीड़ा इसलिए नहीं बनती है कि उसके प्रति हमारा रागभाव होता है, अपितु आत्मतुल्यता का बोध ही हमारे द्वारा उसकी पीड़ा के स्व-संवेदन का कारण होता है। जब किसी शहर में पीड़ा से तड़पते किसी मानव को सड़क पर पड़ा हुआ देखते हैं, तो हम करूणार्द्र हो उठते हैं। यहाँ कौन-सा रागभाव होता है? जो लोग दूर-दराज के गाँवों में जाकर चिकित्सा शिविर लगवाते हैं, उनमें जो भी आते हैं, क्या उनके प्रति शिविर लगवाने वाले व्यक्ति का कोई राग-भाव होता है? वह तो यह भी नहीं जानता है कि उसमें कौन लोग आयेंगे, फिर उन अज्ञात लोगों के प्रति उसमें राग-भाव कैसे हो सकता है? अतः यह एक भ्रान्त धारणा है
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कि रक्षा, सेवा, परोपकार आदि प्रवृत्तियों के पीछे सदैव रागभाव होता है। जब राग नहीं होता है, तो द्वेष भी नहीं होता है और जहाँ राग-द्वेष का अभाव होता है, वहाँ बन्धन सम्भव नहीं है। इसी कारण एक डॉक्टर जब किसी रोगी के सड़े हुए अंग का ऑपरेशन करके उसे निकालता है, तो उसमें उस सड़े हुए अंग में निहित कीटाणुओं के प्रति द्वेष और रोगी के प्रति राग नहीं होता, मात्र बचाने का भाव होता है। किसी प्यासे को पानी पिलाते समय हमें न तो जल के जीवों के प्रति द्वेष होता है और न प्यासे के प्रति राग। अतः सेवा, परोपकार आदि की प्रवृत्तियाँ राग-द्वेष से प्रेरित नहीं होती हैं, अतः वे बन्धन भी नहीं होती हैं।
वस्तुतः सकारात्मक अहिंसा अर्थात् जीवन-रक्षण, सेवा, परोपकार आदि की प्रवृत्तियाँ रागात्मकता पर आधारित न होकर 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना पर आधारित होती हैं। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की यह अनुभूति तब तक यथार्थ नहीं बनती, जब तक कि व्यक्ति के लिए दूसरों के पीड़ा और दुःख अपने नहीं बन जाते। यद्यपि जैनदर्शन प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करता है, किन्तु साथ ही वह यह भी मानता है कि संसार के सभी प्राणी मेरे ही समान हैं। आचारांगसूत्र (१/५/५) में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि, "जिसे तू दुःख देना चाहता है वह तू ही है।" यहाँ विवेक और संवेदनशीलता के आधार पर ही 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना को खड़ा किया गया है। वह मात्र तार्किक नहीं है। जब तक संसार के सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् भाव उत्पन्न नहीं होता है, तब तक अहिंसा का अंकुर प्रकट नहीं हो सकता। अहिंसा के लिए रागात्मकता नहीं आत्मवत् दृष्टि आवश्यक है, क्योंकि यदि रागात्मकता सकारात्मक अहिंसा का आधार होगी तो व्यक्ति केवल अपनों की सेवा में प्रवृत्त होगा, दूसरों की सेवा में नहीं। सकारात्मक अहिंसा अर्थात् रक्षा, सेवा आदि का आधार न तो प्रत्युपकार की भावना या स्वार्थ होता है और न राग। वह खड़ी होती है- विवेकजन्य कर्तव्य बोध के आधार पर। क्या जीवन के सभी रूप समान महत्त्व के हैं?
अहिंसा की नकारात्मक व्याख्या के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार यह अवधारणा रही कि जीवन के विविध रूप समान मूल्य और महत्त्व के हैं। परिणामस्वरूप जीवन के एक रूप को बचाने में दूसरे रूपों की हिंसा अपरिहार्य होने पर जीवन-रक्षण के प्रयत्न को ही पाप या हिंसा में परिगणित कर लिया गया। यह सत्य है कि एक के जीवन के रक्षण एवं पोषण के लिये दूसरे जीवन की कुर्बानी करनी ही पड़ती है। यदि हम एक वृक्ष या पौधे को जीवित रखना चाहते हैं, तो उसे पानी तो देना ही होगा। वनस्पतिकाय के संरक्षण और वर्धन के लिए पृथ्वीकाय, अप्काय और वायुकाय की हिंसा अपरिहार्य रूप से होगी। यदि
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हम किसी त्रस प्राणी के जीवन-रक्षण का कोई प्रयत्न करते हैं, तो हमें न केवल वनस्पतिकाय की, अपितु पृथ्वीकाय, अपकाय आदि की हिंसा से जुड़ना होगा। इस संसार में जीवन जीने की व्यवस्था ही ऐसी है कि जीवन का एक रूप दूसरे रूप के आश्रित है और उस दूसरे रूप की हिंसा के बिना हम प्रथम रूप को जीवित नहीं रख सकते। यह समस्या प्राचीन जैनाचार्यों के समक्ष भी आयी थी। इस समस्या का समाधान उन्होंने अपने हिंसा के अल्प-बहुत्व के सिद्धान्त के आधार पर किया।
हिंसा के अल्प-बहुत्व की यह अवधारणा मुख्यतः दो दृष्टि से विचारित की गयी है- प्रथमतः उस हिंसा-अहिंसा के पीछे रही हुई मनोवृत्ति या प्रेरक तत्त्व के आधार पर और प्राणवध के बाह्यस्वरूप के आधार पर। पुनः प्रेरक तत्त्व भी दो प्रकार का हो सकता है - १. विवेक पर आधारित और २. भावना पर आधारित। विवेक पर आधारित कर्म के प्रेरक तत्त्व या मनोभूमिका में मूलतः यह बात देखी जाती है कि वह कर्म क्यों किया जा रहा है? कर्त्तव्य-बुद्धि से रागात्मकता के अभाव में जो कर्म किये जाते हैं, वे ईर्यापथिक होते हैं। दूसरे शब्दों में उनके द्वारा होने वाला बन्धन, बन्धन नहीं होता है। इसके विपरीत जो कर्म स्वार्थपूर्ति के लिए होते हैं, वे कर्मबन्धक होते हैं। यह सम्भव है कि व्यक्ति द्वारा अपने कर्त्तव्य का पालन करने समय हिंसा हो या उसे हिंसा करनी पड़े, किन्तु राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठकर मात्र कर्त्तव्य के परिपालन में होने वाली हिंसा बंधक या अनुचित नहीं होगी। उदाहरण के रूप में जैन मुनि आवश्यक क्रिया करते समय, प्रतिलेखन करते समय या पद यात्रा करते समय जो शारीरिक क्रियायें करते हैं, उसमें हिंसा तो होती ही है। चाहे कितनी ही सावधानी क्यों न रखी जाय, ये सभी क्रियायें हिंसा से रहित नहीं हैं, फिर भी इन्हें मुक्ति का ही साधन माना जाता है, बन्धन का कारण नहीं। व्यवहारिक क्षेत्र में न्यायाधीश समाज-व्यवस्था और अपने देश के कानून के अन्तर्गत कर्त्तव्य बुद्धि से अपराधी को दण्ड देता है, यहाँ तक कि मृत्युदण्ड भी देता है। क्या हम न्यायाधीश को मनुष्य की हत्या का दोषी मानेंगे? वह तो अपने नियम और कर्तव्य से बँधा होने के कारण ही ऐसा करता है, अतः उसके आदेश में हिंसा की घटना होने पर भी वह हिंसक नहीं माना जाता। अतः मनोभूमिका की दृष्टि से जब तक
अन्तर में कषाय भाव या द्वेष-बुद्धि न हो तब तक बाह्य रूप में घटित हिंसा की क्रिया न तो बन्धक होती है और न अनुचित। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट रूप से कहा था कि, "बाहर में हिंसा की घटना घटित हो या न हो, प्रमत्त या कषाययुक्त व्यक्ति नियमतः हिंसक ही होता है।" इसके विपरित बाह्य रूप से हिंसा की घटना घटित होने पर भी कषायरहित अप्रमादी मुनि नियमतः अहिंसक ही होता है,
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इसलिए यह मानना कि सकारात्मक अहिंसा में बाह्य रूप से हिंसा की घटना होती है, अतः वह अनुचित है-एक भ्रान्त दृष्टिकोण है। हिंसा की घटना घटित होने पर भी यदि कर्ता ने वह कर्म मात्र कर्तव्य बुद्धि से किया है, उसके मन में दूसरे को पीडा पहुँचाने का भाव नहीं है, तो वह हिंसक नहीं माना जा सकता। जो कर्म विवेकपूर्वक और निष्काम भाव से किये जाते हैं, उनमें हिंसा अल्प या अत्यल्प होती है। भावना या रागात्मकता की स्थिति में भी जो प्रशस्त राग-भाव है, उसमें हिंसा अल्प मानी गई है।
हिंसा-अहिंसा के अल्प-बहुत्व के विचार के सन्दर्भ में दूसरा दृष्टिकोण यह है कि यदि दो हिंसाओं के विकल्प में एक का चुनाव करना हो, तो हमें अल्प हिंसा को चुनना होगा और उस अल्प हिंसा का आधार जैन आचार्यों ने प्राणियों की संख्या न मान कर उनके ऐन्द्रिक विकास को माना है। यदि हजारों एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा और एक पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा में हिंसा के अल्प-बहुत्व का निर्णय करना हो, तो जैनाचार्यों की दृष्टि में हजारों एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा की अपेक्षा एक पंचेन्द्रिय प्राणी की हिंसा अधिक भयंकर मानी गयी है। हिंसा-अहिंसा के सन्दर्भ में अन्य विचारणीय तथ्य यह है कि हिंसा आत्मा की नहीं होती है। चाहे आत्मा सबकी समान हो, किन्तु प्राणशक्ति का विकास सबमें एक समान नहीं है। एकेन्द्रिय में चार प्राण हैं, किन्तु मनुष्य में दस प्राण हैं। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने स्पष्ट रूप से कहा है कि हिंसा का सम्बन्ध प्राणशक्ति के वियोजन से है (प्रमत्तयोगात् प्राण व्यपरोपण हिंसा) और यदि सभी जीवों में प्राणशक्ति का विकास समान नहीं है, तो हिंसा-अहिंसा के क्षेत्र में अल्प बहुत्त्व का विचार करना होगा।
स्वयं महावीर के युग में भी यह प्रश्न उपस्थित हुआ था कि अनेक एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा एक पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा में कौन-सी हिंसा अल्प है? उनके युग में हस्ति-तापसों का एक वर्ग था, जो यह कहता था कि हम तो वर्ष में केवल एक हाथी को मारते हैं और उसके माँस से पूरे वर्ष अपनी आजीविका की पूर्ति करते हैं। इस प्रकार हम सबसे कम हिंसा करते हैं (सूत्रकृतांग २/६/५३-५४)। इस विचारधारा का स्वयं महावीर ने खण्डन किया और बताया कि यह अवधारणा भ्रांत है। भगवतीसूत्र में इस प्रश्न पर और भी अधिक गम्भीरता से विचार हुआ है। उसमें बताया गया है कि अनेक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा की अपेक्षा पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा और उनमें भी एक ऋषि की हिंसा अधिक निकृष्ट होती है (भगवतीसूत्र ६/३४/१०६-१०७)। अतः जैन दृष्टिकोण से हिंसा का अल्प-बहुत्व प्राणियों की संख्या पर नहीं, उनके एकेन्द्रिय एवं आध्यात्मिक विकास पर निर्भर करता है। जब चुनाव दो हिंसाओं के बीच
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करना हो, तो हमें चुनाव अल्प हिंसा का ही करना होगा और इसमें भी हिंसा का अल्प-बहुत्व प्राणियों की संख्या पर नहीं, उनके ऐन्द्रिक विकास पर ही निर्भर करेगा।
यदि हम एक ओर यह माने कि अपने जीवन-रक्षण हेतु हम एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा कर सकते हैं और उसका हमें अधिकार है और दूसरी ओर यह कहें कि चूँकि दूसरे प्राणियों के रक्षण, पोषण, सेवा आदि की प्रवृत्तियों में एकेन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा जुड़ी हुई है, अतः वे त्याज्य हैं, तो यह आत्म-प्रवंचना ही होगी। गृहस्थ जीवन में तो क्या मुनि-जीवन में भी कोई व्यक्ति एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से पूर्णतः नहीं बच सकता है। अतः एकेन्द्रिय जीवों अर्थात् पृथ्वी, पानी, वनस्पति आदि की हिंसा से बचने के नाम पर अहिंसा के सकारात्मक पक्ष की अवहेलना न तो उचित है और न नैतिक ही।
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अध्याय-७. सकारात्मक अहिंसा और सामाजिक जीवन
सकारात्मक अहिंसा इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि वह हमारे सामाजिक जीवन का आधार है। 'मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।' सामाजिक जीवन से अलग होकर उसके अस्तित्त्व की कल्पना ही दुष्कर है। सकारात्मक अहिंसक चेतना अर्थात् संवेदनशीलता के अभाव में हम समाज की कोई कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। समाज जब भी खड़ा होता है तब आत्मीयता, प्रेम, पारस्परिक सहयोग और दूसरे के लिए अपने हित-त्याग के आधार पर खड़ा होता है। आचार्य उमास्वाति ने कहा है कि एक दूसरे का हित करना यह प्राणीय-जगत का नियम है (परस्परोपग्रहो जीवानाम-तत्त्वार्थसूत्र ५.२१)। जीवन सहयोग और सहकार की स्थिति में ही अस्तित्त्व में आता है और विकसित होता है। सहयोग और अपने हितों का दूसरे के हेतु उत्सर्ग समाज-जीवन का आधार है। दूसरे शब्दों में समाज सदैव ही सकारात्मक अहिंसा के आधार पर खड़ा होता है। निषेधात्मक अहिंसा चाहे वैयक्तिक साधना का आधार हो, किन्तु वह सामाजिक जीवन का आधार नहीं हो सकती। आज जिस अहिंसक समाजरचना की बात कही जाती है, वह समाज जब भी खड़ा होगा, सकारात्मक अहिंसा के आधार पर ही खड़ा होगा। जब तक समाज के सदस्यों में एक-दूसरे की पीड़ा को समझने
और उसे दूर करने के प्रयत्न नहीं होंगे, तब तक समाज अस्तित्त्व में ही नहीं आ पायेगा। सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक है कि हमें दूसरों की पीड़ा का स्व-संवेदन हो और उनके प्रति आत्मीयता का भाव हो।
सामान्य रूप से इस आत्मीयता को रागात्मकता समझने की भूल की जाती है, किन्तु आत्मीयता एवं रागात्मकता में अन्तर है। रागात्मकता सकाम होती है, उसके मूल में स्वार्थ का तत्त्व विद्यमान होता है, वह प्रत्युपकार की अपेक्षा रखती है, जबकि आत्मीयता निष्काम होती है, उसमें मात्र परार्थ की वृत्ति होती है। यही कारण था कि प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा के जो विविध नाम दिये गये, उसमें रति को भी स्थान दिया गया। यहाँ रति का अर्थ वासनात्मक प्रेम या द्वेषमूलक राग-भाव नहीं हैं, यह निष्काम प्रेम है। वस्तुतः जब अपनत्व का भाव प्रत्युपकार की अपेक्षा न रखता हो और वह सार्वभौम हो, तो आत्मीयता कहलाता है। वस्तुतः जब तक अन्य जीवों के साथ समानता की अनुभूति, उनके जीवन जीने के अधिकार के प्रति सम्मान-वृत्ति और उनकी पीड़ाओं का स्व-संवेदन नहीं होता, तब तक अहिंसक चेतना का उद्भव भी नहीं होता। अहिंसक चेतना का मूल आधार आत्मीयता की अनुभूति है। वह सार्वभौमिक प्रेम है। वह ऐसा
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व हमें यहाँ रमहंसा का परिपालनासा का पि
राग-भाव है, जिसमें द्वेष का कोई अंश ही नहीं होता है। जिसमें संसार के समस्त प्राणी 'स्व' ही होते हैं, 'पर' कोई भी नहीं होता है। वस्तुतः ऐसा राग, राग ही नहीं होता है। राग सदैव द्वेष के सहारे जीवित रहता है। द्वेष, स्वार्थ और प्रत्युपकार की आकांक्षा से रहित जो राग-भाव है, वह सार्वभौमिक प्रेम होता है। वही आत्मीयता है और यह आत्मीयता ही सामाजिकता का आधार है। से घृणा, विद्वेष और आक्रामकता की वृत्तियाँ सदैव ही सामाजिकता की विरोधी होती हैं। वे हिंसा का ही दूसरा रूप है। ये वृत्तियाँ जब भी बलवती होंगी, सामाजिकता की भावना ही समाप्त हो जाएगी, समाज ढह जायेगा। समाज जब भी खड़ा होगा, तब वह न तो हिंसा के आधार पर खड़ा होगा और न मात्र निषेधमूलक निरपेक्ष अहिंसा के आधार पर। वह हमेशा सकारात्मक अहिंसा के आधार पर ही खड़ा होगा। यद्यपि हमें यहाँ स्मरण रखना चाहिये कि जिस प्रकार सकारात्मक अहिंसा के सम्पादन में निरपेक्ष अहिंसा का परिपालन सम्भव नहीं है, उसी प्रकार सामाजिक जीवन में भी निरपेक्ष अहिंसा या पूर्ण अहिंसा का परिपालन सम्भव नहीं है।
समाज-जीवन का आधार, जो सकारात्मक अहिंसा है, वह सापेक्ष अहिंसा या सापवादिक अहिंसा है। समाज-जीवन के लिए समाज के सदस्यों के हितों के संरक्षण का प्रश्न मुख्य है और जहाँ अस्तित्त्व की सुरक्षा और हितों के संरक्षण का प्रश्न होता है, वहाँ निरपेक्ष अहिंसा सम्भव नहीं होती। समाज-जीवन में हितों में टकराहट स्वाभाविक है। अनेक बार एक हित, दूसरे के अहित पर ही निर्भर करता है। ऐसी स्थिति में समाज-जीवन में या संघीय जीवन में पूर्ण अहिंसा का आदर्श साकार नहीं हो पाता है, उसमें अपवाद को मान्य करना ही होता है। जब वैयक्तिक हितों और सामाजिक हितों में संघर्ष की स्थिति हो, तो हम पूर्ण अहिंसा के आदर्श की दुहाई देकर तटस्थ द्रष्टा नहीं बने रह सकते हैं। जब वैयक्तिक
और सामाजिक हितों में संघर्ष हो तो हमें समाज-हित में वैयक्तिक हितों का बलिदान करना ही होता है, फिर चाहे वे हित हमारे स्वयं के हों या किसी अन्य के। जब कोई समाज, राष्ट्र या उसका कोई सदस्य या वर्ग अपने क्षुद्र हितों की पूर्ति के लिए हिंसा अथवा अन्याय पर उतारू हो जाय, तो निश्चय ही पूर्ण अहिंसा की दुहाई देकर तटस्थ द्रष्टा बनें रहने से कोई काम नहीं चलेगा। जब तक जैनाचार्यों द्वारा उद्घोषित सम्पूर्ण मानव जीवन की एकता की कल्पना पूर्ण साकार नहीं होती है, जब तक सम्पूर्ण समाज अहिंसा के पालन के लिए प्रतिबद्ध नहीं होता है, तब तक मानव समाज में पूर्ण अहिंसा या निरपेक्ष अहिंसा के परिपालन का दावा करना सम्भव नहीं है।
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जैनधर्म जिस पूर्ण अहिंसा के आदर्श को प्रस्तुत करता है, उसमें भी जब
संघ की अथवा संघ के एक सदस्य की सुरक्षा का प्रश्न आया, तो जैन आचार्यों ने सापेक्षिक या सापवादिक अहिंसा को ही स्वीकार किया। जैन साहित्य में आचार्य कालक और गणाधिपति चेटक के उदाहरण इसके स्पष्ट प्रमाण हैं। निशीथचूर्णि ( गाथा २८६ ) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जब संघ की सुरक्षा अथवा किसी सती स्त्री के सतीत्व के रक्षण का प्रश्न हो, तो गृहस्थ ही नहीं मुनि भी हिंसा का सहारा ले सकता है । ऐसी स्थिति में बाह्य रूप से हिंसा की जो घटना घटित होती है, उसे चाहे द्रव्य हिंसा की दृष्टि से हिंसा कहा जाय, किन्तु यदि उसमें कर्त्ता की वृत्ति में निजी स्वार्थ और अपराधी के प्रति द्वेष भाव नहीं है, तो ऐसी हिंसा वस्तुतः अहिंसा ही है। जब तक मानव समाज का एक भी सदस्य पाशविक वृत्तियों में आस्था रखता हो, तब तक यह सोचना व्यर्थ है कि सामुदायिक जीवन में पूर्ण अहिंसा का आदर्श व्यवहार्य बन सकेगा। जो लोग सकारात्मक अहिंसा अर्थात् रक्षण, सेवा, सहकार आदि जीवन मूल्यों को केवल इस आधार पर अमान्य करते हैं कि उनसे निरपेक्ष या पूर्ण अहिंसा का पालन सम्भव नहीं है, उनकी यह अवधारणा उचित नहीं कही जा सकती है ।
निशीथचूर्णि में अहिंसा के जिन अपवादों की चर्चा है, उन्हें चाहे कुछ लोग साध्वाचार के रूप में सीधे मान्य न करना चाहते हों, किन्तु क्या यह नपुंसकता नहीं होगी कि जब किसी मुनिसंघ के सामने किसी तरूणी साध्वी का अपहरण हो रहा हो या उस पर बलात्कार हो रहा हो और वे पूर्ण अहिंसा के परिपालन की दुहाई देकर द्रष्टा बने रहें ? क्या उनका कोई सामाजिक दायित्व नहीं है ? हिंसा-अहिंसा का प्रश्न निरा वैयक्तिक नहीं है। जब तक सम्पूर्ण मानव-समाज एक साथ अहिंसा की साधना के लिए तत्पर नहीं होता है, किसी एक समाज या राष्ट्र द्वारा पूर्ण अहिंसा का उद्घोष कोई अर्थ नहीं रखता। अधिक क्या कहें, यदि सम्पूर्ण समाज षड्जीव - निकाय की नवकोटिपूर्ण अहिंसा के आदर्श के परिपालन की बात करने लगे, तो क्या जैनमुनि संघ का भी कोई अस्तित्त्व रहेगा? अतः पूर्ण अहिंसा के आदर्श की दुहाई देकर अहिंसा के सकारात्मक पक्ष की अवहेलना कथमपि उचित नहीं मानी जा सकती । संरक्षणात्मक व सुरक्षात्मक प्रयासों में जो हिंसा की बाह्य घटनायें होती हैं, वे सामाजिक जीवन के लिए अपरिहार्य हैं।
अहिंसा सापवादिक और सकारात्मक अहिंसा
हिंसा और अहिंसा का प्रश्न मुख्य रूप से तो आन्तरिक है । बाह्यरूप में हिंसा के होने पर भी राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठा अप्रमत्त मनुष्य अहिंसक है, जबकि बाह्यरूप में हिंसा न होने पर भी प्रमत्त मनुष्य हिंसक ही है। एक ओर
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सकारात्मक अहिंसा को केवल इसलिए अस्वीकार करना कि उसमें कहीं न कहीं हिंसा का तत्त्व होता है, किन्तु दूसरी ओर अपने अथवा अपने संघ और समाज के अस्तित्त्व के लिए अपवादों की सर्जना करना न्यायिक दृष्टि से संगत नहीं है। यदि हम यह स्वीकार करते हैं कि किसी मुनि के वैयक्तिक जीवन अथवा मुनि संघ के अस्तित्त्व के लिए अहिंसा के क्षेत्र में कुछ अपवाद मान्य किये जा सकते हैं, तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि लोककल्याण या प्राणिकल्याण के लिए जो ‘प्रवृत्तियाँ संचालित की जाती हैं, उनमें भी अहिंसा के कुछ अपवाद मान्य किये जा सकते हैं।
पुनः जो गृहस्थ षड्जीव-निकाय की नवकोटिपूर्ण अहिंसा का व्रत ग्रहण नहीं करता है और जो न केवल अपने लिए, अपितु अपने परिजनों के लिए एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से पूर्णतः विरत नहीं है अथवा जो त्रस प्राणी की संकल्पजा हिंसा को छोड़कर आरम्भजा, उद्योगजा और विरोधजा हिंसा का पूर्ण त्यागी नहीं है, उसे दूसरे जीवों के रक्षण-पोषण और उनकी पीड़ा के निवारण के प्रयत्नों को केवल यह कहकर नकारने का कोई अधिकार नहीं है कि उनमें हिंसा होती है। इस हिंसा के भय से सकारात्मक अहिंसा की अवहेलना करना योग्य नहीं है। वह गृहस्थ के लिए एक कर्त्तव्य है और उसे निष्काम भाव से उसे करना
सकारात्मक अहिंसा में घटित हिंसा, हिंसा है
फिर भी यह आवश्यक है कि हम ऐसी हिंसा को हिंसा के रूप में समझते रहें, अन्यथा हमारा करूणा का स्त्रोत सूख जायेगा। विवशता में चाहे हमें हिंसा करनी पड़े, किन्तु उसके प्रति आत्मग्लानि और हिंसित के प्रति करूणा की धारा सूखने नहीं पावे, अन्यथा वह हिंसा हमारे स्वभाव का अंग बन जावेगी, जैसे- कसाई बालक में। हिंसा-अहिंसा के विवेक का मुख्य आधार मात्र यही नहीं है कि हमारा हृदय कषाय से मुक्त हो, किन्तु यह भी है कि हमारी संवेदनशीलता जागृत रहे, हृदय में दया और करूणा की धारा प्रवाहित होती रहे। हमें अहिंसा को हृदय-शून्य नहीं बनाना है, क्योंकि यदि हमारी संवेदनशीलता जागृत बनी रही तो निश्चय ही हम जीवन में हिंसा की मात्रा को अल्पमत करते हुए पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध कर सकेंगे, साथ ही हमारी अहिंसा विधायक बनकर मानव समाज में सेवा और सहयोग की गंगा भी बहा सकेगी।
साथ ही जब अपरिहार्य बन गई दो हिंसाओं में से किसी एक को चुनना अनिवार्य हो, तो हमें अल्प-हिंसा को चुनना होगा। कौन-सी हिंसा अल्प-हिंसा होगी, यह निर्णय देश-काल, परिस्थिति आदि अनेक बातों पर निर्भर करेगा। यहाँ जीवन की मूल्यवत्ता को भी आंकना होगा। जीवन की यह मूल्यवत्ता दो बातों पर
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निर्भर करती है- १. प्राणी का ऐन्द्रिक एवं आध्यात्मिक विकास और २. उसकी सामाजिक उपयोगिता। सामान्यतया मनुष्य का जीवन अधिक मूल्यवान है और मनुष्यों में भी एक सन्त का, किन्तु किसी परिस्थिति में किसी मनुष्य की अपेक्षा किसी पशु का जीवन भी अधिक मूल्यवान हो सकता है। सम्भवतः हिंसा-अहिंसा के विवेक में जीवन की मूल्यवत्ता का यह विचार हमारी दृष्टि में उपेक्षित ही रहा । यही कारण था कि हम चींटियों के प्रति तो संवेदनशील बन सके, किन्तु मनुष्य के प्रति निर्मम ही बने रहे। आज हमें अपनी संवेदनशीलता को मोड़ना है और मानवता के प्रति अहिंसा को सकारात्मक बनाना है।
सकारात्मक अहिंसा का महत्त्व
जैनधर्म में अहिंसा के सकारात्मक पक्ष का महत्त्व एवं स्थान प्राचीनकाल से ही रहा है। प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान काल तक कुछेक अपवादों को छोड़कर सभी जैनाचार्यों ने सकारात्मक अहिंसा के मूल्य और महत्त्व को स्वीकार किया है। वे सदैव ही गृहस्थ के लिए उसे आचरणीय मानते रहे हैं। आज चाहे भारत में जैनों की संख्या मात्र एक प्रतिशत हो, किन्तु उनके द्वारा संचालित मानव चिकित्सालयों, पशु-पक्षी चिकित्सालयों, गोशालाओं, पांजरापालों, विद्यालयों और महाविद्यालयों की संख्या कहीं अधिक है। आज देश में इस प्रकार की लोकमंगलकारी प्रवृत्तियों में जुड़ी हुई जो संस्थाएँ अथवा ट्रस्ट हैं, उनमें लगभग ३०% जैनों द्वारा संचालित हैं । अकालादि के अवसरों पर प्राणियों के रक्षार्थ जैन समाज का जो योगदान होता है, उसे कोई भी नहीं भुला पाता है। जब भी मानव समाज ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों के भी जीवनरक्षण का प्रश्न आया है, जैन समाज ने सदैव ही उसमें आगे बढ़कर हिस्सा लिया है। जैन समाज में आज भी अनेक ऐसे मूक कार्यकर्ता हैं, जो तन-मन-धन से लोककल्याणकारी प्रवृत्तियों में अपना योगदान देते हैं । इसके पीछे सदैव ही जैन आचार्यों एवं मुनिजनों की प्रेरणा निहित रही है। जैनधर्म में अहिंसा के इस सकारात्मक पक्ष का कितना मूल्य और महत्त्व है, इसके लिए हम अपनी ओर से कुछ न कह कर प्रश्न-व्याकरणसूत्र के ही निम्न वचन उद्धृत करना चाहेंगे
एसा सा भगवई अहिंसा जा सा भीयाणं विव सरणं, पक्खीणं विव गमणं, तिसियाणं विव सलिलं, खुहियाणं विव असणं, समुद्दमज्झे व पोयवहणं. चउप्पयाणं व आसमपयं, दुहट्ठियाणं व ओसहिबलं, अडवीमज्झे व सत्यगमणं,
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एत्तो विसिट्ठतरिया अहिंसा जा सा पुढवी-जल-अगणि-मारुय-वणस्सइ-बीय-हरिय-जलयर-थलयर-खहयर-तस थावर-सव्वभूय-खेमंकरी।।
यह अहिंसा भगवती तो है, सो (संसार के समस्त) भयभीत प्राणियों के लिए शरणभूत है, पक्षियों के लिए आकाश में गमन करने-उड़ने के समान है, यह अहिंसा प्यास से पीड़ित प्राणियों के लिए जल के समान है, भूखों के लिए भोजन के समान है, समुद्र के मध्य डूबते हुए जीवों के लिए जहाज के समान है, चतुष्पद-पशुओं के लिए आश्रम-स्थान के समान है, दुःखों से पीड़ित-रोगीजनों के लिए औषध-बल के समान है, भयानक जंगल में सहयोगियों के साथ गमन करने के समान है।
मात्र यही नहीं, भगवती अहिंसा तो इनसे भी अत्यन्त विशिष्ट है। यह त्रस और स्थावर, सभी जीवों का क्षेम कुशल-मंगल करने वाली है।
यह लोक-मंगलकारी अहिंसा जन-जन के कल्याण में तभी सार्थक सिद्ध होगी, जब इसके सकारात्मक पक्ष को उभार कर जन-साधारण के समक्ष प्रस्तुत किया जायेगा और करूणा एवं सेवा की अन्तश्चेतना को जागृत किया जायेगा। मानव समाज में से हिंसा, संघर्ष और स्वार्थपरता के विष को तभी समाप्त किया जा सकेगा, जब हम दूसरों की पीड़ा का स्व-संवेदन करेंगे, उनकी पीड़ा हमारी पीडा बनेगी। इससे अहिंसा की जो धारा प्रवाहित होगी, वह सकारात्मक होगी और करूणा, मैत्री, सहयोग एवं सेवा के जीवन-मूल्यों को विश्व में स्थापित करेगी।
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अध्याय-८ पर्यावरण प्रदूषण की समस्या और अहिंसा.
तीव्रता से बढ़ती हुई जनसंख्या और उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण प्रदूषित होते पर्यावरण की रक्षा का प्रश्न आज मानव समाज की एक ज्वलन्त समस्या है, क्योंकि प्रदूषित होते हुए पर्यावरण के कारण न केवल मानवजाति अपितु पृथ्वी पर स्वयं जीवन के अस्तित्त्व को भी खतरा उत्पन्न हो गया है और वे सभी तथ्य, जो जीवन के अस्तित्त्व को संकट में डालते हैं, किसी-न-किसी रूप में हिंसा का रूप हैं। अतः पर्यावरण प्रदूषण का प्रश्न हिंसा-अहिंसा की अवधारणा से निकट रूप से जुड़ा हुआ है। उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण जीवन जीने के लिये आवश्यक स्त्रोतों का इतनी तीव्रता से और इतनी अधिक मात्रा में दोहन हो रहा है कि प्राकृतिक तेल एवं गैस की बात तो दूर रही, अगली शताब्दी में पेयजल और सिंचाई हेतु पानी मिलना भी दुष्कर होगा। यही नहीं, शहरों में शुद्ध प्राणवायू के थैले लगाकर चलना होगा। अतः मानवजाति के भावी अस्तित्त्व के लिये यह आवश्यक हो गया है कि पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने के प्रयत्न अविलम्ब प्रारम्भ हो। यदि ऐसा नहीं है तो हमारी भावी पीढ़ी का जीवन खतरे में होगा और अपनी भावी पीढ़ी के संकट की उपेक्षा करना, यह एक प्रकार की हिंसा ही है। महात्मा गांधी ने कहा था कि भावी पीढ़ी की चिन्ता नहीं करना भी हिंसा है। यह शुभ-लक्षण है कि पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने की चेतना आज समाज के सभी वर्गों में जागी है और इसी क्रम में यह विचार भी उभर कर सामने आया है कि विभिन्न धार्मिक परम्पराओं में पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के ऐसे कौन से निर्देश है, जिनको उजागर करके पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के सन्दर्भ में मानव समाज के विभिन्न वर्गों की चेतना को जागृत किया जा सके। इस संदर्भ में यहाँ मैं जैनधर्म की दृष्टि से ही आप लोगों के समक्ष अपने विचार रखूगा।
यह एक निर्विवाद तथ्य है कि जैनधर्म में भोगवृत्ति के प्रति संयम, अहिंसा और असंग्रह (अपरिग्रह) पर सर्वाधिक बल दिया गया है। उसके इन्हीं मूलभूत सिद्धान्तों के आधार पर जैनधर्म में ऐसे अनेक आचार नियमों का निर्देश हुआ है, जिनका परिपालन आज पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये आवश्यक है। जैनधर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर ने आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व यह उद्घोषणा की थी कि न केवल पृथ्वी, बल्कि पानी, वायु और अग्नि में भी
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जीवन हैं। " एक ओर तो वे यह मानते थे कि पृथ्वी, पानी एवं वनस्पति के आश्रित होकर अनेकानेक प्राणी अपना जीवन जीते हैं, अतः इनके दुरूपयोग, विनाश या हिंसा से उनका भी विनाश होता है। दूसरे ये स्वयं भी जीवन हैं, क्योंकि इनके अभाव में जीवन की कल्पना भी सम्भव नहीं है । क्या हम जल, वायु, पृथ्वीतत्व एवं ऊर्जा (अग्नितत्व ) के अभाव में जीवन की कोई कल्पना भी कर सकते हैं? ये तो स्वयं जीवन के अधिष्ठान हैं, अतः इनका दुरूपयोग या विनाश स्वयं जीवन का ही विनाश है, इसीलिये जैनधर्म में उसे हिंसा या पाप कहा दूधर्म पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को जो देव रूप माना गया है, उसका आधार भी इनका जीवन के अधिष्ठान रूप होना ही है। जैन परम्परा में भगवान महावीर से पूर्व भगवान पार्श्व के काल में भी पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति में जीवन होने की यह अवधारणा उपस्थित थी । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक ऐसे षट्जीवनिकायों की चर्चा प्राचीन जैन आगमों का प्रमुख विषय रहा है आचारांगसूत्र (ई.पू. पाँचवी शती) का तो प्रारम्भ ही इन षट्जीवनिकायों के निरूपण से तथा उनकी हिंसा के कारणों एवं उनकी हिंसा से बचने के निर्देशों की चर्चा से ही होता है । इन षट्जीवनिकायों की हिंसा नहीं करने के सन्दर्भ में जैन आचार्यों के जो निर्देश हैं, वे पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने की दृष्टि से आज सर्वाधिक मूल्यवान बन गये हैं। आगे हम उन्हीं की चर्चा करेंगे ।
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यह एक अनुभूत प्राकृतिक तथ्य है कि जीवन की अभिव्यक्ति और अवस्थिति, दूसरे शब्दों में- उसका जन्म, विकास और अस्तित्त्व, दूसरे जीवनों के आश्रित हैं और इससे हम इंकार भी नहीं कर सकते हैं, किन्तु इस सत्य को समझने की जीवन-दृष्टियाँ भिन्न-भिन्न रही हैं। एक दृष्टिकोण यह रहा कि यदि एक जीवन दूसरे जीवन पर आश्रित है, तो हमें यह अधिकार है कि हम जीवन के दूसरे रूपों का विनाश करके भी हमारे अस्तित्त्व को बनाये रखें कुछ धर्मों ने भी इस तथ्य का समर्थन करते हुए कहा कि ईश्वर ने दूसरे सभी जीवों को मनुष्य के लिए बनाया है, अतः मनुष्य के अस्तित्त्व के लिए जीवन के दूसरें रूपों का विनाश या उनकी हिंसा करना पाप नहीं है। पूर्व में ' जीवोजीवस्य भोजनम्' और पश्चिम में ‘अस्तित्त्व के लिये संघर्ष' (Struggle for existence) के
५६. तं परिण्णाय मेहावी णेव संय छज्जीव- णिकाय-सत्थं समारंभेज्जा, वणेहिं छज्जीव- णिकाय-सत्थं समारभावेज्जा, जेवणे
छज्जीव- णिकाय-सत्थं समारंभति समणुजाणेज्जा ।
५७. से बेमि- सात पाणा उदय निस्सिया जीवा अणेगा। -
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आयारो, आचार्य तुलसी, १/१७६ आयारो, आचार्य तुलसी, १ / ५४
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सिद्धान्त भी इसी दृष्टिकोण के कारण अस्तित्त्व में आये। इन सभी की जीवन-दृष्टि हिंसक रही। इन्होंने विनाश से विकास का मार्ग चुना। आज पूर्व से पश्चिम तक इसी जीवन-दृष्टि का बोल-बाला है। जीवन के दूसरे रूपों का विनाश करके मानव के अस्तित्त्व को बचाने के प्रयत्न होते रहे हैं, किन्तु अब विज्ञान की सहायता से इस जीवन-दृष्टि का खोखलापन सिद्ध हो चुका है। अब विज्ञान यह बताता है कि जीवन के दूसरे रूपों का अनवरत विनाश करके हम मानव का अस्तित्त्व भी नहीं बचा सकते हैं। इस सम्बन्ध में जैनों ने ही एक दूसरी जीवन-दृष्टि का उद्घोष किया था। आज से लगभग अठारह सौ वर्ष पूर्व आचार्य उमास्वाति ने एक सूत्र प्रस्तुत किया - 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् अर्थात् जीवन एक दूसरे के सहयोग पर आधारित है। विकास का मार्ग हिंसा या विनाश नहीं, अपितु परस्पर सहकार है। एक-दूसरे के पारस्परिक सहकार या सहयोग पर ही जीवन-यात्रा चलती है। जीवन के दूसरे रूपों के सहकारी बनकर ही हम अपना जीवन जी सकते हैं। प्राणी-जगत् पारस्परिक सहयोग पर आश्रित है। हमें अपना जीवन जीने के लिये वनस्पति जगत के सहयोग की अपेक्षा है, तो वनस्पति जगत को अपना जीवन जीने के लिए हमारे सहयोग की आवश्यकता है। वनस्पति से निःसृत ऑक्सीजन, फल, अन्न आदि से हमारा जीवन चलता है, तो हमारे द्वारा निःसृत कार्बनडाईऑक्साईड एवं मल-मूल आदि से उनका जीवन चलता है। हम जीवन जीने के लिये जीवन के दूसरे रूपों का सहयोग तो ले सकते हैं, किन्तु उनके विनाश का हमें अधिकार नहीं है, क्योंकि उनके विनाश में हमारा भी विनाश निहित है। दूसरे की हिंसा वस्तुतः हमारी ही हिंसा है, इसलिये आचारांग में कहा गया था - जिसे तू मारना चाहता है, वह तो तू ही है, - क्योंकि यह तो तेरे अस्तित्त्व का आधार है। सहयोग लेना और दूसरों को सहयोग करना यही प्राणी जगत की आदर्श स्थिति है। जीवन कभी भी दूसरों के सहयोग के बिना नहीं चलता है। जिसे हम दूसरों के सन्दर्भ में अपना अधिकार मानते हैं, वही दूसरों के प्रति हमारा कर्तव्य भी है, इसे हमें नहीं भूलना है। सर्वत्र जीवन की उपस्थिति की कल्पना, उसके प्रति अहिंसक दृष्टि का परिणाम यह हुआ कि जैन आचार्यों ने जीवन के विविध रूपों की हिंसा और उनके दुरूपयोग को रोकने हेतु आचार के अनेक विधि-निषेधों का प्रतिपादन किया। आगे हम जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण,
५८. परस्परोपग्रहो जीवानाम्, तत्त्वार्थसूत्र, उमास्वाति, ५/२१ ५६. तुमंसि नाम सच्चेव जं 'हतत्वं' ति मन्नसि,
तुमंसि नाम सच्चेव जं 'अज्जावेयव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'परितावेयव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'परिघेतव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'उदवेयव्वं' ति मन्नसि।
आयारो, ५/१०
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खाद्य-सामग्री के प्रदूषण से बचने के लिये जैनाचार्यों ने किन-किन आचार नियमों का प्रतिपादन किया है, इसकी चर्चा करेंगे। जल-प्रदूषण और जल-संरक्षण - जल को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये एवं उसके सीमित उपयोग के लिये जैन ग्रन्थों में अनेक निर्देश उपलब्ध है। यद्यपि, प्राचीन काल में ऐसे बड़े उद्योग नहीं थे जिनसे बड़ी मात्रा में जल प्रदूषण हो, फिर भी जल में अल्प मात्रा में भी प्रदूषण न हो इसका ध्यान जैन परम्परा में रखा गया है। जैन परम्परा में प्राचीन काल से यह अवधारणा रही है कि नदी, तालाब, कुएँ आदि में प्रवेश करके स्नान, दातौन तथा मलमूत्र आदि का विसर्जन नहीं करना चाहिये, क्योंकि जल में शारीरिक-मलों के उत्सर्ग के परिणामस्वरूप जो विजातीय तत्व जल में मिलते हैं, उनसे बहुतायत से जलीय जीवों की हिंसा होती है और जल प्रदूषित होता है। जैन परम्परा में आज भी यह लोकोक्ति है कि पानी का उपयोग घी से
भी अधिक सावधानी से करना चाहिये। मुझे स्वयं वे दिन याद हैं, जब घी के गिरने पर उतनी प्रताड़ना नहीं मिलती थी, जितनी एक गिलास पानी के गिर जाने पर। आज से २०-२५ वर्ष पूर्व तक जैन मुनि यह नियम या प्रतिज्ञा दिलाते थे कि नदी, कुएँ आदि में प्रवेश करके स्नान नहीं करना, स्नान में एक घड़े से अधिक जल का व्यय नहीं करना आदि। उनके ये उपदेश हमारी आज की उपभोक्ता संस्कृति को हास्यास्पद लगते हों, किन्तु भविष्य में जो पीने योग्य पानी का संकट आने वाला है, उसे देखते हुए ये नियम कितने उपयोगी एवं महत्वपूर्ण हैं, इसे कोई भी व्यक्ति सरलता से समझ सकता है। जैन परम्परा में मुनियों के लिये तो सचित्तजल (जीवन युक्त जल) के प्रयोग का ही निषेध है। जैन मुनि केवल उबला हुआ गर्म पानी या अन्य किन्हीं साधनों से जीवाणु रहित हुआ जल ही ग्रहण कर सकते हैं। सामान्य उपयोग के लिये वह ऐसा जल भी ले लेते हैं, जिसका उपयोग गृहस्थ कर चुका हो और उसे बेकार मानकर फेंक रहा हो। गृहस्थ उपासक के लिये भी जल के उपयोग से पूर्व उसका छानना और सीमित मात्रा में ही उसका उपयोग करना आवश्यक माना गया है। बिना छना पानी पीना जैनों के लिए पापाचरण माना गया है। जल को छानना अपने को प्रदूषित जल ग्रहण से बचाना है और इस प्रकार वह स्वास्थ्य के संरक्षण का भी अनुपम साधन है। जल के अपव्यय का मुख्य कारण आज हमारी उपभोक्ता संस्कृति है। जल का मूल्य हमें इसलिये पता नहीं लगता है कि प्रथम तो वह प्रकृति का निःशुल्क उपहार है। दूसरे, आज नल की टोंटी खोलकर हम उसे बिना परिश्रम पा लेते हैं। यदि कुओं से स्वयं जल निकालकर और उसे दूरी से घर पर लाकर इसका उपयोग करना हो, तो जल का मूल्य क्या है, इसका हमें पता लगे। चाहे इस युग
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में जीवनोपयोगी सब वस्तुओं के मूल्य बढ़े हों, किन्तु जल तो सस्ता ही हुआ है । जल का अपव्यय न हो, इसलिये प्रथम आवश्यकता यह है कि हम उपभोक्ता संस्कृति से विमुख हो । जहाँ पूर्व काल में जंगल में जाकर मल विसर्जन, दातौन, स्नान आदि किया जाता, वहाँ जल का कितना कम उपयोग होता यह किसी से छिपा नहीं है। पुनः वह मल एवं जल भी जंगल के छोटे पौधों के लिये खाद व पानी के रूप में उपयोगी होता था । आज की पाँच सितारा होटलों की संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति पहले से पचास गुना अधिक जल का उपयोग करता है । जो लोग जंगल में मल-मूत्र विसर्जन एवं नदी किनारे स्नान करते थे, उनका जल का वास्तविक व्यय दो लीटर से अधिक नहीं था और उपयोग किया गया जल भी या तो पौधों के उपयोग में आता था या फिर मिट्टी और रेत से छनकर नदी में मिलता, किन्तु आज पाँच सितारा होटल में एक व्यक्ति कम से कम पाँच सौ लीटर जल का अपव्यय कर देता है । यह अपव्यय हमें कहाँ ले जायेगा, यह विचारणीय है ।
वायु प्रदूषण का प्रश्न
वायु प्रदूषण के प्रश्न पर भी जैन - आचार्यों का दृष्टिकोण स्पष्ट था । यद्यपि प्राचील काल में वे अनेक साधन, जो आज वायुप्रदूषण के कारण बने हैं, नहीं थे। मात्र अधिक मात्रा में धूम्र उत्पन्न करने वाले व्यवसाय ही थे । धूम्र की अधिक मात्रा न केवल फलदार पेड़-पौधों के लिये अपितु अन्य प्राणियों और मनुष्यों के लिए किस प्रकार हानिकारक है, यह बात वैज्ञानिक गवेषणाओं और अनुभवों से सिद्ध हो गयी है। जैन आचार्यों ने उपासकदशासूत्र में जैन गृहस्थों के लिये स्पष्टतः उन व्यवसायों का निषेध किया है, जिनमें अधिक मात्रा में धूम्र उत्पन्न होकर वातावरण को प्रदूषित करता हो । वायुप्रदूषण का एक कारण फलों आदि को सड़ाकर उनसे शराब आदि मादक पदार्थ बनाने का व्यवसाय भी है, जिसका जैन गृहस्थ के लिए निषेध है । वायुप्रदूषण को रोकने और प्रदूषित वायु, सूक्ष्म कीटाणुओं एवं रजकण से बचने के लिये जैनों में मुख वस्त्रिका बाँधने या रखने की जो परम्परा है, वह इस तथ्य का प्रमाण है कि जैन आचार्य इस सम्बन्ध में कितने सजग थे कि प्रदूषित वायु और कीटाणु शरीर में मुख एवं नासिका के माध्यम से प्रवेश न करें और हमारा दूषित श्वास वायुप्रदूषण न करें । - पर्यावरण के प्रदूषण में आज धूम्र छोड़ने वाले वाहनों का प्रयोग भी एक प्रमुख कारण है । यद्यपि वैज्ञानिक प्रगति के इस युग में यह बात हास्यास्पद लगेगी कि हम पुनः बैलगाड़ी की दिशा में लौट जाये, किन्तु यदि वातावरण को प्रदूषण से मुक्त रखना है, तो हमें हमारे नगरों और सड़कों को इस धूम्र प्रदूषण से मुक्त रखने का प्रयास करना होगा । जैन मुनि के लिये आज भी जो पदयात्रा करने
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और कोई भी वाहन प्रयोग नहीं करने का नियम है, वह चाहे हास्यास्पद लगे, किन्तु पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने और मानव श्रम की दृष्टि से वह कितना उपयोगी है, इसे झुठलाया नहीं जा सकता। आज भी हमारी उपभोक्ता संस्कृति में हम एक ओर एक फलाग भी जाना हो तो वाहन की अपेक्षा रखते हैं, तो दूसरी ओर डॉक्टरों के निर्देश पर प्रतिदिन पाँच-सात किलोमीटर टहलते भी है । यह कैसी आत्मप्रवंचना है? एक ओर समय की बचत के नाम पर वाहनों का प्रयोग करना, तो दूसरी ओर प्रातः कालीन एवं सायंकालीन भ्रमणों में अपने समय का अपव्यय करना। यदि मनुष्य मध्यम आकार के शहरों में अपने दैनिन्दिन कार्यों में वाहन का प्रयोग न करें, तो उससे दोहरा लाभ होगा। एक ओर ईंधन एवं तत्सम्बन्धी खर्च बचेंगे, तो दूसरी ओर पर्यावरण प्रदूषण से बचेगा। साथ ही उसका स्वास्थ्य भी अनुकूल रहेगा। प्रकृति की ओर लौटने की बात आज चाहे परम्परावादी लगती हो, किन्तु एक दिन ऐसा आयेगा जब यह मानव अस्तित्त्व की एक अनिवार्यता होगी। आज यू. एस. ए. जैसे विकसित देशों में भी यह प्रवृत्ति प्रारम्भ हो गयी है ।
वनस्पति जगत् और पर्यावरण
आचारांगसूत्र में वानस्पतिक जीवन की प्राणीय जीवन से तुलना करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार हम जीवन युक्त हैं और अनुकूल-प्रतिकूल, सुख-दुःखादि विविध संवेदनाओं की अनुभूति करते हैं, उसी प्रकार से वनस्पति जगत् भी जीवनयुक्त है और उसे भी अनुकूल-प्रतिकूल, सुख-दुःख आदि की अनुभूति होती है ।" किन्तु जिस प्रकार एक अंधा, पंगु, मूक एवं बधिर व्यक्ति पीड़ा का अनुभव करते हुए भी उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाता है, उसी प्रकार वनस्पति आदि अन्य जीव - निकाय भी पीड़ा का अनुभव तो करते हैं, किन्तु उसे व्यक्त करने में समर्थ नहीं होते। अतः व्यक्ति का प्रथम कर्त्तव्य यही है कि वह उनकी हिंसा एवं उनके अनावश्यक दुरूपयोग से बचे। जिस प्रकार हमें अपना
६०. वणस्सइजीवाणं माणुस्सेण तुलणा पदं से बेमि
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इमपि जाइधम्मयं एयंपि जाइधम्मयं । इमपि बुड्ठिधम्मयं, एयंपि बुड्रिधम्मयं । इमपि चित्तमंतयं, एयंपि चित्तमंतयं । इमपि छिन्नं मिलाती, एयंपि छिन्नं मिलाति । इमपि आहारगं, एयंपि आहारगं । इमपि अणिच्चयं, एयंपि अणिच्चयं । इमपि असासयं, एयंपि असासयं । इमपि चयावचइयं, एयंपि चयावचइयं । इमपि विपरिणामधम्मयं एयंपि विपरिणामधम्मयं ।
आयारो, सं. आचार्य तुलसी, १/३२ ५७
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जीवन जीने का अधिकार है, उसी प्रकार उन्हें भी अपना जीवन जीने का
अधिकार है। अतः जीवन जहाँ कहीं भी और जिस किसी भी रूप में हो, उसका
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सम्मान करना हमारा कर्त्तव्य है । प्रकृति की दृष्टि से एक पौधे का जीवन भी उतना ही मूल्यवान है, जितना मनुष्य का । पेड़-पौधे पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने में जितने सहायक हैं, उतना मनुष्य नहीं है। वह तो पर्यावरण को प्रदूषित ही करता है। वृक्षों एवं वनों के संरक्षण तथा वनस्पति के दुरूपयोग से बचने के सम्बन्ध में भी प्राचीन जैन साहित्य में अनेक निर्देश है। जैन परम्परा में मुनि के लिए तो हरित वनस्पति को तोड़ने व काटने की बात तो दूर, उसे स्पर्श करने का भी निषेध था । गृहस्थ उपासक के लिये भी हरित वनस्पति के उपयोग को यथाशक्ति सीमित करने का निर्देश है। आज भी पर्व तिथियों में हरित वनस्पति नहीं खाने के नियम का पालन अनेक जैन गृहस्थ करते हैं। कंद और मूल का भक्षण जैन - गृहस्थ के लिए निषिद्ध ही है । इसके पीछे यह तथ्य रहा कि यदि मनुष्य जड़ो का ही भक्षण करेगा तो पौधों का अस्तित्त्व ही खतरे में हो जायेगा और उनका जीवन समाप्त हो जायेगा । इसी प्रकार से उस पेड़ को, जिसका तना मनुष्य की बाँहों में न आ सकता हो, काटना मनुष्य की हत्या के बराबर दोष माना गया है। गृहस्थ उपासक के लिए जिन पन्द्रह निषिद्ध व्यवसायों का उल्लेख है, उसमें वनों को काटना भी निषिद्ध है ।" आचारांग में वनस्पति के शरीर की मानव शरीर से तुलना करके यही बतलाया गया है कि वनस्पति की हिंसा भी प्राणी हिंसा के समान हैं। इसी प्रकार वनों में आग लगाना, वनों को काटना आदि को गृहस्थ के लिए सबसे बड़ा पाप ( महारम्भ) माना गया है, क्योंकि उसमें न केवल वनस्पति की हिंसा होती है, अपितु अन्य वन्य जीवों की भी हिंसा होती है और पर्यावरण प्रदूषित होता है, क्योंकि वन वर्षा और पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के अनुपम साधन है। कीटनाशकों का प्रयोग
आज खेती में जो रसायनिक उर्वरकों और कीटनाशक दवाओं का उपयोग बढ़ता जा रहा है, वह भी हमारे भोजन में होने वाले प्रदूषण का कारण है। जैन परम्परा में गृहस्थ - उपासक के लिए खेती की अनुमति तो है, किन्तु किसी भी स्थिति में कीटनाशक दवाओं का उपयोग करने की अनुमति नहीं हैं, क्योंकि उससे छोटे-छोटे जीवों की उद्देश्यपूर्ण हिंसा होती है, जो उसके लिये निषिद्ध है इसी प्रकार गृहस्थ के लिए निषिद्ध पन्द्रह व्यवसायों में विशैले पदार्थों का व्यवसाय
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६१. तं जहा इंगालकम्मे, वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, फोडीकम्मे, दंतवाणिज्जे, लक्खावाणिज्जे, रसवाणिज्जे, विसवाणिज्जे, केसवाणिज्जे, जंतपीलणकम्मे, निल्लंछणकम्मे, दवग्गिदावणया, सरदहतलायसोसणया, असईजणपोसणया । उपासकदशासूत्र, सं. मधुकर मुनि, १/५
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भी वर्जित है ।" अतः वह न तो कीटनाशक दवाओं का प्रयोग कर सकता है और न ही उनका क्रयप-विक्रय कर सकता है। महाराष्ट्र के एक जैन किसान ने प्राकृतिक पत्तों, गोबर आदि की खाद से तथा कीटनाशकों के उपयोग बिना ही 1. अपने खेतों में रिकार्ड उत्पादन करके सिद्ध कर दिया है कि रासायनिक उर्वरकों के उपयोग न तो आवश्यक है, न ही वाँछनीय; क्योंकि इससे न केवल पर्यावरण का संतुलन भंग होता है और वह प्रदूषित होता है, अपितु हमारे खाद्यान्न भी - विषयुक्त बनते हैं, जो हमारे स्वास्थ्य के लिये हानिकर होते हैं ।
रात्रिभोजन निषेध और प्रदूषणमुक्तता
इसी प्रकार जैन परम्परा में जो रात्रिभोजन निषेध की मान्यता है", वह भी प्रदूषण मुक्तता की दृष्टि से एक वैज्ञानिक मान्यता है, जिससे प्रदूषित आहार शरीर में नहीं पहुँचता और स्वास्थ्य की रक्षा होती है। सूर्य के प्रकाश में जो भोजन पकाया और खाया जाता है, वह जितना प्रदूषण मुक्त एवं स्वास्थ्य वर्धक होता है, उतना रात्रि के अंधकार या कृत्रिम प्रकाश में पकाया गया भोजन नहीं होता है । यह तथ्य न केवल मनो- कल्पना है, बल्कि एक वैज्ञानिक सत्य है। जैनों ने रात्रि भोजन - निषेध के माध्यम से पर्यावरण और मानवीय स्वास्थ्य, दोनों के संरक्षण का प्रयत्न किया हैं। दिन में भोजन पकाना और खाना उसे प्रदूषण से मुक्त रखना है, क्योंकि रात्रि में एवं कृत्रिम प्रकाश में भोजन में विषाक्त सूक्ष्म प्राणियों के गिरने की सम्भावना प्रबल होती है । पुनः देर रात में किये गये भोजन का परिपाक भी सम्यक् रूपेण नहीं होता है।
शिकार और मांसाहार
आज जो पर्यावरण का संकट बढ़ता जा रहा है, उसमें वन्य-जीवों और जलीय जीवों का शिकार भी एक कारण है । आज जलीय जीवों की हिंसा के कारण जल प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। यह तथ्य सुस्पष्ट है कि मछलियाँ आदि जलीव-जीवों का शिकार जल- प्रदूषण का कारण बनता जा रहा है। इसी प्रकार कीट-पतंग एवं वन्य-जीव भी पर्यावरण के सन्तुलन का बहुत बड़ा आधार है । आज एक ओर वनों के कट जाने से उनके संरक्षण के क्षेत्र समाप्त होते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर फर, चमड़े, माँस आदि के लिए वन्य जीवों का शिकार बढ़ता जा रहा है। जैन परम्परा में कोई व्यक्ति तभी प्रवेश पा सकता है, जबकि वह शिकार व माँसाहार नहीं करने का व्रत लेता है। शिकार व माँसाहार नहीं करना
६२. तं जहा - इंगालकम्मे, वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, फोडीकम्मे, दंतवाणिज्जे, लक्खावाणिज्जे, रसवाणिज्जे, विसवाणिज्जे, केसवाणिज्जे, जंतपीलणकम्मे, निल्लंछणकम्मे, दवग्गिदावणया, सरदहतलायसोसणया, असईजणपोसणया ।
६३. से वारिया इत्थि सरायमत्तं ।
उपासकदशासूत्र, सं. मधुकर मुनि, १/५ सूत्रकृतांगसूत्र, मधुकर मुनि, १/६/३७६ ५६
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जैन गृहस्थ धर्म में प्रवेश की प्रथम शर्त है। मत्स्य, माँस, अण्डे एवं शहद का निषेध कर जैन आचार्यों ने जीवों के सरंक्षण के लिए प्राचीन काल से ही महत्वपूर्ण प्रयत्न किये है।
रासायनिक शस्त्रों का प्रयोग
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आज विश्व में आणविक एवं रासायनिक शस्त्रों में वृद्धि हो रही है और उनके परीक्षणों तथा युद्ध में उनके प्रयोगों के माध्यम से भी पर्यावरण में असंतुलन उत्पन्न होता है तथा वह प्रदूषित होता है । इनका प्रयोग न केवल मानवजाति के लिए, अपितु समस्त प्राणी - जाति के अस्तित्त्व के लिए खतरा है आज शस्त्रों की इस अंधी दौड़ में हम न केवल मानवता की, अपितु इस पृथ्वी पर प्राणी-जगत् की अन्त्येष्ठि हेतु चिता तैयार कर रहे हैं। भगवान महावीर ने इस सत्य को पहले ही समझ लिया था कि यह दौड़ मानवता की सर्व विनाशक होगी । आचारांग में उन्होंने कहा- 'अत्थि सत्थं परेणपरं - नत्थि असत्थं परेणपरं "" अर्थात् शस्त्रों में एक से बढ़कर एक हो सकते हैं, किन्तु अशस्त्र (अहिंसा) से बढ़कर कुछ नहीं है । निःशस्त्रीकरण का यह आदेश आज कितना सार्थक है, यह बतलाना आवश्यक नहीं है। यदि हमें मानवता के अस्तित्त्व की चिन्ता है, तो पर्यावरण के सन्तुलन का ध्यान रखना होगा एवं आणविक तथा रासायनिक शस्त्रों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाना होगा |
इस प्रकार हमें देखते हैं कि जैनधर्म में उसकी अहिंसक जीवन दृष्टि के आधार पर पर्यावरण के संरक्षण के लिए पर्याप्त रूप से निर्देश उपलब्ध हैं । उसकी दृष्टि में प्राकृतिक साधनों के असीम दोहन, जिनमें बड़ी मात्रा में भू-खनन, जल - अवशोषण, वायुप्रदूषण, वनों के काटने आदि के जो कार्य होते हैं, वे महारम्भ की कोटि में आते हैं, जिसको जैनधर्म में नरक गति का कारण बताया गया है। जैनधर्म का संदेश है- प्रकृति एवं प्राणियों का विनाश करके नहीं, अपितु उनका सहयोगी बनकर जीवन जीना ही मनुष्य का कर्त्तव्य है । प्रकृति विजय के नाम पर हमने जो प्रकृति के साथ अन्याय किया है, उसका दण्ड हमारी सन्तानों को न भुगतना पड़े, इसलिए आवश्यक है कि हम न केवल वन्य प्राणियों, पेड़-पौधों, अपितु जल, प्राणवायु, जीवन-ऊर्जा (अग्नि) और जीवन अधिष्ठान (पृथ्वी) के साथ भी सहयोगी बनकर जीवन जीना सीखें। उनके संहारक नहीं बनें, क्योंकि उनका संहार प्रकारान्तर से अपना की संहार है। दूसरे शब्दों में, उनकी हिंसा अपनी हिंसा है।
६४. समवायांगसूत्र, मधुकर मुनि, परिशिष्ट ६४६
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अध्याय - ९ अहिंसा और शाकाहार
मानव शाकाहारी प्राणी है
आहार मनुष्य के जीवन के अस्तित्व के लिए आवश्यक है, किन्तु मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है इसलिए उसे यह सोंचना होगा कि वह क्या खाए और क्या नहीं खाए ? पशु जगत् एवं वानस्पतिक जगत् का आहार उसकी अपनी शारीरिक संरचना के आधार पर प्राकृतिक रूप से ही निर्धारित होता है, अतः उसके लिए यह प्रश्न आवश्यक नहीं है कि वे क्या खाएं और क्या न खाएं? यह प्रश्न केवल मनुष्य के सन्दर्भ में ही खड़ा होता है कि वह क्या, कब और कितना खाए ? मनुष्य के सन्दर्भ में शाकाहार और मांसाहार के बीच निर्णय करने से पहले हमें यह देख लेना होगा कि प्रकृति ने मनुष्य की शारीरिक संरचना किस रूप में की है, उसके आधार पर ही हमें यह निर्णय करना होगा कि उसका आहार क्या हो सकता है? यदि हम शाकाहारी और मांसाहारी प्राणियों की शरीरिक संरचना की दृष्टि से विचार करें तो मानव के दांतों और दांतों की शारीरिक संरचना उसे एक शाकाहारी प्राणी सिद्ध करती है। उसके दाँत, उसके पंजे और उसकी आँतों की बनावट से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य एक शाकाहारी प्राणी है। मांसाहारी प्राणियों के दाँत नुकीले होते हैं ताकि वे अपने खाद्य को फाड़ सकें जबकि शाकाहारी प्राणियों के दाँतों की बनावट ऐसी होती है कि वह अपने खाद्य को केवल चबा सके या पीस सके । मांसाहारी प्राणियों के पंजे एवं नख भी ऐसे होते हैं जिससे वे अपने शिकार को फाड सकें जबकि शाकाहारी प्राणियों के पंजे और नख मात्र पकड़ने के योग्य होते हैं फाड़ने के योग्य नहीं होते हैं। मानव की आँतों की बनावट और उसमें अम्ल आदि की उत्पत्ति भी शाकाहारी पशुओं के समान ही होती है। प्राकृतिक रूप में तो यही सिद्ध होता है कि मनुष्य की दैहिक संरचना शाकाहारी है। एक मनुष्य शाकाहार पर अपना पूरा जीवन निकाल सकता है, किन्तु आज तक कोई भी मनुष्य पूर्णतः मांसाहार जीवन नहीं जिया है। जो राष्ट्र और समाज मांसाहारी हैं, वहाँ भी उनके आहार का ६०% भाग तो शाकाहार ही होता है। अतः मनुष्य के किए शाकाहार प्राकृतिक आहार है और मांसाहार प्रकृति विरुद्ध आहार है। शाकाहार का मनोविज्ञान
भारतीय परम्परा में यह लोकोक्ति प्रसिद्ध रही है कि 'जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन ।' दूसरे शब्दों में आहार का प्रभाव हमारी मनोवृत्तियों पर पड़ता है। तामसिक भोजन मनुष्य की मनोवृत्तियों को विकृत बनाता है। यही कारण रहा है कि प्राचीनकाल से ही भारतीय परम्परा में सात्विक भोजन को ही महत्त्व दिया गया है। अमेरिका के एक प्रमुख पत्र 'जनरल ऑफ क्रिमिनल जस्टिस एजूकेशन' में सन् १९९३ में अपराध विज्ञानी सी.रे. जेफरी का एक महत्त्वपूर्ण वक्तव्य प्रकाशित हुआ है। वे बताते हैं कि मस्तिष्क में सिरोटोमिन का स्तर कम होते ही व्यक्ति आक्रामक और क्रूर हो जाता है ।
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इस तथ्य की पुष्टि 'शिकागो ट्रिव्यून' में प्रकाशित एक आलेख से भी होती है। वैज्ञानिकों ने यह बताया है कि माँस अथवा प्रोटीनयुक्त वे भोज्य पदार्थ, जिनमें ट्रिप्टोफेन नामक अमीनो अम्ल नहीं होता है, उनके उपभोग से मस्तिष्क में सिरोटोमिन की कमी हो जाती है और उत्तेजक तंत्रिका संचारकों में वृद्धि हो जाती है। परिणामस्वरूप व्यक्ति के मस्तिष्क में तनाव बढ़ जाता है। तनावों के परिणामस्वरूप जहाँ एक ओर व्यक्ति स्वयं उद्वेलित रहता है, वहीं दूसरी ओर ये तनाव उसमें आपराधिक वृत्ति को जन्म देते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि तामसी एवं राजसी भोजन हमें हिंसक वृत्ति की ओर ले जाता है। फलतः वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में शान्ति समाप्त हो जाती है और हिंसक एवं आपराधिक प्रवृत्तियों को बल मिलता है।
शाकाहार और स्वास्थ्य
मनुष्य को आहार की आवश्यकता अपने को स्वस्थ रखने के लिए ही होती है अतः यह विचार भी आवश्यक है कि शाकाहार और मांसाहार में कौन हमारे स्वास्थ्य के लिए अधिक हितकर है ? विश्व स्वास्थ्य संगठन के बुलेटिन संख्या ६३७ में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख हुआ है कि मांस खाने से लगभग १६० बीमारियाँ हमारे शरीर में प्रविष्ट हो जाती हैं । मांसाहार जहाँ हमारे शरीर में व्याधियों को जन्म देता है, वहीं शाकाहार हमें न केवल उन व्याधियों से दूर रखता है अपितु अनेक व्याधियों की स्वत: ही चिकित्सा कर देता है, क्योंकि अधिकांश औषधियाँ वनस्पतियों से ही उत्पन्न होती हैं । वे वानस्पतिक उत्पाद हैं। मांसाहार के परिणामस्वरूप पशुओं की अनेक बीमारियाँ मनुष्यों में संक्रमित हो जाती हैं। मनुष्य की आँतें मांसाहार के पाचन में उतनी सक्षम नहीं हैं, फलतः मांसाहार अनेक बीमारियों को जन्म दे देता है। वैज्ञानिक गवेषणाओं से यह स्पष्ट हो गया है। शाकाहार जहाँ सुपाच्य है, वहीं मांसाहार दुष्पाच्य है। मानव आंते शाकाहार को २ घण्टे में पचा देती है, जबकि उतनी ही मात्रा के मांसाहार को पचाने में ४ से ५ घण्टे लगते है। आहार का सम्यक् पाचन नहीं होने से ही अनेक रोग जन्म लेते हैं । शाकाहार का अर्थशास्त्र
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सामान्यतया मांसाहार के सम्बन्ध में यह तर्क दिया जाता है कि वह सस्ता होता है और सहज उपलब्ध होता है, किन्तु अब यह सिद्ध हो चुका है कि एक पौण्ड माँस पैदा करने के लिए दस पौण्ड अनाज खर्च करना होता है। सामान्यतया मनुष्य जिन प्राणियों का माँस खाता है वे सब अधिकांशतया शाकाहारी है। उनसे अधिक माँस प्राप्त करने के लिए उन्हें जो भोजन दिया जाता है, वह अनाज ही होता है और यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि पशु के शरीर में यदि एक किलो माँस बढ़ाना है तो उसके लिए उस पर कम से कम दस किलो अनाज खर्च करना होगा। सामान्यतया मांस के लिए जिन पशुओं का उपयोग होता है, वे इसी धरती से अपना पोषण या इसी धरती से उत्पन्न वनस्पतियों से ही अपना पोषण करते हैं । आज आवश्यकता है कि मांसाहार
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और शाकाहार के अर्थशास्त्र को सम्यक् प्रकार से समझा जाए। यह कौन-सा आर्थिक सिद्धान्त होगा कि हम एक मांसाहारी के लिए नौ आदमियों को भुखमरी के लिए विवश करें। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि समुद्र और तालाबों से मछली पकड़ना एक प्रकार से लाभ का अर्थशास्त्र सिद्ध होता है । यहाँ भी यह समझना आवश्यक है कि मत्स्योत्पादन के लिए जिस भूमि और जल का उपयोग किया जा रहा है, उस भूमि और जल से शाकाहारी उत्पादनों को भी बढ़ाया जा सकता है। तालाबों में मछलियों के उत्पादन की अपेक्षा कमलगट्टों और सिंघाड़ों का उत्पादन अधिक लाभप्रद सिद्ध होता है। मछलियों को पकड़ने में जितना मानवीय श्रम खर्च होता है, यदि वही श्रम कृषि के क्षेत्र में किया जाए तो वह अधिक लाभकारी ही सिद्ध होगा। यदि मत्स्यउत्पादन और मछली पकड़ना लाभकारी व्यवसाय रहा होता, तो मत्स्योत्पादक और मछली पकड़नेवाले को कृषकों की अपेक्षा पूँजीपति होना चाहिए था, लेकिन आज भी उनकी जो आर्थिक स्थिति है, वह इस बात का स्पष्ट संकेत करती है कि कृषि की अपेक्षा मत्स्योत्पादन और मछली पकड़ना अधिक लाभप्रद नहीं है। अब तो विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है कि समुद्री जल में भी शाकाहारी उत्पादनों के लिए प्रयत्न किया जा सकता है।
मांसाहार के समर्थन में आज सामान्यतया यह तर्क दिया जाता है कि आगामी २५ वर्षों में खाद्यान्न की समस्या भयंकर रूप धारण कर लेगी, क्योंकि जनसंख्या जिस तेजी से बढ़ रही है, उसके लिए तथा मांसाहार के स्थान पर शाकाहार की प्रतिष्ठा करने के लिए आगामी २५ वर्षों में हमें खाद्यान्न की वर्तमान उपज को उससे ५०% अधिक बढ़ाना होगा । भूमि सीमित है और इसलिए खाद्यान्न की समस्या बनी, अत: मांसाहार ही उसका एक पूरक विकल्प हो सकता है किन्तु वैज्ञानिकों का कहना है कि मांसाहार के स्थान पर यदि वानस्पतिक उत्पादों का प्रयोग किया जाए तो अधिक व्यक्तियों को पोषण दिया जा सकता है, क्योंकि जैसा हम पूर्व में बता चुके हैं, इसका विकल्प शाकाहार ही है, क्योंकि मांस की प्राप्ति के लिए जो वानस्पतिक उत्पाद उन जानवरों को खिलाए जाते हैं, उनसे दशमांश ही हमें मांस प्राप्त होता है और इस प्रकार ९०% वानस्पतिक पोषण सामग्री व्यर्थ चली जाती है । वैज्ञानिकों का तो यहाँ तक कहना है कि वानस्पतिक उत्पादों की अपेक्षा मांस उत्पादन में जल का भी अधिक खर्च होता है और यह भी स्पष्ट है कि आगामी २५ वर्षों में न केवल अन्न का अपितु जल का भी संकट बढ़ने वाला है और यह स्पष्ट है कि शाकाहार को पचाने के लिए जितने जल की आवश्यकता होती है, उससे अधिक जल की आवश्यकता मांसाहार के पाचन के लिए आवश्यक होती है । शाकाहार और अहिंसक चेनता
यह स्पष्ट सत्य है कि मांसाहार का आधार प्राणी-जगत् या जीव जन्तु है, जबकि शाकाहार का आधार वनस्पतियाँ और अनाज हैं । यह निश्चित है कि मांसाहार
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बिना प्राणियों की हिंसा के उपलब्ध नहीं हो सकता । मांसाहार के लिए जीव-वध एक आवश्यक तथ्य है। आध्यात्मिक दृष्टि से प्राणियों के वध के साथ क्रूरता जुड़ी हुई है। बिना क्रूरता के वध सम्भव नहीं है। जबकि शाकाहार में अपेक्षाकृत रूप से क्रूरता का अभाव होता है यद्यपि यहाँ कोई व्यक्ति यह तर्क दे सकता है कि यदि जैन धर्म वनस्पति जगत् में भी जीवन के अस्तित्व को स्वीकार करता है, तो जिस प्रकार मांसाहार में जीवन का विनाश या हिंसा अपरिहार्य है, उसी प्रकार शाकाहार में भी हिंसा रही हुई है । हिंसा चाहे वनस्पति या पौधों की हो या प्राणियों की, हिंसा तो हिंसा ही है, अतः यह कहना कि शाकाहार अहिंसक है, युक्ति संगत नहीं है, किन्तु इस प्रकार के तर्क निरर्थक हैं, क्योंकि वनस्पति जगत् की हिंसा और पशु-जगत् की हिंसा में बहुत बड़ा अन्तर है। सामान्यतया मांसाहार के अन्तर्गत जिन प्राणियों का मांस खाया जाता है, वे सब विकसित और अपने जीवन का रक्षण करने में प्रयत्नशील प्राणी होते हैं, चाहे वे मूक प्राणी हों, किन्तु उनकी भावाभिव्यक्ति पूर्णतया सशक्त और स्पष्ट होती है। उनकी भावाभिव्यक्ति और उनके जीवन को बचाने के प्रयत्नों को खुली आँखों से पढ़ा जा सकता है। अत: करुणा को एक ओर रखकर ही उनकी हिंसा सम्भव होती है। वनस्पति जगत् की हिंसा में वैसे क्रूरता के भाव नहीं होते, जैसे पशु जगत् की हिंसा में होते हैं। अत: मांसाहार का सीधा सम्बन्ध क्रूर भावनाओं के साथ जुड़ा हुआ है। मांसाहार और क्रूरता सहगामी है। करुणा को समाप्त किए बिना हम मांसाहार के हिमायती नहीं बन सकते । किन्तु करुणा मानव जीवन का एक ऐसा आवश्यक तत्त्व है कि जिसके अभाव में मनुष्य एक दरिंदा या एक हिंसक पशु से भी बदतर बन जाता है। जिस देश, समाज और राष्ट्र में प्राणियों के क्रूरतापूर्वक वध का जितना समर्थन किया, वह समाज, देश या राष्ट्र उतना ही कलहप्रिय और संघर्षरत देखा गया है। मांसाहार के परिणामस्वरूप मनुष्य के जीवन में बर्बरता का विकास होता है फलत: संवेदनशीलता और करुणा समाप्त हो जाती है। संवेदनशीलता या करुणा मनुष्य का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य है। यदि मानव में संवेदनशीलता और करुणा के तत्त्व को जीवित रखना है,तो हमें मांसाहार को छोड़ना होगा। मनुष्य तभी तक मनुष्य है, जब तक उसके जीवन में संवेदनशीलता और करुणा है। यदि मानव जीवन से ये तत्त्व समाप्त हो जाएं, तो मनुष्य चाहे आकृति में मनुष्य बना रहे किन्तु वह एक पशु से भी बदतर होगा। दूसरे, संवेदनशीलता और करुणा के अभाव में मानवों में आपसी संघर्ष भी इतने अधिक बढ़ जायेंगे कि मानवजाति का अस्तित्व ही खतरे में होगा। शाकाहार और मांसाहार के बीच चुनाव करने से पूर्व मनुष्य को यह चुनाव कर लेना है कि वह मानव-जाति में समृद्धि, सुख, शान्ति, संवेदनशीलता, समता आदि सद्गुणों को जीवित रखना चाहता है या फिर हिंसा, तनाव, युद्ध, रक्तपात, क्रूरता आदि को अपनी विरासत में छोड़ना चाहता है।
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________________ 16 अटकपकरण Our Important Publications 1. Studies in Jaina Philosophy Dr. Nathamal Tatia 100.00 2. Jaina Temples of Western India Dr. Harihar Singh 200.00 3. Jaina Epistemology Dr. I.C. Shastri 150.00 4. Concept of Pancasila in Indian Thought Dr. Kamla Jain 50.00 5. Concept of Matter in Jaina Philosophy Dr. J.C. Sikdar 150.00 6. Jaina Theory of Reality Dr. J.C. Sikdar 150.00 7. Jaina Perspective in Philosophy & Religion Dr. Ramji Singh 100.00 8. Aspects of Jainology (Complete Set : Vols. 1 to 7) 2200.00 9. An Introduction to Jaina Sadhana Prof. Sagarmal Jain 40.00 10. Pearls of Jiana Wisdom Dulichand Jain 120.00 11. Scientific Contents in Prakrit Canons Dr. N.L. Jain 300.00 12. The Heritage of the Last Arhat : Mahavira Dr.C.Krause 20.00 13. The Path of Arhat T.U. Mehta 100.00 14. Multi-Dimensional Application of Anekantavada Ed. Prof. S.M. Jain & Dr. S.P. Pandey 500.00 15. The World of Non-living Dr.N.L. Jain 400.00 अनु.-डॉ.अशोक कुमार सिंह 200.00 17. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (सम्पूर्ण सेट सात खण्ड) 630.00 18. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास (सम्पूर्ण सेट चार खण्ड) 760.00 19. जैन प्रतिमा विज्ञान डॉ. मारुतिनन्दन तिवारी - 150.00 20. महावीर और उनके दशधर्म प्रो. भागचन्द्र जैन 80.00 21. वज्जालग्गं (हिन्दी अनुवाद सहित) पं. विश्वनाथ पाठक 80.00 22. प्राकृत हिन्दी कोश सम्पा.-डॉ. के.आर. चन्द्र 400.00 23. जैन धर्म और तान्त्रिक साधना प्रो. सागरमल जैन 350.00 24. गाथा सप्तशती (हिन्दी अनुवाद सहित) पं. विश्वनाथ पाठक 60.00 25. सागर जैन-विद्या भारती (तीन खण्ड) प्रो. सागरमल जैन 300.00 26. गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण प्रो. सागरमल जैन 60.00 27. भारतीय जीवन मूल्य प्रो. सुरेन्द्र वर्मा 75.00 28. नलविलासनाटकम सम्पा.- डॉ. सुरेशचन्द्र पाण्डे 60.00 29. अनेकान्तवाद और पाश्चात्य व्यावहारिकतावाद डॉ. राजेन्द्र कुमार सिंह 150.00 30. दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन डॉ. अशोक कुमार सिंह 125.00 31. पञ्चाशक-प्रकरणम् (हिन्दी अनुवाद सहित) अन.- डॉ. दीनानाथ शर्मा 250.00 32. सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय 100.00 33. जैनधर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएँ हीराबाई बोरदिया 34. मध्यकालीन राजस्थान में जैन धर्म डॉ. (श्रीमती) राजेश जैन 160.00 35. भारत की जैन गुफाएँ डॉ. हरिहर सिंह 150.00 36. महावीर की निर्वाणभूमि पावा : एक विमर्श भगवतीप्रसाद खेतान 65.00 37. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन डॉ. फूलचन्द जैन 80.00 38. जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन डॉ. शिवप्रसाद 100.00 39. बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैन दृष्टि से समीक्षा डॉ. धर्मचन्द्र जैन 200.00 40. अचलगच्छ का इतिहास डॉ. शिवप्रसाद 300.00 Parswanatha Vidyapitha, Varanasi-221005 INDIA 50.00