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________________ यही कारण था कि जैन-परम्परा में ईर्यापथिक क्रिया और ईर्यापथिक बन्ध की अवधारणा अस्तित्त्व में आयी। ये बाह्य रूप से चाहे क्रिया और बन्ध कहे जाते हों, किन्तु ये वस्तुतः बन्धन के नहीं, विमुक्ति के ही सूचक हैं। तीर्थंकर की लोककल्याण की समस्त प्रवृत्तियाँ भी ईर्यापथिक क्रिया और ईर्यापथिक बन्ध मानी गयी हैं। उनका प्रथम समय में बन्ध होता है और द्वितीय समय में निर्जरा हो जाती हैं। इस प्रकार वीतराग पुरूष की प्रवृत्ति रूप क्रिया के द्वारा जो आसव और बन्ध होता है, उसका स्थायित्व एक क्षण भी नहीं होता है। उत्तराध्ययनसूत्र (२५/४२) में कहा है कि जैसे गीली मिट्टी का गोला दीवाल पर फेंकने से चिपक जाता है, किन्तु सूखी मिट्टी का गोला नहीं चिपकता अपितु तत्क्षण गिर जाता है, उसी प्रकार की स्थिति वीतरागभाव या निष्काम भाव से की गयी क्रियाओं की होती है। उनसे जो आसव होता है, वह आत्मप्रदेशों से मात्र स्पर्शित होता है, वस्तुतः बन्धक नहीं होता। बन्धन का मूल कारण तो राग-द्वेष या कषायजन्य प्रवृत्ति है। अतः निष्काम भाव से लोक-मंगल के लिए दूसरों के दुःखहरण के हेतु सेवा, परोपकार आदि जो प्रवृत्ति की जाती है, वह क्रिया रूप होकर के भी बन्धक नहीं है और इस प्रकार जो लोग 'सकारात्मक अहिंसा' में बन्धन की सम्भावनाओं को देखते हैं, उनका चिन्तन सम्यक् नहीं हैं। तीर्थकरों की जीवन शैली और सकारात्मक अहिंसा जैन-परम्परा में तीर्थंकर का पद सर्वोच्च माना जाता है। उसकी श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में तीर्थकर नामकर्म उपार्जन के जिन कारणों की चर्चा हुई, उनमें हम देखते हैं कि सेवा और वात्सल्यमूलक प्रवृत्तियों को सबसे प्रमुख स्थान मिला है। उसमें वृद्ध, ग्लान-रूग्ण, बालक आदि की सेवा का स्पष्ट निर्देश है। यही नहीं परम्परागत रूप में तीर्थकर जीवन की जिन विशेषताओं की चर्चा की जाती है, उनमें हम पाते हैं कि प्रत्येक तीर्थकर दीक्षित होने के पूर्व एक वर्ष तक प्रतिदिन करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं का दान करते हैं। यह अवधारणा स्वतः ही इस तथ्य की सूचक है कि दान और सेवा की प्रवृत्ति तीर्थकरों के द्वारा आचरित एवं अनुमोदित है। जैन कथा-साहित्य में यह बताया गया है कि भगवान् शान्तिनाथ ने अपने पूर्वभव में एक कबूतर की रक्षा करते हुए अपने शरीर का मांस तक दे दिया था। इस प्रकार अन्य तीर्थकरों के जीवनवृत्तों में भी प्राणियों के जीवनरक्षण के साथ-साथ उनकी सेवा, दान आदि की प्रवृत्ति के उदाहरण देखे जा सकते हैं। स्वयं महावीर ने दीक्षित होने के पश्चात् न केवल निर्धन बाह्मण को अपना वस्त्र दान कर दिया, अपितु शीतलेश्या फेंक कर मिथ्यादृष्टि गोशालक की जीवन-रक्षा भी की। ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001695
Book TitleAhimsa ki Prasangikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2002
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ahimsa, & Principle
File Size5 MB
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