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यथार्थ नहीं। जैनदर्शन के अनुसार निर्वाण प्राप्ति के कुछ क्षण पूर्व के सांसारिक अस्तित्त्व को छोड़कर पूर्व निवृत्ति का आदर्श कभी भी यथार्थ नहीं बनता है। चाहे हम मुनि जीवन ही क्यों नहीं जीयें, पूर्ण अहिंसा का पालन तो वहाँ भी सम्भव नहीं है। शारीरिक गतिविधियों, श्वसन, आहार-विहार और शारीरिक मलों के विसर्जन आदि सभी में कहीं-न-कहीं हिंसा होती तो अवश्य है। यथार्थ जीवन में प्रवृत्ति से या क्रिया से पूर्ण रूप से निवृत्त हो पाना सम्भव ही नहीं है और यदि यह सम्भव नहीं है, तो ऐसी स्थिति में हमें प्रवृत्ति के उन रूपों को ही चुनना होगा, जिनमें हिंसा अल्पतम हो। जब प्रवृत्ति या हिंसा जीवन की एक अपरिहार्यता है, तो हमें यह विचारना होगा कि हमारी प्रवृत्ति की दशा ऐसी हो, जिसमें हिंसा कम-से-कम हो। वह हिंसा कर्म-आस्रव या कर्मबन्ध का हेतु न बने। यहीं से सकारात्मक अहिंसा को एक आधार मिलता है। सकारात्मक अहिंसा : विष मिश्रित दूध नहीं
सकारात्मक अहिंसा में निश्चित रूप से अंशतः हिंसा का कोई-न-कोई रूप समाविष्ट होता है, किन्तु उसे विष-मिश्रित दूध कहकर त्याज्य नहीं कहा जा सकता। उसमें चाहे हिंसा रूपी विष के कुछ कण उपस्थित हों, किन्तु ये विष-कण विषौषधी के समान मारक नहीं, तारक होते हैं। जिस प्रकार विष की मारक शक्ति को समाप्त करके उसे औषधी रूपी अमृत में बदल दिया जाता है, उसी प्रकार सकारात्मक अहिंसा में जो हिंसा या रागात्मकता के तत्त्व परिलक्षित होते हैं, उन्हें विवेकपूर्ण कर्त्तव्य भाव के द्वारा बन्धन के स्थान पर मुक्ति के साधन के रूप में बदला जा सकता है। जिस प्रकार विष से निर्मित औषधी अस्वास्थ्यकर न होकर आरोग्यप्रद ही होती है, उसी प्रकार सकारात्मक अहिंसा भी सामाजिक स्वास्थ्य के लिए आरोग्यकर ही होती है। जब हम अपने अस्तित्त्व के लिए, अपने जीवन के रक्षण के लिए प्रवृत्तिजन्य आंशिक हिंसा को स्वीकार कर लेते हैं, तो फिर हमारे इस तर्क का कोई आधार नहीं रह जाता कि हम सकारात्मक अहिंसा को इसलिए अस्वीकार करते हैं कि उसमें हिंसा का तत्त्व होता है और वह विष-मिश्रित दूध है। अपने अस्तित्त्व के लिए की गई हिंसा क्षम्य है, तो दूसरों के अस्तित्त्व या रक्षण हेतु की गई हिंसा क्षम्य क्यों नहीं होगी?
पुनः जब दूसरों के अस्तित्त्व के रक्षण के लिए की जाने वाली प्रवृत्तियों में रागात्मकता मानें, तो क्या अपने हेतु की गयी प्रवृत्ति में रागात्मकता नहीं होगी? हमें प्रवृत्ति या क्रिया को वह रूप देना होगा, जो बन्धन और हिंसा के स्थान पर विमुक्ति और अहिंसा से जुड़े। मात्र कर्तव्य बुद्धि से की गई परोपकार की प्रवृत्ति ही ऐसी है, जो हमारी प्रवृत्ति को बन्धक से अबन्धक बना सकती है।
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