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________________ ही प्रमुखता देते हैं। सूत्रकृतांग (१/११/१८-१६) में एक उल्लेख है कि जब मुनि से कोई गृहस्थ यह पूछे कि मैं दानशाला आदि बनवाना चाहता हूँ, इसमें आपकी क्या सम्मति है?, तो मुनि उस समय मौन रहे। सूत्रकार ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि मुनि उसकी उस प्रवृत्ति का निषेध करता है, तो वह उसके द्वारा जिन प्राणियों का कल्याण, हित एवं सुख होने वाला है, उसमें बाधक बनता है। यदि वह इस प्रवृत्ति का समर्थन करता है, तो अनाज, पानी, अग्नि आदि की हिंसा की अनुमोदना करता है, अतः दोनों ही स्थितियों में कहीं-न-कहीं हिंसा का कोई तत्त्व अवश्य ही रहता है। यही कारण था कि ऐसी स्थिति में उसे मौन रहने की सम्मति दी गयी। जैनागमों का यह प्रसंग एक ऐसा प्रसंग है, जिसे सामान्य रूप से अहिंसा के नकारात्मक पक्ष की पुष्टि हेतु प्रस्तुत किया जाता रहा है, किन्तु इस आधार पर जैनधर्म में अहिंसा की नकारात्मक व्याख्या को स्वीकार करना भी एक भ्रान्ति ही होगी, क्योंकि हिंसा के अल्प-बहुत्व के विचार के साथ-साथ जैन आगमों में ऐसे भी उल्लेख हैं, जो अनिवार्य हिंसा में अल्प हिंसा को वरेण्य मानते यह सत्य है कि सकारात्मक अहिंसा अर्थात् जीवन-रक्षण, सेवा, दान, परोपकार आदि के प्रयत्नों में कहीं-न-कहीं हिंसा का तत्त्व अवश्य उपस्थित रहता है, क्योंकि ये सब प्रवृत्यात्मक हैं। जहाँ प्रवृत्ति है, वहाँ क्रिया (योग) होगी; जहाँ क्रिया होगी, वहाँ आस्रव होगा और जहाँ आस्रव होगा, वहाँ बन्ध भी होगा। जहाँ बन्ध होगा, वहाँ हिंसा होगी; चाहे वह स्व-स्वरूप की हिंसा ही क्यों न हो। बस इस तर्क शैली ने अहिंसा की निषेधमूलक व्याख्या को बल दिया। प्रथम प्रश्न तो यह है कि क्या जैनधर्म एकान्त रूप से निवृत्यात्मक ही है? दूसरे, क्या समाधिमरण के अन्तिम क्षणों को छोड़कर जीवन में प्रवृत्ति का पूर्ण निषेध सम्भव है? क्या महावीर का उपदेश एकान्त रूप से निवृत्ति या श्रमण जीवन के लिए ही है? क्या जीवन के सभी रूप समान मूल्य एवं महत्त्व के हैं? जैन दर्शन की अनेकान्तिक दृष्टि । आयें इन प्रश्नों पर थोड़ी गम्भीरता से चर्चा करें। जैनधर्म और दर्शन मूलतः अनेकान्त दृष्टि पर अधिष्ठित है और अनेकान्त दृष्टि कभी भी एकपक्षीय नहीं होती। दूसरे, जब तक जीवन है, तब तक पूर्ण रूप से निवृत्ति सम्भव नहीं . है। प्रवृत्ति प्राणीय जीवन या हमारे जातीय अस्तित्त्व का लक्षण है। गीता (३/५) में भी कहा गया है कि जीवन में कोई भी क्षण ऐसा नहीं होता, जिसमें प्राणी कर्म या क्रिया से पूर्णतः निवृत्त होते हैं। प्रवृत्ति प्राणी-जीवन की अनिवार्यता है। जब तक हमारा सांसारिक अस्तित्त्व रहता है, कहीं-न-कहीं प्रवृत्ति होती ही रहती है। पूर्ण निवृत्ति का आदर्श चाहे कितना ही उच्च क्यों न हो, वह एक आदर्श ही है, ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001695
Book TitleAhimsa ki Prasangikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2002
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ahimsa, & Principle
File Size5 MB
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