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________________ I और कोई भी वाहन प्रयोग नहीं करने का नियम है, वह चाहे हास्यास्पद लगे, किन्तु पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने और मानव श्रम की दृष्टि से वह कितना उपयोगी है, इसे झुठलाया नहीं जा सकता। आज भी हमारी उपभोक्ता संस्कृति में हम एक ओर एक फलाग भी जाना हो तो वाहन की अपेक्षा रखते हैं, तो दूसरी ओर डॉक्टरों के निर्देश पर प्रतिदिन पाँच-सात किलोमीटर टहलते भी है । यह कैसी आत्मप्रवंचना है? एक ओर समय की बचत के नाम पर वाहनों का प्रयोग करना, तो दूसरी ओर प्रातः कालीन एवं सायंकालीन भ्रमणों में अपने समय का अपव्यय करना। यदि मनुष्य मध्यम आकार के शहरों में अपने दैनिन्दिन कार्यों में वाहन का प्रयोग न करें, तो उससे दोहरा लाभ होगा। एक ओर ईंधन एवं तत्सम्बन्धी खर्च बचेंगे, तो दूसरी ओर पर्यावरण प्रदूषण से बचेगा। साथ ही उसका स्वास्थ्य भी अनुकूल रहेगा। प्रकृति की ओर लौटने की बात आज चाहे परम्परावादी लगती हो, किन्तु एक दिन ऐसा आयेगा जब यह मानव अस्तित्त्व की एक अनिवार्यता होगी। आज यू. एस. ए. जैसे विकसित देशों में भी यह प्रवृत्ति प्रारम्भ हो गयी है । वनस्पति जगत् और पर्यावरण आचारांगसूत्र में वानस्पतिक जीवन की प्राणीय जीवन से तुलना करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार हम जीवन युक्त हैं और अनुकूल-प्रतिकूल, सुख-दुःखादि विविध संवेदनाओं की अनुभूति करते हैं, उसी प्रकार से वनस्पति जगत् भी जीवनयुक्त है और उसे भी अनुकूल-प्रतिकूल, सुख-दुःख आदि की अनुभूति होती है ।" किन्तु जिस प्रकार एक अंधा, पंगु, मूक एवं बधिर व्यक्ति पीड़ा का अनुभव करते हुए भी उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाता है, उसी प्रकार वनस्पति आदि अन्य जीव - निकाय भी पीड़ा का अनुभव तो करते हैं, किन्तु उसे व्यक्त करने में समर्थ नहीं होते। अतः व्यक्ति का प्रथम कर्त्तव्य यही है कि वह उनकी हिंसा एवं उनके अनावश्यक दुरूपयोग से बचे। जिस प्रकार हमें अपना ६०. वणस्सइजीवाणं माणुस्सेण तुलणा पदं से बेमि - Jain Education International इमपि जाइधम्मयं एयंपि जाइधम्मयं । इमपि बुड्ठिधम्मयं, एयंपि बुड्रिधम्मयं । इमपि चित्तमंतयं, एयंपि चित्तमंतयं । इमपि छिन्नं मिलाती, एयंपि छिन्नं मिलाति । इमपि आहारगं, एयंपि आहारगं । इमपि अणिच्चयं, एयंपि अणिच्चयं । इमपि असासयं, एयंपि असासयं । इमपि चयावचइयं, एयंपि चयावचइयं । इमपि विपरिणामधम्मयं एयंपि विपरिणामधम्मयं । आयारो, सं. आचार्य तुलसी, १/३२ ५७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001695
Book TitleAhimsa ki Prasangikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2002
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ahimsa, & Principle
File Size5 MB
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