________________
जीवन जीने का अधिकार है, उसी प्रकार उन्हें भी अपना जीवन जीने का
अधिकार है। अतः जीवन जहाँ कहीं भी और जिस किसी भी रूप में हो, उसका
-
सम्मान करना हमारा कर्त्तव्य है । प्रकृति की दृष्टि से एक पौधे का जीवन भी उतना ही मूल्यवान है, जितना मनुष्य का । पेड़-पौधे पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने में जितने सहायक हैं, उतना मनुष्य नहीं है। वह तो पर्यावरण को प्रदूषित ही करता है। वृक्षों एवं वनों के संरक्षण तथा वनस्पति के दुरूपयोग से बचने के सम्बन्ध में भी प्राचीन जैन साहित्य में अनेक निर्देश है। जैन परम्परा में मुनि के लिए तो हरित वनस्पति को तोड़ने व काटने की बात तो दूर, उसे स्पर्श करने का भी निषेध था । गृहस्थ उपासक के लिये भी हरित वनस्पति के उपयोग को यथाशक्ति सीमित करने का निर्देश है। आज भी पर्व तिथियों में हरित वनस्पति नहीं खाने के नियम का पालन अनेक जैन गृहस्थ करते हैं। कंद और मूल का भक्षण जैन - गृहस्थ के लिए निषिद्ध ही है । इसके पीछे यह तथ्य रहा कि यदि मनुष्य जड़ो का ही भक्षण करेगा तो पौधों का अस्तित्त्व ही खतरे में हो जायेगा और उनका जीवन समाप्त हो जायेगा । इसी प्रकार से उस पेड़ को, जिसका तना मनुष्य की बाँहों में न आ सकता हो, काटना मनुष्य की हत्या के बराबर दोष माना गया है। गृहस्थ उपासक के लिए जिन पन्द्रह निषिद्ध व्यवसायों का उल्लेख है, उसमें वनों को काटना भी निषिद्ध है ।" आचारांग में वनस्पति के शरीर की मानव शरीर से तुलना करके यही बतलाया गया है कि वनस्पति की हिंसा भी प्राणी हिंसा के समान हैं। इसी प्रकार वनों में आग लगाना, वनों को काटना आदि को गृहस्थ के लिए सबसे बड़ा पाप ( महारम्भ) माना गया है, क्योंकि उसमें न केवल वनस्पति की हिंसा होती है, अपितु अन्य वन्य जीवों की भी हिंसा होती है और पर्यावरण प्रदूषित होता है, क्योंकि वन वर्षा और पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के अनुपम साधन है। कीटनाशकों का प्रयोग
आज खेती में जो रसायनिक उर्वरकों और कीटनाशक दवाओं का उपयोग बढ़ता जा रहा है, वह भी हमारे भोजन में होने वाले प्रदूषण का कारण है। जैन परम्परा में गृहस्थ - उपासक के लिए खेती की अनुमति तो है, किन्तु किसी भी स्थिति में कीटनाशक दवाओं का उपयोग करने की अनुमति नहीं हैं, क्योंकि उससे छोटे-छोटे जीवों की उद्देश्यपूर्ण हिंसा होती है, जो उसके लिये निषिद्ध है इसी प्रकार गृहस्थ के लिए निषिद्ध पन्द्रह व्यवसायों में विशैले पदार्थों का व्यवसाय
1
६१. तं जहा इंगालकम्मे, वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, फोडीकम्मे, दंतवाणिज्जे, लक्खावाणिज्जे, रसवाणिज्जे, विसवाणिज्जे, केसवाणिज्जे, जंतपीलणकम्मे, निल्लंछणकम्मे, दवग्गिदावणया, सरदहतलायसोसणया, असईजणपोसणया । उपासकदशासूत्र, सं. मधुकर मुनि, १/५
५८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org