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________________ भी वर्जित है ।" अतः वह न तो कीटनाशक दवाओं का प्रयोग कर सकता है और न ही उनका क्रयप-विक्रय कर सकता है। महाराष्ट्र के एक जैन किसान ने प्राकृतिक पत्तों, गोबर आदि की खाद से तथा कीटनाशकों के उपयोग बिना ही 1. अपने खेतों में रिकार्ड उत्पादन करके सिद्ध कर दिया है कि रासायनिक उर्वरकों के उपयोग न तो आवश्यक है, न ही वाँछनीय; क्योंकि इससे न केवल पर्यावरण का संतुलन भंग होता है और वह प्रदूषित होता है, अपितु हमारे खाद्यान्न भी - विषयुक्त बनते हैं, जो हमारे स्वास्थ्य के लिये हानिकर होते हैं । रात्रिभोजन निषेध और प्रदूषणमुक्तता इसी प्रकार जैन परम्परा में जो रात्रिभोजन निषेध की मान्यता है", वह भी प्रदूषण मुक्तता की दृष्टि से एक वैज्ञानिक मान्यता है, जिससे प्रदूषित आहार शरीर में नहीं पहुँचता और स्वास्थ्य की रक्षा होती है। सूर्य के प्रकाश में जो भोजन पकाया और खाया जाता है, वह जितना प्रदूषण मुक्त एवं स्वास्थ्य वर्धक होता है, उतना रात्रि के अंधकार या कृत्रिम प्रकाश में पकाया गया भोजन नहीं होता है । यह तथ्य न केवल मनो- कल्पना है, बल्कि एक वैज्ञानिक सत्य है। जैनों ने रात्रि भोजन - निषेध के माध्यम से पर्यावरण और मानवीय स्वास्थ्य, दोनों के संरक्षण का प्रयत्न किया हैं। दिन में भोजन पकाना और खाना उसे प्रदूषण से मुक्त रखना है, क्योंकि रात्रि में एवं कृत्रिम प्रकाश में भोजन में विषाक्त सूक्ष्म प्राणियों के गिरने की सम्भावना प्रबल होती है । पुनः देर रात में किये गये भोजन का परिपाक भी सम्यक् रूपेण नहीं होता है। शिकार और मांसाहार आज जो पर्यावरण का संकट बढ़ता जा रहा है, उसमें वन्य-जीवों और जलीय जीवों का शिकार भी एक कारण है । आज जलीय जीवों की हिंसा के कारण जल प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। यह तथ्य सुस्पष्ट है कि मछलियाँ आदि जलीव-जीवों का शिकार जल- प्रदूषण का कारण बनता जा रहा है। इसी प्रकार कीट-पतंग एवं वन्य-जीव भी पर्यावरण के सन्तुलन का बहुत बड़ा आधार है । आज एक ओर वनों के कट जाने से उनके संरक्षण के क्षेत्र समाप्त होते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर फर, चमड़े, माँस आदि के लिए वन्य जीवों का शिकार बढ़ता जा रहा है। जैन परम्परा में कोई व्यक्ति तभी प्रवेश पा सकता है, जबकि वह शिकार व माँसाहार नहीं करने का व्रत लेता है। शिकार व माँसाहार नहीं करना ६२. तं जहा - इंगालकम्मे, वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, फोडीकम्मे, दंतवाणिज्जे, लक्खावाणिज्जे, रसवाणिज्जे, विसवाणिज्जे, केसवाणिज्जे, जंतपीलणकम्मे, निल्लंछणकम्मे, दवग्गिदावणया, सरदहतलायसोसणया, असईजणपोसणया । ६३. से वारिया इत्थि सरायमत्तं । उपासकदशासूत्र, सं. मधुकर मुनि, १/५ सूत्रकृतांगसूत्र, मधुकर मुनि, १/६/३७६ ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001695
Book TitleAhimsa ki Prasangikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2002
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ahimsa, & Principle
File Size5 MB
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