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________________ जैन गृहस्थ धर्म में प्रवेश की प्रथम शर्त है। मत्स्य, माँस, अण्डे एवं शहद का निषेध कर जैन आचार्यों ने जीवों के सरंक्षण के लिए प्राचीन काल से ही महत्वपूर्ण प्रयत्न किये है। रासायनिक शस्त्रों का प्रयोग 1 आज विश्व में आणविक एवं रासायनिक शस्त्रों में वृद्धि हो रही है और उनके परीक्षणों तथा युद्ध में उनके प्रयोगों के माध्यम से भी पर्यावरण में असंतुलन उत्पन्न होता है तथा वह प्रदूषित होता है । इनका प्रयोग न केवल मानवजाति के लिए, अपितु समस्त प्राणी - जाति के अस्तित्त्व के लिए खतरा है आज शस्त्रों की इस अंधी दौड़ में हम न केवल मानवता की, अपितु इस पृथ्वी पर प्राणी-जगत् की अन्त्येष्ठि हेतु चिता तैयार कर रहे हैं। भगवान महावीर ने इस सत्य को पहले ही समझ लिया था कि यह दौड़ मानवता की सर्व विनाशक होगी । आचारांग में उन्होंने कहा- 'अत्थि सत्थं परेणपरं - नत्थि असत्थं परेणपरं "" अर्थात् शस्त्रों में एक से बढ़कर एक हो सकते हैं, किन्तु अशस्त्र (अहिंसा) से बढ़कर कुछ नहीं है । निःशस्त्रीकरण का यह आदेश आज कितना सार्थक है, यह बतलाना आवश्यक नहीं है। यदि हमें मानवता के अस्तित्त्व की चिन्ता है, तो पर्यावरण के सन्तुलन का ध्यान रखना होगा एवं आणविक तथा रासायनिक शस्त्रों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाना होगा | इस प्रकार हमें देखते हैं कि जैनधर्म में उसकी अहिंसक जीवन दृष्टि के आधार पर पर्यावरण के संरक्षण के लिए पर्याप्त रूप से निर्देश उपलब्ध हैं । उसकी दृष्टि में प्राकृतिक साधनों के असीम दोहन, जिनमें बड़ी मात्रा में भू-खनन, जल - अवशोषण, वायुप्रदूषण, वनों के काटने आदि के जो कार्य होते हैं, वे महारम्भ की कोटि में आते हैं, जिसको जैनधर्म में नरक गति का कारण बताया गया है। जैनधर्म का संदेश है- प्रकृति एवं प्राणियों का विनाश करके नहीं, अपितु उनका सहयोगी बनकर जीवन जीना ही मनुष्य का कर्त्तव्य है । प्रकृति विजय के नाम पर हमने जो प्रकृति के साथ अन्याय किया है, उसका दण्ड हमारी सन्तानों को न भुगतना पड़े, इसलिए आवश्यक है कि हम न केवल वन्य प्राणियों, पेड़-पौधों, अपितु जल, प्राणवायु, जीवन-ऊर्जा (अग्नि) और जीवन अधिष्ठान (पृथ्वी) के साथ भी सहयोगी बनकर जीवन जीना सीखें। उनके संहारक नहीं बनें, क्योंकि उनका संहार प्रकारान्तर से अपना की संहार है। दूसरे शब्दों में, उनकी हिंसा अपनी हिंसा है। ६४. समवायांगसूत्र, मधुकर मुनि, परिशिष्ट ६४६ Jain Education International ६० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001695
Book TitleAhimsa ki Prasangikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2002
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ahimsa, & Principle
File Size5 MB
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