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________________ अध्याय - ९ अहिंसा और शाकाहार मानव शाकाहारी प्राणी है आहार मनुष्य के जीवन के अस्तित्व के लिए आवश्यक है, किन्तु मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है इसलिए उसे यह सोंचना होगा कि वह क्या खाए और क्या नहीं खाए ? पशु जगत् एवं वानस्पतिक जगत् का आहार उसकी अपनी शारीरिक संरचना के आधार पर प्राकृतिक रूप से ही निर्धारित होता है, अतः उसके लिए यह प्रश्न आवश्यक नहीं है कि वे क्या खाएं और क्या न खाएं? यह प्रश्न केवल मनुष्य के सन्दर्भ में ही खड़ा होता है कि वह क्या, कब और कितना खाए ? मनुष्य के सन्दर्भ में शाकाहार और मांसाहार के बीच निर्णय करने से पहले हमें यह देख लेना होगा कि प्रकृति ने मनुष्य की शारीरिक संरचना किस रूप में की है, उसके आधार पर ही हमें यह निर्णय करना होगा कि उसका आहार क्या हो सकता है? यदि हम शाकाहारी और मांसाहारी प्राणियों की शरीरिक संरचना की दृष्टि से विचार करें तो मानव के दांतों और दांतों की शारीरिक संरचना उसे एक शाकाहारी प्राणी सिद्ध करती है। उसके दाँत, उसके पंजे और उसकी आँतों की बनावट से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य एक शाकाहारी प्राणी है। मांसाहारी प्राणियों के दाँत नुकीले होते हैं ताकि वे अपने खाद्य को फाड़ सकें जबकि शाकाहारी प्राणियों के दाँतों की बनावट ऐसी होती है कि वह अपने खाद्य को केवल चबा सके या पीस सके । मांसाहारी प्राणियों के पंजे एवं नख भी ऐसे होते हैं जिससे वे अपने शिकार को फाड सकें जबकि शाकाहारी प्राणियों के पंजे और नख मात्र पकड़ने के योग्य होते हैं फाड़ने के योग्य नहीं होते हैं। मानव की आँतों की बनावट और उसमें अम्ल आदि की उत्पत्ति भी शाकाहारी पशुओं के समान ही होती है। प्राकृतिक रूप में तो यही सिद्ध होता है कि मनुष्य की दैहिक संरचना शाकाहारी है। एक मनुष्य शाकाहार पर अपना पूरा जीवन निकाल सकता है, किन्तु आज तक कोई भी मनुष्य पूर्णतः मांसाहार जीवन नहीं जिया है। जो राष्ट्र और समाज मांसाहारी हैं, वहाँ भी उनके आहार का ६०% भाग तो शाकाहार ही होता है। अतः मनुष्य के किए शाकाहार प्राकृतिक आहार है और मांसाहार प्रकृति विरुद्ध आहार है। शाकाहार का मनोविज्ञान भारतीय परम्परा में यह लोकोक्ति प्रसिद्ध रही है कि 'जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन ।' दूसरे शब्दों में आहार का प्रभाव हमारी मनोवृत्तियों पर पड़ता है। तामसिक भोजन मनुष्य की मनोवृत्तियों को विकृत बनाता है। यही कारण रहा है कि प्राचीनकाल से ही भारतीय परम्परा में सात्विक भोजन को ही महत्त्व दिया गया है। अमेरिका के एक प्रमुख पत्र 'जनरल ऑफ क्रिमिनल जस्टिस एजूकेशन' में सन् १९९३ में अपराध विज्ञानी सी.रे. जेफरी का एक महत्त्वपूर्ण वक्तव्य प्रकाशित हुआ है। वे बताते हैं कि मस्तिष्क में सिरोटोमिन का स्तर कम होते ही व्यक्ति आक्रामक और क्रूर हो जाता है । ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001695
Book TitleAhimsa ki Prasangikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2002
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ahimsa, & Principle
File Size5 MB
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