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करना हो, तो हमें चुनाव अल्प हिंसा का ही करना होगा और इसमें भी हिंसा का अल्प-बहुत्व प्राणियों की संख्या पर नहीं, उनके ऐन्द्रिक विकास पर ही निर्भर करेगा।
यदि हम एक ओर यह माने कि अपने जीवन-रक्षण हेतु हम एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा कर सकते हैं और उसका हमें अधिकार है और दूसरी ओर यह कहें कि चूँकि दूसरे प्राणियों के रक्षण, पोषण, सेवा आदि की प्रवृत्तियों में एकेन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा जुड़ी हुई है, अतः वे त्याज्य हैं, तो यह आत्म-प्रवंचना ही होगी। गृहस्थ जीवन में तो क्या मुनि-जीवन में भी कोई व्यक्ति एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से पूर्णतः नहीं बच सकता है। अतः एकेन्द्रिय जीवों अर्थात् पृथ्वी, पानी, वनस्पति आदि की हिंसा से बचने के नाम पर अहिंसा के सकारात्मक पक्ष की अवहेलना न तो उचित है और न नैतिक ही।
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