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इसलिए यह मानना कि सकारात्मक अहिंसा में बाह्य रूप से हिंसा की घटना होती है, अतः वह अनुचित है-एक भ्रान्त दृष्टिकोण है। हिंसा की घटना घटित होने पर भी यदि कर्ता ने वह कर्म मात्र कर्तव्य बुद्धि से किया है, उसके मन में दूसरे को पीडा पहुँचाने का भाव नहीं है, तो वह हिंसक नहीं माना जा सकता। जो कर्म विवेकपूर्वक और निष्काम भाव से किये जाते हैं, उनमें हिंसा अल्प या अत्यल्प होती है। भावना या रागात्मकता की स्थिति में भी जो प्रशस्त राग-भाव है, उसमें हिंसा अल्प मानी गई है।
हिंसा-अहिंसा के अल्प-बहुत्व के विचार के सन्दर्भ में दूसरा दृष्टिकोण यह है कि यदि दो हिंसाओं के विकल्प में एक का चुनाव करना हो, तो हमें अल्प हिंसा को चुनना होगा और उस अल्प हिंसा का आधार जैन आचार्यों ने प्राणियों की संख्या न मान कर उनके ऐन्द्रिक विकास को माना है। यदि हजारों एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा और एक पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा में हिंसा के अल्प-बहुत्व का निर्णय करना हो, तो जैनाचार्यों की दृष्टि में हजारों एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा की अपेक्षा एक पंचेन्द्रिय प्राणी की हिंसा अधिक भयंकर मानी गयी है। हिंसा-अहिंसा के सन्दर्भ में अन्य विचारणीय तथ्य यह है कि हिंसा आत्मा की नहीं होती है। चाहे आत्मा सबकी समान हो, किन्तु प्राणशक्ति का विकास सबमें एक समान नहीं है। एकेन्द्रिय में चार प्राण हैं, किन्तु मनुष्य में दस प्राण हैं। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने स्पष्ट रूप से कहा है कि हिंसा का सम्बन्ध प्राणशक्ति के वियोजन से है (प्रमत्तयोगात् प्राण व्यपरोपण हिंसा) और यदि सभी जीवों में प्राणशक्ति का विकास समान नहीं है, तो हिंसा-अहिंसा के क्षेत्र में अल्प बहुत्त्व का विचार करना होगा।
स्वयं महावीर के युग में भी यह प्रश्न उपस्थित हुआ था कि अनेक एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा एक पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा में कौन-सी हिंसा अल्प है? उनके युग में हस्ति-तापसों का एक वर्ग था, जो यह कहता था कि हम तो वर्ष में केवल एक हाथी को मारते हैं और उसके माँस से पूरे वर्ष अपनी आजीविका की पूर्ति करते हैं। इस प्रकार हम सबसे कम हिंसा करते हैं (सूत्रकृतांग २/६/५३-५४)। इस विचारधारा का स्वयं महावीर ने खण्डन किया और बताया कि यह अवधारणा भ्रांत है। भगवतीसूत्र में इस प्रश्न पर और भी अधिक गम्भीरता से विचार हुआ है। उसमें बताया गया है कि अनेक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा की अपेक्षा पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा और उनमें भी एक ऋषि की हिंसा अधिक निकृष्ट होती है (भगवतीसूत्र ६/३४/१०६-१०७)। अतः जैन दृष्टिकोण से हिंसा का अल्प-बहुत्व प्राणियों की संख्या पर नहीं, उनके एकेन्द्रिय एवं आध्यात्मिक विकास पर निर्भर करता है। जब चुनाव दो हिंसाओं के बीच
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