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________________ हम किसी त्रस प्राणी के जीवन-रक्षण का कोई प्रयत्न करते हैं, तो हमें न केवल वनस्पतिकाय की, अपितु पृथ्वीकाय, अपकाय आदि की हिंसा से जुड़ना होगा। इस संसार में जीवन जीने की व्यवस्था ही ऐसी है कि जीवन का एक रूप दूसरे रूप के आश्रित है और उस दूसरे रूप की हिंसा के बिना हम प्रथम रूप को जीवित नहीं रख सकते। यह समस्या प्राचीन जैनाचार्यों के समक्ष भी आयी थी। इस समस्या का समाधान उन्होंने अपने हिंसा के अल्प-बहुत्व के सिद्धान्त के आधार पर किया। हिंसा के अल्प-बहुत्व की यह अवधारणा मुख्यतः दो दृष्टि से विचारित की गयी है- प्रथमतः उस हिंसा-अहिंसा के पीछे रही हुई मनोवृत्ति या प्रेरक तत्त्व के आधार पर और प्राणवध के बाह्यस्वरूप के आधार पर। पुनः प्रेरक तत्त्व भी दो प्रकार का हो सकता है - १. विवेक पर आधारित और २. भावना पर आधारित। विवेक पर आधारित कर्म के प्रेरक तत्त्व या मनोभूमिका में मूलतः यह बात देखी जाती है कि वह कर्म क्यों किया जा रहा है? कर्त्तव्य-बुद्धि से रागात्मकता के अभाव में जो कर्म किये जाते हैं, वे ईर्यापथिक होते हैं। दूसरे शब्दों में उनके द्वारा होने वाला बन्धन, बन्धन नहीं होता है। इसके विपरीत जो कर्म स्वार्थपूर्ति के लिए होते हैं, वे कर्मबन्धक होते हैं। यह सम्भव है कि व्यक्ति द्वारा अपने कर्त्तव्य का पालन करने समय हिंसा हो या उसे हिंसा करनी पड़े, किन्तु राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठकर मात्र कर्त्तव्य के परिपालन में होने वाली हिंसा बंधक या अनुचित नहीं होगी। उदाहरण के रूप में जैन मुनि आवश्यक क्रिया करते समय, प्रतिलेखन करते समय या पद यात्रा करते समय जो शारीरिक क्रियायें करते हैं, उसमें हिंसा तो होती ही है। चाहे कितनी ही सावधानी क्यों न रखी जाय, ये सभी क्रियायें हिंसा से रहित नहीं हैं, फिर भी इन्हें मुक्ति का ही साधन माना जाता है, बन्धन का कारण नहीं। व्यवहारिक क्षेत्र में न्यायाधीश समाज-व्यवस्था और अपने देश के कानून के अन्तर्गत कर्त्तव्य बुद्धि से अपराधी को दण्ड देता है, यहाँ तक कि मृत्युदण्ड भी देता है। क्या हम न्यायाधीश को मनुष्य की हत्या का दोषी मानेंगे? वह तो अपने नियम और कर्तव्य से बँधा होने के कारण ही ऐसा करता है, अतः उसके आदेश में हिंसा की घटना होने पर भी वह हिंसक नहीं माना जाता। अतः मनोभूमिका की दृष्टि से जब तक अन्तर में कषाय भाव या द्वेष-बुद्धि न हो तब तक बाह्य रूप में घटित हिंसा की क्रिया न तो बन्धक होती है और न अनुचित। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट रूप से कहा था कि, "बाहर में हिंसा की घटना घटित हो या न हो, प्रमत्त या कषाययुक्त व्यक्ति नियमतः हिंसक ही होता है।" इसके विपरित बाह्य रूप से हिंसा की घटना घटित होने पर भी कषायरहित अप्रमादी मुनि नियमतः अहिंसक ही होता है, ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001695
Book TitleAhimsa ki Prasangikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2002
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ahimsa, & Principle
File Size5 MB
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