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________________ सिद्धान्त भी इसी दृष्टिकोण के कारण अस्तित्त्व में आये। इन सभी की जीवन-दृष्टि हिंसक रही। इन्होंने विनाश से विकास का मार्ग चुना। आज पूर्व से पश्चिम तक इसी जीवन-दृष्टि का बोल-बाला है। जीवन के दूसरे रूपों का विनाश करके मानव के अस्तित्त्व को बचाने के प्रयत्न होते रहे हैं, किन्तु अब विज्ञान की सहायता से इस जीवन-दृष्टि का खोखलापन सिद्ध हो चुका है। अब विज्ञान यह बताता है कि जीवन के दूसरे रूपों का अनवरत विनाश करके हम मानव का अस्तित्त्व भी नहीं बचा सकते हैं। इस सम्बन्ध में जैनों ने ही एक दूसरी जीवन-दृष्टि का उद्घोष किया था। आज से लगभग अठारह सौ वर्ष पूर्व आचार्य उमास्वाति ने एक सूत्र प्रस्तुत किया - 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् अर्थात् जीवन एक दूसरे के सहयोग पर आधारित है। विकास का मार्ग हिंसा या विनाश नहीं, अपितु परस्पर सहकार है। एक-दूसरे के पारस्परिक सहकार या सहयोग पर ही जीवन-यात्रा चलती है। जीवन के दूसरे रूपों के सहकारी बनकर ही हम अपना जीवन जी सकते हैं। प्राणी-जगत् पारस्परिक सहयोग पर आश्रित है। हमें अपना जीवन जीने के लिये वनस्पति जगत के सहयोग की अपेक्षा है, तो वनस्पति जगत को अपना जीवन जीने के लिए हमारे सहयोग की आवश्यकता है। वनस्पति से निःसृत ऑक्सीजन, फल, अन्न आदि से हमारा जीवन चलता है, तो हमारे द्वारा निःसृत कार्बनडाईऑक्साईड एवं मल-मूल आदि से उनका जीवन चलता है। हम जीवन जीने के लिये जीवन के दूसरे रूपों का सहयोग तो ले सकते हैं, किन्तु उनके विनाश का हमें अधिकार नहीं है, क्योंकि उनके विनाश में हमारा भी विनाश निहित है। दूसरे की हिंसा वस्तुतः हमारी ही हिंसा है, इसलिये आचारांग में कहा गया था - जिसे तू मारना चाहता है, वह तो तू ही है, - क्योंकि यह तो तेरे अस्तित्त्व का आधार है। सहयोग लेना और दूसरों को सहयोग करना यही प्राणी जगत की आदर्श स्थिति है। जीवन कभी भी दूसरों के सहयोग के बिना नहीं चलता है। जिसे हम दूसरों के सन्दर्भ में अपना अधिकार मानते हैं, वही दूसरों के प्रति हमारा कर्तव्य भी है, इसे हमें नहीं भूलना है। सर्वत्र जीवन की उपस्थिति की कल्पना, उसके प्रति अहिंसक दृष्टि का परिणाम यह हुआ कि जैन आचार्यों ने जीवन के विविध रूपों की हिंसा और उनके दुरूपयोग को रोकने हेतु आचार के अनेक विधि-निषेधों का प्रतिपादन किया। आगे हम जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ५८. परस्परोपग्रहो जीवानाम्, तत्त्वार्थसूत्र, उमास्वाति, ५/२१ ५६. तुमंसि नाम सच्चेव जं 'हतत्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'अज्जावेयव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'परितावेयव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'परिघेतव्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'उदवेयव्वं' ति मन्नसि। आयारो, ५/१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001695
Book TitleAhimsa ki Prasangikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2002
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ahimsa, & Principle
File Size5 MB
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