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छठा धर्मादेश है - 'Thou shall not kill' अर्थात् 'तुम किसी को मत मारो'। वस्तुतः यहूदी धर्म में न केवल हिंसा करने का निषेध किया गया, अपितु प्रेम, सेवा और परोपकार जैसे अहिंसा के विधायक पक्षों पर भी बल दिया गया है।
यहूदी धर्म के पश्चात् ईसाई धर्म का क्रम आता है। इस धर्म के प्रस्तोता हजरत ईसा माने जाते हैं। यह सत्य है कि ईसामसीह ने ओल्ड टेस्टामेन्ट में वर्णित दस धर्मादेशों को स्वीकार किया, किन्तु मात्र इतना ही नहीं, उनकी व्याख्या में उन्होंने अहिंसा की अवधारणा को अधिक व्यापक बनाया है। वे कहते हैं - “पहले ऐसा कहा गया है कि किसी की हत्या मत करो....लेकिन मैं कहता हूँ कि बिना किसी कारण अपने भाई से नाराज मत होओ।" इससे भी एक कदम
और आगे बढ़कर वे कहते हैं कि “यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर तमाचा मार देता है, तो दूसरा गाल भी उसके सामने कर दो। यदि कोई तुम्हारा कोट लेना चाहता है, तो तुम अपना अंगरखा भी दे दो। पुराना धर्मादेश कहता है - पड़ोसी से प्यार करो और शत्रु से घृणा करो, मैं तुमसे कहता हूँ कि शत्रु से भी प्यार करो। जो तुम्हे शाप दे उसे वरदान दो, जो तुम्हारा बुरा करे, उसका भला करो।" ईसा के इन कथनों से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने यहूदी धर्म की अपेक्षा भी अहिंसा पर अधिक बल दिया है और उसके निषेधात्मक पक्ष कि 'हत्या मत करो' की अपेक्षा 'करूणा, प्रेम, सेवा' आदि विधायक पक्षों को अधिक महत्त्व दिया है।
इस्लाम धर्म में कुरान के प्रारम्भ में ईश्वर (खुदा) के गुणों का उल्लेख करते हुए उसे उदार और दयावान (रहमानुर्रहीम) कहा गया है। उसमें बिना किसी उचित कारण के किसी को मारने का निषेध किया गया है और जो ऐसा करता है वह ईश्वरीय नियम के अनुसार प्राणदण्ड का भागी बनता है। मात्र यही नहीं, उसमें पशुओं को कम भोजन देना, उन पर क्षमता से अधिक बोझ लादना. सवारी करना आदि का भी निषेध किया गया है, यहाँ तक कि हरे पेड़ों के काटने की भी सख्त मनाही की गई है। इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि इस्लाम धर्म में भी अहिंसा की भावना को स्थान मिला है।
इस प्रकार हम देखते है कि प्रायः विश्व के सभी प्रमुख धर्मों में अहिंसा की अवधारणा उपस्थित है।
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