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________________ जैन धर्म में अहिंसा जैनधर्म में अहिंसा को धर्म का सार तत्त्व कहा गया है। इस सम्बन्ध में आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, मूलाचार आदि अनेक ग्रन्थों में ऐसे हजारों उल्लेख हैं, जो जैनधर्म की अहिंसा प्रधान जीवन- दृष्टि का सम्पोषण करते हैं। इस सम्बन्ध में आगे विस्तार से चर्चा की गई है। यहाँ हम मात्र दो तीन सन्दर्भ देकर अपने इस कथन की पुष्टि करेंगे। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो। - दशवैकालिक १/१ अर्थात् अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म ही सर्वश्रेष्ठ मंगल है। सूत्रकृतांग में कहा गया है - एयं खु णाणिणो सारं जं ण हिंसति कंचण। अहिंसा समयं चेव एतावंतं वियाणिया।। - सूत्रकृतांग ११/१० ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी जीव की हिंसा नहीं करते। अहिंसा ही धर्म (सिद्धान्त) है- यह जानना चाहिये। अन्यत्र कहा गया है - सब्वे जीवा वि इच्छन्ति जीविउं न मरिज्जिउं। तम्हा पाणवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंतिणं ।। अर्थात् सभी सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है। इसीलिए निर्ग्रन्थ प्राणी वध (हिंसा) का निषेध करते है। सिक्खधर्म में अहिंसा ___ भारतीय मूल के अन्य भागों में सिक्खधर्म का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस धर्म के धर्मग्रन्थ में प्रथम गुरु नानकदेवजी कहते हैं -- जे रत लग्गे कपडे जामा होए पलीत। जे रत पीवे मांसा तिन क्यों निर्मल चित्त।। अर्थात् यदि रक्त के लग जाने से वस्त्र अपवित्र हो जाता है, तो फिर जो मनुष्य मांस खाते हैं या रक्त पीते हैं, उनका चित्त कैसे निर्मल या पवित्र रहेगा? अन्य धर्मों में अहिंसा न केवल भारतीय मूल के धर्मों में अपितु भारतीयेतर यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्मों में भी अहिंसा के स्वर मुखर हुए हैं। यहूदी धर्म के धर्मग्रन्थ Old Testament में पैगम्बर मोजेज ने जिन दस धर्मादेशों का उल्लेख किया है, उनमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001695
Book TitleAhimsa ki Prasangikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2002
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ahimsa, & Principle
File Size5 MB
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