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________________ अध्याय-३. भारतीय धर्मों में अहिंसा का स्थान. अहिंसा जैन आचार-दर्शन का प्राण है। अहिंसा वह धुरी है जिस पर समग्र जैन आचार-विधि घूमती है। जैनागमों में अहिंसा को भगवती कहा गया है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि, “भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषितों को जैसे जल, भूखों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे औषध और वन में जैसे सार्थवाह का साथ आधारभूत है, वैसे ही अहिंसा प्राणियों के लिए आधारभूत है। अहिंसा चर एवं अचर, सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। वह शाश्वत धर्म है, जिसका उपदेश तीर्थकर करते हैं। आचारांगसूत्र में कहा गया है- "भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी अर्हत यह उपदेश करते हैं कि किसी भी प्राण, भूत, जीव और सत्व को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए, न किसी का हनन करना चाहिए। यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत् धर्म है। समस्त लोक की पीड़ा को जानकर अर्हतों ने इसका प्रतिपादन किया है। सूत्रकृतांगसूत्र के अनुसार "ज्ञानी होने का सार यह है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। अहिंसा ही समग्र धर्म का सार है, इसे सदैव स्मरण रखना चाहिए। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि "सभी प्राणियों के हित साधन में अहिंसा के सर्वश्रेष्ठ होने से महावीर ने इसको प्रथम स्थान दिया है। अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है।"" आचार्य अमृतचन्द्रसूरि के अनुसार तो जैन आचार-विधि का सम्पूर्ण क्षेत्र अहिंसा से व्याप्त है, उसके बाहर उसमें कुछ है ही नहीं। सभी नैतिक नियम और मर्यादाएँ इसके अन्तर्गत हैं; आचार-नियमों के दूसरे रूप जैसे असत्य भाषण नहीं करना, चोरी नहीं करना आदि तो जनसाधारण को सुलभ रूप से समझाने के लिए भिन्न-भिन्न नामों से कहे जाते हैं, वस्तुतः वे सभी अहिंसा के ही विभिन्न पक्ष हैं।" जैन-दर्शन में अहिंसा वह आधार वाक्य है जिससे आचार के सभी नियम निर्गमित होते हैं। 'भगवतीआराधना' में कहा गया है-अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है, सब शास्त्रों का गर्भ (उत्त्पत्ति स्थान) है।" ६. प्रश्नव्याकरणसूत्र, २।१।२१।२२. ७. आचारांग, १।४।१।१२७. ८. सूत्रकृतांग, १।४।१०. ६. दशवैकालिक, ६६. १०. भक्तपरिज्ञा, ६१. ११. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, ४२. १२. भगवती-आराधना, ७६०. १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001695
Book TitleAhimsa ki Prasangikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2002
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ahimsa, & Principle
File Size5 MB
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