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बौद्धधर्म में अहिंसा का स्थान
बौद्ध-दर्शन के दश शीलों में अहिंसा का स्थान प्रथम है । चतुःशतक में कहा है कि तथागत ने संक्षेप में केवल 'अहिंसा', इन अक्षरों में धर्म का वर्णन किया है।" बुद्ध ने हिंसा को अनार्य कर्म कहा है । वे कहते हैं कि जो प्राणियों की हिंसा करता है, वह आर्य नहीं होता, सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा का पालन करने वाला ही आर्य कहा जाता है । *
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बुद्ध हिंसा एवं युद्ध के नीतिशास्त्र के घोर विरोधी हैं । धम्मपद में कहा गया है- विजय से वैर उत्पन्न होता है । पराजित दुःखी होता है। जो जय-पराजय को छोड़ चुका है, उसे ही सुख है, उसे ही शान्ति है ।
अंगुत्तरनिकाय में यह बात और अधिक स्पष्ट कर दी गयी है। हिंसक व्यक्ति जगत् में नारकीय जीवन का और अहिंसक व्यक्ति स्वर्गीय जीवन का सृजन करता है। वे कहते हैं- “भिक्षुओं, तीन धर्मों से युक्त प्राणी ऐसा होता है, जैसे लाकर नरक में डाल दिया गया हो।" कौन से तीन ? " स्वयं प्राणी हिंसा करता है, दूसरे प्राणी को हिंसा की ओर घसीटता है और प्राणी - हिंसा का समर्थन करता है। भिक्षुओं, इन तीन धर्मों से युक्त प्राणी ऐसा ही होता है, जैसे लाकर नरक में डाल दिया गया हो ।”
“भिक्षुओं, तीन धर्मों से
युक्त प्राणी ऐसा होता है, जैसे लाकर स्वर्ग में डाल दिया गया हो।" कौन से तीन ? " स्वयं प्राणी हिंसा से विरत रहता है, दूसरे को प्राणी-हिंसा की ओर नहीं घसीटता और प्राणी - हिंसा का समर्थन नहीं करता ।"" बौद्धधर्म के महायान सम्प्रदाय में करूणा और मैत्री की भावना का जो चरम उत्कर्ष देखा जाता है, उसकी पृष्ठभूमि में यही अहिंसा का सिद्धान्त रहा है। हिन्दूधर्म में अहिंसा का स्थान
गीता में अहिंसा का महत्त्व स्वीकृत करते हुए उसे भगवान् का ही भाव कहा गया है। उसे दैवी सम्पदा एवं सात्विक तप भी कहा है। महाभारत में तो जैन विचारणा के समान ही अहिंसा में सभी धर्मों को अन्तर्भूत मान लिया गया है। यही नहीं, उसमें धर्म के उपदेश का उद्देश्य भी प्राणियों को हिंसा से विरत करना है । अहिंसा ही धर्म का सार है । महाभारतकार का कथन है कि, “प्राणियों
१३. चतुःशतक, २६८.
१४. धम्मपद, २७०.
१५. धम्मपद, २०१.
१६. अंगुत्तरनिकाय, ३।१५३.
१७. गीता, १०।५-७, १६२, १७११४.
१८. महाभारत, शान्ति पर्व, २४५ ।१६.
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