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की हिंसा न हो, इसलिए धर्म का उपदेश दिया गया है, अतः जो अहिंसा युक्त है, वही धर्म है।"""
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लेकिन प्रश्न यह हो सकता है कि गीता में बार-बार अर्जुन को युद्ध करने के लिए कहा गया है, फिर गीता को अहिंसा की समर्थक कैसे माना जाए ? इस सम्बन्ध में गीता के व्याख्याकारों के दृष्टिकोणों को समझ लेना आवश्यक है । आद्य टीकाकार आचार्य शंकर 'युद्धस्व ( युद्ध कर ) ' शब्द की टीका में लिखते हैंयहाँ (उपर्युक्त कथन से) युद्ध की कर्तव्यता का विधान नहीं है। इतना ही नहीं, आचार्य 'आत्मौपम्येन सर्वत्र' के आधार पर गीता में अहिंसा के सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं - 'जैसे मुझे सुख प्रिय है वैसे ही वह सभी प्राणियों को अनुकूल है और जैसे दुःख मुझे अप्रिय या प्रतिकूल है। वैसे ही सब प्राणियों को अप्रिय, प्रतिकूल है, इस प्रकार जो सब प्राणियों में अपने समान ही सुख और दुःख को तुल्य भाव से अनुकूल और प्रतिकूल देखता है, किसी के भी प्रति प्रतिकूल आचरण नहीं करता, वही अहिंसक है। इस प्रकार का अहिंसक पुरूष पूर्ण ज्ञान में स्थित है, वह सब योगियों में परम उत्कृष्ट माना जाता है ।" "
और तमस् गुणों के कहती है । ( फिर वह
महात्मा गांधी भी गीता को अहिंसा का प्रतिपादक ग्रन्थ मानते हैं । उनका कथन है- " गीता की मुख्य शिक्षा हिंसा नहीं, अहिंसा है। 'हिंसा' बिना क्रोध, आसक्ति एवं घृणा के नहीं होती और गीता हमें सत्त्व, रज रूप में घृणा, क्रोध आदि अवस्थाओं से ऊपर उठने को हिंसा की समर्थक कैसे हो सकती है) ।” डॉ. राधाकृष्णन् भी गीता को अहिंसा का प्रतिपादक ग्रन्थ मानते हैं । वे लिखते हैं - "कृष्ण अर्जुन को युद्ध करने का परामर्श देता है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह युद्ध की वैधता का समर्थन कर है । युद्ध तो एक ऐसा अवसर आ पड़ा है; जिसका उपयोग गुरू उस भावना की ओर संकेत करने के लिए करता है, जिस भावना के साथ सब कार्य, जिनमें युद्ध भी सम्मिलित है, किये जाने चाहिए। यह हिंसा या अहिंसा का प्रश्न नहीं है, अपितु अपने उन मित्रों के विरूद्ध हिंसा के प्रयोग का प्रश्न है, जो अब शत्रु बन गये हैं। युद्ध के प्रति उसकी हिचक आध्यात्मिक विकास या सत्त्वगुण की प्रधानता का परिणाम नहीं है, अपितु अज्ञान और वासना की उपज है। अर्जुन इस बात को स्वीकार करता है कि वह दुर्बलता और अज्ञान के वशीभूत हो गया है। गीता हमारे सम्मुख जो आदर्श उपस्थित करती है, वह अहिंसा का है और यह बात
रहा
१६. महाभारत, शान्ति पर्व, १०६।१२.
२०. गीता (शांकर भाष्य), २।१८.
२१. गीता, ६ । ३२.
२२. दि भगवद्गीता एण्ड चेंजिंग वर्ल्ड, पृ. १२२.
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