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सातवें अध्याय में व्यक्ति की मन, वचन और कर्म की एकरूपता के और बारहवें अध्याय में भक्त की मनोदशा के वर्णन से स्पष्ट हो जाती है। कृष्ण अर्जुन को आवेश या दुर्भावना के बिना, राग या द्वेष के बिना युद्ध करने को कहता है और यदि हम अपने मन को ऐसी स्थिति में ले जा सकें, तो हिंसा असम्भव हो जाती
है
इस प्रकार स्पष्ट है कि गीता हिंसा की समर्थक नहीं है । मात्र अन्याय के प्रतिकार के लिए अद्वेषबुद्धिपूर्वक विवशता में कर्तव्यवश हिंसा करने का जो समर्थन गीता में दिखाई पड़ता है, उससे यह नहीं कहा जा सकता कि गीता हिंसा की समर्थक है। अपवाद के रूप में हिंसा का समर्थन नियम नहीं बन जाता। ऐसा समर्थन तो हमें जैन और बौद्ध आगमों में भी उपलब्ध हो जाता है ।
अहिंसा का आधार
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अहिंसा की भावना के मूलाधार के सम्बन्ध में विचारकों में कुछ भ्रान्त धारणाओं को प्रश्रय मिला है, अतः उस पर सम्यक्रूपेण विचार कर लेना आवश्यक है। मेकेन्जी ने अपने ग्रन्थ 'हिन्दूएथिक्स में इस भ्रान्त विचारणा को प्रस्तुत किया है कि अहिंसा की अवधारणा का विकास भय के आधार पर हुआ है । वे लिखते हैं - " असभ्य मनुष्य जीव के विभिन्न रूपों को भय की दृष्टि से लेकिन कोई भी
देखते थे और भय की यह धारणा ही अहिंसा का मूल है।" प्रबुद्ध विचारक मेकेन्जी की इस धारणा से सहमत नहीं होगा ।
आचारांग में अहिंसा के सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक आधार पर स्थापित करने का प्रयास किया गया है। उसमें अहिंसा को आर्हत प्रवचन का सार और शुद्ध एवं शाश्वत् धर्म बताया गया है। सर्वप्रथम हमें यह विचार करना है कि अहिंसा को ही धर्म क्यों माना जाय ? सूत्रकार इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक उत्तर प्रस्तुत करता है। वह कहता है कि सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, पुनः सभी को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है।" अहिंसा का अधिष्ठान, यही मनोवैज्ञानिक सत्य है। अस्तित्व और सुख की चाह प्राणीय स्वभाव है। जैन विचारकों ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर अहिंसा को स्थापित किया है । अहिंसा का आधार 'भय' मानना गलत है, क्योंकि भय के सिद्धान्त को यदि अहिंसा का आधार बनाया जायेगा तो व्यक्ति केवल सबल की हिंसा से विरत होगा, निर्बल की हिंसा से नहीं। जिससे भय होगा उसी के प्रति अहिंसक बुद्धि बनेगी, जबकि जैनधर्म तो सभी प्राणियों के प्रति यहाँ तक कि वनस्पति, जल और
२३. भगवद्गीता (रा.), पृ. ७४-७५.
२४. हिन्दू एथिक्स, मेकेन्जी
२५. अज्झत्थ जाणइ से बेहिया जाणई एयं तुल्लमन्नसिं, १1१1७.
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