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मित्र-भाव की कामना की गई हो, किन्तु वेदों की यह अहिंसक चेतना भी मानवजाति तक ही सीमित रही है। मात्र इतना ही नहीं, वेदों में अनेक ऐसे प्रसंग हैं, जिनमें शत्रु वर्ग के विनाश के लिए प्रार्थनाएँ भी की गई हैं। यज्ञों में पशुबलि स्वीकृत रही और वेद विहित हिंसा को हिंसा की कोटि में नहीं माना गया। इस प्रकार उसमें धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा का समर्थन ही किया गया । वेदों में अहिंसा की अवधारणा का अर्थविस्तार उतना ही है जितना कि यहूदी और इस्लाम धर्म मे । वैदिक धर्म की पूर्व-परम्परा में भी अहिंसा का सम्बन्ध मानव जाति तक ही सीमित रहा । ' मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' का उद्घोष तो हुआ, लेकिन व्यवहारिक जीवन में वह मानव-प्राणी से अधिक ऊपर नहीं उठ सका। इतना ही नहीं, एक ओर पूर्ण अहिंसा के बौद्धिक आदर्श की बात और दूसरी ओर मांसाहार की लालसा एवं रूढ़ परम्पराओं के प्रति अंध आस्था ने अपवाद का एक नया आयाम खड़ा किया और कहा गया कि ' वेदविहित हिंसा हिंसा नहीं है ।" श्रमण परम्पराएँ इस दिशा में और आगे आयीं और उन्होंने अहिंसा की व्यवहारिकता का विकास समग्र प्राणी-जगत तक करने का प्रयास किया और इसी आधार पर वैदिक हिंसा की खुल कर आलोचना भी की गई। कहा गया कि यदि यूप के छेदन करने से और पशुओं की हत्या करने से और खून का कीचड़ मचाने से ही स्वर्ग मिलता हो, तो फिर नर्क में कैसे जाया जावेगा ? यदि हनन किया गया पशु स्वर्ग को जाता है, तो फिर यजमान अपने माता-पिता की बलि ही क्यों नहीं दे देता?' अहिंसक चेतना का सर्वाधिक विकास हुआ है श्रमण परम्परा में। इसका मुख्य कारण यह था कि गृहस्थ जीवन में रहकर पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार कर पाना सम्भव नहीं था । जीवनयापन अर्थात् आहार, सुरक्षा आदि के लिए हिंसा आवश्यक तो है ही, अतः उन सभी धर्म परम्पराओं में जो मूलतः निवृत्तिपरक या संन्यासमार्गीय नहीं थीं, अहिंसा को उतना अर्थविस्तार प्राप्त नहीं हो सका जितना श्रमणधारा या संन्यासमार्गीय परम्परा में सम्भव था । यद्यपि श्रमण परम्पराओं के द्वारा हिंसापरक यज्ञ-यागों की आलोचना और मानवीय विवेक एवं संवेदनशीलता के विकास का एक परिणाम यह हुआ कि वैदिक परम्परा में भी एक ओर वेदों के पशुहिंसापरक पदों का अर्थ अहिंसक रीति से किया जाने लगा ( महाभारत के शान्तिपर्व में राजा वसु का आख्यान - अध्याय ३३७-३३८ इसका प्रमाण है), तो दूसरी ओर धार्मिक जीवन के लिए कर्मकाण्ड को अनुपयुक्त मानकर औपनिषदिक धारा के रूप में ज्ञान-मार्ग का और भागवत् धर्म के रूप में
१. " वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति".
२. अभिधान राजेन्द्रकोष, खण्ड ७, पृ. १२२६
३. भारतीय दर्शन (दत्त एवं चटर्जी), पृ. ४३ पर उद्धृत.
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