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________________ सकारात्मक अहिंसा को केवल इसलिए अस्वीकार करना कि उसमें कहीं न कहीं हिंसा का तत्त्व होता है, किन्तु दूसरी ओर अपने अथवा अपने संघ और समाज के अस्तित्त्व के लिए अपवादों की सर्जना करना न्यायिक दृष्टि से संगत नहीं है। यदि हम यह स्वीकार करते हैं कि किसी मुनि के वैयक्तिक जीवन अथवा मुनि संघ के अस्तित्त्व के लिए अहिंसा के क्षेत्र में कुछ अपवाद मान्य किये जा सकते हैं, तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि लोककल्याण या प्राणिकल्याण के लिए जो ‘प्रवृत्तियाँ संचालित की जाती हैं, उनमें भी अहिंसा के कुछ अपवाद मान्य किये जा सकते हैं। पुनः जो गृहस्थ षड्जीव-निकाय की नवकोटिपूर्ण अहिंसा का व्रत ग्रहण नहीं करता है और जो न केवल अपने लिए, अपितु अपने परिजनों के लिए एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से पूर्णतः विरत नहीं है अथवा जो त्रस प्राणी की संकल्पजा हिंसा को छोड़कर आरम्भजा, उद्योगजा और विरोधजा हिंसा का पूर्ण त्यागी नहीं है, उसे दूसरे जीवों के रक्षण-पोषण और उनकी पीड़ा के निवारण के प्रयत्नों को केवल यह कहकर नकारने का कोई अधिकार नहीं है कि उनमें हिंसा होती है। इस हिंसा के भय से सकारात्मक अहिंसा की अवहेलना करना योग्य नहीं है। वह गृहस्थ के लिए एक कर्त्तव्य है और उसे निष्काम भाव से उसे करना सकारात्मक अहिंसा में घटित हिंसा, हिंसा है फिर भी यह आवश्यक है कि हम ऐसी हिंसा को हिंसा के रूप में समझते रहें, अन्यथा हमारा करूणा का स्त्रोत सूख जायेगा। विवशता में चाहे हमें हिंसा करनी पड़े, किन्तु उसके प्रति आत्मग्लानि और हिंसित के प्रति करूणा की धारा सूखने नहीं पावे, अन्यथा वह हिंसा हमारे स्वभाव का अंग बन जावेगी, जैसे- कसाई बालक में। हिंसा-अहिंसा के विवेक का मुख्य आधार मात्र यही नहीं है कि हमारा हृदय कषाय से मुक्त हो, किन्तु यह भी है कि हमारी संवेदनशीलता जागृत रहे, हृदय में दया और करूणा की धारा प्रवाहित होती रहे। हमें अहिंसा को हृदय-शून्य नहीं बनाना है, क्योंकि यदि हमारी संवेदनशीलता जागृत बनी रही तो निश्चय ही हम जीवन में हिंसा की मात्रा को अल्पमत करते हुए पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध कर सकेंगे, साथ ही हमारी अहिंसा विधायक बनकर मानव समाज में सेवा और सहयोग की गंगा भी बहा सकेगी। साथ ही जब अपरिहार्य बन गई दो हिंसाओं में से किसी एक को चुनना अनिवार्य हो, तो हमें अल्प-हिंसा को चुनना होगा। कौन-सी हिंसा अल्प-हिंसा होगी, यह निर्णय देश-काल, परिस्थिति आदि अनेक बातों पर निर्भर करेगा। यहाँ जीवन की मूल्यवत्ता को भी आंकना होगा। जीवन की यह मूल्यवत्ता दो बातों पर ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001695
Book TitleAhimsa ki Prasangikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2002
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ahimsa, & Principle
File Size5 MB
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