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राग-भाव है, जिसमें द्वेष का कोई अंश ही नहीं होता है। जिसमें संसार के समस्त प्राणी 'स्व' ही होते हैं, 'पर' कोई भी नहीं होता है। वस्तुतः ऐसा राग, राग ही नहीं होता है। राग सदैव द्वेष के सहारे जीवित रहता है। द्वेष, स्वार्थ और प्रत्युपकार की आकांक्षा से रहित जो राग-भाव है, वह सार्वभौमिक प्रेम होता है। वही आत्मीयता है और यह आत्मीयता ही सामाजिकता का आधार है। से घृणा, विद्वेष और आक्रामकता की वृत्तियाँ सदैव ही सामाजिकता की विरोधी होती हैं। वे हिंसा का ही दूसरा रूप है। ये वृत्तियाँ जब भी बलवती होंगी, सामाजिकता की भावना ही समाप्त हो जाएगी, समाज ढह जायेगा। समाज जब भी खड़ा होगा, तब वह न तो हिंसा के आधार पर खड़ा होगा और न मात्र निषेधमूलक निरपेक्ष अहिंसा के आधार पर। वह हमेशा सकारात्मक अहिंसा के आधार पर ही खड़ा होगा। यद्यपि हमें यहाँ स्मरण रखना चाहिये कि जिस प्रकार सकारात्मक अहिंसा के सम्पादन में निरपेक्ष अहिंसा का परिपालन सम्भव नहीं है, उसी प्रकार सामाजिक जीवन में भी निरपेक्ष अहिंसा या पूर्ण अहिंसा का परिपालन सम्भव नहीं है।
समाज-जीवन का आधार, जो सकारात्मक अहिंसा है, वह सापेक्ष अहिंसा या सापवादिक अहिंसा है। समाज-जीवन के लिए समाज के सदस्यों के हितों के संरक्षण का प्रश्न मुख्य है और जहाँ अस्तित्त्व की सुरक्षा और हितों के संरक्षण का प्रश्न होता है, वहाँ निरपेक्ष अहिंसा सम्भव नहीं होती। समाज-जीवन में हितों में टकराहट स्वाभाविक है। अनेक बार एक हित, दूसरे के अहित पर ही निर्भर करता है। ऐसी स्थिति में समाज-जीवन में या संघीय जीवन में पूर्ण अहिंसा का आदर्श साकार नहीं हो पाता है, उसमें अपवाद को मान्य करना ही होता है। जब वैयक्तिक हितों और सामाजिक हितों में संघर्ष की स्थिति हो, तो हम पूर्ण अहिंसा के आदर्श की दुहाई देकर तटस्थ द्रष्टा नहीं बने रह सकते हैं। जब वैयक्तिक
और सामाजिक हितों में संघर्ष हो तो हमें समाज-हित में वैयक्तिक हितों का बलिदान करना ही होता है, फिर चाहे वे हित हमारे स्वयं के हों या किसी अन्य के। जब कोई समाज, राष्ट्र या उसका कोई सदस्य या वर्ग अपने क्षुद्र हितों की पूर्ति के लिए हिंसा अथवा अन्याय पर उतारू हो जाय, तो निश्चय ही पूर्ण अहिंसा की दुहाई देकर तटस्थ द्रष्टा बनें रहने से कोई काम नहीं चलेगा। जब तक जैनाचार्यों द्वारा उद्घोषित सम्पूर्ण मानव जीवन की एकता की कल्पना पूर्ण साकार नहीं होती है, जब तक सम्पूर्ण समाज अहिंसा के पालन के लिए प्रतिबद्ध नहीं होता है, तब तक मानव समाज में पूर्ण अहिंसा या निरपेक्ष अहिंसा के परिपालन का दावा करना सम्भव नहीं है।
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