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की बाह्य प्रवृत्ति भी हो सकती है, किन्तु वह यथार्थ रूप में बन्धन का हेतु नहीं है। यदि हम ऐसी प्रवृत्तियों को बन्धन रूप मानेंगे तो फिर तीर्थकर की लोक-कल्याणकारी प्रवृत्तियों अर्थात् लोकमंगल के लिए विहार और उपदेश के कार्य को भी बन्धन का हेतु मानना होगा, किन्तु आगम के अनुसार उपदेश संसार के जीवों के रक्षण के लिए होता है, वह बन्धन का निमित्त नहीं होता है। निष्काम कर्म हिंसक नहीं ।
___ इस समग्र चर्चा से यह फलित होता है कि पुण्य कर्म यदि मात्र कर्त्तव्य बुद्धि से अथवा राग-द्वेष से ऊपर उठकर किये जाते हैं, तो वे हिंसक नहीं हैं। पुण्य बन्ध का कारण केवल तभी बनता है, जब वह रागभाव से युक्त होता है। ज्ञातव्य है कि अपने किसी परिजन के रक्षण के प्रयत्नों की और मार्ग में चलते हुए पीड़ा से तड़पते किसी प्राणी के रक्षण के प्रयत्नों की मनोभूमिका कभी भी एक ही स्तर की नहीं होती है। प्रथम स्थिति में रक्षण के समस्त प्रयत्न रागभाव से या ममत्वबुद्धि से प्रतिफलित होते हैं, जबकि दूसरी स्थिति में आत्मतुल्यता के आधार पर परपीड़ा का स्व-संवेदन होता है और यह परपीड़ा का स्व-संवेदन अथवा कर्तव्य बुद्धि ही व्यक्ति को परोपकार या पुण्य कर्म हेतु प्रेरित करती है। जैन परम्परा में सम्यक्दृष्टि जीव के आचरण के सम्बन्ध में कहा गया
सम्यक् दृष्टि जीवडा करे कुटुम्ब प्रतिपाल। अन्तर सू न्यारो रहे ज्यूं धाय खिलावे बाल।।
यह अनासक्त दृष्टि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः अलिप्तता और निष्कामता ही एक ऐसा तत्त्व है, जो किसी कर्म की बन्धक शक्ति को समाप्त कर देता है। जहाँ अलिप्तता है, निष्कामता है, वीतरागता है, वहाँ बन्धन एवं हिंसा नहीं। जिस पुण्य को बन्धन कहा जाता है, वह पुण्य रागात्मकता में संपृक्त पुण्य है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि विश्व में समस्त प्रवृत्तियाँ राग से ही प्रेरित होती हैं। अनेक प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं जो मात्र कर्त्तव्य बुद्धि से फलित होती हैं। दूसरे की पीड़ा हमारी पीड़ा इसलिए नहीं बनती है कि उसके प्रति हमारा रागभाव होता है, अपितु आत्मतुल्यता का बोध ही हमारे द्वारा उसकी पीड़ा के स्व-संवेदन का कारण होता है। जब किसी शहर में पीड़ा से तड़पते किसी मानव को सड़क पर पड़ा हुआ देखते हैं, तो हम करूणार्द्र हो उठते हैं। यहाँ कौन-सा रागभाव होता है? जो लोग दूर-दराज के गाँवों में जाकर चिकित्सा शिविर लगवाते हैं, उनमें जो भी आते हैं, क्या उनके प्रति शिविर लगवाने वाले व्यक्ति का कोई राग-भाव होता है? वह तो यह भी नहीं जानता है कि उसमें कौन लोग आयेंगे, फिर उन अज्ञात लोगों के प्रति उसमें राग-भाव कैसे हो सकता है? अतः यह एक भ्रान्त धारणा है
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