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________________ प्रयास के निर्जरित हो जाता है। ज्ञातव्य है कि पाप के बन्ध की निर्जरा करना होती है। पुण्य तो स्वतः निर्जरित हो जाता है। - जैन धर्म के कर्म सिद्धान्त में जितनी भी पुण्य प्रकृतियाँ मानी गई हैं, वे सभी अघानी कर्मों की हैं, अर्थात् पुण्य कमों से आत्मा के स्व-स्वभाव का घात नहीं होता है, उनके आधार पर जन्म-मरण की परम्परा आगे नहीं बढ़ती है। वे संसार परिभ्रमण के कारण नहीं है। ___ यह सत्य है कि यदि सेवा, परोपकार और जीवों के रक्षण के पीछे रागात्मकता का भाव है, तो वे बन्धन के कारण हैं, किन्तु सेवा, परोपकार और जीवों के रक्षण की सभी प्रवृत्तियाँ रागात्मकता से प्रेरित होकर नहीं होती हैं, अपितु वे परपीड़ा के स्व-संवेदन के कारण भी होती हैं। जब दूसरों के प्रति आत्मवत् दृष्टि का विकास हो जाता है, तो उनकी पीड़ा हमारी पीड़ा बन जाती है और ऐसी स्थिति में जिस प्रकार अपनी पीड़ा को दूर करने के प्रयत्न होते हैं, उसी प्रकार दूसरों की पीड़ा को दूर करने के भी प्रयत्न होते हैं। ज्ञानात्मक दृष्टि से आत्मतुल्यता का विचार और भावात्मक दृष्टि से परपीड़ा का स्व-संवेदन स्वाभाविक रूप से लोक-कल्याण की प्रवृत्तियों को अर्थात् रक्षण, सेवा, दान, परोपकार आदि को जन्म देते हैं। अतः यह मानना भ्रान्त है कि लोक-कल्याण की सभी प्रवृत्तियों के पीछे राग-भाव होता है। व्यवहारिक जीवन में भी ऐसे अनेक अवसर होते हैं, जब दूसरे प्राणी की पीड़ा से हमारी अन्तरात्मा करूणाई हो जाती है और हम उसकी पीड़ा को दूर करने के प्रयत्न करते हैं। वहाँ रागात्मकता नहीं होती है। वहाँ केवल विवेक-बुद्धि और परपीड़ा के स्व-संवेदन से उत्पन्न कर्त्तव्यता का भाव ही होता है, जो उस सकारात्मक अहिंसा का प्रेरक होता है। दूसरों के प्रति रागात्मकता में और कर्त्तव्य-बोध में बड़ा अन्तर होता है। राग के साथ द्वेष अवश्य रहता है, जबकि कर्त्तव्य-बोध में उसका अभाव होता है। किसी राहगीर की पीड़ा से जो हृदय द्रवित होता है, वह राग के कारण नहीं, अपितु परपीड़ा के स्व-संवेदन या आत्मतुल्यता के भाव के कारण होता है। पालतू कुत्ते की पीड़ा को दूर करने में और किसी सड़क पर पड़े कुत्ते की पीड़ा को दूर करने में अन्तर हैं। पहले में रागभाव है, दूसरे में मात्र परपीड़ा का आत्मसंवेदन। जब दूसरों के रक्षण, पोषण, सेवा और परोपकार के कार्य मात्र कर्त्तव्य बुद्धि अथवा परपीड़ा के आत्मसंवेदन से होते हैं, तो उनमें रागात्मकता का तत्त्व नहीं होता और यह सुस्पष्ट है कि रागात्मकता के अभाव में चाहे कोई क्रिया कर्मानव का कारण भी बनें, तो भी वह बन्धन कारक नहीं हो सकती, क्योंकि उत्तराध्ययन (३२/७) आदि जैन ग्रन्थों में बन्धन का मुख्य कारण राग और द्वेष की वृत्तियाँ ही मानी गयी हैं। दूसरों के रक्षण और सम्पोषण के प्रयत्नों में चाहे किसी सीमा तक हिंसा ४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001695
Book TitleAhimsa ki Prasangikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2002
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ahimsa, & Principle
File Size5 MB
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