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________________ पृथ्वी, अग्नि, वायु वनस्पति आदि सभी में जीव हैं। ऐसा कोई मनुष्य नहीं जो इन्हें नहीं मारता हो । पुनः कितने ही ऐसे सूक्ष्म प्राणी हैं, जो इन्द्रियों से नहीं अनुमान से जाने जाते हैं, मनुष्य की पलकों के झपकने मात्र से ही जिनके कंधे टूट जाते हैं, अतः जीव - हिंसा से बचा नहीं जा सकता। एक ओर षट्जीवनिकाय की अवधारणा और दूसरी ओर नवकोटियुक्त पूर्ण अहिंसा का आदर्श, जीवित रहकर इन दोनों में संगति बिठा पाना अशक्य है। अतः जैन आचार्यों को भी यह कहना पड़ा कि अनेकानेक जीव-समूहों से परिव्याप्त विश्व में साधक का अहिंसकत्व अन्तर में आध्यात्मिक विशुद्धि की दृष्टि से ही है ( ओघनिर्युक्ति, ७४७), लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि हम अहिंसा को अव्यवहार्य मानकर तिलांजलि दे देंवें । यद्यपि एक शरीरधारी के नाते यह हमारी विवशता है कि हम द्रव्य और भाव दोनों की अपेक्षा से पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध नहीं कर सकते हैं, किन्तु उस दिशा में क्रमशः आगे बढ़ सकते हैं और जीवन की पूर्णता के साथ ही पूर्ण अहिंसा के आदर्श को भी उपलब्ध कर सकते हैं। कम से कम हिंसा की दिशा में आगे बढ़ते हुए साधक के लिए जीवन का अन्तिम क्षण अवश्य ही ऐसा है, जब वह पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार कर सकता है। जैनधर्म की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो पादोपगमन संथारा एवं चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान की अवस्थाएँ ऐसी हैं, जिनमें पूर्ण अहिंसा का आदर्श साकार हो जाता है । पूर्ण अहिंसा सामाजिक सन्दर्भ में पुनः अहिंसा की सम्भावना पर हमें न केवल वैयक्तिक दृष्टि से विचार करना है, अपितु सामाजिक दृष्टि से भी विचार करना है । चाहे यह सम्भव भी हो कि व्यक्ति शरीर, सम्पत्ति, संघ और समाज से निरपेक्ष होकर पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध कर सकता है; फिर भी ऐसी निरपेक्षता किन्हीं विरल साधकों के लिए ही सम्भव होगी, सर्व सामान्य के लिए तो सम्भव नहीं कही जा सकती है । अतः मूल प्रश्न यह है कि क्या सामाजिक जीवन पूर्ण अहिंसा के आदर्श पर खड़ा किया जा सकता है? क्या पूर्ण अहिंसक समाज की रचना सम्भव है? इस प्रश्न का उत्तर देने के पूर्व मैं आपसे समाजरचना के स्वरूप पर कुछ बातें कहना चाहूँगा । एक तो यह कि अहिंसक चेतना अर्थात् संवेदनशीलता के अभाव में समाज की कल्पना ही सम्भव नहीं है। समाज जब भी खड़ा होता है- आत्मीयता, प्रेम और सहयोग के आधार पर खड़ा होता है, अर्थात् अहिंसा के आधार पर खड़ा होता है, क्योंकि हिंसा का अर्थ है- घृणा, विद्वेष, आक्रामकता और जहाँ भी ये वृत्तियाँ बलवती होंगी, सामाजिकता की भावना ही समाप्त हो जायेगी, समाज ढह जायेगा, अतः समाज और अहिंसा सहगामी हैं। दूसरे शब्दों में, यदि हम Jain Education International ३० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001695
Book TitleAhimsa ki Prasangikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2002
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ahimsa, & Principle
File Size5 MB
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