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अपने अस्तित्त्व के लिए कोई संघर्ष नहीं करना चाहए? हिंसा-अहिंसा का प्रश्न निरा वैयक्तिक प्रश्न नहीं है। जब तक सम्पूर्ण मानव-समाज एक साथ अहिंसा की साधना के लिए तत्पर नहीं होता है, किसी एक समाज या राष्ट्र द्वारा अपने हितों के लिए की जानेवाली हिंसा समाज जीवन के लिए अपरिहार्य है। समाज-जीवन में इसे मान्य भी करना होगा। इसी प्रकार उद्योग-व्यवसाय और कृषि कार्यों में होनेवाली हिंसा भी समाज-जीवन में बनी ही रहेगी। मानव-समाज में मांसाहार एवं तद्जन्य हिंसा को समाप्त करने की दिशा में सोचा तो जा सकता है, किन्तु उसके लिए कृषि के क्षेत्र में एवं अहिंसक आहार की प्रचुर उपलब्धि के सम्बन्ध में व्यापक अनुसंधान एवं तकनीकी विकास की आवश्यकता होगी। यद्यपि हमें यह समझ भी लेना होगा कि जब तक मनुष्य की संवेदनशीलता को पशुजगत् तक विकसित नहीं किया जायेगा और मानवीय आहार को सात्विक नहीं बनाया जावेगा, मनुष्य की आपराधिक प्रवृत्तियों पर पूरा नियन्त्रण नहीं होगा। आदर्श अहिंसक समाज की रचना हेतु हमें समाज से आपराधिक प्रवृत्तियों को समाप्त करना होगा और आपराधिक प्रवृत्तियों के नियमन के लिए हमें मानव जाति में संवेदनशीलता, संयम एवं विवेक के तत्त्वों को विकसित करना होगा।
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