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अध्याय-६.
सकारात्मक अहिंसा प्रस्तुत चर्चा में हमारा मुख्य प्रतिपाद्य दया, करूणा, दान, सेवा और सहयोग के रूप में अहिंसा का वह सकारात्मक पक्ष है, जो दूसरों के जीवन-रक्षण के एवं उनके जीवन को कष्ट और पीड़ाओं से बचाने के प्रयत्नों के रूप में हमारे सामने आता है। यह सत्य है कि अहिंसा शब्द अपने आप में निषेधात्मक है। युत्पत्ति की दृष्टि से उसका अर्थ हिंसा मत करो तक ही सीमित होता प्रतीत होता है, किन्तु प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा के जो साठ पर्यायवाची नाम दिये गये हैं, उन साठ नामों में सम्भवतः दो-तीन को छोड़कर शेष सभी उसके सकारात्मक या विधायक पक्ष को प्रस्तुत करते हैं।
. हिंसा का प्रतिपक्ष अहिंसा है। यह अहिंसा की एक निषेधात्मक परिभाषा है, लेकिन हिंसा का त्याग मात्र अहिंसा नहीं है। निषेधात्मक अहिंसा जीवन के समग्र पक्षों को स्पर्श नहीं करती। वह आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं कही जा सकती। निषेधात्मक अहिंसा मात्र बाह्य हिंसा नहीं करना है। यह अहिंसा के सम्बन्ध में मात्र स्थूल दृष्टि है, लेकिन यह मानना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि जैनधर्म अहिंसा की इस स्थूल एवं बहिर्मुखी दृष्टि तक सीमित रहा है। जैन-दर्शन का यह केन्द्रीय सिद्धान्त शाब्दिक दृष्टि से चाहे नकारात्मक है, लेकिन उसकी अनुभूति नकारात्मक नहीं है। उसकी अनुभूति सदैव ही विधायक रही है। अहिंसा सकारात्मक है, इसका एक प्रमाण यह है कि जैनधर्म में अहिंसा के पर्यायवाची शब्द के रूप में 'अनुकम्पा' का प्रयोग हुआ है। 'अनुकम्पा' शब्द जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण अब्द है। उसमें सम्यक्त्व के एक अंग के रूप में भी अनुकम्पा का उल्लेख हुआ है। अनुकम्पा शब्द मूलतः दो शब्दों से मिलकर बना है -अनु+कम्पा (कम्पन)। अभिधानराजेन्द्रकोश में अनुकम्पा शब्द की व्याख्या में कहा गया है – 'अनुरूपं कम्पते चेष्टते इति अनुकम्पा'। वस्तुतः अनुकम्पा पर-पीड़ा का स्व-संवेदन है, दूसरों की पीड़ा या दुःख की समानाभूति है। उसी में अनुकम्पा को स्पष्ट करते हुए यह भी कहा गया है कि पक्षपात अर्थात् रागभाव से रहित होकर दुःखी-प्राणियों की पीड़ा को, उनके दुःख को समाप्त करने की इच्छा ही अनुकम्पा है। यदि अहिंसा की अवधारणा के साथ अनुकम्पा जुड़ी हुई है, तो फिर उसे मात्र निषेधपरक मानना एक प्रान्ति है। अनुकम्पा में न केवल दूसरों की पीड़ा का स्व-संवेदन होता है, अपितु उसके निराकरण के सहज निःस्वार्थ प्रयत्न भी होते हैं। जब दूसरों की पीड़ा हमारी पीड़ा बन जाय तो यह असम्भव है कि उसके निराकरण का कोई प्रयत्न न हो। वस्तुतः जीवन में जब तक अनुकम्पा का उदय
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