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अथवा बाह्य परिस्थितिगत, यहाँ भी कर्ता दोषी है। वह कर्म का बन्धन भी करता हैं, लेकिन पश्चात्ताप या ग्लानि के द्वारा वह उससे शुद्ध हो जाता है। बाध्यता की अवस्था में की गई हिंसा के लिए कर्ता को दोषी मानने का आधार यह है कि समग्र बाध्यताएँ स्वयं के द्वारा आरोपित है। बाध्यता या बन्धन के लिए कर्ता स्वयं उत्तरदायी है। बाध्यताओं की स्वीकृति कायरता का प्रतीक है। बन्धन में होना और बन्धन को मानना, दोनों ही कर्ता की विकृतियाँ हैं -कर्ता स्वयं दोषी है ही। नैतिक जीवन का साध्य तो इनसे ऊपर उठने में ही है। तीसरी स्थिति में हिंसा न तो प्रमाद के कारण होती है और न विवशतावश ही, वरन् सम्पूर्ण सावधानी के बावजूद भी हो जाती है। जैन-विचारणा के अनुसार हिंसा की यह तीसरी स्थिति कर्ता की दृष्टि से निर्दोष मानी जा सकती है, क्योंकि इसमें हिंसा का संकल्प पूरी तरह अनुपस्थित रहता है; मात्र यही नहीं, हिंसा से बचने की पूरी सावधानी भी रखी जाती है। हिंसा के संकल्प के अभाव में एवं सम्पूर्ण सावधानी के बावजूद भी यदि हिंसा हो जाती है तो वह हिंसा के सीमाक्षेत्र में नहीं आती है। हमें यह भी समझ लेना होगा कि किसी अन्य संकल्प की पूर्ति के लिए की जानेवाली क्रिया के दौरान यदि सावधानी के बावजूद कोई हिंसा की घटना घटित हो जाती है, जैसे -गृहस्थ उपासक द्वारा भूमि जोतते हुए किसी त्रस-प्राणी की हिंसा हो जाना अथवा किसी मुनि के द्वारा पदयात्रा करते हुए त्रसप्राणी की हिंसा हो जाना, तो कर्ता को उस हिंसा के प्रति उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि उसके मन में उस हिंसा का कोई संकल्प ही नहीं है। अतः ऐसी हिंसा हिंसा नहीं है। हिंसा की उन स्थितियों में, जिनमें हिंसा की जाती हो या हिंसा करनी पड़ती हो, हिंसा का संकल्प या इरादा अवश्य होता है। यह बात अलग है कि एक अवस्था में हम बिना किसी परिस्थिगत दबाव के स्वतंत्ररूप में हिंसा का संकल्प करते है और दूसरे में हमें विवशता में संकल्प करना होता है, फिर भी पहली अधिक निकृष्ट कोटि की है, क्योंकि आक्रमणात्मक है। हिंसा के विभिन्न रूप
हिंसक कर्म की उपर्युक्त तीन अवस्थाओं में यदि हिंसा हो जाने की तीसरी अवस्था को छोड़ दिया जाये तो हमारे समक्ष हिंसा के दो रूप बचते हैं१. हिंसा की गयी हो और २. हिंसा करनी पड़ी हो। वे दशाएँ जिनमें हिंसा करनी पड़ती है, दो प्रकार की हैं -१. रक्षणात्मक और २. आजीविकारात्मक। इसमें दो बातें सम्मिलित हैं- जीवन जीने के साधनों का अर्जन और उनका उपभोग।
जैन दर्शन में इसी आधार पर हिंसा के चार रूप माने गये हैं
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