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बिना प्राणियों की हिंसा के उपलब्ध नहीं हो सकता । मांसाहार के लिए जीव-वध एक आवश्यक तथ्य है। आध्यात्मिक दृष्टि से प्राणियों के वध के साथ क्रूरता जुड़ी हुई है। बिना क्रूरता के वध सम्भव नहीं है। जबकि शाकाहार में अपेक्षाकृत रूप से क्रूरता का अभाव होता है यद्यपि यहाँ कोई व्यक्ति यह तर्क दे सकता है कि यदि जैन धर्म वनस्पति जगत् में भी जीवन के अस्तित्व को स्वीकार करता है, तो जिस प्रकार मांसाहार में जीवन का विनाश या हिंसा अपरिहार्य है, उसी प्रकार शाकाहार में भी हिंसा रही हुई है । हिंसा चाहे वनस्पति या पौधों की हो या प्राणियों की, हिंसा तो हिंसा ही है, अतः यह कहना कि शाकाहार अहिंसक है, युक्ति संगत नहीं है, किन्तु इस प्रकार के तर्क निरर्थक हैं, क्योंकि वनस्पति जगत् की हिंसा और पशु-जगत् की हिंसा में बहुत बड़ा अन्तर है। सामान्यतया मांसाहार के अन्तर्गत जिन प्राणियों का मांस खाया जाता है, वे सब विकसित और अपने जीवन का रक्षण करने में प्रयत्नशील प्राणी होते हैं, चाहे वे मूक प्राणी हों, किन्तु उनकी भावाभिव्यक्ति पूर्णतया सशक्त और स्पष्ट होती है। उनकी भावाभिव्यक्ति और उनके जीवन को बचाने के प्रयत्नों को खुली आँखों से पढ़ा जा सकता है। अत: करुणा को एक ओर रखकर ही उनकी हिंसा सम्भव होती है। वनस्पति जगत् की हिंसा में वैसे क्रूरता के भाव नहीं होते, जैसे पशु जगत् की हिंसा में होते हैं। अत: मांसाहार का सीधा सम्बन्ध क्रूर भावनाओं के साथ जुड़ा हुआ है। मांसाहार और क्रूरता सहगामी है। करुणा को समाप्त किए बिना हम मांसाहार के हिमायती नहीं बन सकते । किन्तु करुणा मानव जीवन का एक ऐसा आवश्यक तत्त्व है कि जिसके अभाव में मनुष्य एक दरिंदा या एक हिंसक पशु से भी बदतर बन जाता है। जिस देश, समाज और राष्ट्र में प्राणियों के क्रूरतापूर्वक वध का जितना समर्थन किया, वह समाज, देश या राष्ट्र उतना ही कलहप्रिय और संघर्षरत देखा गया है। मांसाहार के परिणामस्वरूप मनुष्य के जीवन में बर्बरता का विकास होता है फलत: संवेदनशीलता और करुणा समाप्त हो जाती है। संवेदनशीलता या करुणा मनुष्य का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य है। यदि मानव में संवेदनशीलता और करुणा के तत्त्व को जीवित रखना है,तो हमें मांसाहार को छोड़ना होगा। मनुष्य तभी तक मनुष्य है, जब तक उसके जीवन में संवेदनशीलता और करुणा है। यदि मानव जीवन से ये तत्त्व समाप्त हो जाएं, तो मनुष्य चाहे आकृति में मनुष्य बना रहे किन्तु वह एक पशु से भी बदतर होगा। दूसरे, संवेदनशीलता और करुणा के अभाव में मानवों में आपसी संघर्ष भी इतने अधिक बढ़ जायेंगे कि मानवजाति का अस्तित्व ही खतरे में होगा। शाकाहार और मांसाहार के बीच चुनाव करने से पूर्व मनुष्य को यह चुनाव कर लेना है कि वह मानव-जाति में समृद्धि, सुख, शान्ति, संवेदनशीलता, समता आदि सद्गुणों को जीवित रखना चाहता है या फिर हिंसा, तनाव, युद्ध, रक्तपात, क्रूरता आदि को अपनी विरासत में छोड़ना चाहता है।
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