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________________ अध्याय ४. हिंसा-अहिंसा विवेक. अहिंसा क्या है? हिंसा का प्रतिपक्ष अहिंसा है। यह अहिंसा की एक निषेधात्मक परिभाषा है, लेकिन हिंसा का त्याग मात्र अहिंसा नहीं है। निषेधात्मक अहिंसा जीवन के समग्र पक्षों को स्पर्श नहीं करती। वह आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं कही जा सकती। निषेधात्मक अहिंसा मात्र बाह्य हिंसा नहीं करना है, यह अहिंसा का शरीर हो सकता है, अहिंसा की आत्मा नहीं। किसी को नहीं मारना, यह बात अहिंसा के सम्बन्ध में मात्र स्थूल दृष्टि एवं बहिर्मुखी दृष्टि तक सीमित रही है। जैन-दर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त 'अहिंसा' शाब्दिक दृष्टि से चाहे नकारात्मक है, लेकिन उसकी अनुभूति नकारात्मक नहीं है। उसकी अनुभूति सर्दव ही विधायक रही है। सर्वत्र आत्मभाव मूलक करूणा और मैत्री की विधायक अनुभूतियों से अहिंसा की धारा प्रवाहित हुई है। अहिंसा क्रिया नहीं, सत्ता है। वह आत्मा की एक अवस्था है। आत्मा की प्रमत्त अवस्था ही हिंसा है और अप्रमत्त अवस्था ही अहिंसा है। आचार्य भद्रबाहु 'ओघनियुक्ति' में लिखते हैं कि पारमार्थिक दृष्टि से आत्मा ही हिंसा है और अहिंसा है। प्रमत्त आत्मा हिंसक है और अप्रमत्त आत्मा अहिंसक है। आत्मा की प्रमत्त दशा हिंसा की अवस्था है और अप्रमत्त दशा अहिंसा की अवस्था है। द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा ___ अहिंसा को सम्यक् रूप से समझने के लिए पहले यह जान लेना आवश्यक है कि जैन-विचारणा के अनुसार हिंसा क्या है? जैन-विचारणा हिंसा का दो दृष्टि से विचार करती है। एक हिंसा का बाह्य पक्ष है, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में द्रव्य हिंसा कहा गया है। द्रव्य हिंसा स्थूल एवं बाह्य घटना है। यह एक क्रिया है जिसे प्राणातिपात, प्राणवध, प्राणहनन आदि नामों से जाना जाता है। जैन-विचारणा आत्मा को सापेक्ष रूप में नित्य मानती है। अतः हिंसा के द्वारा जिसका हनन होता है, वह आत्मा नहीं वरन् प्राण है। प्राण जैविक शक्ति है। जैन-विचारणा में प्राण दस माने गये हैं। पाँच इन्द्रियों की शक्ति, मन, वाणी और शरीर का त्रिविध बल, श्वसन-क्रिया एवं आयुष्य- ये दस प्राण हैं। इन प्राण-शक्तियों का वियोजीकरण ही द्रव्य-दृष्टि से हिंसा है। हिंसा की यह ३५. दशवकालिक-नियुक्ति, ६०. ३६. ओघनियुक्ति, ७५४. ३७. ओघनियुक्ति, ७५४. १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001695
Book TitleAhimsa ki Prasangikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2002
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ahimsa, & Principle
File Size5 MB
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