Book Title: Aagam 45 Anuyogdwaar Haaribhadriyaa Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५] श्री अनुयोगद्वार सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: "अनुयोगद्वार” मूलं एवं वृत्ति: हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः] [आय संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -[२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [-] गाथा II-II दीप अनुक्रम H *** “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र -२ (मूलं + वृत्ति:) मूलं [-] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिका - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: श्रीअनुयोगद्वाराणां प्रसिद्धताकारिणी-रतलाम श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेतांबर संस्था. कालीयावाडीवास्तव्य श्रेष्ठिरायचंद्रदुर्लभदास मगनलालनेमचन्द्राभ्यां श्रीमद्विजय कमलसूरिकृतोपदेशात् दत्तसाहाय्येन. मुद्रणकृत—– इन्दौर पीपलीबजार श्रीजैनबन्धुयन्त्रालयाधिपः शाः जुहारमल मिश्रीलाल पालरेचा. विक्रम संवत् १९८४ क्राइस्ट १९२८ प्रतयः ५०० वीर संवत् २४५४ श्रीहरिभद्राचार्यकृता वृत्ति 'अनुयोगद्वार' हारिभद्रिया- वृत्तेः मूल टाईटल पृष्ठ 2~ पण्यं २-०-० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: १५२+१४१ अनुयोगद्वार चूलिका-सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: ३५० मूलाक: विषयः मूलांक: विषय: पृष्ठांक | मूलाक: विषयः पृष्ठांक: ००१- ००५ ०७७ पृष्ठांक: अनुयोगदवारसूत्रं → ज्ञानविषयक वर्णनं ००५ → आवश्यक-तस्य ०१० . अध्ययनं, → श्रुत- तस्य निक्षेपा: | ०२४ . भेदा:, इत्यादि ०३१ ०८६ →द्रव्यस्कन्ध: ૦રાક → उपक्रमः, तस्य → आनुपूर्वी ०३४ → अनुगमं " नाम एवं तस्य भेदा: । ०६३ , प्रमाण प्ररुपणा → समय आदि → जीवादि द्रव्य→ निक्षेप-व्याख्या → सप्तनय स्वरुपम् १०३ ०४४ १२५ १२७ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -[२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वार- मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “अनुयोगद्वार सूत्र" के नामसे सन १९२८ (विक्रम संवत १९८४) में ऋषभदेवजी केशरिमलजी श्वेताम्बर संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | ये वृत्ति एक छोटी वृत्ति है, इस के अलावा श्री मल्लधारी हेमचन्द्राचार्यजी की रचित एक बड़ी वृत्ति भी है, जो हमारी 'आगम-सुत्ताणि-सटीक' श्रेणिमे हमने मुद्रित करवाई है | इस के अलावा 'अनुयोगद्वार चूर्णि भी है, जो हमारे चूर्णि-साहित्य के प्रकाशनोमे प्रकाशित हुइ है | हमारा ये प्रयास क्यों? * आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी. ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर सूत्र आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके | बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | - हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस - दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसिको मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ...... मुनि दीपरत्नसागर मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] “अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .......... मूल [१] / गाथा [-] ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: हरिभद्राचार्यवेला अनुयोगद्वारटीका. लानन्दी प्रत सूत्रांक [१] गाथा - व्याख्याना हा नियमः जनवरे विदशेन्द्रनरेन्द्रपूजितं वीरम् ।मनुयोगद्वाराणां प्रकटा विवृतिमाभिधास्ये ॥१॥ प्रान्तोऽयम-19 उद्देशादि वप्राप्तिदेवलायोभतो वर्त्तते, यामि विनानि भवन्ति, तथा चोक्तम्-"यांसि पहुविनानि भवन्ती" त्यादि विधिः विघ्नविनाशाम्तये मजलाधिकारी नौकः प्रतिपादितः, साम्प्रतमनुयोगद्वाराभ्ययनमारभ्यते, अथास्यानुयोग इति, उच्यते दिनानुयोगकाम्हत्वात्तस्य चानुयोगद्वारमन्तरेण प्रतिपादयितुमशक्यत्वादनुयोगद्वाराणा 19 साकल्यताअप प्रायः प्रत्यध्ययनमुपयोगित्वानन्दचकमन्याख्यानसमनन्तरमेयानुयोगद्वाराध्ययनावकाश इत्यमभिसंबंध:, लदनेन सम्बन्धेना। यावमिदमनुयोगद्वाराध्ययन, मस्य चाध्ययनान्तरत्वात् साकल्यतोऽपि प्रायः सकलाध्ययनव्यापकरवान्महात्वाकचादावेव मङ्गलशब्दाभिधान-16 पूर्वकमुपन्यासमुपदर्शयता ग्रन्थकारेणेदमभ्यधायि 'णाणं पंचविहं पण्णत्त'मित्यादि,(१-१)अबाह-इह मजलाधिकारे नन्दिः प्रतिपादित एव, ततश्चानर्थक एष अस्व सूत्रस्योपन्यास इति, अनोख्यते, नैतदेवं, अस्याक्षेपस्य चाध्ययनान्तरत्वादित्यादिनवानवकाशत्वात् , अनियमप्रदर्शनार्थत्वाच्च है तथाहि-नार्य नियमो नन्मभ्ययनानुयोगमन्त्ररेणास्यानुयोगो न कर्त्तव्य इति, यदा यदा च क्रियत तदा सार्थक एव इति, यथोक्तोपन्यासस्तु है। प्रायोवृत्त्यपेक्षयाऽनवथ एव, अन्ये तु व्याचक्षते-कशिदाचार्य देशजातिषत्रिशगुणालंकृतं कश्चिद्विनेय; सविनयमुक्तवान्-भगवन् ! अनुयोगद्वारप्ररूपणया मे क्रियतामनुपहः, ततस्तमसावाचार्यों योग्यमधिगम्य अव्यवकिछत्तयेऽनुयोगद्वारप्ररूपणायां प्रवर्तमानो विनविनावकोपशान्तये SCARSAGE दीप अनुक्रम [१] ... ज्ञानस्य पंच-भेदानाम उल्लेख: Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूल २] / गाथा [-] ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२] गाथा - श्रीअनु०भावमजलाधिकारे श्वमुपवस्तवान्--णाण' मित्यादि, अस्थ सूत्रस्थ समुदायार्थोऽवयवार्थच नन्यभ्ययनटीकायां प्रपन्नतः प्रतिपादित 8 नन्दी हारि वृत्ती एवेवि ने प्रतिपाथव इति । 'तस्थ' इत्यादि, (२-३) सत्र-तस्मिन् शानपत्रके चत्वारि ज्ञानानि-मत्यवधिमन:पर्याय केवलाख्यानि, कि,लव्याख्याना म्यवहारनयाभिप्रायतः साक्षादसंव्यवहार्यत्वात्स्थाप्यानीव स्थाप्यानि, यतश्चैवमतः स्थापनीयानि, तिष्ठतु तावत् न वैरिहाधिकारः, अथवा नियमः ॥२ ॥ स्वरूपप्रतिपादनेऽप्यसमर्थत्वात्स्थाप्यानि, इह चानुयोगद्वारप्रक्रमे ऽनुपयोगित्वात्स्थापनीयानि, अथवा स्थाप्यानि सन्यासिकानि, नई उद्देशादि चामिहाबुयोगः, पुनर्विवृणोति-स्थापनीयानीत्यर्थः, यतीवमतः 'नो उदिस्सन्ती' त्यादि, नो उद्दिश्यन्ते नो समुदिश्यन्ते नो अनुझायंते, तत्र | लयबमध्ययनं पठितव्यमित्युरेशः १ तदेवाहीनादिलक्षणोपेतं पठित्वा गुरोनिवेदयति, तत्रैवविधं स्थिरपरिचितं कुर्षिति समनुज्ञा समुद्देशः | २ वथा कृत्वा गुरोर्निवेदिते अन्यधारण शिष्याध्यापनं च कुविति अनुशा ३' सुयणाणस्से' त्यादि, इह अवज्ञानस्य स्वपरप्रकाशकत्वाद् गुर्वादेरायत्तत्वाच्च किन्तूदेशः समुद्देशः अनुझा अनुयोग प्रवर्चत इति, संक्षेपेणोदेशादीनामर्थ:कथित एव । अधुना शिष्यजनानुभहार्थ विस्तरेण कथ्यते-तत्थ बायारादिवंगस्स उत्तरायणादिकालियमुयखंधस्स य उवचाइयादिवकालियच्वंगज्मयणस्स य इमो नदेसणविही, पुन्य समायं पट्ठवेचा ततो सुयगाही विण्णसिं करेड-इच्छाकारेण मुग मे सुयमुरिसइ, ततो गुरू इच्छामोत्ति भणति, तओ सुयगाही वंदणयं देश, पढमं १, तो गुरू उद्वित्ता पेइए बंदछ, ततो बंदियपकचुहियसुयग्गाही वामपासे ठवेत्ता जोगुक्खेबुस्सग सगवीसुस्सासकालियं करेइ, ततो उस्सरितकट्टितचवीसत्यमओ तहडिओ चेव पंचनमोकारं तिणि वारं उच्चारता 'माणं पंचविहं पण्णत' मित्यादि उसनन्दी कट्टर, दीसे व अंते भणादि-धर्म पुण पडवणं पडच इमस्स साघुस्स इमं अंग सुबखंध अमायणं वा उरित्सामि, अहंकारवजणत्वं भणादि-खमास-1 माणं हत्येणं सुतेणं अत्येण तदुभएणं च सदिह, नंतरं सीसो इलामोचि भणिता ववर्ण देश, चिनियं, सतो तितो भणादि-संदिसह कि दीप अनुक्रम २] IAS ... सूत्राणां उद्देशादि-विधि: Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूल २] / गाथा [-] ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सुत्रांक [२] गाथा I श्रीअनु: भणामो १, ततो गुरू भणादि-वदित्वा पवेयमुति, तवो सीमो इच्छामोति भणित्ता बंदणगं देव, तहयं, सीसो पुण उद्वितो भणावि-तुम्हहिं मे उद्देशादि बारपाका बभुग सुपरिढ इच्छामि अणुसहि, ततो गुरू भणति-जोगं करेहिचि, एवं सविडो इच्छामोत्ति भणिचा बंदणं देश चजस्थय, एत्यंतरे णमोकार-17 विधि: लापरो गुरुं पदक्षिणेड, पदविखणित्ता पुरओ ठिचा भणादि-तुम्हेदि मे अमुर्ग सुवमुदिई, ततो गुरुणा जोग करेहिचि संविटो वजओ इच्छामोतिला भणित्ता वंदित्ता य पदाक्सिणं करेइ, एवं वइयवारंपि, पते व ततोऽवि वंदणा एक थेव वंदणट्ठाणं, तइयपदक्खियंते य गुरुस्स पुरओ चिट्ठा, | माहे गुरू निसीदति, निसण्णवस व गुरुणो पुरओ अद्धावणयकायो भणति-तुम्भ पवेदितं संदिसह साहूणं पवेदामिलाति, नतो गुरू भणाति-पवेदिहिणि, तवो इच्छामोत्ति भणिता पंचमं बंदणगं देइ, बंदियपकवुद्वितो व कवपंचणमोकारो छई वंदणयं | | वेड, पुणो व बंदियपकचुडिओ तुम्भं पवेवितं साहूर्ण पवेदिवं संदिसह करेमि उत्सर्ग, ततोणं गुरू भणति-फरेहि, ताहे वणयं देह सत्तमयं ।। | एते च मुवपच्चया सत्त बंदणगा । बतो बंपियपच्चुहितो भणति-अमुगस्स सुवास रिसावणं करेमि समां अन्नस्थ ऊससिएणं जाव वोसिIMIसमिति, ततो सत्चाचीसुस्सासका ठिकचा कोगस्स उब्जोअगरं चितित्ता वस्सारित्ता भणादि-णमो अरहताणति, लोयस्सउम्जोअगरं कविता मुथसमत्तबहेमकिरियतणओ अग्ने फेटावंदणवं येड, जं पुण बंदणगं देवि तं न सुतपच्चतं, गुरूवकारिति विणयपरिवत्तिओ अहमं बंदणं देति। एवं अंगादिसु समुरेसेऽषि, णवरं पवेदिते गुरू भणति-चिरपरिजिनं करेहित्ति, गंदी य ण कडिजति, जोगुक्खेबुस्सगो य ज कीरण य पदक्षिण तो बारे करिग्जति, जेण णिसण्णो गुरू समुदिसति, एवं अंगाविसु अणुण्णाए जहा उद्देसे तहा सर्व काजति, गवरं पवेदिते * x ॥३॥ | गुरू भणवि-सम्मं धारय अण्णेसि प पवेयसुत्ति, जोगुक्खेवुस्त्रम्गो ण व भवति, एवं आवस्सगाविसु पहष्णगेसु य तंदुळवेयालियाविसु एसेवा हाविही, णवरं समालो ण पढविग्जा, जोगुक्लेवळस्वगो ण कीरइ, एवं सामावियाविमुवि अन्झवणेसु नरेसामु य परिसमाणेसु विश्वंदणपद-ला दीप अनुक्रम [२] Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [२] गाथा II-II दीप अनुक्रम [२] श्री अनु हारि. वृचौ ॥ ४ ॥ “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र -२ (मूलं + वृत्ति:) मूलं [२] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: क्त्रिणा दिवि से सकिरियावज्जिया सत्त चैव बंदजगा पुथ्वकम्मेणेव भवति, जया पुण अणुओगो अणुण्णविज्जति तदा इमो विही-पसत्येसु तिहीकरण मुहुचणक्खचेसु पसत्ये य खेत्ते जिणाययणादौ भूमी पमचित्ता दो पिसिजाओ कीरंति, एका गुरुथो बितिया अक्खाति, चरिमफाले पवेदिते णिसज्जाए णिमण्णा गुरू अहजा उबगरपोडिओ सीखो ततो दोवि ते गुरू सीखो य मुहपोचियं पडिलेहिन्दि, तओ सीसो बारसावत्तगं बंदणगं दाउ भणति संदिसह सम्झायं पट्टवेमि, तओ दुययावि सज्झायं पट्टवेति ततो पढविते गुरू णिसीदति, बतो सीसो बारसा| वत्तेष्य वंदति, ततो दोषि उट्ठेत्ता अणुओगं पट्टवेंति, ततो पढविते गुरू विसीदति, ततो सीसो बारसावचेण वंदति, वंदिते गुरुका अक्वामंतणे ते गुरु निसेज्जाओ उद्वेति, ततो निसेल्जं पुरओ का अधयसूयं सीस वामपाले ठबेत्ता चेतिए बंदति, समत्ते चेइयवंदणे गुरू ठितो. देव णमोकार का किति, तीसे य अन्ते भणति इमस्स साहुस्स अणुओगं अणुजाणामि खमासमणाणं हत्येणं दव्वगुणपज्जयेहिं अण्णाभो, ततो सीसो बंदणगं देइ, उहितो भणति - संदिसह किं भणामो १, तओ गुरू भणति-बंदणं दाडं पवेदेह, ततो वंदति, वंदिता उहितो भणति तुमेहिं मे अणुजोगो अणुष्णाओ, इच्छामो अणुसडिं, ततो गुरू भणति सम्मं धारय अण्णसिं च पवेदय, ततो बंदति, वंदिता गुरु पदक्खि जेति, एवं ततो बारे, वाहे गुरू निसेज्जाए णिसीयति, वाहे सीसो पुरओ ठितो भण्णति-तुम्भं पवेदितं संदिसह साहूणं पवेदयामि एवं शेष प्राग्वत् । ततो उसमास्ते वंदेत्ता सीसो गुरुं सह निसेज्जार पदक्खिणीकरेति, बंदेइ य, एवं ततो वारा, ताहे उट्टेत्ता गुरुस्स दाहिणासण्णे णिसीदति, ततो से गुरू गुरुपरंपरागए मंतपए कहेति ततो वारा, ततो बतियातो ततो अक्खमुट्टीतो गंधसहियातो देति, ताहे गुरू निसज्जाओ उडेइ, सीसो तत्थ निसीदति, ताहे सह गुरुणा अहासणिहिता साहू वंदणं देति, ताहे सोऽवि निसेज्जाटिओ अणुओगी 'पाणं पंचविहं पण्णत्त' मित्यादि सुत्तं कद्रुति, काङ्क्षत्ता जहासत्तिं वक्खाणं करेति वक्खाणे य कते साहूणं बंदणं देति, ताहे सो उडेइ, नि ~8~ उद्देशादि विधिः ॥ ४ ॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [३-६] / गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: श्रीजनु हार आवश्यक निक्षेपाः प्रत सूत्रांक [३-६] गाथा - ॥५ ॥ जाओ, पुणो गुरू व तत्थ निसीवति, तो अणुओगविसज्जणथं काउस्स करेंति कालरस व परिकमंति, ततो अणुण्णायाणुओगो साह निरुवं पवेदेति । एवमेवे उद्देशादयः श्रुतज्ञानस्यैव प्रवर्तन्ते, न शेषज्ञानानामिति, न चेहोदेशादिमिरधिकारः, कि तर्हि १, अनुयोगेन, तस्यैव प्रकान्तत्यादिति, 'जति सुतणाणस्से' त्यादि (३-६) (४-६) (५-७) सर्व निगदसिद्ध यावत् । इमं पुण पट्ठवण पदुच आवस्सगस्साणुओगोंति, नवरामिमां पुनराधिकृतां प्रस्थापना प्रवीत्य, प्रारम्भप्रस्थापनामेनामाभित्यावश्यकस्य, अवश्य क्रियानुष्ठानादावश्यक वस्यानुयोग:- अर्थकथनविधिस्तेनाधिकार इत्यर्थः, इहानुयोगस्य प्रक्रान्तत्वात्तद्ववक्तव्यतालम्बनायाः खल्वस्या द्वारगाथायाः प्रस्तावः, | तयथा-'णिक्खेवेगह नित्ति विही पवित्तीय केण वा कस्म । तद्दार भेद लक्खण तरिहपारसा य मुत्तत्थों ॥१॥ अस्याः समुदायार्थमवयवार्थ च अन्धान्तरे स्वस्थान एवं व्याख्यास्यामः, अत्र तु कस्येति द्वारे 'इमं पुण पट्टवर्ण पदुश्च आवस्सगस्स अणुओगीति सूत्रनिपातः, 'जइ आवस्सगस्से'त्यादि, (६-९) प्रश्नसूत्र,निवेचनसून चोचानार्थमेव । नवरमाह चोदकर-हावश्यक किमर्ग किमयानीत्यादिप्रश्नसूत्रस्यानवकाश एव, नन्यनुयागादेवावगतत्वात, तथाहि-तत्रावश्यकमनंगप्रविष्टभूताधिकार एवं व्याख्यातं, तहाप्यमबाघोत्कालिकादिक्रमेणैव आवश्यकस्योदेशादीनां प्रतिपादितत्वादिति, अत्रोच्यते, यत्तावदुक्तं 'नन्यनुयोगादेवावगतत्वा' दिति तदयुक्तं, यतो नायं नियमोऽवश्यमेव नन्दिगदी व्याख्येयः, कुतो गम्यत इति चेत, अधिकृतसूत्रोपन्यासान्यथानुपपत्तेः, इदमेव सूत्र ज्ञापकमनियमस्येति, मङ्गटार्थमवश्यं | व्याख्येय इति चेत्, न, शानपंचकाभिधानमात्रस्यैव मालत्वात् । यश्चोक्त 'इहाप्यनाप्रविष्टोत्कालिकादिक्रमेणैवाऽ ऽवश्यकस्योरेशादयः प्रतिपादिता' इति, एतदपि न बाधकमन्यार्थत्वात् , इहागप्रविष्टादिभेदभिन्नस्य श्रुतस्योद्देशादयः प्रवर्तन्ते इति शापनार्थमेतदित्यम्यार्थता, अन्ये तु व्याचक्षते-चारित्र्यपि भिन्नकर्मक्षयोपशमजन्यत्वात् ज्ञानस्यानाभोगबहुलो भवति माषतुषवत् सोऽपि प्रज्ञापनीय एवेति दर्शनार्थ ।। दीप अनुक्रम [३-६] ... 'आवश्यक'स्य निक्षेपा: Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [७-९] गाथा दीप अनुक्रम [७-१०] श्रीअनु० हारि. वृत्ती ॥ ६ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ ( मूलं वृत्तिः) मूलं [७-९] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [ ४५], चूलिकासूत्र -[२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: " इाधिकृतानुयोगविषयीकृतशास्त्रनाम आवश्यकश्रुतरन्याध्ययनानि नाम च यथार्थादिभेदात् त्रिविधं तथथा-यथार्थमयथार्थमर्थशून्यं च तत्र यथार्थ प्रदीपादि अयथार्थ पलाशादि अर्थशून्यं डित्यादि, तत्र यथार्थ शास्त्राभिधानमिष्यते, तत्रैव समुदायार्थपरिसमाप्तेः, यत एवमतस्तनिरू पनाह' तम्हा आवस्वयं इत्यादि, ( ७-१० ) तस्मादावश्यक निक्षेप्स्यामीत्यादि उपन्याससूत्रं प्रकटार्थमेव चोदकस्त्वाह खंधो नियमज्झ यणा अज्झयणाथि य ण संधवइरिता । तन्हा ण दोवि गेझा अण्णवरं गेण्ड चोदेति ॥ १ ॥' आचार्यस्त्वाद' खंधोत्ति सत्यनामं तस्स य सत्थस्स भेद अझयणा | फुड भिण्णत्था एवं दोन्ह गद्दे भणति तो सूरी १ ||' साम्प्रतं यदुक्तं 'आवश्यक निक्षेप्स्यामी' त्वादि, रात्र जघ न्यता निक्षेपमेदनियमनायाह- ' जत्थ' गाहा ( १-१०) व्याख्या यत्र जीवादी वस्तुनि यं जानीयात् कं १- निक्षेपं, न्यासमित्यर्थः, यत्तदोनित्याभिसंबंधात् तनिक्षिपेत् निरवशेषं समयं यत्रापि च न जानीयात्सममं निक्षेपजाळं 'चतुष्कं ' नामादि भावान्तं निक्षिपेत् तत्र, यस्माद् व्यापकं नामादिचतुष्टयमिति गाथार्थ: । 'से किं त' मित्यादि ( ८-१० ) प्रश्नसूत्रं, अत्र 'से' शब्दो मागधदेशी प्रसिद्धः अथशब्दार्थे वर्त्तते, अथशब्दश्च वाक्योपन्यासार्थः तथा चोक 'अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्ग कोपन्यासार्थप्रतिवचनसमुचयेषु किमिति परिप्रश्ने, तदिति सर्वनाम पूर्वप्रक्रान्तावमर्शि, अतोऽर्थं समुदायार्थः अथ किं तदावश्यकं १, एवं प्रश्ने सति आचार्यः शिष्य वचनानुरोधेनादराधानार्थं प्रत्युच्चार्य निर्दिशतिअवश्यक र्त्तव्यमावश्यकं, अथवा गुणानामावश्यमात्मानं करोतीत्यावश्यकं यथा अंतं करोतीत्यंतक, प्राकृतशैल्या वा 'वस निवास' इति गुणशून्यमात्मानमावासयति गुणैरित्यावास के चतुर्विधे प्रज्ञप्तं चतस्रो विधा अस्येति चतुर्विषं प्रशतं प्ररूपितं अर्थतस्तीर्थकाः सूत्रतो गणधरैः, तद्यथा-नामावश्यकमित्यादि, 'से किं त' मित्यादि (९-११) वत्र नाम अभिधानं नाम च तावश्यकं च नामावश्यक, आवश्यकाभिधानमित्यर्थः, इद्द नान इदं लक्षणं यद्वस्तुनोऽभिधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षम् । पर्यायानभिधेयं च नाम यादृच्छिकं च तथा ॥ १ ॥ यस्य वस्तुनः 'ण'मिति ~10~ आवश्यक. निक्षेपाः ॥ ६ ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१०] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [११] श्रीअनु० हारि. वृचौ ॥७॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ (मूलं वृत्तिः) मूलं [१०] / गाया [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: वाक्यालङ्कारे जीवस्य वा यावत्तदुभवानां चावश्यकमिति नाम क्रियते 'सेत' मित्यादि, तदेतन्नामावश्यकमित्ति समुदायार्थः, अवयवार्थस्वयं 'आवरसति नाम कोई कासति जहिच्छिया कुणति । दीसइ ढोए एवं जह साहिग देवदत्तादी || १ | अनीसुवि केसुवि आवास भणति एगदव्यं तु । जह अचित्तममिण मति सप्पस्स आवासं ॥ २ ॥ जीवाण बहूण जहा भणति अगार्णे तु मूसगावासं । अजीवाबिहु बहवो जद्द आवासं तु सदस्सि || ३ || उभयं जीबाजीचा तणिफण्णं भांति आवासं । जह राईणावासं देवावासं विमाणं वा ॥ ४ ॥ समुदाएणुभयाणं कप्पावासं भणति इंदस्स । नगरनिवासावासं गामावासं च इचादि ॥ ५ ॥ 'से किं तमित्यादि ( १०-१२ ) तत्र स्थाध्यत इति स्थापना स्थापना चावश्यकं चेति स्थापनावश्यक, आवश्यक त्रतः स्थापनेत्यर्थः, स्थापनालक्षणं चेदं यस्तु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रायेण यच तत्करणिः । प्यादि कर्म तरस्थापनेति क्रियतेऽल्पकालं च ॥ १ ॥ यत् 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे काकम्र्मणि वा यावदावश्यकमिति स्थापना स्थाप्यते, 'सेत ' मित्यादि, तदेवस्स्थापनाऽऽवश्यकमिति समुदायार्थः, अवयवार्थस्स्वयं- 'आवश्सव करेन्तो उवणाए जे उविजए साहू । तं सह उवणादास भणति साहेनिमेहिं तु ।। १ ।।' काष्ठ कर्म काष्ठकर्म तथ कुट्टिमं तस्मिन् चित्रकम् प्रतीतं, पुस्तकम्मे धीडल्लिकादि वखपल्लवसमुत्य वा संपुटकं मध्यवर्त्तिकाख्यं वा पत्रच्छेदनिष्कण्णं वा उक्तं च-'पल्गिादि बेल्जियम्भादिनिव्वत्तियं च जाणादि । संपुढगवात्तिविहियं पत्तच्छेज्जे व पोत्यति ॥ १ ॥ ' लेप्यकम्र्म्म प्रतीतं, मन्थिसमुदायजं पुष्पमालावत् जालिकावडा, निर्वर्त्तयन्ति च केचिदतिशयनैपुण्याविवास्तत्राप्यावश्यकवन्तं साघुमित्येवं बेष्टिमादिष्वपि भावनीयं तत्र पेटि बेटनकसंभवमानन्दपुरे पूरकवत्, कलाकुशलभावतो वा कालीद्वत्रवेष्टनेन भावश्यकक्रियायुक्तं यतिमवस्थापयति परिमं-भरिमं सगर्भरीतिकादिभृतप्रतिमादिवत् संघातिमं कंचुकवत्, अक्ष:- चन्दनकः मराटक: कपर्दकः, एतेषु एको वा आवश्यक क्रियावान् अनेके वा वतः सद्भावस्थापनाया वा असद्भावस्थापनया वा तत्र तदाकारवती सद्भाव ~11~ आवश्यकनिक्षेपाः ॥७॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [११-१३] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१२-१४] श्रीago हारि. वृत्तौ || 2 11 "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [११-१३] / गाथा [...]])] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [ ४५], चूलिकासूत्र -[२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: स्थापना अदाकारवती चासद्भाबस्थापनेति, उक्तं च- 'अक्खे बराडर वा कट्ठे पोत्ये व चित्तकम्मे वा । सम्भावमसम्भावं ठेवणाकार्यं बियाणाहि ॥ १ ॥ केप्पगद्दत्थी इत्थिति एस सम्भाविया भवे ठवणा । होइ असम्भावे पुण इत्यित्ति निराकिती अक्खो ॥ २ ॥' आवश्यकमिति क्रियाक्रियावतोरभेदात्तद्वानत्र गृह्यते, स्थापना स्थाप्यते स्थापना क्रियते ' से त' मित्यादि, तदेतत्स्थापनाऽऽवश्यकं । साम्प्रतं नामस्थापनयोरभेदाश का पोहायद सूत्रं 'नामटवणाण' मित्यादि, ( ११-१५ ) कः प्रतिविशेषो नामस्थापनयोरिति समासार्थः । आक्षेपपरिहारलक्षणो विस्तरार्थस्त्वयं-'भावरहितम्मि दब्बे णामदुवणाओ दोवि अविसिद्धा । इतरेतरं पडुचा किह व विसेसो भवे तासि १ ॥ १ ॥ कालकंतोऽत्य विसेसो णामं ता धरति जाव तं दब्बं । ठवणा दुहा य इतरा यावकहा इचरा इणमो ॥ २ ॥ इह जो ठवणिंदकओ अक्खो सो पुण ठबिज्जए राया । एवित्तर आवकहा कलसादी जा बिमाणेसु || ३ || अव विसेसो भण्णति अभिधाणं वत्थुणेो णिरागारं । उवणाओ आगारो सोबि य णामस्स णिरवेक्खो || ४ |' 'से किं त' मित्यादि (१२-१४) तत्र द्रवति गच्छति तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यं द्रव्यं च तदावश्यकं च द्रव्यावश्यकं भावावश्यककारणमित्यर्थः द्रव्यलक्षणं चेदं 'भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तद्रव्यं तत्वज्ञैः संचेतनाचेतनं कथितम् ॥ १ ॥ इह चावश्यकशब्देन प्रशस्तभावाधिष्ठिता देहादय एवोच्यते तद्विकलास्तु त एव द्रव्यावश्यकमिति, उकं च "देागमकरियाओ दब्बावासं भणति सव्वष्णू । भावाभावत्तणओ दव्वजितं भावरहितं वा ॥ १ ॥ विवक्षया विवक्षितभावरहित एव देो गृह्यते, जांबो न सामान्यतो, भावशून्यत्वानुपपतेरलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः द्रव्यावश्यकं द्विविधं प्रज्ञप्तं तद्यथा-आगमत:आगममाश्रित्य नोआगमतच नोशब्दार्थ यथाऽवसरमेव वक्ष्यामः चशब्दौ द्वयोरपि तुल्यपक्षतभावनाय । 'से किं त' मित्यादि, (१३-१४) आगमतो द्रव्यावश्यकं 'जस्स ण' मित्यादि, यस्य कस्यचित् 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे आवश्यकमित्येतत्पदं इह चाधिकृत ... आवश्यकस्य द्रव्य निक्षेप अधिकार: ~12~ आवश्यकनिक्षेपाः 112 11 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .......... मूलं [११-१३] / गाथा [...] ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक श्रीअनु हारि.वृत्त सका ॥ ९ [११-१३] गाथा ||१..|| ॥ पक्षालम्बन शास्त्रमभिगृह्यते, शिक्षिते भवति, स तत्र वाचनादिभिर्वर्तमानोऽपि व्यावश्यकामिति क्रिया, अत्र च 'सुपा लुग' त्यादिना छंदामद्रव्यावश्यएन(इति)शिक्षितमित्यपि भवति, तन शिक्षितमित्यंत नीतमधीसमित्यर्थः, स्थितमिति चेतसि स्थितं न पश्यसमितियायत, जिसमिति परिपाटीकाधिकारः कुर्वतो दुनमागच्छनीत्यर्थः, मितमिति वर्णादिभिः परिसंख्यातामिति हृदयं, परिजितामिति सर्वतो जितं परिजितं, परावर्तनां कुर्वतो यदुत्कमे-16 णाप्यागपतीत्यभिधायः, नाना समं नामसमं, नाम-अभिधानं, एतदुक्तं भवति-स्वनामवन शिक्षिताचिगुणोपेतमिति, घोषा-सदाचादयः। वाचनाचार्याभिहितपोपैः समं घोषसम, अक्षरन्यून हीनाक्षरं न होनाक्षरमहीनाक्षरं, अधिकाक्षरं नाधिकाक्षरमनत्यक्षरमिति, विपर्यस्तरत्नमालागतरत्नानीव न व्याविद्धानि अक्षराणि यस्मिंस्तदव्याविडाक्षरं, उपलाकुलभूमिलाङ्गलवन्न स्खलितमस्स्वलितं, न मिलितममिलितं असरशधान्यमेलकवत् न विपर्वस्तपदवाक्यमन्यमित्यर्थः, असंसक्तपदवाक्यविच्छेद.ति, अनेकशास्त्रग्रन्थसंकरात अस्थानछिन्नपन्थना द्वा न व्यत्याऽऽडित फोलिकपायसवत् भेरीकथावत्यव्यत्यामेडितं, अस्थानाछिन्नमगधनेन व्यत्यामेजितं यथा 'प्राप्त राज्यस्य रामस्य राक्षसा निधनं गते' त्यादि, प्रतिपूर्ण ग्रंथतोऽर्थता, तब प्रयतो मात्रादिभिर्यप्रतिनियतप्रमाणं छदसा वा नियतमानमिति, अर्थतः परिपूर्ण नाभ म साकांक्षमध्यापकं स्वतंत्रं चेति, उदातादिघोषाषिकलं परिपूर्णयोथं, आह-पोषसममित्युक्तं ततोऽस्य को विशेष: । इति, उच्यते, घोषसममिति शिक्षितमधिकृत्योक्तं प्रतिपूर्णपोषं सूचार्यमाणं गृहात इत्ययं विशेषः, कंठश्रौष्ठी कंठोष्ठं प्राण्यगत्वादेकबहावस्तेन विषमुक्तमिति विग्रहः, नाम्यायालमूकभाषितवत् , वाचनया उपगतं गुरुवाचनया हेतुभूतयाऽवा, न कांघाटफेन शिक्षितमित्यर्थः, पुस्तकावा अधीनमिति, स इति सत्व: 'ण' मिति वाक्यालबारे तत्राऽऽवश्यके वाचनया प्रतिप्रश्नेन परावर्तनेन धर्मकथया वर्तमानो व्यावश्यकमिति वाक्यशेषः ॥९ ॥ नानुप्रेशया व्यापत्ये इच्यावश्यक, कस्माद् ?, अनुपयोगो द्रव्य' मिति कृत्या, अनुप्रेक्षया तु तदभावः, तत्र प्रन्थतो शिष्याऽध्यापनं वाचना दीप अनुक्रम [१२-१४] ~13~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [११-१३] / गाथा [१...] ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] “अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११-१३]] गाथा ॥१..|| श्रीअनु० हारि वृत्ती ॥१०॥ अनवगतार्थादौ गुरुं प्रति प्रश्नः प्रतिप्रश्नः मन्थस्य पुनः पुनरभ्यसनं परावर्तनं अहिंसालक्षणधर्मान्वाख्यानं धर्मकथा ग्रंथार्थानुचिन्तनमनुप्रेक्षा, व्यावश्यआह-आगमतोऽनुपयुक्तो व्यावश्यकमित्येतावतैवामिलपितार्थसिद्धेः शिक्षितादिश्रुतगुणोत्कीर्तनमनर्थकमिति, सक्यते, शिक्षितादिश्रुत- काधिकार: गुणकीर्तनं कुर्वन्निदं ज्ञापयति यह सकलदोषविप्रमुक्तमपि श्रुतं निगदतो द्रव्यश्रुतं भवति, द्रव्यावश्यक प, एवं सर्व एव ईयादिकिया-1 विशेषः अनुपयुक्तस्य विफल इति, उपयुक्तस्त्र तु वथा स्खलितादिदोषदुष्टमपि निगदतो भाक्श्रुतमेवीर्यादयोऽपि क्रियाविशेषाः कर्ममला-1 पगमायेति, एत्व व अवायदसणथं वीणक्खरमि उदाहरण-इह भरहमि रायगिह नगरं, तत्व गया सेणिओ नाम होस्था, तरस पुत्तो पयाणु| सारी चविहधुद्धिसंपन्नो अभओ णाम होत्था, अण्णथा तेणे काळेण तेणं समपर्ण समणे भगवं महावीरे इह भरहमि विहरमाणे तंमि णगरे समोसरिंसु, तत्थ य बहवे सुरसिद्धविजाहरा धम्मसवणनिमित्तं समागछिसु, तसो धम्मकहावसाणे णियणियभवणाणि गच्छताणं एगस्स | विजाहरस्स णहगामिणीए विजाए एकमक्खरं पम्हमासी, तओ तं वियलविज णियगभवणं गंतुमचाएन्तं मंडुक इवोप्पणिवयमाण सेणिए अदक्खु, ततो सो भगवतं पुरिछसु, से य भगवं महावीरे अकहिंसु, तं च कहिाजमाणं निमुणेत्ता सेणियपुत्ते अभए विजाहरं एवं वयासी-जइ मर्म सामण्णसिदि करेसि ततोऽहं ते अक्खरै भामि पयाणुसारितणओ, से य कार्हसु, ततो से अभए तमक्खरं लर्मिसु, लभिचा य विजाहरस कासु, ततो से य पुष्णविज्जो तीए विष्जाए अभयस्स साहणावार्य कहेता णियगभवणं गमिमुत्ति, एस विडतो, अयमत्थोवणओ-जहा तस्स विजाहरस्स होणक्खरदासेणं जहगमणमेव पम्हमासी, वंमि य अहंते बिहला विजा, एवं हीनाऽर्थभेदोऽर्थ| भेदात् क्रियाभेदादयस्ततो मोक्षाभावस्तदभावे च दीक्षावैययामिति अहियकखरंमि उदाहरणं-पाटलिपु से पथरे चंदगुत्तपुसस्स पिंदुसारस्स पुत्तो P॥ असोगो नाम राया, वस्स असोगस्स पुत्तो कुणालो नाम, उजेणी से कमारमोचीए दिषणा,मा बुट्टर, अण्णता तस्स रण्णो निवेदितं-जहा कुमारो दीप अनुक्रम [१२-१४] | ~14~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .......... मूलं [११-१३] / गाथा [...] ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] “अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सुत्रांक [११-१३] गाथा ॥१..|| श्रीअनु साइरेगहवासो जाओति, ताहे रण्णा सयमेव लेहो लिहिओ जहाहीयतु कुमारी, कुमारस्स व मादीसम्बकीए रण्णा पासहियाए तस्थ द्रष्यावश्यरे.वृत्तौ पच्छण्णो बिन्दू पाहिओ, रण्णा अचाइय मुहिता उज्जेणी पेसिओ, बाइओ, वायगा पुच्छिया-लिहिया, ते गच्छति कहिलं, ताहे कुमारेण काधिकार सयमेव वाइओ, पितिय चऽणेण-अह मोरियवसियाण अपडिहवा आणाओ, कहमहं अपणो पिणो आण भंजामि', तओ अणेण तत्तसला॥११॥ " गाए अच्छीणि अंजियाणि, ताहे राणा णार्य, परितषित्ता उजेणी अण्णस्स कुमारस्सै विण्णा, तस्सवि कुमारस्म अण्णो गामो दिण्णो, अण्णया का तस्स कुणालस्स अंधयस्स पुत्तो जाओ, णामं च से कर्य संपती, सो अंधयो कुणालो गंधव अतीवकुश, अण्णया य अण्णायो बम्जेणीए लगायतो हिंडइ, तत्थ रण्णो निवेदियं जहा एरिसो सो गंधव्वि जो अंधल ओत्ति, तओ रण्णा भणियं-आणेहति, ताहे आणिओ जवणिव |तरिओ गायति, जाहे अतीव असोगो अक्खिचो, ताहे भणति-किं ते देमि ?, तओ एत्य कुणालेण गीतं- 'चंदगुचपोचाउ, बिंदुसारस्स सत्तुओ। असोगसिरिणो पुचो, अंघो जायति कागिर्णि ॥१॥ वाहे रण्णा पुक्छित-को एस तुम?, तेण कहितं-तुभं चेव पुत्तो, ततो जवडानिय अवसारे कंठे पधेनुं अंमुपातो को, भाणियं च-किं देमि, वेण भाणियं-कागणि मे देदि, रण्णा भणिय-किं कागिणिए व तुर्म करि| हिसि जै कागणिं जायसि, ततो अमचेहि भणिय-सामि! रायपुत्ताणं रज कागणि भण्णति, रण्णा भाणयं-कि तुम काहिसि रमण ?, कुणालेय मणिवं-मम पुत्तो अस्थि संपतीणाम कुमारो, तओ से दिणं रज, सो व लवणो णवरमहियखरेणंति अभिलायो कायव्यो, । अइबा भावाहिए लोकयं इमं अक्वाणय-कामियसरस्स तीरे व वंयुलरुक्खो महतिमहालओ, तत्य किर रुक्खे अवलग्गिड जो सरे पहति सी जातिरिक्खजोणिओ तो मणुस्सो होति, अहमणुस्सो पद्धति ततो देवो होति, अहो पुणो बीयं वारं पडति सो पुण सोचेवा [य होइ, तत्थ काणरो सपत्तिओ ओयरति पविदिणं पाणितं पातु, अण्णया पाणिपियणवाए आगतो संतो वंजुलरुक्खाओ मणुस्सिथिमिहु दीप अनुक्रम [१२-१४] ~150 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [१५] श्रीअनु० हारि. वृत्तौ १२ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ (मूलं वृत्तिः) मूलं [१४] गाया [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: जगं कामसरे पडितं ततो देवभिहुण जाये पेच्छति, तओ वाणरो सपत्तिओ संपहारेति जहा रुक्त्र अवलग्गितुं सरे पढामो जा देवमिडुजगं भवामो, तो पडिताणि, उरालं माणुसजुअलं जावं, सो भणइ पढामो जाहे देवजुयलगं भवामो, इत्थी वारेती, को जाणति माण होमो देवा, पुरिसो भणति जइ प्ण होज्जामो कि माणुसवर्णपि णरिसहिति १, तीए भणियं को जाणइति ततो सो सीए वारिज्जमाणोऽथि पडिओ, पुणोषि वाणरो चेत्र जाओ, पच्छा सा रायपुरिसेहिं गहिया, रण्णो भग्जा जाया, इतरोऽवि मोयारहि गहिओ खड्दुओ सिक्खावितो, अण्णया य ते मोयारगा रण्णो पुरओ पेच्छं देवि, रायादि सह तीए देवीए पेच्छति, ताहे सो वाणरो देविं निज्झाएंतो अहिलसति, लओ तीए अनुकंपाए वाणरो भणिजो जो जहा वट्टए कालो, तं तहा सेव वाणरा ! मा बंजुलपरिष्भट्ठो, वाणरा ! पडणं सर ॥ १ ॥ उपनयः पूर्ववत् भावहीणाधितभावेधि उदाहरणं, जहां काइ अगारी पुत्तस्स गिलाणस्स गेहेणं तितकडुभेसयाई मा णं पीलेन्ज ऊणए देइ, पडणति ण तेहिं, अहिएहिं मरति बालो, तद्दाहारे । साम्प्रतमिदमेव द्रव्यावश्यकं नयेर्निरूप्यते, ते च मूनया नैगमादयस्तथा चोक्तम्- 'गम संग बहार तो चेव होइ घोघब्यो । संदे व समभिरूते एवंभूते व मूळनया ॥ १ ॥' तओ 'णेगमस्से' त्यादि (१४-१७ ) नैगमस्यैकोऽनुपयुक्तो देवदत्तः आगमतः एकं द्रव्यावश्यक द्वावनुपयुक्तौ देवदत्तयज्ञदत्ती आगमतो द्रव्यावश्यके श्रयः अनुपयुक्ता देवदत्तयज्ञदत्तसोमदत्ताः आगमतो द्रव्यावश्यकानि, किंबहुना १, यावन्तोऽनुपयुक्ता देवदादयस्तावत्येव तानि नैगमस्याऽऽगमतो द्रव्यावश्यकानि, एवमतीतान्यनागतानि च प्रतिपद्यत इति, नैगमस्य सामान्यविशेषाभ्युपगमप्रधानत्वात् विशेषाणां च विवक्षितत्वात्, आइ एवं सामान्यविशेषाभ्युपगमरूपत्वात् अस्य सम्यग्दृष्टित्वप्रसङ्गः न, परस्परतो ऽत्यन्तनिरपेक्षत्वाभ्युपगमात् उक्तं च- 'दोहिवि एहिं नीतं सत्यमुरण तहवि मिच्छत्तं सविसयप्पहाणतणेण अण्गोण्णनिरवेक्खो || १ || '' एवमेव बवहारस्सवि' एवमेव यथा नैगमस्य तथा व्यवहारस्यापि " 1 ~16~ " द्रव्यावश्य काधिकारः ॥१२॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [१५-१६] / गाथा [...] ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१५-१६] गाथा ॥१..|| श्रीअनुपाएक: अनुपयुक्तो देवदतः आगमत एक द्रव्यावश्यकमित्यादि, अस्य व्यवहारनिष्ठत्वात् व्यवहारस्प च विशेषायत्तत्वात विशेषण्यतिरेकेण च I T हारि.वृत्ती सामान्यासिद्धेः, विशेषाभ्युपगमसाग्यादविदेशेनवाधिकृतनयमताभिधानलक्षणेष्टार्थसिद्धोधवार्थ नैगमनयमतोपन्यासानन्तर व्यवहारनय-14 मनापन्यास इति । संगहस्से त्यादि, संग्राहस्यको वाऽनेके वाऽनुपयुक्तो वा अनुपयुक्ता वा आगमतो द्रख्यावश्यकंवा व्यावश्यकानि वा 'से एग' ति ॥१३॥ तकं द्रव्यावश्यक, सामान्यापेक्षया, व्यावश्यकसामान्यमात्रप्रतिपादनपरत्वादस्य, सामान्यव्यतिरेकेण विशेषामिद्धे, 'उज्जुसुत्तस्से'त्यादि, ऋजमूत्रस्यैको वाऽनुपयुत्तो देवदत्तः आगमतच एक द्रव्यावश्यक, पृथक्त्वं नेच्छनि, अयमत्र भावार्थ:- वर्तमानकाळभावि आत्मीयं चच्छति, तस्यैवार्थक्रियासमर्थत्वान् सधनवन् , अतीतानागतपरकीयानि तु नेच्छति, अतीतानागतयोपिनष्टानुपपन्नत्वात् परकीयस्य च स्वकार्याप्रसाधकस्यादिति ।' तिण्डं सद्दणयाण' भित्यापि, त्रयाणां शब्दनयानां शब्दसमभिरुद्वैवंभूतानां शः अनुपयुक्तः अवस्नु, अभाव इत्यर्थः, 'कस्मादिति कस्मात्कारणान, यदिशा अनुपयुक्तो न भवति, कुन एतद्, उपयोगरूपत्वात् ज्ञानस्य, ततश्चमोऽनुपयुक्तश्चेत्यसंभव ४ एब, 'सेत'मित्यादि, तदागमतो द्रव्यावश्यक, आह-कोऽयमागमो नाम इति, उच्यते, हानं, कथमस्य द्रव्यत्वं, भावरूपत्वात् मानस्येति, सत्य-ल मेतत् , कित्यागमस्य कारणमात्मा देहः शम्दश्च, व्यं च कारणमुक्तमतस्तत्कारणत्वादागम इति, कारणे कार्योपचारात् ।' से कितनोआगमतोमा इत्यादि (१५-१९) अथ कि तम्रोभागमतो द्रव्यावश्यकं , नोआगमतो इत्यत्र आगमसम्बनिसहे भोसहो अहब देसपडिसेहे । सब्वेजह णसरीरं भव्यस्स य आगमाभावा ॥ १॥ किरियागमुपरंतो आवास कुगति भावमुण्णोति । किरियाऽऽगमो ण होई तस्स निसेहो भवे ॥१३॥ देसे ॥२॥ नोआगमतो ब्यावश्यकं त्रिविध प्रज्ञप्त, तबधा-पाशरीरद्रव्यावश्यक भब्यशरीरद्रव्यावश्यक शरीरभव्यशरीरव्यविरित च | द्रव्यावश्यक । 'से किंत' मित्यादि (१६-१५) प्रश्नसूत्र, ज्ञातवानिति शः तस्य शरीरं उत्पादकालादारभ्य प्रतिक्षणं शीर्थत इति शरीरं RECACAKESAKAL दीप अनुक्रम [१६-१७] ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [१५-१६] / गाथा [...] ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१७] गाथा ||१..|| श्रीअनु० | तदेवानुभूतभावत्वात् द्रव्यावश्यक अशरीखव्यावश्यकं । आवस्सएतिपदत्याधिकारजाणगस्सेत्यादि, आवश्यकमिति यत्पदं भव्यशरि-13 नोआगम हारि.वृत्तीत व्यावश्यकं अस्वार्थ एवार्थाधिकारः तद्गता अर्थाधिकारा वा गृह्यन्ते तस्य तेषां वा झातुः यच्छरीरक, संज्ञायां कन् , किंभूतं ?- व्यपगत-निद्रव्ये भेदा: च्युतच्यावितत्यक्तदेई, ठ्यपगतम्-ओघतश्चतनापर्यायादचेतनत्व प्राप्त च्युत-देवादिभ्यो भ्रष्ट च्यावितं-तेभ्य एवायुःक्षयेण भ्रंशितं त्यक्तदेहं-जीव॥१४॥ संसर्गसमुत्थशक्तिजनिताहारादिपरिणामप्रभवपरित्यक्तोपचय, तत्र व्यपगतं सर्वगताऽऽत्मनः प्राकृतमपि भवति तद्विच्छित्तवे च्युतं, इदमपि स्वभावत एवं कैश्चिदिष्यते तद्व्यपोहाय च्यावितं, इत्थं त्यक्तोपचयमिति चैतज्जीवशरीरयोर्विशिष्टसम्बन्धज्ञापनार्थमिति, उक्तं च वृद्धैः"पजायतरपर खीरंच कमेण जह दधिसणं । तह चेतणपजायादचेयणतं क्वगतंति ॥ १॥ चुतमिह ठाणभई देवोव्य जहा विमाणवासाओ । इय जीविरायणादिकिरियाभट्ट चुतं भणिमो ॥२॥ चइयंमि धाषितं जं जह कप्पा संगमो सुरिदेणं | तह चावियमिति जर्जावा पछिएणाउक्खएणति ॥ ३ ॥ आहारसचिजणिताऽऽहारसुपरिणामजोवचयमुण्णं । भण्णाहु चत्तदेई देदीवरओत्ति एगट्ठा ॥४॥ एवमुक्तेन विधिना जीवेन-आत्मना विविधमनेकधा प्रकर्षण मुक्तं जीवविषमुक्तं, तथा चान्यैरप्युक्त-पंधळेपत्तणओ आउक्सयनव जीवविप्पजद । विजदंति पगारेण जीवणभावहितो जीवो ॥१॥' ततश्चेदं व्यपगतादिविशेषणकलापयुक्तं यावज्जीवविषमुक्तं शशरीरद्रव्यावश्यकमिति गम्यवे, कथं ?, यस्मादिदं शथ्यागतं वा संस्तारगतं वा सिद्धशिलातलगतं वा दृष्ट्वा कश्चिदाह-अहो! अनेन शरीरसमुच्छ्रयेण जिनदृष्टेन भावेन आवश्यकमित्येतत्पदमाख्यातमित्यादि, तस्मादतीतकालनयानुवृत्त्याऽतीत वृत्तिमपेक्ष्य द्रव्यावश्यकमित्युच्यत इति क्रिया, यथा को ४ ॥१४॥ दृष्टान्त इति ?, प्रश्नानिषचनमाइ-अयं मधुकुम्भ आसीदयं घृतकुम्भ आसीदित्यादि अक्षरगमनिका, भावार्थ उच्यते-तत्र शय्यासंस्तारको प्रतीतो, सिद्धशिलातलं तु यत्र शिलातळे साधवस्तपःपरिकम्तिशरीराः स्वयमेव गत्वा भक्तपरिक्षनशनं प्रतिपन्नपूर्वाः प्रतिपद्यन्ते प्रतिपत्स्यन्ते दीप अनुक्रम [१८] ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [१७-१८] / गाथा [...] ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: रोभव्य प्रत सूत्रांक [१७-१८] गाथा श्रीअनु ति, क्षेत्रगुणतम सत्र यथामद्रिकदेवतागुणाचाराधना सिद्धिमासादयतीति, अन्ये तु व्याचक्षते-यस्मिन् शिलातले सिद्धः कधिपिति, गतं स्थितहारि-वृत्ती NOमिस्वनर्यान्सर, अहो दैन्यविस्मयामंत्रणेषु विष्वपि युज्यते, वनानित्यं शरीरमिति देन्ये, आवश्यकं ज्ञातमिति विस्मये, अन्य पार्श्वस्थमामंत्रयत शरीराब. आमंत्रणमिति, अनेन प्रत्यक्षेण लत्पत्तिकालादारभ्य प्रतिसमयं शीर्यत इति शरीरं तदेव पुगळसंघातनरूपत्वात् समुयस्तेन जिनदृष्टेन भावेन टू ॥ १५॥ भूतपूर्वगत्या जीवितशरीरयोः कथविरभेदात् आवश्यकमित्येतत्पदमास्यातं सामान्य विशेषरूपेण, अन्ये तु व्याचक्षते-'आपषियं' ति प्राकृत | शैल्या छान्दसत्वाच गुरोः सकाशादागृहीतं, प्रज्ञापितं सामान्यतो विनेयेभ्यः , प्ररूपितं प्रतिसूत्रमर्थकथनेन,' वर्शित प्रत्युपेक्षणादिवर्शनेन, इयं क्रिया पाभरक्षरैरुपात्ता इत्थे चाफियत इति भावना,निदर्शितं कथश्चिदगृहतः परयाऽनुकम्पया निश्चयेन पुनः पुनर्देशित, उपदर्शितं सकलमययुक्तिभिः, अन्ये त्वन्यथापि व्याचक्षते, तदई तपन्यासलक्षणेन प्रयासनेति, अतः द्रव्यावश्यकमभिधीयते, आह-आगममियातीतमचेतनमिदं कथं द्रव्यावश्यकमभिधीयते , अनोच्यते, अतीतकालनयानुवृत्त्या, यथा को हटान्तः!, तत्र दृष्टमर्थमन्तं नवतीति दृष्टान्त:, लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिअर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्त इत्यन्ये, अयं मधुकुम्भ आसीदित्यादि, अतीतमधुपुतपटषदिति भावना ।' से त' मित्यादि निगमन। 'से किंत'मित्यादि (१७-२१) भन्यो योग्यो दलं पात्रमिति पर्यायाः, तस्य शरीरं तदेव भाविभावाऽऽवश्यककारणत्वात् द्रव्यावश्यकं भव्यशरीरद्रश्यावश्यकं, 'जो जीवो' त्यादि, यो जीवो योन्या-अवाच्यदेशलक्षणया जन्मत्वेन सकळनिवृत्तिलक्षणेन, अनामगर्भव्यवच्छेचमाह, निष्काग्ता-निर्गतोऽनेनैव शरीरसमुच्छयेणेति पूर्ववत्, आवतेन- गृहीतेन, अन्ये त्वभिदधति- 'अत्तएणं' ति आत्मीयेन, जिनदृष्टेन भाषनेत्यादि पूर्ववत्, अववा तदावरणक्षयोपशमलक्षणेन 'सेयकाळे' चि छान्दसत्वादागामिनि काले शिक्षिष्यते, न सायच्छिवते, तदेतद्भाविनी वृत्तिमंगचित्य |31॥१५॥ भव्यशरीरल्यावश्यकमित्युच्यते, यथा को दृष्टान्त इत्यादि भाविताथै थावत 'सेत' मित्यादि। 'से किंत' मित्यादि (१८-२२)शरीर-1 दीप अनुक्रम [१८-१९]| है ~19~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१९] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [२०] “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः) मूल [१९] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -[२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः: ॥ १६ ॥ श्रीअनु० ४ भव्यशरीराभ्यां व्यतिरिकं द्रश्यावश्यकमिति निरूपितशब्दार्थमेव त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-लौकिकं कुप्रावचनिकं लोकोत्तरं, 'से किं त' मित्यादि हारि वृत्तौ ( १९-२२ ) एते राजेश्वरादयः मुखधावनादि कृत्वा ततः पश्चाद्राजकुलादी गच्छति तदेतल्लौकिकं द्रव्यावरकमिति क्रिया, तत्र राजा चक्रवदिर्मा माण्डलिकान्तः ईश्वरो युबराजा माण्डलिकोऽमात्यश्च, अन्ये तु व्याचक्षते अणिमायष्टविधैश्वर्ययुक्त ईश्वर इति तलबर:- परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टधभूषितः माडम्बिक:- छिन्नमंडलाधिपः कोटुम्बिकः कतिपयकुटुम्बप्रभुः इभ्यः अर्थवान्, स च किल यस्य पुञ्जीकृत रत्नराश्य* न्वरितो इस्त्यपि नोपलभ्यत इत्येतावताऽर्थेनेति, श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टभूपितोत्तमाङ्गः पुरज्येष्ठो वणिक्, सेनापतिः- नरपतिनिरूपितोष्ट्रहस्त्यश्वरथपदात्तिसमुदायलक्षणायाः सेनायाः प्रभुरित्यर्थः, सार्थनायक:- 'गणिमं धरिमं मेजं पारिच्छेजं व दव्वजायं तु । घेचूणं लाभही वच जो अण्णदेसं तु ॥ १ ॥ निवबहुमओ पसिद्धो दीणाणाहाण बच्छलो पंथे । सो सत्यवानामं घणोव्व लोए समुब्वहति ॥ २ ॥ प्रभृतिमहणेन प्राकृतजनपरिग्रहः, 'कलं पादुप्पभाताए ' इत्यादि, कलमिति वः प्रज्ञापकापेक्षमेतत् यतः प्रज्ञापको द्वितीयायामेव प्रज्ञापयति, प्रादुः प्रकाशन इत्यर्थे धातुः, ततश्च प्रकाशप्रभातायां रजन्यां सुविमलायामित्यादिनोत्तरोत्तरकालभाविना विशेषणकलापेनाऽस्यतोथमवतां मानवानां तमावश्यककालमाह, 'फुल्लोत्पलकमलकोमलोन्मीलिते ' इहोत्पलं पद्ममुच्यते कमलस्वारण्यः पशुविशेषः ततञ्च फुलोत्पलकमलयो:- विकशितपद्मकमलयोः कोमलं - अकठोरं उन्मीलितं यस्मिन्निति समासः अनेनारुणोदयावस्थामाद, 'अहापंडुरे पहाए अथ आनन्तर्ये, तथा 'रक्तासोगे ' त्यादि, रक्ताशोकप्रकाशकिंशुकशुकमुखगुंजार्द्धरागसदृशे, आरक्त इत्यर्थः तथा 'कमलाकरनलिनीखण्डबोधके' कमलाकरो-हृदादिजलाश्रयस्तस्मिन्नलिनीखण्डं तद्बोधक इत्यनेन स्थलनालनव्यवच्छेदमाह, यद्वा कमलाकरनलिनी खण्डयोर्भेदने वै ग्रहणं, 'उत्थिते' उगते सूर्ये सद्दल रश्मी सहस्रकिरणे दिनकरे - आदित्ये तेजसा ज्वलति सति, विशेषण प्रहुत्वं महत्त्वाशयशुद्धयर्थं कर्त्तव्यमितिख्यापनार्थे, ... लौकिक द्रव्य आवश्यकस्य अधिकारः वर्णयते ~20~ लौकिक द्रव्याव. ॥ १६ ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं २०-२१] / गाथा [...] ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२०-२१] श्रीअनु० हारि.वृत्ती वश्यक ॥१७॥ गाथा यौते सर्व एव विशेषाः सन्ति तस्मिन्नुदिने, अशातज्ञापनार्थ वा विशेषकलाप इति, 'मुद्दधोवणे' त्यादि, निगमनान्तं प्रायो निगदसिद्धमेव, नवरं पुष्प-II द्रव्यामाख्ययोग्य विशेष:-अपथितानि पुरुषाणि प्रथितं माल्य, विकशितानि वा पुष्पाण्यविकशितानि माल्यं, आरामोद्यानयोरप्ययं विशेष:-विविधपुष्प-II जात्युपशोभितः आरामः पम्पकवनावपशोभितमुद्यान | 'से किंत' मित्यादि (२०-२४) यदेते चरकादयः इखाज्यादेरुपलेपनादि कुर्वन्ति तदेतस्कुप्रावनिक द्रव्यावश्यकमिति क्रिया, तत्र चरका:-धाटिभिक्षाचराः चीरिका-रध्यापतितचीरपरिधानाचीरोपकरणा इत्यन्ये, चर्मखण्डिका:चर्मपरिधानाश्चमोपकरणा इति चान्ये, मिक्षोण्डा:- भिक्षामोजिन: सुगतशासनस्था इत्यन्ये, पाडुरबा:- भौताः गीतमा:-लघुतराक्षमालाचार्षतविचित्रपादपतनादिशिक्षाकलापववृषभकोपायत: कणभिक्षामाहिणः, गोवृत्तिका:-गोश्चयानुकारिणः, उक्तं च-गावीह समं निगमपवेसठाणासणाइ य करेंति | भुंजंति य अह गावी तिरिक्सवासं विभावेन्ता ॥१॥ गृहधर्मा:- गृहस्थ एव यानित्यभिसंधाय तद्यथोक्तकारिण: धर्ममहितापरिक्षानवत: सभासदः, अविरुद्धाः- वैनयिका, उक्तं च- 'अविरुद्धविणयकारी देवादीण पगए भत्तीए । जह वेसियायणसुओ एवं | अण्णेवि नायव्वा ॥ १॥ विरुद्धा-अक्रियावादिनः, परलोकानभ्युपगमात्मवैवादिभ्य एव विरुद्धा इति, वृद्धा:-तापसाः प्रथमसमुत्पन्नत्वात् प्रायो वृद्धकाल एवं दीक्षाप्रतिपत्तेः श्रादका धिवर्णाः, अन्ये तु वृद्धभावका इति ब्याचक्षते धिगवर्णा एव, प्रभृतिषहणात् परिधाजकादिपरिग्रहः, पाखण्डस्थाः 'कल्ल' मित्यादि पूर्ववत् 'इंदं सिवेत्यादि, इन्द्रः प्रतीतः स्कन्द:-कार्तिकेयः रुद्रः।-प्रतीतः शिवो-महादेवः वैषषणो-यक्षनायक: देवा-सामान्यः नागो-भवनवासिभेवः यो-यन्तरः भूतः स एव मुकुन्दो-बलदेवः आर्या-प्रशान्तरूपा दुर्गा कोट्टिकिया-सैव महिषावारूढा, उपलेपसम्मार्जनावर्षणधूपपुष्पगन्धमाख्यादीनि द्रव्यावश्यकानि कुर्वन्ति, तत्रोपलेपनं-छगणादिना प्रतीतमेव सम्मानं दण्डपुच्छादिना आवर्षणं गन्धोदकादिनेति 'से-त' मित्यादि । 'जे इमे' ति (२१-२६ ) ये एते समणगुणमुकजोगिति' श्रमणा:-साधवस्तेषां गुणा: दीप अनुक्रम [२१-२२] ACCC ~21 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं २०-२१] / गाथा [...] ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] “अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२०-२१] ॥१८॥ गाथा श्रीअनुमूलोत्तराख्याः प्राणात्तिपातादिविनिवृत्यादयः पिण्डविशुन्यादयश्च, योजनं योगः आसेवनमित्यर्थः श्रमणगुणेषु मुक्तो योगो यैस्ते तथा-11 कुप्रावचहारि.बृत्ती दा | विधाः, शेषाः अवयवाः यावत् घडत्ति अवयवावयविनोरभेदोपचारात् जपे फेनकादिना घृष्टे येषां ते घृष्टाः, तथा 'मट्ठा' तैलोदकादिना मृष्टाः निक मतुप्लोपाद्वा मृथ्वंतो मृष्टाः 'तुप्पोट्ट 'त्ति तुप्रै स्निग्ध तुपा ओष्ठाः समदना वा येषां ते तुपौष्ठाः, शेष कण्ठय, यावदुभयका लौकिकलमावश्यकस्वेत्येवावश्यकाय, छट्ठीविभतीइ भण्णइ चउत्पीति लक्षणात् , प्रविक्रमणायोपतिष्ठन्ते तदेतत् द्रव्यावश्यक, द्रव्या वश्यके भावशून्यत्वादभिप्रेतफलाभावाश, पत्थ उदाहरण- वसंतउरं नगरं, सत्थ गम्छो अगीयस्थसंविग्गो भविय विहरति, तत्थ | य एगो संविग्गो समणगुणमुकाजोगी, सो दिवसदेवसिय मुदउहादियाओ असणाओ पडिगाहेत्ता महत्ता संवेगण पतिकमणकाले आलेोपति, तस्म पुण सो गच्छाणी अगीयत्थसणओं पायच्छितं देतो भणति-अहो इमो धम्मसडिओ साह, सुहं पाडसवितुं दुक्खं आलोएवं, एवं नाम एसो आलोएति अगूईतो असढत्तओ सुद्धोत्ति, एवं च दद्वर्ण अण्णे अगीयत्वसमणा पसंसंति, पितेति य-गवरं आलोएयब्वंति, गवि किंचि पजिसेवितेति, तत्थ अण्णया कयादी गीयत्यो संविग्गो विहरमाणो आगो, सो दिवसदेवसिय अविहिं दर्ण उदाहरणं दापति-गिरिणगरे वाणियओ रत्तरयणाणं परं भरेऊण वरिसे २ संपलीपेड़, एवं च वर्ण सम्बलोगो अविवेगत्तनो पसंसति-अहो! इमो धणो जो भगवतं भगि तप्पेति, तत्थडण्णया पळीविय गिहं पाओ य पचलो आओ सव्वं नगरं बवं, ततो | सो पच्छा रण्णा पडिहओ, पिण्णायकओ, अण्णहिणगरे एवं चेव करेड, सो राणा सुतो जहा कोवि वाणिओ एवं करे इत्ति, सो तेण सवस्सहरणो कारण विसजिओ, अडवीए किं न पलीवेसि?, तो जहा तेण वाणिएण अवसेसावि बढा एवं तुमंपि एवं पसंसंतो एते साहणो | दीप अनुक्रम [२१-२२] KOCACK ~22~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [[२२-२७] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [२३-२८] श्रीअनु० हारि. पृचौ ॥ १९ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [२२-२७] / गाथा [...]])] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४] भूमिकासूत्र :२] "अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः 4 4 सव्वेवि परिचयसि, ताहे जाहे सो न ठाइ ताहे तेण साहुको भणिता एस महानिदम्मां अगीयत्थो, ता अलं एयस्स आणाए, जइ एयस्स ि गहो ण कीरइ त अण्णेवि विणस्संतित्ति | 'सेत' मित्यादि निगमनत्रयं निगदसिद्धं । 'से किं त' मित्यादि (२२-२८) अवश्य क्रियानुष्ठानादावश्यकं गुणानां च आवश्यमात्मानं करोत्यावश्यकं उपयोगाद्यात्मकत्वाद्भावश्चासावावश्यकं चेति समासः, भावप्रधानं वाऽऽवश्यकं भावावश्यक भावावश्यकं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा- आगमतो नोआगमन, ' से किंत ' मित्यादि । २३-२८) उपयुक्तः, अयमंत्र भावार्थ:आवश्यकपदार्थज्ञस्तज्जनितसंवेगेन विशुद्वयमानपरिणामस्तत्रैवोपयुक्तस्तदुपयोगानन्यत्वादागमंतो भावावश्यकमिति तथा चाह- 'सेव 'मित्यादि निगमनं । से किंत मित्यादि, ( २४-२८ ) नोआगमतो भावावश्यकं ज्ञानक्रियोभयपरिणामो, मिश्रवचनत्वान्नोशब्दस्य, त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-लौकिकमित्यादि से किंतु ' मित्यादि ( २५-२८) पूर्वी भारतमपरा रामायणं, तद्वचनश्रोतॄणां पत्रकपरावर्तनसंयतगात्रादिक्रियायोगे सति तदुपयोगभावतो ज्ञानक्रियोभयपरिणामसद्भावादित्यभिप्रायः, ' से त' मित्यादि निगमनं 'से किं तमित्यादि ( २६-२९) गतार्थ यावदिनीत्यादि, इजलिहोमजपाणुरूवनमस्कारादीनि श्रद्धानुभावयुक्तत्वात् भावावश्यकानि कुर्वति, तत्र इञ्ज्यागांजलिरुध्यते स च वागदेवताविषयः मातुर्बाञ्जरि जाजलिर्मातृनमस्कारविधावितिभावः होमाग्मिः हवनक्रिया जपोमंत्रादिन्यासः उरुवं (कं) ति देशीवचनं वृषभगर्जितकरणार्थ इति, अन्ये तु व्याचक्षते बंदु मुखं तेण रुक्थं (कं) ति- सहकरणं तंपि वसभ ढोक्कियादि चैव चेदयति, नमस्कारः प्रतीतो यथा नमो भगवते दिवसनाधाय, आदिशब्दात् स्तवादिपरिग्रहः, सेत' मित्यादि, निगमनं 'से किं तमित्यादि, (२७-३० ) यदित्यावश्यकमभिसंबद्धयते, श्रमणो वेत्यादि सुगमं, यावत्तचित्तेत्यादि, सामान्यतस्तस्मिन् आवश्यके चित्तं भावमनोऽस्येति तचित्तः, तथा तन्मनो द्रव्यमनः प्रतीत्य विशेषोपयोगं वा तथा तल्लेश्य:- तत्स्थशुभपरिणामविशेष इति भावना, F ... अथ भाव आवश्यक अधिकारः वर्णयते ~ 23~ भावा वश्यकम् ॥ १९ ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२८] / गाथा [२] ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [२८] गाथा ||२|| श्रीअनु:11 उक्तं च- 'कृष्णविन्यसाचिव्यापीरणामो य आरमनः । स्फटिकस्येव सत्रायं, लश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥१॥ तथा 'तदध्ययसिता' हायव- | नोआगम हारि-वृत्ती |मायोऽयमित ताधितादिभावयुक्तस्य मतः तस्मिन्नावश्यक एवाध्यवासितं किया संपावनविषय साय: इह प्रारम्भकालादारभ्य संतानकिवाप्रवृत्तस्य तस्मिन्नेव वीत्रमध्यवसाय प्रयत्नविशेषलक्षणमस्येति समासः, तथा सदर्थोपयुक्त:-- | ॥२०॥ वश्यक तस्वार्थस्तदर्थस्तम्भिन्नुपयुक्तः, प्रशस्ततरसंवगविगुध्यमानस्याऽवश्यक एवं प्रतिसूत्रं प्रत्यय प्रतिक्रिय चोपयुक्त इति भाषाः, तथा| विश्रुतनिक्षेतर्पितकरण: यह पपकरणानि-रजोहरणमुखचिकातीनि तस्मिन्नावश्यके यथोचितम्यापारानियोगेनारियतानि-ज्यस्तानि करणानि येन सत पाश्च धाविधः, मुख्यतः सम्यक स्वस्थानन्यस्तोपकरण इत्यथे; तथा तद्भावनाविनः, असकृदनुमानापूर्वभावनाऽपरिक्छेदन एव, पुनः २ प्रतिपरिति इदयं, असकृदनुपानेऽपि प्रतिपत्तिसमवभावनाअविच्छेदादिति, उपसंहरबाह- अन्यत्र-प्रगुतव्यतिरकेण कुत्रचिल्कार्यान्तरे मनः अकुर्वन् , मनीग्रहणं कायवागुपलक्षणं, अन्यत्र कुत्रचिन्मनोवामायानकुर्वन्नित्यर्थः, उभयकालं--उभयस यमावश्यक-प्रागनिमापितशब्दार्थ करोति-निवनयति स बम्बावश्यकपरिणामानन्यवादावश्यकमिति किया.मेत मित्यादि निगमन, उ भावावश्यकं ॥ अस्यैवेद्वानीमसंमोहाथ पर्यायनामानि प्रतिपादयन्नाह ' तस्स इमे' इत्यादि (२८.३०) तम्यावश्यकस्य 'ण' मिति वाक्यालद्वारे अमूनि वक्ष्यमाणानि एकाधिकानि- तन्वत एकाविषयाणि नानापापाणि-नानाव्यञ्जनानि नामधेयानि भवन्ति, इह घोपा उदात्तादयः कादीनि व्याजनागि। तद्यथा ' आवस्मग' गाहा (१२.३0) व्याख्या अवश्यक्रियाऽनुमानादावश्यक गुणानां वा पश्यमात्मानं करोतीत्यावश्यक, अवश्यकरणीयमिति मोक्षार्थिना नियमानुयमिति, भुवनिमह इत्यत्रानादित्वाप्रायोऽनंतल्याच धुर्व- कम्मलभूतो पा भावस्तस्य निग्रहो ध्रुवनियमः, निषहदेतुत्पानिमहः, तथा कर्ममलिनस्याऽमनो विशुद्धिहेतुत्वादिशुद्धिः, अध्ययनपदकवर्ग:-- सामायिकाविषध्ययनसमुदाय: -- - दीप अनुक्रम [३१] ५ ... अथ 'श्रुत' शब्दस्य निक्षेपा: वर्णयते ~240 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [२९-३७] गाथा ||३|| दीप अनुक्रम [४१] श्रीअनु० हारि. वृत ॥ २१ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [२९-३७] / गाथा [३] दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४] भूमिका २] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः समणेण गाहा " , सम्यग् जीवकर्मसंबंधव्यवहारापनयनान्न्यायः मोक्षाराधनानिबन्धनत्वादाराधना मार्ग:-पन्थाः शिवस्येति गाथार्थ:- 1 (*३-३१) निगदसिंद्वैव, नवरं अन्त इति मध्ये, 'सेत' मित्यादि निगमनं । 'से किं त' मित्यादि (२९-३१) श्रुतं प्रागनिरूपितशब्दार्थमेव चतुविधं प्रप्तमित्याद्यावश्यक विवरणानुसारतो भावनीयं यावत् पत्तयपोत्थयलिहिंत ( ३७-३४ ) इह पत्रकाणि तळताल्यादिसंवन्धीनि तत्संघातनिष्पन्नास्तु पुस्तकाः, वस्त्रनिष्फण्णे इत्यन्ये इयमत्र भावना पत्रकपुस्तक लिखितमपि भावश्रुत निबन्धनत्वात् द्रव्यश्रुतमिति । साम्प्रतं प्राकृतशैल्या तुल्यशब्दाभिधेयत्वात् ज्ञशरीर भव्य शरीरव्यतिरिक्त द्रव्यश्रुताधिकारे एवं निर्दोषत्यादिख्यापनप्रसंगोपयोगितया सूत्रनिरूपणाचाह' अह वे त्यादि ' अथवेति प्रकारान्तरप्रदर्शनार्थः सूत्रं पश्चविधं प्रशमं तद्यथा- ' अंडज' मित्यादि ' से किं त' मित्यादि अंडाज्जातमुण्डजं हंसगर्भादि, कारणे कार्योपचारात्, हंसः किल पतङ्गः तस्य गर्भः २ कोशिकारक:, आदिशब्दः स्वभेदप्रकाशक: कौशिकारप्रभवं चटकसूत्रमित्यर्थः, पञ्चेन्द्रियहस गर्भजमित्यादि केचित् ' से त' मित्यादि निगमनं, एवं शेषेष्वपि प्रश्ननिगमने वाच्ये, पोण्डात् आतं पोण्डजं फलिहमादिति कप फलादि कारणे कार्योपचारादेवेति भावना, कोटाज्जातं कीटजं पञ्चविधं प्रज्ञतं, तद्यथा- पट्टे - त्यादि, पट्टिति-पट्टसूत्रं मलये अंशुकं चीणांशुकं मिरागादि, अत्र वृद्धा व्याचक्षते किल जंमि विसए पट्टो उत्पज्जति तत्थ अरण्णे वणणिगुंजद्वाणे मंसं पीणं वा आभिसं पुत्रपुंजेहिं विश्जइ, ततो तेसिं पुंजाण पासओ णिष्पुण्णया अंतरा बहवे सीलिया भूमिए उद्धा निहोडिज्जति, तत्थ वर्णतराओ पयंगकीडा आगच्छति, ते मंसचीणादियमामिसं चरंत इतो ततो य कीलंतरेसु संचरंता लाला मुयंति, एस पट्टेत्ति, एस य मलयवज्जेमु भणितो, एवं चैव मयविसउप्पण्णे मलपत्ति भण्णइ, एवं चैव चीणविसयवहिमुप्पण्णे अंसुए, चीणविसयुप्पण्णे चीर्णसुपत्ति, एवमेतोस त्तविलेस कीडविससो कीडविसेसतो य पट्टसुत्तविसेसतो भवति, एवं मणुयादिरुहिरं घेतुं केशवि जोएण जुतं L ~ 25~ व्यतिरिक्तं श्रुतं ॥ २१ ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........... मूलं [३८-४३] / गाथा [४] ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: श्रीअनु. हारि.वृत्ती प्रत सूत्रांक [२८-४३] गाथा |४|| ॥२२॥ SCAKA A% भायणत्थं ठविज्जति, वो तत्थ किमी उप्पज्जति, ते वायाभिलासिणो छिदेण णिग्गता इतो ततो आसन्नं भमंति, तर्सि णीहारलाला किमिराग-18/ नोआगम सुच भण्णइ, तं सपरिणामरंगरंगियं चेव भवइ, अन्ने भणति-जाहे कहिरुप्पना किमिते तस्थेव मालित्ता कसवढे उच्चारित्ता तत्थ सेहिं जोगंदा भावभूत पक्खिवित्ता पट्टसुन रयंति तं किमिराग भण्णइ, अण्णुगाली, बालयं पंचविधं ' उणिय' मित्यादि उण्णादिया पसिद्धा, मिणहितो लहुतरास्कवानक्षमृगाकृतयः वृहपिछाः तेसि लोमा मियलोमा, कुतवो उंदररोमेसु, एवेर्सि चेव उणियादीण उवहारो किहिस, अहवा एतेसिं दुगादि-४ पाव संजोगेण किट्रिसं, अहवा जे अण्ण सणमादिया रोमा ते सव्वे किट्टिसं भण्णंति, 'से तं वालज मिति निगमनं । 'से किं तं वागज' मित्यादि । सनिगमनं निगदसिद्धमेवेति, 'से किस मित्यादि, (३८-३५) इदमच्यावश्यकविचरणानुसारतो भायनीय, प्रायस्तुल्यवक्तव्यत्वात् , नवरमागमतो भावभुतं तमस्तदुपयुक्तस्तदुपयोगानन्यत्वात, नोआगमतस्तु लौकिकादि, अत्राह-नोआगमतो भावभुतमेव न युध्यते, तथाहि-यदि नोशब्दः प्रतिषेधवचनः कथमागमः, अथ न प्रतिषेधवचनः कथं तार्ह नोआगमत्त इति, अत्रोच्यते, नोशब्दस्य देशप्रतिषेधवचनत्वात् चरण-1* गुणसमन्वितश्रुतस्य विवक्षितत्वात् चरणस्य च नोआगमत्वादिति । 'जं इमं अरहतेही' (४२-३७ ) त्यादि, नन्दीविशेषविवरणा-18 नुसारतोऽन्यथा बोपन्यस्तविशेषणकलापयुक्तमपि स्वबुद्धया नेयमिति, शेष प्रकटार्थ यावनिगमनमिति । 'तस्स इमे' इत्यावि पूर्ववत 'सुतसुत्त' गाहा (४-३८) व्याख्या-श्रृयत इति श्रुतं, सूचनात्सूत्रं, विप्रकोणीयपन्थनाद् अथः, सिद्धमर्थमन्तं नयतीति सिद्धान्त:, मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगप्रवृत्तजीवशासनान शासनं, पाठांवरं वा प्रवचने, तत्रापि प्रगतं प्रशस्तं प्रधानमादौ या वचनं || ।। २२ ॥ | प्रवचनं, मोक्षायाज्ञप्यन्ते प्राणिनोऽनयेत्याक्षा, उक्तिर्वचनं वाग्योग इत्यर्थः, हितोपदेशरूपत्वादुपदेशनमुपदेशः, यथावस्थितजीवादिपदार्थ| प्रज्ञापनात् प्रशापनेति, आचार्यपारम्पर्येणागच्छतीत्यागमः, आप्तवचनं आगम इति, एकार्थपर्यायाः सूत्र इति गाथार्थः । 'सेत' मित्यादि दीप अनुक्रम [४२-४९]| COCKER AE% |... अथ 'स्कन्ध' शब्दस्य निक्षेपा: वर्णयते ~26~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .......... मूलं [४४-५१] / गाथा [४......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [४४-५१] गाथा ||४|| स्कन्ध लानिगमनं । 'से किंत'मित्यादि (४४-३८) वस्तुतो भावितार्थमेव, यावशारीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तस्त्रिविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा, 'सचित्तेश्रीअनुः निक्षेपाः हारि-वृत्ती त्यादि प्रश्नसूत्रं । ४७-३९) चित्तं मनोऽर्थविज्ञानमिति पर्यायाः सह चित्तन वर्चत इति सचितः सचित्तश्चासौ द्रव्यस्कन्धश्चेति समास:, "दह विशिष्टेकपरिणामपरिणतः आत्मप्रदेशपरमाण्वादिसमूहः सन्धः अनेकविधः-अनेकप्रकार: व्यक्तिभेदेन प्रशप्त:-प्ररूपितः, तद्यथा-5 ॥ २३॥ ' हयस्कन्ध' इत्यादि, हयः-अश्वः स एव विशिष्टकपरिणामपरिणतत्वात्स्कन्धो हवस्कन्धः, एवं शेषेष्वपि भावनीयं, इह च सचित्त | द्रव्यस्कन्धाधिकारावात्मन एव परमार्थततनत्वादसहयेयप्रदेशात्मकत्वाच कथञ्चिच्छरीरभेदे सत्यपि हयादीनां यादिजर्जावा एव | गृह्यन्ते इति सम्प्रदायः, प्रभूतोदाहरणाभिधानं तु विजातीयानकस्कन्धाभिधानेकपरमपुरुषस्कन्धप्रतिपादनपरघुनयनिरासाथै,। तथा चाहुरेके-" एक एच हि भूतात्मा, भूते भूवे व्यवस्थितः । एकथा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ १॥" एवं हि मुक्तेतराद्यभावप्रसङ्गात् व्यवहारानुपपचिरिति । 'सेत'मित्यादि निगमनं । ' से कित'मित्यादि, (४८-४०) अविद्यमानचित्तः अचित्त अचित्तश्रासौ द्रव्यस्कन्धश्चेति समासः, अनेकविधः प्रज्ञप्त इति पूर्ववत् , सद्यथा-द्विप्रदेशिक इत्यादि आनिगमने सूत्रासद्धमिति, 'सेकिंत' मित्यादि (४९-१०) मिश्रः-सचित्ताचित्तसंकीर्णः ततो मिश्रश्वासौ द्रव्यस्कन्धति समासः, सेनाया-इस्त्यश्वरथपदालिसन्नाहखड्गकुन्तादि-12 समुदायलक्षणाया अगस्कन्धं अमानीकमित्यर्थः, तथा मध्यमः पश्चिमति, 'सेत' मित्यादि निगमन, 'अहवे'त्यादि (५०-४०) सुगम यावत् से कितं कासणरुखंधे (५१-४०) स्ना-संपूर्णः कृत्स्नश्चासौ स्कन्धश्चेति विग्रहः 'सच्चेब' इत्यादि, स एव इयस्कन्ध इत्यादि । २३ ।। | आइ-यद्येवं ततः किमर्थ भेदेनोपन्यास इति, उच्यते, प्राक् सचित्तद्रव्यस्कन्धाधिकारात् तथाऽसम्भविनोऽपि बुद्धथा निकष्य जीवा एवोक्ताः इह तु जीवप्रयोगपरिणामितशरीरसमुदायलक्षण: समग्र एव कृत्स्नः स्कन्ध इति, अन्ये तु जीवस्यैव कृत्स्नस्फन्धत्वाद् व्यत्ययेन व्याचक्षते, दीप अनुक्रम [५०-५५]| ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [[५२-५६] गाथा ||४|| दीप अनुक्रम [48-64] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [५२-५६] / गाया [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [ ४५], चूलिकासूत्र -[२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: ॥ २४ ॥ 6 श्रीअनु० तथाऽप्यविरोधः, 'सेत ' मित्यादि निगमनं । ' से किं त' मित्यादि (५२-४१) न कृत्स्नः अकृत्स्नः अकृत्स्नश्चासौ स्कन्धश्च अकृत्स्नस्कन्धः हारि-वृत्तौ तू 'से चेत्रे' त्यादि, स एव द्विप्रदेशादिः, अथमत्र भावार्थ:- द्विप्रदेशिक : त्रिप्रदेशिकमपेक्ष्या कृत्स्नो वर्तते इत्येवमन्येष्वपि वक्तव्यं, न यावत् कासन्यैमापद्यत इति यद्येवं ध्यादिकृत्स्नस्कन्थस्यापि तदन्यमद्दत्तरस्कन्धापेक्षया अकृत्स्नस्कन्थत्वप्रसङ्गो, न, असंख्येयजीव प्रदेशान्योन्यानुगतस्वैव विवक्षितत्वात् जीवप्रदेशानां च स्कन्धान्तरेऽपि तुल्यत्वाद् बृहत्तरस्कन्धानुपपतिः, जीवप्रदेशपुद्गलसाकल्यवृद्धौ हि महत्तरत्वमिति, अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते प्रन्थविस्तरभयाद् गमभिकामात्रमेतत् 'सेत मित्यादि निगमनं । ' से किं तमित्यादि (५३-४१ ) अनेकद्रव्यञ्चासौ स्कन्धश्चेति समासः, विशिष्टकपरिणामपरिणतो नखजङ्घोरु रदन केशाद्यनेकद्रव्यसमुदाय इत्यर्थः तथा चह तस्सेवे - त्यादि, तस्यैव विवक्षितस्कन्धस्य देशः एकदेशः अपचितो जीवप्रदेशविरहादिति भावना, तथा तस्यैव देश उपचितो जीवप्रदेशभावादिति हृदयं, एतदुक्तं भवति-जीवप्रयोगपरिणामितानि जीव प्रदेशावचितानि च नखरोमरदन केशादन्यनेकानि द्रव्याणि तथाऽन्यानि जीवप्रयोगपरिणामितानि जीवप्रदेशोपचितानि च चरणजङ्घोरुप्रभृतानि प्रभूतान्येव, एतेषामपचितोपचितानामनेकद्रव्याणां पुनर्यो विशिष्टकपरिणामो देहाख्यः सोऽनेकद्रव्य इति, अत्राह- ननु द्रव्यस्कन्धादस्य को विशेष ? इति उच्यते स किल यावानेव जीवप्रदेशानुगतस्तावानेव विशिष्टकपरिणामपरिणतः परिगृह्यते, न नखाद्यपेक्षयापि, अयं तु नखाद्यपेक्षयाऽपीत्ययं विशेष इत्य प्रसङ्गेन' 'सेत ' मित्यादि निगमनं 'से किं तु'मित्यादि सुगम ( ५५-४२) यावत् एतेसि मित्यादि नवरमागमतो भावस्कन्धः श उपयुक्त तदर्थोपयोगपरिणामपरिणत इत्यर्थः, नोआगमतस्तु ज्ञानक्रियासमूहमय इति, अत एवाह एतेसिं चेत्र इत्यादि (५६-४१ ) एतेषामेव प्रस्तुतावश्यकभेदानां सामायिकादीनां षण्णामध्ययनानां समुदायसमितिसमागमेन इद्दाध्ययनमेव पदवाक्यसमुदायत्वात् समुदाय, समुदायानां समिति : - मेलकः, समुदाय " 6 ... अथ 'आवश्यक'स्य निरूपणं क्रियते ~ 28~ द्रव्यभाव स्कन्धाः ॥ २४ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .......... मूल [५७-५८] / गाथा [५-६] ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [५७-५८] गाथा ||५-६|| IM मेलक: समुदायसमितिः, इयं च स्वस्वभावव्यवस्थितानामपि भवति अन एकीभावप्रतिपत्त्यर्थमाह- समागमेन समुदयसीमते: समागमो आवश्यकविशिष्ट परिणाम इति समासस्तेन आवश्यकश्रुतभावस्कन्ध इति लभ्यते, अयमत्र भावार्थ:--सामायिकादीनां पण्णामध्यवनानां समावेशातानि हारि-वृत्ती मानदर्शनक्रियोपयोगवतो नोआगमतो भावस्कन्धः, नोशब्दस्य मिश्रवचनत्वात् क्रियाया अनागमत्वादिति, निगमनं । 'तस्स ण'-3 ॥ २५॥ मित्यादि (५७-४३) पूर्ववत्, बावन् 'गणकाय' गाहा (*५-४३) व्याख्या-मल्लगणबद्रणः प्रथिवीसमस्तजीव कायवत्कायः ज्यादि परमाणुस्कम्धवस्कन्धः गोवर्गव: शालिवान्यराशिवाशिः विषकोमेधान्यपुजीकापुजवत्युज: गुहादिपिण्डीतपिंडवत् पिण्ड दिरण्याविदन्यनिकरवमिकर: तीर्थादिषु संमिलितजनसंचातवत् संबात: राजगृहामणजनाकुळवत् आकुछ पुरादिजनसमूहवत् समूहः 'सेत-' | मित्यादि निगमनं । आह-किं पुनारेखमावश्यकं पडध्ययनात्मकमिति, उच्यते, षडधिकारविनियोगात, क एतेऽर्थाधिकारा? इसी तानुपद शयनाइ-आवस्सगस्स ण 'नित्यादि (५८-४३) सावज्जगाहा (*६-४३) व्याख्या- सावधयोगविरनि:-सपापञ्यापारविरमणं सा| माथिकार्थाधिकारः, सत्कीर्तनेति सकलदुःखविरेकभूतसावययोगविरस्युम्देशकत्वादुपकारित्वात्सद्भुतगुणोत्कीतनकरणादन्तःकरणशुद्धेः प्रधानकर्मक्षयकारणत्वादर्शनविशुद्धिः पुनधिलाभहेतुत्वाद्भगवता जिनानां यथाभूनान्यासाधारणगुणोत्कीर्तना चतुर्विशतिस्तवस्येति, गुणवतश्च | | प्रापित्यर्थ बम्पना बन्दनाध्ययनस्प, तत्र गुणा मूरगुणोत्तरगुणत्रतपिण्डविशुदपाययो गुणा अस्य विद्यम्त इति गुणवान तम्य गुणवतः प्रतिपत्त्यर्थ वन्दनादिलअगा (पतिपत्तिः) कार्येति, उकं च 'पासस्थादी गाहा, चशब्दात्पुरमालपनमासाचागुणवतोऽपत्याह, सक्तं च 'परियाय' गाहा, स्वस्तिस्य निंदा प्रतिक्रमणार्थाधिकारः कथंचित्प्रमादतः स्वलितस्य मूलगुणोत्तरगुणेषु प्रत्यागतसंवेगविशुदयमानाध्यवसायस्य प्रमाद-5॥ २५ ।। कारणमनुसरतोऽकार्यमिदमतीवेति भावयतो निंदाऽपसाक्षिकीति भावना, प्रणचिकित्सा काओरसर्गस्थ, इयमत्र भावना-निन्दया शुद्धिमना दीप अनुक्रम [६३-६८] ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [ ५९ ] गाथा दीप अनुक्रम [६९-७०] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ५९ ] / गाथा [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४] भूमिकामसूत्र २२] "अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः श्रीअनु० हारि. वृत्ती ॥ २६ ॥ 4 सादयतः व्रणसाधम्यपनयेनालोचनादिदशविधप्रायश्चि त भैषजेन चरणाविचारप्रणचिकित्सति, गुणधारणा प्रत्याख्यानार्थाधिकार इति, अयमंत्र भावार्थ:- यथेह मूलगुणोत्तरगुणप्रतिपत्तिः निरतिचारसंधारणं च तथा प्ररूपणमर्थाधिकार इति, चशब्दादन्ये पापान्वराला अधिकारा विशेया इति, एवकारोऽवधारण इति गाथार्थः । एषां च प्रत्यध्ययनमर्थाधिकारद्वार एवावकाशः प्रत्येतव्यः । साम्प्रतं यदुकमादौ श्रुतस्कन्धाभ्ययनानि चावश्यक ' मिति तत्रावश्यकादिन्यासोऽभिहित इदानीमध्ययनन्यासावसरः स चानुयोगद्वारप्रक्रमायातः प्रत्यध्ययनमापनिध्य एव वक्ष्यते, लाघवार्थमिति । साम्प्रतमावश्यकस्य यद्वचाख्यातं यच्च व्याख्येयं तदुपदर्शयन्नाह--' आवस्स' गादा (७-४४) व्याख्या-पिण्डार्थ:-समुदायार्थः वर्णितः कथितः समासेन--संक्षेपेण आवश्यकतस्कन्ध इति शास्त्रस्यान्यर्थाभिधानात् इत ऊर्द्धमेकैकमध्ययनं कीर्त्तयिष्याम:- वक्ष्याम इति गाथार्थः । कीर्त्तनं कुर्वमिदमाह - ' तंजहा - सामाइय ' मित्यादि (५९-४४ ) सूत्रसिद्धं यावत् तत्थ पढममज्झयणं सामाइयं तत्रशब्दो वाक्योपन्यासार्थो निर्द्धारणार्थो वा प्रथमं मार्थ शेषचरणादिगुणाधारत्वात्प्रधानं मुक्तिहेतुत्वाद् उक्तं च' सामायिकं गुणानामाधारः खमिव सर्वभावानाम् । नहि सामायिकहीनाञ्चरणादिगुणान्विता येन ॥ १ ॥ तस्माज्जगाद भगवान् सामाविकमेव निरुपमोपायम् । शारीरमानसानेकदुःखनाशम्य मोक्षस्य ॥ २ ॥ बोधादेरधिकमयनमध्ययनं प्रपचतो वक्ष्यमाणशब्दार्थं सामाविकम् इह च सम-रागद्वेषवियुतो यः सर्वभूतान्यात्मवत् पश्यति आयो लाभः प्राप्तिरिति पर्यायाः समस्य आयः समाय: समो हि प्रतिक्षणम पूर्वे ज्ञान दर्शन चरणपर्यायेम वाटवी भ्रमण संदेशविच्छेद कैर्निरुपम सुखहेतुभिरधः कृतचिन्तामणि कल्पद्रुमोपमेयुज्यते, स प्रयोजनमस्याध्ययन संवेदनानुष्ठानपृन्दस्वेति सामायिकं, समाय एव सामायिकं तस्य सामायिकस्य 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे 'इमे चि अमूनि वक्ष्यमाणलक्षणानि महापुरस्येव चत्वारीति संख्या न त्रीणि नापि पश्च अनुयोगद्वाराणि इद्दाध्ययनार्थकथनविधिरनुयोगः, द्वाराणीव , " एव समाय: ~30~ अर्चाधिकाराः 11:34 11 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [६०-६४] / गाथा [७......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [६०-६४] गाथा ||७|| श्रीअनुदा द्वाराणि-नगरप्रवेशमुखानि, सामाविकपुरस्यार्थाधिगमोपायद्वाराणीत्यर्थः भवति, ' तयथे' स्युपन्यासार्थ: उपकमे ' त्यादि, इह हारि वृत्ती नगरदृष्टान्तमाचार्या प्रतिपादयन्ति, बधा प्रकृतद्वारमनगरमेव भवति, कृतैकद्वारमपि दुरधिगमन कार्यातिपत्तये च, चतुर्मूलद्वारं तु प्रतिद्वारा- पान नुगतं सुखाधिगम कार्यानतिपत्तये घ, एवं सामायिकपुरमप्याधिगमोपायद्वारशून्यमशक्याधिगमं भवति, एकद्वारानुगतमपि च दुरधिगम, ॥२७॥ योगनयासप्रभेदचतुर्दारानुगतं तु मुखाधिगममित्यतः फलवान द्वारोपन्यास इति, तत्रोपक्रमणमुपक्रम इति भावसाधना, शानस्य भ्यासदेशसमीपीकर- नाक्रमः णलक्षण:, नपक्रम्यते वाऽनेन गुरुवारयोगनेत्युपक्रम इति करणसाधना, उपक्रम्यतेऽस्मादिति वा विनीतविनयविनयादित्युपक्रम इत्यपादान-18 साधनः, तथा च शिष्यो गुरुं विनयेनाराभ्यानुयोगं कारयमात्मनाऽपादानार्थे वर्तत इति । एवं निक्षेपर्ण निक्षेप: निक्षिप्यते वा अनेमास्मिन्नस्मादिति वा निक्षेपः न्यास: स्थापनेति पर्यायः, एवमनुगमनमनुगमः अनुगम्यतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति वाऽनुगमः, सूत्रस्थानुकूल: परिच्छेद इत्यर्थ:. एवं नयनं मयः मीयतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति वा नवः, अनन्तधमोत्मकस्य वस्तुन एकांशपारकछद इत्यथः। आइएषामुषकमायाराणा किमित्येवं क्रम इति, अत्रोच्यते, न अनुपमान्तं सदसमीपीभूतं निक्षिप्यते, न चानिक्षिप्त नामादिभिरर्थतोऽनुगम्यते, न चार्थतोऽननुगत नयर्षिचार्यत इत्यतोऽयमेव क्रम इति, उक्त च. संबध्धमपकमतः समीपमानीय रचित निक्षेपम् । अनुगम्यतेऽथ शानं नयैरनेकप्रभेदेस्तु ||१| तत्रोपकमो द्विपकार:-शास्त्रीय इतरश्न, तत्रेतराभिधित्सयाऽऽह-से किंत' मित्यादि (६०-४५) वस्तुतो भावितार्थमेव, यावत् 'से किं तंद्र जाणगसरीरभवियसरीवहरिते दव्योवकमे' इत्यादि विविधः प्रशसस्तयथा-सचिने ' त्यादि, (६१-४६) द्रव्योपक्रम इति वर्तते, I* शेषाक्षरार्थः सचित्तद्रव्योपक्रमनिगमनावसान: सूत्रसिद्ध एव, भावार्थस्त्वयमिह--'सचिने' त्यादि, द्रव्योपक्रमः द्विपदचतुष्पदापदभेदभिमः,एकैको ॥२७॥ | द्विविध:--परिकर्मणि वस्तुविनाशे च, तत्र परिकर्म--द्रव्यस्व गुणविशेषपरिणामकरणं तस्मिन् सति, तद्यथा-पृताद्युपयोगेन नटादीनां वर्णा-15 दीप अनुक्रम [७१-७३] SEARRAKAR ... अत्र 'उपक्रम'स्य निक्षेपा: वर्णयते ~31~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [६५-६७ ] गाथा ||..|| दीप अनुक्रम [७४-७७] श्रीअनु० हारि वृत्ती ॥ २८ ॥ “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [६५-६७ ] / गाथा [ ७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [ ४५], चूलिकासूत्र -[२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: विकरणमथवा कर्णस्कन्धवर्द्धनादिक्रियेति, अन्य शाखगान्धर्वनृत्यादिकला सम्पादनमपि द्रव्योपक्रमं व्याचक्षते, इदं पुनरसाधु, विज्ञानविशेषात्मकत्वाच्छास्त्रादिपरिज्ञानस्य, तस्य च भावत्वादिति, किंत्वात्मद्रव्य संस्कारविवक्षाऽपेक्षया शरीरवर्णादिकरणवत्स्यादपीति, एवं चतुष्पदानामपि हस्त्यश्वादीनां शिक्षागुणविशेषकरणं, एवमपदानां अप्याघ्रादीनां वृक्षविशेषाणां वृक्षायुर्वेदोपदेशाद्वार्द्धक्यादिगुणापादनमिति, एतत्फलानां वा गतीप्रक्षेपकाद्रव पळालादिस्थगनादिनेति, आह-य: स्वयं कालान्तरभाव्युपक्रम्यते यथा तरोर्बार्द्धक्यादि तत्र परिकर्म्मणि द्रव्योपकमता युक्ता, वर्णकरणकलादिसंपादनस्य तु कालान्तरेऽपि विवक्षित हेतु जालमन्तरेणानुपपत्तेः कथं परिकमैणि द्रव्योपक्रम इति, अत्रोच्यते, विवक्षितहेतुजालमन्तरेणानुपपत्तेरित्यसिद्धं कथं ?, वर्णस्य तावन्नामकम्मैविपाकित्वात्स्वयमीप भावात् फलादीनां क्षायोपशमिकत्वात्तस्य च कालान्तरे स्वयमपि संभवात् विभ्रमविलासादीनां च युवावस्थायां दर्शनात् तथा वस्तुविनाशे च पुरुषादीनां खड्गादिभिर्विनाश एबोपकम्यत इति । आह-परिकम्मैवस्तुनाशोपक्रमयोरभेद एंव उभयत्र पूर्वरूपपरित्यागेनोत्तरावस्थापत्तेरिति, अत्रोच्यते, परिकर्मोपक्रमजनितोत्तररूपापचावपि विशेषेण प्राणिनां प्रत्यभिज्ञानदर्शनात् वस्तुनाशोपक्रम[संपादितोत्तरधर्मरूपे तु वस्तुन्यदर्शनाद्विशेषसिद्धिरिति अथवैकत्र नाशस्यैव विवचितत्वाददोष:, ' से किं तं अचित्तदव्योवकमे ' त्यादि (६५-४६ ) निगमनं, निगदसिद्धमेव, नवरं खण्डादीनां गुडादीनामित्यत्रानलसंयोगादिना माधुर्यगुणविशेषकरणं विनाशश्व, भिश्रद्रव्योपक्रमस्तु स्थासकादिविभूषिताश्वादिविषय एवेति विवज्ञातश्च कारकयोजना द्रष्टव्या द्रव्यस्य द्रव्येन द्रव्याद् द्रव्ये वोपक्रमो द्रव्योपक्रम इति । ' से किं तमित्यादि, (६७-४८) क्षेत्रस्योपक्रमः क्षेत्रोपक्रम इति, आह-क्षेत्रममूर्त्त नित्यं च अतस्तस्य कथं करणविनाशाविति १ अत्रोच्यते, तद्व्यवस्थितद्रव्यकरणविनाशभावादुपचारत: खल्वदोषः, तथा चाह-तारथ्यात्तदूव्यपदेशो युक्त एव, मखाः क्रोशन्तीति यथा, तथा चाह सूत्रकार:- जमिण ' भित्यादि, यद्वलकुलिकादिभिः क्षेत्राण्यु ~32~ द्रव्योपक्रमः ॥ २८ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [६८-६९] / गाथा [७......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: श्रीअनु। हारि.वृत्ती ला अप्रशस्त भावोप प्रत सूत्रांक [६८-६९] गाथा ||७..| ॥ २९ ॥ पक्रम्यन्ते-योग्यतामापाचन्ते आदिशब्दाद्विनाशकारणगजेन्द्रबंधादिपरिग्रहः 'सेत' मित्यादि निगमनं । “से कित' मित्यादि, (६८-४८) कालस्य वर्तनादिरूपत्वान् द्रव्योपक्रम एवोपचारात् कालोपक्रम इति, चंद्रोपरागादिपरिशानलक्षणो वा, यद्वा जण' मित्यादि, यनालिकाविभिः काल उपक्रम्यते--ज्ञानयोग्यतामापाचते, नालिका-पटिका, आदिशब्दात् प्रहरादिपरिपहा, 'सेत' मित्यादि निगमनवाक्य, भावोपकमो द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता उपयुक्तः, नोऽआगमतस्तु प्रशस्तोऽप्रशस्तश्चेति, तत्राप्रशस्तो डोहिणिगणिकामा त्यादीनां, एखोदाहरणानि-एगा मरुगिणी, सा पितेति-किह धूताओ सुदिताओ होजाति ,तो जेहिता धूया सिक्वाविया, जहा-वरंती मन्थए पापण्हीए आणि जाति, वाए आहतो, सो तुट्ठो पार्न मरिनुमारखो, ण दुक्खावियत्ति, तीए मायाए कहियं, ताए भणिय-जं करेहि तं करेहि, माग एस किंचि तुज्म अवर सतिति, वितिया सिक्वाविया, वीएवि आइओ, सो प्रबित्ता वसंतो, मा भणति--तुमंपि बीसस्था विहर, णवरं खणओ एसोति, तइया सिक्वविया, वीएवि आहओ, सो हो, सेण ददं पिहिया धाडिया य, तं अकुलपुत्ती जा एवं करेसि, तीर मायाण &ा कहियं, पच्छा कहवि अणुगनिओ-अम्ह एस कुलधम्मोति, पूया व भणिया--जहा देवयस्स पट्टिाजासित्ति, मा बहिहिति । एगम्मि पयरे चउसट्ठिकलाकुसहा गणिया, तीए परभावोपक्रमणनिमितं रतिघरम्मि सब्याओ पगतीओ नियनियवाबारं करेमाणीओ आलिहावियाओ, तत्य य जो जो बदमाई एइ सो सो नियं२ सिप्पं पसंसति, णायभावो न मुअणुयत्तो भवति, अणुयत्तिओ य यारं गाहिओ खवं खद्ध दव्यजातं वितरेति, एसवि अपसत्थो भावोवकमो । गगम्मि पयरे कोई राया अस्सवाणियाए सह अमकचेण णिमाओ, तत्थ य से अस्सेगऽवाघेणं खलिणे काइया बोमिरिया, खारं बद्ध, तं च पुडविधिरसणओ तहड़ियं चैव रण्या पडिनियसमाणेण सुइरं निझाइयं, चिनियं चाणेण--दद तलागं सोहर्ण हवइत्ति, उण बुलं, अमच्घेणं इगितागारकुसलेण रावाणमणापुत्रिय महासरं खणावियं चेव, पालीए आरामो दीप अनुक्रम [७८-७९] का॥२९॥ ~33. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [७०-७१] / गाथा [७......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रशस्तो प्रत सूत्रांक [७०-७१] गाथा श्रीअनु०से पवरो कमओ, तेणं कालेणं अस्सबाहणियाग गच्छेतेण विठं, भणियं चऽणेण-कणेयं खणावितं १, अमच्चेण भणियं-सामिराव! तुम्हेहिं चेव, हारि.वृत्ती | कहंपि य?, अवलोषणाए कहिए परितुद्वेण संवडणा कता, एसवि अपसत्थो भावोवकमोत्ति, पक्कोऽप्रशस्तः । इदानी प्रशस्त: उच्यते, नत्रदभावोपश्रुतादिनिमित्तमाचार्यभावोपक्रमः प्रशस्त इति, आह-व्याख्यामाप्रतिपादनाधिकारे गुरुभावोपक्रमाभिधानमनर्थकमिति, न, तस्यापि व्याख्या-1 कमः ॥३०॥ गत्वात ,उक्तं च-"गुवायत्ता चस्माच्छाबारम्भा भवंति सर्वेऽपि । तस्माद् गुब्बाराधनपरेण हितकाक्षिणा भाज्यम् ॥ १॥ तथा। भाष्यकारेणाप्यभ्यधायि-'गुरुचित्तायचाई वक्खाणंगाई जेण सम्याई । जेण पुण सुप्पसणं होति तयं तं तहा कुज्जा ।। १॥आगारिंगित-14 कुसलं जइ सेयं वायसं वदे पुज्जा । तहविय सिं णवि कूछे विरहंमि य कारणं पुच्छे ॥२॥ निवपुच्छिएण भणिओ गुरुणा गंगा कओ भी वाति?। संपादित सीमो जह तह सम्वत्थ कायव्य ।।३॥" मित्यादि, आदल्ययेवं गुरुभावोपक्रम एवाभिधातव्यो न शेषाः, निष्प-IG योजनत्वात् , न, गुरुचित्तप्रसादनार्थमेव तेषामुपयोगित्वात् , तथा च देशकालावपेक्ष्य परिकर्मनाशी द्रव्याणामुक्कौवनादीनामाहारादिकार्येषु कुर्वन् विनेयो गुरोहरति चेतः, अथवोपक्रमसाम्यात्प्रकृते निरुपयोगिनोऽप्यन्यत्रोपयोक्ष्यन्त इत्यलं प्रसङ्गेन, उक्त इतरः । अधुना शास्त्रीयप्रतिपादनायाह- अहवे ' त्यादि (७०-५१ ), यद्वा प्रशस्तो द्विविधा -गुरुभावोपक्रमः शाखभावोपक्रमश्च, तत्र गुरुभावोपक्रमः प्रतिपादित एव, शानभावोपक्रमं तु प्रतिपादयन्नाह- अहवे, त्यादि, अधयेति विकल्पार्थः, उपक्रमोभावोपक्रमः पविधा प्राप्तस्तपथा-'अणपुच्ची' त्यावि, उपन्याससूत्रं निगदसिद्धमेव, से किंत' मित्यादि (७१-५१), इद पूर्व प्रथममादिरिति पयर्यायाः, पूर्वस्य पश्चादनुपूर्व तस्य भाव इति 'गुणवचननाक्षणादिभ्यः कम्मणि ष्यम् चेति (पा. ५-१-१२४) स चायं भावप्रत्ययो नपुंसकलिले यस्करणसामर्थ्याच्च श्रीलिङ्गेऽपि, तथा हि तस्मादनुपूर्वभावः आनुपूर्वी अनुकमोऽनुपरिपाटीति पयोयाः, ज्यादि RECERACTICEKACK ||७..|| दीप अनुक्रम [८०-८१]| |... अत्र 'आनुपूर्वी वर्णनं आरभ्यते ~34~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [[62-53]] गाथा दीप अनुक्रम [८२-८३) श्रीअनु० हारि. वृत्ती ॥ ३१ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [७२-७३] / गाया [...])]] दीपनगरे कति आम भूमिका [2] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः वस्तुसंहतिरिति भावः इयमानुपूर्वी दशविधा - दशप्रकाराः प्रज्ञप्तास्तद्यथा 'नामानुपूर्वी त्यादि वस्तुतो भावितार्थत्वात्सूत्रसिद्धमेव तावद्यावत् 'उवणिहिया व ' ( ७२ - ११) अणोवणिहिया य' तत्र निधानं निधियसो विरचना निक्षेपः प्रस्तावः स्थापनेति पर्यायाः, तथा लोके--निधेहीदं निहितमिदमित्यर्थे निलेपार्थो गम्यते, उप-सामीप्येन निधानमुपनिधिः विवक्षितस्यार्थस्य विरचनायाः प्रत्यासन्नता, उपनिधिः प्रयोजनमस्या इति प्रयोजनार्थे ठक् औपनिधिकी, एतदुक्तं भवति - अधिकृताध्ययनपूर्वानुपूर्व्यादिरचनाश्रयप्रस्तारोपयोगिनी औपनिधिकीत्युच्यते, न तथा अनौपतिधिकी, ' तत्थ ण' भित्यादि, तत्र याऽसावापनिधिकी सा स्थाप्या सांन्यासिकी तिष्ठतु तावद् अल्पतरवक्तव्यत्वातस्याः, किंतु यत्रैव बहु वक्तव्यमस्ति तत्र यः सामान्योऽर्थः सोऽन्यत्रापि प्ररूपित एव लभ्यत इति गुणाधिक्यसंभवात् सैव प्रथममुच्यत इति आह च सूत्रकार:-' तत्थ ण मित्यादि तत्र याऽसावनीपनिधिकी सा नयवक्तव्यताश्रयणात् द्रव्यास्तिकनयमतेन द्विविधा प्रज्ञप्ता, नैगमव्यवहारयोः संप्रहस्य च अयमन भाषार्थ:-- घतः सप्त नया भवन्ति, नैगमादयः उक्तं च नैगमसंमव्यवहारऋजुसूत्र शब्दसमभिरूढैवंभूता नया ' एते च नयद्वयेऽवस्थाप्यन्ते द्रव्यास्तिकः पर्यावास्तिका, तन्त्रायास्त्रयो द्रव्यास्तिकः शेषाः पर्यायास्तिक इति, पुनः द्रव्यास्तिकोऽप्यपतो द्विभेदः - अविशुद्ध विशुद्ध, अविशुद्धो नैगमव्यवहारौ विशुद्धः संग्रह इति कथं १, येन नैगमव्यवहारौ कृष्णायनेकगुणाधिष्ठितं त्रिकालविषयं अनेकभेदस्थितं नित्यानित्यं द्रव्यमित्येवंवादिनौ, संग्रहस्तु परमाण्वादिसामान्यवादीत्यलं विस्तरेण । 'से किं त' मित्यादि अत्राप्यल्पवक्तव्यत्वात् संग्रहाभिधानं पश्चादिति पञ्चविधाः प्राप्तास्तद्यथा ' अर्थपदपरूपणते 'त्यादि, (७३-५३) तत्र अर्थत इत्यर्थः तद्युक्तं तद्विषयं तदर्थं वा पदं अर्थपदं तस्य प्ररूपणा - कथनं तद्भावोऽर्थपदप्ररूपणता, संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्ररूपणतेत्यर्थः तथा मंगसमुत्कीतेनवा, इहार्थपदानामेव समुदितविकल्पकरणं भंग: भंगस्य भंगयोः भङ्गानां वा समुत्कर्णिनं उच्चारणं भंगसमुत्कीर्त्तनं तद्भाव इति समासः, ~35~ आनुपूर्वी भेदाः ॥ ३१ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ............ मूलं [७४] | गाथा [७...] ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] “अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: हारि.वृत्त प्रत सुत्रांक [७४] गाथा ||७..|| 364645 USHERE श्रीअनु:13 तथा भङ्गोपदर्शनता, इह यो भास्तेनार्थपदेन चैवार्थपदैरुपजायते तस्य तथोपदर्शनं २ तद्भाव इति विग्रहः, सूत्रतोऽर्थतन प्ररूपणेत्यर्थः,18 अनौपनि तथा समवतार:-दहानुपूर्वीद्रव्याणां स्वस्थानपरस्थानसमवतारान्वेषणाप्रकार: समवतार इति, तथानुगमः आनुपूर्व्यादीनामेव सत्पदप्ररूपणा- विक्यानु दिभिरनुयोगद्वारैरनेकधाऽनुगमनं अनुगम इति । ' से कित' मित्यादि, (७४-५३) 'तिपदेसिए आणुपुब्बी' त्रिप्रदेशिकाः स्कन्धाः ॥३२॥ पूल्यो, आनुपूर्व्यः, अयमन्त्र भावार्थ:- इहादिमध्यान्तांशपरिग्रहेण सावयवं वस्तु निरूप्यते, तत्र कः आदि कि मध्यं कोऽन्त इति?, लोकप्रसिद्धमेव, यस्मा हा अर्थपदं त्परमस्ति न पूर्व स आदिः, यस्मात्पूर्वमस्ति न परमंतः सः, तयोरंतरं मध्यमुपचरति, नदेतत् त्रयमपि यत्र वस्तुरूपेण मुख्यमस्ति तत्र गणनाक्रमः सम्पूर्ण इतिकृत्वा पूर्वस्य पश्चादनुपूर्व तस्य भाव आनुपूर्वी , एतदुक्तं भवति-संबन्धिशब्दा येते परस्परसापेक्षाः प्रवर्तन्त इति यत्रैषां मुख्यो । व्यपदेश्यव्यपदेशकभावोऽस्ति अयमस्वादिस्यमस्यान्त इति तत्रानुपूर्वीव्यपदेश इति, त्रिप्रदेशादिषु संभवति नान्यत्रेति, यः पुनरसंसक्तं अपं केनचितस्त्वन्तरेण शुद्ध एव परमाणुस्तस्य द्रव्यत: अनवयवत्वात् आदिमध्यावसानत्वाभावात् अनानुपूर्वीत्वं, यस्तु द्विप्रदोशकः स्कन्धस्तस्थाप्यागन्तव्यपदेशः परस्परापेक्षवाऽस्तीतिकृत्वा अनानुपूर्वीत्वमशक्यं प्रतिपत्तु, अथानुपूर्वीत्वं प्रसक्तं तदपि चावधिभूतवस्तुरूपस्यासंभवात् अपरिपूर्णत्वात न शक्यते वक्तुमिति सभाभ्यामवक्तव्यत्वात् अवतव्यकमुच्यते, यस्मान्मध्ये सति मुख्य आदिलेभ्यते मुख्यश्चान्तः परस्परा शंकरेण, तदत्र मध्यमेव नास्तीतिकृत्वा कस्यादिः कस्य वान्त इविकृत्वा व्यपदेशाभावात् सुटमवक्तठयकं, 'तिपदेसिया आणुपुथ्वीउ' 8 इत्यादि, बहुवचन निर्देशः, किमर्थोऽयमिति चेत् आनुपूादीनां प्रतिपदमनन्तव्यक्तिख्यापनार्थः, नैगमव्यवहारयोश्वत्थंभूताभ्युपगम प्रदर्शनार्थ इति, अत्राह-एपा पदानां द्रव्यद्धपनुक्रमादेवमुपन्यासो युज्यते-अमानुपूर्वी श्रवक्तव्यकं आनुपूर्वी च, पश्चानुपूा च व्यत्ययेन, तत् किमर्थमुभयमुल्लध्यान्यथा कृतमिति, अत्रोच्यते, अनानुभूळपि व्याख्यानांगमिति ख्यापनार्थ, किंचान्वन्- आनुपूष्बद्रिव्यमहत्वज्ञापनार्थ S दीप अनुक्रम [८४] C+ + ~36~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [७५-८०] | गाथा [८] ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [७५-८०] गाथा हारि.वृत्ती ॥३३॥ भोगोपदशेनता ||८|| स्थानबहुज्ञापनार्थ चादावानुपूा उपन्यासः, ततोऽल्पतरद्रव्यत्यादबकव्यकस्येत्यलं विस्तरेण । 'सेत' मित्यादि निगमनं, 'एताए ण'मित्यादि ५-५५) एतयाऽर्थप्ररूपणया कि प्रयोजनमित्यत्राह- एतया भङ्गसमुत्कीर्तनता क्रियते, सा पैवमवगन्तन्या-त्रयाणामानुपूष्यादिपदानामेक-18 बचनेन त्रयो भङ्गाः, बहुवचनेनापि प्रयः, एते चासंयोगतः, संयोगेन तु आनुपूर्धनानुपूर्योश्चतुर्भङ्गी, तथा आनुपूर्यवक्तव्यकयोगपि सैव, तथाऽनानुपूर्व्यवक्तव्यकयोश्चेति, त्रिकसंयोगवस्तु आनुपूर्यनानुपूज्यवक्तव्यकेष्वष्टभङ्गीति, एवमेते पविशतिर्भङ्गाः, अत्राह-मनसमुस्की न किमर्थ ?, अच्यते, पक्तुरभिप्रेतार्थप्रतिपत्तये नयानुमतप्रदर्शनार्थ, तथाहि--असंयुक्त संयुक्तं समानमसमानं अन्यद्रव्यसंयोगे(संयोगे) च यथा वक्ता प्रतिपादयति तथैचेमी प्रतिपाद्यते इति नयानुमतप्रदर्शनं, एषोऽत्र भावार्थः, भजकास्तु अन्धत एवानुसत्र्तव्याः, 'सेत' मित्यादि निगमनं, शेषमनिगूढार्थ श्रावस् 'तिपदोसए आणुपुठवी ' त्यादि, त्रिप्रदेशिकोऽर्थ: आनुपूर्वीत्युच्यते, एवमकथनपुरस्सराः शेषभना अपि भावनीया इति,एतदुक्तं भवति-तैरेव भंगकाभिवानस्निपदेशपरमाणुपुद्गलाद्ववदेशार्थकथनविशिष्टैस्तदभिधेयान्याख्यान भंगोपदर्शनतेति, आह-अर्थपदप्ररूपणाभंगसमुत्कीर्तनाभ्यां भंगोपदर्शनार्थताऽनगमाद्रेवतस्तदभिधाममयुकमिति, अत्रोच्यते, न,उभयसंयोगस्य वस्त्वन्तरत्वात् नयमतबचिच्यप्रदशनार्थत्वाकचादोष इति, शेष निगमनं सूत्रसिद्धमिति । 'से किं तं समोतारे' स्यादि (७९-५८) अवतरणमवतार:-सम्यग|विरोधतः स्वस्थान एवावतारः समवतारः, इहानुपूर्वीद्रव्याणामानुपूर्वीद्रव्येष्वतारः न शेपेषु, स्वजासावेव वर्तन्ते न तु स्वजातिव्यतिरेकेणेति | भावना, एवमनानुपूादिष्वपि भावनीयमकृष्टावसेया चाक्षरगमानिकेति न प्रतिपद विवरणं प्रति प्रयास इति | 'से किंत' मित्यादि ८०-५९) अनुगम:-प्राग्निरूपितशब्दार्थ एव नवविधो-नवप्रकार: प्रज्ञप्रस्तद्यथा-'संतपदपरूवणा' गाहा (*८-५९) व्याख्या-सच | सत्पदं च सत्पदं तस्य प्ररूपणं सत्पदप्ररूपणं तस्य भावः सत्पदप्ररूपणता-सवर्थगोचरा आनुपूादिपप्ररूपणता कार्या, तथा आनुपूल्योंदिर दीप अनुक्रम [८५-९१] ॥३३॥ ~37~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [८०-८३] गाथा ॥ दीप अनुक्रम [९९-९४] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [८०-८३] / गाथा [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [ ४५], चूलिकासूत्र -[२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: श्रीअनु० हारि. वृच ॥ ३४ ॥ व्यप्रमाणं वक्तव्यं वथाऽऽनुपूर्व्यादिद्रव्याधारः क्षेत्रं वतव्यं, तथा स्पर्शना वकण्या, क्षेत्रस्पर्शनयेोरयं विशेष:--' एगपदेसोगार्ड सत्तापदेसा य से फुसणा' कालव्यानुपूर्व्यादिस्थितिकालो कव्यः, तथा अन्तरं स्वभाव परित्यागे सति पुनस्तद्भावप्राप्तिविरद्द इत्यर्थः, तथा भाग इत्यानुपूर्वद्रव्याणि शेषद्रव्याणां कविभाग इत्यादि, तथा भावो वक्तव्यः, आनुपूर्व्यादिद्रव्याणि कस्मिन् भावे वर्तन्त इति, तथाऽल्पबहुत्वं वक्तव्यम्, आनुपूर्व्यादीनामेव मिथो द्रव्यार्थ प्रदेशार्थोभयाथैः, व्यासार्थं तु प्रत्यवयवं प्रत्यकार एव प्रपञ्चतो वक्ष्यते इति तत्राद्यमवयवमधिकृत्याह+ गमववहाराणं आणुपुव्विदव्वाई कि अत्थि गत्थी' त्यादि (८१--६०) कुतस्ते संशय: १, घटादौ विद्यमाने खकुसुमादौ वाऽविद्यमाने वाऽविशेषेणाभिधानप्रवृत्तेः तत्र निर्वाचनमाह-'नियमा अस्थि' तथा वृद्धेरप्युक्तं--जम्दा दुबिहाभिदाणं सत्थयमितरं व घडखपुष्फादी विद्रुमओ से संका णत्थि व अस्थिति सिस्सस्स ॥ १ ॥ आत्यति य गुरुवयणं अभिहाणं सत्थयं जतो सम्यं । इच्छाभिहाणपच्चयतुभिधेया सदस्य मिणं ॥ २ ॥ यचास्य सदर्थः स उक्त एवं द्वारं । द्रव्यप्रमाणमधुना-' नेगमववहाराणं आणुपुव्विदव्वाई किं संखेज्जाइ ' (८२-६०) इत्यादि निगमनान्तं सुप्रसिद्धमेव असंख्येयप्रदेशात्मके च लोकेऽनन्तानामानुपद्रव्याणां सूक्ष्मपरिणामयुक्तत्वादवस्थानं भावनीयमिति, दृश्यते चैकगृहान्तर्वयाकाशप्रदेशेष्वेकप्रभा परमाणुयालेष्वपि प्रतिप्रदीपं भवतामेवानेकप्रदीपप्रभापर माणूनामवस्थानमिति न च दृहेऽनुपप नामेत्यलं प्रसङ्गेन द्वारं क्षेत्रमधुना, वत्रेदं सूत्रं गमववहाराणं आणुपुच्चिदव्वाई लोयस्स किं संखेज्जहभागे होज्जा ' ( ८३ - ६० ) इत्यादि प्रभसूत्रं, एकानुपूर्वीद्रव्यापेक्षया तत्प्रमाणसंभवे सति प्रभसूत्र सुगमं निर्वचनसूत्रं च प्रन्थादेव भावनीयं, नवरं 'सव्वलोए वा होज्ज' ति यदुक्तं तत्राचित्तमहास्कन्धः सर्वलोकव्यापकः समयावस्थायी सकललोकप्रमाणोऽवसेय इति णाणाम्वाई पडुच्च' इत्यादि, नानाद्रव्याण्यानुपूर्वी परिणामवन्त्येव प्रतीत्य प्रकृत्य वाऽधिकृत्येत्यर्थः नियमात् नियमेन सर्व्वलोके, न शेषभागेष्विति, 'होज्ज' ~38~ सत्पदप्र रूपणता द्रव्यप्रमाणं क्षेत्रस्पर्शनाने ॥ ३४ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [८४-८५] / गाथा [८...] ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [८४-८५] गाथा ||८..|| श्रीअनु० त्ति आर्षत्वाद्भवन्ति वर्तन्त इत्यर्थः, यस्मादेवैकस्मिन्नाकाशप्रदेशे सूक्ष्मपरिणामपरिणतान्यनन्तान्यानुपूदिव्याण विशन्त इति भावना, हारि-वृत्तीनानुपूर्वीअवतम्यकद्रव्ये तु एक इन्च प्रतीस्य संख्येयभाग एवं वर्तन्ते, न क्षेषमागेषु, यस्मात्परमाणुरेकप्रदेशावगाढ एव भवति, अवकल्या कालोज्न्तर त्येकप्रदेशावगाद विप्रदेशावगाढंच, नानाद्रव्यभावना पूर्वषदिति, द्वारं । साम्प्रतं स्पर्शनाद्वारावसरः, तत्रे सूत्र-'गमववहाराण'-3 ॥३५॥ | मित्यादि (८४-६५) निगमनान्तं निगदसिद्धमेव, नवरं क्षेत्रस्पर्शनयोरयं विशेष:-क्षेत्रमवगाहमा सर्शना तु वचतसृष्वपि दिक्षु | तबहिरपि बेदितव्येति, यथेह परमाणोरेकप्रदेश क्षेत्र सप्तप्रदेशा स्पर्शनेति, स्यादेतद्-एवं सत्यणोरेकत्वं हीयत इति, उक्तं च-दिग्४ भागभेवो यस्यास्ति, तस्यैकत्वं न युज्यते ' इत्येतदयुक्तं, अभिप्रायापरिज्ञानात् , नांशतः स्पर्शना नाम काचिद् , अपि तु नैरन्तर्यमेव पैशनां घूम इति, अब बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते विस्तरमयादिति, द्वारं । साम्प्रतं कालद्वार, तत्रेदं सूत्र-णेगमववहाराण' मित्यादि, (८५-६३) 1 निगमनं पाठसिद्धमेव, गवरमियमित्वं भावणा-पोहं परमाणूर्ण एका परमाणू संजुत्तो समय चिदिऊण विजुत्तो, एवं आणुपुब्बिदब्वं जहण्णणं एगसमय होति, उकोसेणं असंखेज कालं पिणि वित्तो, एवमसंखेज कालं, णाणादम्बाई पुण पदुच सम्बद्धा-सर्वकालमेष विद्यन्ते, अणाणुपुल्वीसु तु एगो परमाणू एगसमय एकलगो होऊण एकेग वा दोहि चा बहुपरमाणूहि वा समं जुग्जा, एवं जहण्णेणं एक समयं होति, उकासेणं असंखेग्जकालं एकष्टगो होऊण समं जुजर, एवमसंखेज कालं, णाणादव्वाई पुण पडुच सयकार विजंति, एवं अवत्तश्वगेमुवि पगं दव्वं पडुच्च दो परमाणू एगसमयं ठाऊग विजुज्जति, अण्णण वा संजुति , एवं अवत्तव्यगदन्वं जहण्षण एवं समयं होजा, उकोसेणं असंखेज काळं चिहिऊण विउज्जति संजुम्जति बा, एवं असंखेज कालं, णाणादवाई पडुन सम्बद्धं चिट्ठति, द्वारं । अधुनाऽन्तरवारं, वो सूत्रं गमववहाराणं आणुपुस्विदब्याणं अंतरं कालओ केचिरं होती ALANCERTISERSEENERAL दीप अनुक्रम [९५-९६]| ना॥३५॥ ~39~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .............. मूलं [८६] | गाथा [८.............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: श्रीअनुः हारि.वृत्ती प्रत सूत्रांक [८६] गाथा ||८..|| CARE ॥३६॥ त्यादि, (८६-६३ ) इह ध्यादिस्कन्धारण्यादिस्कन्धतां विहाय पुनर्यावता कालेन त एव तथा भवतीत्यसावन्तरं, एगदवं आनुपूल्योआणुपुग्विदम्ब पड्कय जहण्णेणं-सव्वयोवतया एग समयंकाललक्खणं, कई, तिपदेसियादियाओ परमाणुमादी वित्तो । दिदीनामन्तरे समयं चिडिऊण पुणो तेण दुग्वेण विस्ससापओगाओ तदेव संजब्जइ, एवमेगं समय अंतरंति, उकासेणं-उकोसगतया अणत कालं, कह , ताओ चेव तिपदसियादियाओ सो चेव परमाणुमाई विउत्तो अण्णसु परमाणुब्धणुकायकोत्तरवृदया अनन्ताणुकावसानेषु | स्वस्थाने प्रतिभेदमनन्तव्यक्तिवत्स ठाणेम उकोसमेतराधिकारातो असई (उकोस) ठितीए अच्छिकण कालस्स अनन्तत्तणओ घंसणधोलगाए पुणोवि नियमेण चेव तेणं दवेणं पओगविस्ससाभावओ तहेव संजुज्जइति, एवमुक्कोसतो अर्णतं कालं अंतरं भवति, णाणादब्वाई पडुच्च णस्थि अंतरं, इह लोके सदैव तद्भावादिति भावना, अणाणुपुन्विचिंताए एग दव्वं पडुकच जहष्णेणं एग समयंति, कई?, एगो पर| माणू अण्णणं अणुमादिणा पदिऊण समयं चिंहिता विजात एवं एगसमयमन्तरं, कोसेणं असं कालं, कह', अणाणुपुब्बिदब्ध अण्णण अणाणुषविदव्वण अवत्तव्यगदवेणं आणपुग्विदध्वेण वा संजुत्तं उकोमद्वितियमसंखेजकालनियमितलक्खणं होऊण ठितिअन्ते तओ भिण्णो नियमा परमाणू चव भवति, अण्णवाणवेक्वत्तणओ, एवं उकासेण असंखज्जकालंति, एल्थ चोदगो भणति-णणु अणतपदेसगाणुपुब्बीदव्वसेजुत्तं खंडखंडेहि विचडिकण ठाणुकादिभावमपरित्यजेदवान्यान्यस्कन्धसम्बन्धस्थित्यपेक्षयाऽस्यानन्तकालमेबान्तरं ॥३६॥ कम्मान भवति इति, अत्रोच्यते, परमसंयोगस्थितेरप्यसंख्येवकालादूर्ध्वमभावादणुखेन तस्य संयुक्तवादणुत्वत एव वियोगभावादिति, कथमिदं शायत इति चेदुच्यते, आचार्यप्रवृत्तेः, तथाहि-इदमेव सूत्रं ज्ञापकमित्यलं घसूर्वेति । 'णाणादब्वाई' तु पूर्ववत्, अवत्सव्वगचिंताए एग दव्वं पडुरुच जण्यणं एग समय एवं-दुपरमाणुखंघो विउरिजऊण पंग समय ठाऊण पुणो संजुञ्जइ, अण्णेण वा आणुपुवादिणा दीप अनुक्रम [९७] ~40~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [८७-८८] / गाथा [८...] ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: श्रीअनु हारि.वृत्ती प्रत सूत्रांक [८७-८८] गाथा ||८..|| संजजिय समयमग तहा चिदिऊग पुणों विजुम्जइति, अवतठवगं चेय भवतीत्यर्थः, उकोसेणं अणंतकालं, कई १, एगमवतव्वगदव्वं नगमव्यक Bा अवत्तव्यगण विजुजिकण अण्णेलु परमाणु य गुकाये कोत्तरवृदयाऽनन्ताणुकावसानेषु स्वस्थानप्रतिभेदमनन्तध्याक्तिवत्सु ठाणेमुकोसंतराधिका-ISENम्या व्यानुपूवी रात् असति उकोसगठितीए अधिक कालस्म अणतत्तणओ घंसणघोलणाओ पुणोवि ते पेव परमाणू विस्ससापओगतो तहेव जुज्जति, एवमुक्कोसतो अणं कालं अंतरं हवति, णाणादब्वाई पडुच्च णस्थि अंतर, इह लोके सदैव तद्भावादिति भावना, द्वारं । इदानी भागद्वार, तत्रेदं सूत्र गमववहाराण प्राणु पुनियाई सेपदवाणं कतिभागे होज्जा' (७-६५ ) इत्यादि, सेसदन 'त्ति अणाणुपुबिब्बा अवत्तब्बगदम्बा य, यद्वा एका रासी को सता पच्छा चतुरी, एल्थ मिदारिसणं इम-सतस्स संखेजतिभागे पंच, पंचभागे सतस्स वीसा भवंति, सतस्स असंखेज्जतिभागो दस, दसभागे दस चेव भवंति, सतस्स संखेजमु भागेमु दोमाइए पंचभागेसु चत्तालीसादी भवंति, सतस्स असंखेनेसु भागेसु अहलु नसभागेमु असीति भवति, चोदग आह--णगु एतेण णिदसणेण सेसगदव्वाण अणुपुब्विदन्वा थोवतरा भवंति, जदो सतस्स असीति धोवतरत्ति, आचार्य आइ-ण मया भण्णइ तद्भागसमा ते ददुवा, तभागरथेसु वा दव्वेसु ते समा, किंतु सेसवन्वाणं आणुपुरिवब्वा असंखञ्जसु भागेसु अधिया भवतीति वकसेसो, सेसदव्या असंखेअभागे भवन्तीत्यर्थः, अणाणुपुब्बिव्वा अम्बत्तब्वगदव्या य आणुपुब्बियाणं असंखेज्जभाने भवंति, सेसं सुत्तसिद्धमिति (भाग) द्वारं | साम्प्रतं भावद्वारं, तत्रेदं सूत्र-'नेगमयबदाराणं आणविदब्याई कयरंमि भावे होज्ज'सीत्यादि (८८-६६) इह कर्मविपाक पदयः उदय एव औदयिक: स चाष्टानां कम्भे| प्रकृतीनामुदयः तत्र भवस्तेन वा निवृत्त औदयिका, उपशमो--मोहनीयकर्मणोऽनुदयः स एवौपशमिकस्तत्र भवस्तन वा निवृत्त इति, क्षय:| कर्मणोऽत्यन्तबिनाशः स एव क्षायिकस्तत्र भवस्तन वा निर्धत्त इति,कर्मण एवं कस्यचिदंशस्य क्षवः कस्यचिदुपशमः ततश्च क्षयश्चापशमश्च दीप अनुक्रम [९८-९९]| -% ~41~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .............. मूलं [८९] / गाथा [८...] ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [८९] गाथा ||८..|| श्रीअनु०.४क्षयोपशमौ ताभ्यां नित्त: क्षायोपशमिका, परिणमनं परिणामः, द्रव्यस्य तथा भाव इत्यर्थः, स एव पारिणामिकः तत्र भवस्तेन वा निवृत्त इति,13/नगमव्यवहारि वृत्तीला सानिपातिको य एषामेव द्विकादिसंयोगादुपजायते, एष शब्दार्थः, भावार्थ पुनरमी स्वस्थाने एवोपरिष्टावक्ष्यामः, नवरं निर्वचनं, निर्वचन- हाराभ्यामसूत्रोपयोगीतिकृत्या परिणामिकभावार्थों लेशतः प्रतिपाद्यत इति, इह परिणामः द्विविधः- सादिरनादिश्व, तत्र धर्मास्तिकायादिद्रव्यादिष्त्र सबहुत्वं ॥३८॥ नादिपरिणामः रूपिद्रव्येवादिमस्तिद्यथा अभेन्द्रधनुरादिपरिणाम इत्येवमवस्थिते सतीदं निर्वचनसूत्रं । णियमा ' इत्यादि, नियमेन अवश्यतया सादिपरिणामिके भावे भवन्ति, तथा परिणतेनावित्वाभावाद् , उत्कृष्टतो द्रव्याणां विशिष्टैकपरिणामत्वेनासंख्येयकालस्थितेः, | शेष सूत्रसिद्ध, द्वारं । साम्प्रतमस्पबहुत्वद्वारं, नवेदं सूत्र- एतेसिग ' मित्यादि (८९-६७ ) द्रव्यं च तदर्थश्च द्रव्यार्थः तस्य मावो | द्रव्यार्थता, एकानेकपुद्रलद्रव्येषु यथासंभवतः प्रदेशगुणपर्यायाधारतेत्यर्थः, तपा द्रव्यत्वेनेतियावत, प्रकटो देशः प्रदेशः प्रदेशश्वासावर्थश्व प्रदेशार्थस्तस्य भावः प्रदेशार्थता, तेष्वेव द्रव्येषु प्रतिप्रदेशं गुणपर्यायाधारतेवि भावना, तया, अगुत्वेनेत्यर्थः, द्रव्यार्थप्रदेशार्थता यथोक्तोभयरूपतया, शेष सूत्रसिद्धं यावत 'सब्बत्योवाई गमयवहाराणं अव्वत्तबगदाई दबत्तयाए' सि, का तत्र भावना ?, उच्यते, संघातभेदानिमिचाल्पत्वात, तेभ्य एव अणाणुपुषिदबाई बढवाए बिनाधिताई १, कर्व, उत्पते पपरद्रव्योत्पचिनिनित्तत्वात , तेभ्योऽपि आणुपुब्बियाई दबढुवाए असंखेज्जगुणाई, कथं १, उच्यते, व्यागे करदेशोत्तरवृश्या व्यस्थानानां निसर्गत एवं | बहुत्वात, संघानभवनिमित्तात्वाकच, वह विनेयानुग्रहार्थ भावनाविधिकच्यते-एग दुग तिग चउपपदेसा य ठाविता १,२,३,४,1611 एस्थ संघातभेदतो पञ्च अवत्तव्यगदम्बाई हवंति, दस अणाणुपुषिदमा भेदता संघाततो वा, एककाळे तिणि य आणुपुरिषदम्वा, कमेण | पुण एगदुगादिसंजोगभेवतो अणेगे भवति, अण्णे भणति-चौदस हवंति, तपभिपाय तु न वर्ष सम्यगवगरुडामोउतिगंभीरत्वादिति,एवं पंचदसा दीप अनुक्रम [१००] | ~42~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [९०-९३] / गाथा [८...] ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: श्रीअनु हारि-पूची प्रत सूत्रांक [९०-९३]] गाथा ||८..|| ॥३९॥ ACANCE विसु भावेयब, सवण्णुवरसतो व मद्वेग, नान्यथावादिनो जिनाः, 'पदेसट्टयाए सम्बत्योचाई गमववहाराण' मित्यादि, स्तोकवे कारण 'अपदेसट्टयाए' शि अप्रदेशार्थत्वेन नास्य प्रदेशा विद्यन्त इत्यप्रदेश:-परमाणु:, उक्तंच-'परमाणुरप्रदेश'इति तक्रावस्तेन, अणोनिरवयवत्वावित्य.. संग्रहेणद्रपाह--प्रदेशातया सर्वस्तोकानीत्यभिप्राये अपदेशार्थत्वेनेति कारणाभिधानमयुक्त, विरोधात्, स्वभावो हितुर्वदि प्रदेशार्थता कथमप्रदेशाताव्यानुपूर्वी घेता इति, अत्रोकते, भारमीयकप्रदेशव्यतिरिक्तपदेशान्तरप्रतिषेधापेक्षा प्रदेशाधता, न पुनर्निजेकप्रदेशप्रतिषेधापेक्षापि, धम्मिण एवाप्रमझा-1 विचारवययसंगार बलं विस्तरेण 'अवत्तबगदख्वाई पदेसट्टयाए बिसेमाधियाई' अनानुपूर्वदिव्येभ्य इति, अब विनेयासमोहार्थमुवाहरणं-161 बुद्धीए सयमे अवत्तव्यगरचा कया, अणाणुपुबिदबा पुण दिवसयमेचगा, एवं द्रव्यत्वेन विशिष्टविशेषाधिका भवन्ति, पवेसत्तणे पुणा CI अणाणुपुव्यिदव्वा अप्पणो दब्बताए तुला चेव, अपदेसत्तणओ, विसिविसेसाधिता (अवत्तव्यया) दुसयमेता भवंति, आणुपुत्रिदम्बाई अपदेसठ्ठताए अणतगुणाई, तेहिनोवि पदेवताए आणुपुग्विदम्बाई अणंतगुणाई, कथं ?, उच्यते, आणुपुब्बियाणं ठाणबत्तणओ, लेस्चि संखा अर्णतपदे-18 सत्तणओ, उभयार्थता सूत्रसिद्धव ' से त' मित्यादि निगमनद्वयं, से किंत' मित्यादि (९०-६९) इह सामान्यमात्रसंग्रहणशील संग्रहः, शेषं सूत्रासिद्धं यावत् 'तिपदेसिया आणुपुष्वी' त्यावि, इह संग्रहस्य सामान्यमात्रप्रतिपादनपरत्वाचावन्तः केचन त्रिप्रदेशिकास्ते त्रिप्रदेशिकत्वसामान्याव्यतिरेकात् व्यतिरेके च त्रिप्रदोशकत्वानुपपत्ते: सामान्यस्य चैकत्वादेकैव त्रिप्रदेशिकानुपूर्वीति, एवं चतुष्पदेशिकादिष्वपि भावनीय, पुनश्च विशुद्धतरसंमहापेक्षया सर्वासामेवानुपूर्वीत्वसामान्यभेदादेकैवानुपूर्वीति, एवमनानुपूर्धवक्तव्य केष्वपि स्वजात्यभेदतो वाच्य| मेकत्वमिति से त' मित्यादि निगमनं, बहुस्वाभायाहुवचनाभावः 'एताए ण' मित्यादि (९२-७०) पाठसिद्ध, यावत · अस्थिर आणुपुब्बी' त्यादि सप्त भंगा:, व्यक्तिबहुत्वाभावाद्वहुवचनानुपपत्तितः शेषभंगाभाव इति, एवं भंगोपदर्शनायामपि भावनीय। 'से किती दीप अनुक्रम [१०१ १०४] ~43~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ............. मूलं [९४-९५] / गाथा [९] .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [९४-९५] गाथा |९|| -64 श्राअनुासमोतारे' त्यादि (९४-७१) सूत्रीसा, यावत् 'संगहस्ल आणुपुतिबदब्बाई आणविवेहि समोतरंति' तज्जाती वतन्ते, आनुपूर्वी-1 संग्रहणा हारि.वृत्ती स्वेन भवन्तीत्यय:, एवमनानुपूर्ववक्तव्यकद्रव्यचिन्तायामपि भावना कार्या, पाठान्तरं वा 'सट्ठाणे समोतरति' स्वस्थानं तस्मिन् समवतरं-टा ॥४०॥ तीति, अत्राह-जं सहाणे समोतरतीति भगह, किंतं आतभावो सहाण परदब्बं वा समभावपरिणामत्तगो सट्टाणं ?, जदि आतभावो सट्ठाणं तो आतभावे ठितत्तणतो समोतारो भवति, अह परदव्यं तो आणुपुबिदब्बस्स अणाणुपुब्विअवतन्वयदव्याषि मुत्तित्तषणादिपहि समभावतणतो सट्ठाण भविस्पति, एवं चोदि गुरू भगति-सम्बदम्वा आतभावेत वणिजमाणा आतभावसमोतारे भवंति, जतो जीवदव्य जीवभाबेमु समोतरिजिइ णोऽजीवभावसु, अजीपदपि अजीवभावे न जीवभावप्रित्यर्थः परयपि समभावविसेसादिसामनत्तगओ सहाणं पेप्पइति ण दोसो, इह पुग अधिकारे आणुपुस्विभाबवितेसत्तमओ आणुपुबिदवपक्खे समोतरतित्ति सट्ठाणं भणित, एवं अणाणुपुब्विअवत्तब्वेवि सहाणे समोतारो भाणियबो इति, 'सेत 'मित्यादि, निगमने । ' से कितं अणु गमे, अणुगमे अट्ठविहे पण्ण ते, तंजहा-सन्तपद' गाहा (१९-७१) णवरं अप्पावई णस्थि' चि (९५-७१) विशेषत इयं च नयान्तराभित्रायतो व्याख्यातेव, य एवंह विशेषोऽसावेव प्रतिद्वारं प्रतिपाद्यत इति, तत्र 'संगहस्से' त्यादि, अन्यसिद्धमेव, बावन्नियमा एको रासी, एत्य सुत्तुधारणसमणतरमेव आह चोदकः--णणु दयपमाणे पुढे अतिलिहामुत्तरं, जो गको रासित्ति पमाणं कहियं, जो बहणं सालिबीयाणं एको रासी भण्णाति, एवं बहूर्ण आणुपब्बिदब्वाणं एको रामी भत्रिस्पति, बहू पुग दया पडिजिज्ञतब्बा, आचार्य आह-एकालिप्रहणण बहुसुवि ४ ।१० आणुपुत्रिवेसु एवं चेव आणुमुधिभा सेति, जहा भूने कठीण नुतनं, अवा जहा बहवो परमाणवो संवत्तभावपरिणता एगखंधो भण्णति, एवं बहुआणुपुब्बिदव्या आणुपुब्विभावपरिणवत्तणतो एगाणुपुश्वित्तं पगत्तणओ एगो रासीति भणितं न दोसो, 'संगहस्स आणु S दीप अनुक्रम [१०५१०८] ~44~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [९६-९७ ] गाथा ||s..|| दीप अनुक्रम [१०९ ११०] श्रीअनु० दारिवृती ॥ ४१ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ९६-९७ ] / गाथा [...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: 6. + पुव्विदव्वाई लोयस्स किं संखेज्जतिभागे होज्जा' इत्यादौ निर्व वनसूत्रं नियमा सव्वलोए होज्जा' सामण्णवेकखा आणुपुत्री एगत्तणओ सव्वगयत्तणओ य, एवमणाणुपुब्विअवतव्वगावि भाणितव्या फुलणावि एवं चैव मागितल्या, कालतो पुर्ण सम्बद्धं, आणुपुथ्वीसामान्यस्य सर्वकालमेव भावात् एवमणाणुपुब्वि अब तव्वगावि भाणियन्त्रा, अंतरचिन्ताप णत्थि अन्तरं प्रयोजनमनन्तरोक्तमेव, भागद्वारेऽपि नियमात् त्रिभागो, जेण तिभिश चैवेत्थ राखी, एत्य चोदगो भगति-गणु आदीए अवहितो अगापुवी विसेसाधिता तेहिंतो आणुपुब्वी असंखेज्जगुणा, आचार्य आदतं नेगमववहाराभिप्पायतो, इमं युग संगदानिप्यायतो भणितं किंचान्यत्-जहा एगस्व रो तओ पुत्ता, तो अस्ले मग्गन्तार्ण एगस्स एगो आसो दिष्णो, सो छ सहस्ते लम्मति, विविवस्त्र दो आसा दिण्या, ते तिणि तिणि सहस्से उन्मति, तइयरस वारस आसा दिण्णा, ते पंच पंच सए उम्र्मति, विसमाज से मुमाव पडुच्च विभागपडिता भवंति एवं अणुपुत्रमादवि दवा आपुवि अणाणु पुब्विअव त्तन्यगतिभागसमक्षणतो नियमातिमांगति भणितं ण दोसो, सादिपारिणाभिए भावे पूर्ववत्, गता अणोवणिहिया दव्याणुपुथ्वी से किं तमित्यादि, अथ कथमोपनिधिकी द्रव्यानु ?, ओपनिधिको द्रयानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञता, तद्यथा-' पूर्वानुपूर्वी 'त्यादि (९६-७३ ) तस्मात्प्रथमालभृति आनुपूर्वी अनुकनः परिपाटी पूर्वानुपूर्वी, पाचवा वरमादारभ्य व्यस्ययेनैवानुपूर्वी पचानुपूर्वी न आनुपूर्वी अनानुपूर्वी यथोक्तप्रकारद्वयातिरिक्तहरेत्यर्थः ' से किं व नित्यादि (९७-७३ ) तत्र द्रव्यानु पूधिकारात् धर्मास्तिकायादीनामेव च द्रव्यत्वादिदमाइ धम्मत्थिकाए ' इत्यादि तत्र जीवपुलानां स्वाभाविके क्रियायस्वे गतिपरिंगतानां तत्स्वभावधारणाद्वर्मः अस्तयः प्रदेशास्तेषां कायः संघातः अस्तिकायः धर्मप्रसावस्तिकायचेति समासः, तथा जीवपुलानां स्वाभा बिके क्रियावत्त्वे तत्परिणतानां तत्स्वभावाधारणादधर्मः शेषं धर्मास्तिकायत्र तत्र सर्वद्रव्यस्वभावाऽऽदीप तादाकाशं स्वमावेनावस्थानादि 4 1 , ~45~ ओपानिघिकी द्रव्यानुपूर्वी ॥ ४१ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ............. मूलं [९६-९७] / गाथा [९] ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: षड प्रत सूत्रांक [९६-९७] गाथा ||९..|| द्रव्याणि श्राअनु। त्यर्थः, आशब्द। मर्यादाभिविधिवाची, मर्यादायामाकाश भवन्ति भावाः स्वारमनि च, तत्संयोगेऽपि स्वभाव एवावतिष्ठन्ते नाकाथाभावमेव हारि.वृत्तीन यान्ति, अभिविधौ तु सर्वभावण्यापनादाकाश, सर्वात्मसंयोगादिति भावः, शेष धर्मास्तिकायबत् , तथा जीवति जीविष्यति जीवितवान् तक्रमच ॥४२॥ जीवः, शेषं पूर्ववत्, तथा पूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः त एवास्तिकायः पुनलास्तिकाय इत्यनेन सावयबानेकप्रदेशिकस्कन्धमहोऽप्यव | गन्तव्यः, तथाऽदेत्ययं कालवचन: स एव निरंशत्वावतीतानागतयोविनिष्टानुत्पन्नवेनासस्वारसमयः, समूहाभाव इत्यर्थः, आवालिकादयः सन्तीति चेत्, न, तेषां व्यवहारमात्रतयैव शब्दात, तथाहि-नानेकपरमाणुनिर्वृत्ताकन्धसमूहवत् आवलिकादिषु समयसमूह इति | आइ-एषां कथमस्तिस्वमवगम्यते ? इति, अत्रोक्यो, प्रमाणात् , तर वेद प्रमाण-इह गतिः स्थितिश्च सफल लोकप्रसिक्षा कार्य वर्तते, कार्य च परिणामा| पेक्षाकारणायत्तात्मलाभ वर्तते, पटाविकार्येषु तथा दर्शनात् , तथाच मृविण्वभावेऽपि दिगदेशकालाकाशप्रकाशाचपेक्षाकारणमन्तरेग न घटो भवति, यदि स्यान्मृपिण्डमात्रादेव स्यात्, न च भवति, गतिस्थिती अपि जीवपुरलाख्यपारिणामिककारणभावेऽपि न धर्मास्तिकायाख्यापेक्षाकारणमन्तरेण भवन एव, यतश्च भावो दृश्यते अवस्तत्सत्ता गम्यत इति भावार्थः, गतिपरिणामपरिणतानां जीवपुरलानां गत्युपष्टम्भको धर्मास्तिकाय: मत्स्वानाभिव जर्क, तथा स्थितिपरिणामपरिणताना स्थित्युपष्टम्भक अधमास्तिकायः मत्स्यानामिव मेदिनी, विपक्षवा जलं वा, प्रयोगगतिस्थिती अपेक्षाकारणवत्यो कार्यवाद् पटवत्, विपक्षबैलोक्यपिरमभावो वेत्यलं प्रसंगेन, गमनिकामात्रमेतत् | आ६-आकाशा C ॥४२॥ स्तिकायसत्ता कथमवगम्यते , उच्यते, अवगाहर्शनातथा चोक्तं--'अवगाइलक्षणमाकाश' मिति, आह-जीवास्तिकायसत्ता कथमवग-18 म्यते , उफयते, अवमहादीनां स्वसंवेदनसिद्धत्वात् , पुरळास्तिकायसत्ताऽनुमानतः, पढादिकार्योपलब्धेः सांव्यवहारिकप्रत्यक्षतश्चीत, आह-कालसत्ता कथमवगम्यते ?, उच्यते, बकुलचम्पकाशोकादिपुष्पफलप्रदानस्य नियमेन दर्शनात् , नियामकच काळ इति, आह--पूर्वानुपूर्वी दीप अनुक्रम [१०९११०] ~46~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [९६-९७ ] गाथा ||s..|| दीप अनुक्रम [१०९११०] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ९६-९७ ] / गाथा [९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: श्रीअनु० हारि-पृचौ ॥ ४३ ॥ 4 4 त्वमभीषामित्यमेव किं कृतमिति १, अत्रोच्यते इत्थमेवोपन्यासवृत्तेः आह-इत्थमेव क्रमेण धर्मास्तिकायाद्युपन्यास एवं किमर्थमिति ?, उच्यते, धर्मास्तिकायादिपदस्य मांगलिकत्वाद्धर्मास्तिकायस्य प्रथममुपन्यासः गतिक्रिया देतुत्वाच्च पुनर्धमस्तिकायप्रतिपक्षत्वादधर्मास्तिकायस्थ, पुनस्तदाधारत्वादाकाशास्तिकायस्थ, पुनः प्रकृत्याऽमूर्ति साम्याज्जीवास्तिकायस्थ, पुनस्तदुपयोगित्वापुद्रास्तिकायस्थ, पुनर्जीवाजीवपर्ययत्वादद्वासमयस्येति से किं तं पच्छाणुपुन्वी त्यादि पश्चात् प्रभृति प्रतिलोमपरिपाटी पश्चानुपूर्वी, उदाहरणमुत्क्रमेगेदमेव अद्धासमय इत्यादि, निगदसिद्धं, ' से किं तं णाणुपुब्बी ' त्यादि, न आनुपूर्वी अनानुपूर्वा यश्रायं द्विप्रकारोऽपि क्रमो नास्ति, एवमेवादेविततया विवदयत इत्यर्थः तथा चाह--' एयाए चैत्र 'ति एते उच्च समाणे ' इति वचनादस्यामेवानन्तराधिकृतायां 'एगादियाए 'ति एकादिकायां एगुत्तरियाए 'ति एकोतरायां 'हगच्छगते 'ति पणां गच्छ समुदायः गच्छतं गता प्राप्ता गडगता तस्यां 'सेढीए ' ति श्रेण्यां किं १' अण्णमनन्मासो ' त्ति अन्योऽन्यमभ्यासेोऽन्योऽन्याभ्यासः, अभ्यासो गुणनेत्यनर्थान्तरं दुरूवूणो 'ति द्विरूपन्यूनः आद्यन्तरूपरहितोऽनानुपूर्वीति संटकः, एष तावदक्षरार्थः, भावार्थस्तु करणगाथानुसारतोऽवगन्तव्यः, सा चेयं गाया--' पुवापुव्वि हेट्ठा समयाभेदेण कुण जहाजे उदरिमतुहं पुरओ णसज्ज पुरुवकमो सेसे ॥ १ ॥ चि पुब्बाणपुविद्दत्यो पुख्वं वणितो, देहति पढमाए पुल्वाणुपुविताए अधोभागे स्वर्ण वितिवादिलतादिसु समड ति इह अगाणुपुब्विभंगरयगव्यवस्था समयः तं अभिद माणो 'ति तां भंगरचनाव्यवस्थां अविणांसेमाणो, तरस य विगासो जति सरिसमं छताए उबेति जति वाऽभिहितलक्षणतो कमेणं ठवे तो भिण्णो समओ, उक्तंच" जहियंमि उ निक्खिते पुणरवि सो चेव होइ दाययो । सो होति समयमेओ वजेयवो पयन्ते ॥ १ ॥ " तं भेदं अवधमाणो कुणभु ' जहाजेड ' न्ति जो जस्स आदी एस तस्स जेडो हयति, जहा दुगस्स एको जेडो, अणुजेडो जहा विगस्स एको, 4 ~47~ अनानुपू|र्ष्या भेदाः तदानयनोपायच ॥ ४३ ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .......... मूलं [९८-१००] | गाथा [१०] ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [९८१००] गाथा ||१०|| ॥४४॥ श्रीअनु: जेट्टाणुजहो जथा चटकस्स एको, अतो पर सव्वे जेट्ठाणु जेट्टा भाणितब्वा, पतेर्सि अण्णतेरे ठविते 'पुरा' ति अमाओ उवरिलतासरिसे क्षेत्रानुष्हारत्ताला ठवेजा, जेहादिअकठवणतो जे एगादिया सेसहाणा तेसु जे अट्ठविया सेसगा अंका से पुषकमेण ठवेग्जा, जस्म अणंतरो परंपरो वा पुया काव्योदय: अंको स पुज्यं ठविज्जते पुख्वकमो भण्णतीत्यर्थः, तत्थ विहं पदार्ण इमा ठवगा, १२३-२१३-१३२-३१२-२३१-३२१ अहवा अणाणुपुवीणं परिमाणजाणणत्यो सुहविष्णेयो इमो उवाओ धम्मादिए चेव छप्पदे पडुच्च दंतिम्जइ-गगादिपसु परोप्परब्भासेण सत्त सता वीमुत्तरा भवंति, एकोण दुगो गुणिओ दो दो तिग छ छ चक चडब्बीस चवीस पंच वीसुत्तरं सतं वीमुत्तरं सतं छकगाण सत्त सता वीमुत्तरा, पते पढमंतिमहीणा अपाणुपवीण सत्त सता अट्ठारमत्ता हवंति, अगेण उवातो भणिओ व 'पुवाणुपुची हेटा' इत्यादिना, एवमन्येऽपि भूयांस एवोपाया विद्यन्ते न च तैरप्रस्तुतैरिहाधिकार इति न दयन्ते, से तं अगाणुपुब्बीति निगमनं, 'अहवे 'त्यादि (९८७७) अहवेति प्रकारान्तरदर्शनार्थः, औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी त्रिविधा प्राप्ता, तद्यथा- पूर्वानुपूर्वी ' स्यादि सूत्रसिद्ध यावनिगमन| मिति, नवरमाह चोदक:-अथ कस्मात्सुद्गलास्तिकाये एव त्रिविधा दर्शिता, न शेषास्तिकायेषु धादिष्विति, अत्रोच्यते, असंभवाद्, असंभवश्व धमाधमाकाशानां प्रत्येकमेकद्रव्यत्वादेकाव्येषु च पूर्बाद्ययोगात् जीवास्तिकायेऽपि सर्वजीवानामेव तुल्यप्रदेशत्वादेकाोकोत्तरवृद्धभावादयो न इति, अद्धासमयस्त्वेकत्वादयोग इत्यर्क प्रसङ्गन, प्रस्तुमः प्रकृतं, गवा द्रव्यानुपूर्वी । साम्प्रतं क्षेत्रानुपूर्वी प्रतिपाद्यते, तत्रेदं सूत्र-' से किं ते खचाणुपुब्बी ' ( ९९-७८ ) द्रव्यावगाहोपलक्षित क्षेत्रमेव क्षेत्रानुपूर्वी, सा द्विविधा प्रक| नेत्याचत्र यथा द्रव्यानुपूर्वी तथैवाक्षरगमनिका कार्या, विशेष तु वक्ष्यामः, 'तिपदेसोगाढे आणुपुग्वि' ति त्रिप्रदेशावगाढः H ॥१४॥ | व्यणुकादिस्कन्धः अवगायावगाहकयोरन्योऽन्यसिद्धरभावेऽध्याकाशस्यावगाहलवणत्वात् क्षेत्रानुपूळधिकारात् क्षेत्रप्राधान्यात् क्षेत्रानुपूर्वी RANCCCC दीप अनुक्रम [१११११५] ~48-~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........... मूलं [९८-१००] | गाथा [१०] ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: क्षेत्रानुपूर्वी प्रत सूत्रांक [९८१००] गाथा ||१०|| श्रीअनुः हारि.वृत्ती ॥४५॥ + % C % ति, एवं थावसंख्येयप्रदेशावगादोऽनन्तप्रदेशिकादिरानुपूर्वीति, 'एगपदेसावागढोऽणाणुपुलि' ति एकप्रदेशावगादः परमाणुः यावदनन्ताणुकस्कन्धो पाऽनानुपूर्वी, 'दुपदेसोगाढे अवत्तव्बए' द्विपदशावगाढो घणुकादिरवक्तव्यक, एत्थावगाहो दवाण इमेण | विहिणा-अणाणुविदव्वाणं परमाणे नियमा एगम्मि चेव पदेसेऽवगाहो भवति, अवतव्ययवाणं पुण दोपदेसियामं एगम्मि पा दोसु का, आणपुब्बिदब्बाण पुण तिपदेसिगादीणं जहण्णेणं एगम्मि पदेसे उकासेणं पुण जो खंधो जतिपहिं परमाणूहिं गिफण्णो सो तत्तिपहि चेव पएसेहिं ओगाहति, एवं जाव संखेज्जासंखेजपदेसिओ, अणंतपदेसिओ पुण बंधो एगपदेसारद्धो मापदेसुत्तरडीए उकोसओ जाव असंखज्जेसु पदेसेसु ओगाहति, नानन्तेषु, लोकाकाशस्यासंख्येयप्रदेशात्मकत्वात्परतश्वावगाहनाऽयोगादित्यलं प्रसंगेन, शेष सूत्रसिद्धं यावत णेगमववहाराण आणुपुस्बियाई कसंखेम्जाई असंखेम्जाई अर्णताई?, नेगमवव० आणु० नो संखजाई असंखजाईनो अर्णताई,एवं। अणाणुपुठियदब्बाणिवि, तत्र असंखेयाति क्षेत्रप्राधान्यात् द्रव्यावगाहक्षेत्रस्वासंख्येयप्रदेशात्मकत्वानुरूपप्रदेशावगाढानां च द्रव्यतया बहूनामप्येकत्वादिति । क्षेत्रद्वारे निर्वचनसूत्र--'एग दब्बं पडुकच लोगस्स संखेन्जतिमागे वा होजे 'त्यादि, तथाविधस्कन्धसद्भावादू, एवं शेषेष्वपि भावनीय, यावद् 'देसूणे वा लोए होज्ज 'त्ति आह-अचित्तमहास्कन्धस्य सकललोकव्यापित्वात्क्षेत्रप्राधान्यविवक्षायामपि कस्मात्संपूर्ण एव लोको | नोच्यते? इति, उच्यते, सदेवानानुपूर्यवक्तव्यकद्रव्यसद्धावान् जघन्यतोSपि तत्रदेशत्रयणोनत्वादु व्यापी सत्वामपि तत्प्रदेशबानुपाः प्राधान्याभावाद, उक्तं च पूर्वमुनिभिः- महखंधापुण्णेवी अवत्तबगऽणाणु बिदबाई। अंदेसोगाढाई तसेणं सोगोणो ॥१॥ ण प सस्थ तस्स जुज्जइ पाधणं वावि विवि (तमि ) देसंमि । तप्पाधन्नत्तणओ इहराऽभावो भवे तासि ॥२॥” अधिकृतानुपूर्वीस्कन्धप्रदेशकल्प| नातो वा देशोन एव लोक इति, यथोक्तमजीवप्रज्ञापनाया-" धम्मत्यिकाए धम्मस्थिकावस्स देसो धम्मत्धिकायस्स पदेसे, एवमधम्मागासे, SECASTAKESED १५ + ५ दीप अनुक्रम [१११११५] ॥४५ ~49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक ९८ १०० ] गाथा दीप अनुक्रम [१११ १९५] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [१८-१००] / गाथा (१०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४] भूमिकामसूत्र २२] "अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः श्रीअनु० हारि. वृत ॥ ४६ ॥ 13 पुग्गलेसुवि” इह चावयवावयविरूपत्वाद्वस्तुनः अथयवावयविनोश कथंचिद्भेदादेशप्रवेशकल्पना साध्वीति, न च देश एव देसी सर्वथा तदेकरवे देशमात्र एवासौ स्यादेशो वा देशिमात्र इति, अतः स्वदेशस्यैव कथंचिदन्यत्वादेशोनो छोक इति । किंच-खेताणुपुन्बीर आणुपुब्वीजयतव्वगव्यविभागत्तणओ पण तेसिं परोष्परमवगाहो, परिणमंति वा, ण वा तेसिं संघभावो अस्थि, कथं?, उच्यते, पदेसाण अचलभावसणओ, सवो य अपरिणामत्तणओ, तेसिं च भावप्यमाणनिच्चत्तणओ, अतो स्वत्ताणुपुब्बीय एगं दब्बं पडुच्च देसूणे लोगेत्ति भणियं दब्बाणुपुव्वी पुण दव्वाण एगपदे सावगाहसणओ एगावगाहेऽवि दव्वाण आयभावेणं भिन्नत्तणओ परिणामत्तणओ खंधभावपरिणामत्तणओ य अतो एवं दयं पहुच सव्वलोगेचि, भणितं च " कह गवि दविए चेऽवेवं संधे सविवक्खया पिधत्ते । व्याणुपुब्बिताई परिणाम संधभावेण ॥ १॥" अत्रोच्यते, बादरपरिणामेसु आनुपुध्विदव्यपरिणामो चैव भवति, नो अणाणुपुवि अवन्तवगवेणं, जओ बादरपरिणामो संघभावे एव भवति, ते पुण सुटुमा ते तिविद्दाबि अस्थि, किंच-जया अचित्तमहाधपरिणामो भवति तदा ते सब्बे सुहुमा आयभावपरिणामं अमुंचमाणा तत्परिणता भवति, तस्स सुमत्तणओ सब्बगतत्तणओ य, कथमेवं १, उच्यते, छायातपोधोत वा पुद्र परिणामवत् स्फटिक कृष्णादिवर्णोपरंजितवत्, सीसो पुच्छर दव्वाणुपुव्विए एगदव्यं सब्बलोगावगाढंति, कहूं पुण मई एवर्ग वा भवति ?, उच्यते, केवालसमुद्घातवत्, उक्तं च- "केवालेडवाओ इव समयट्टम पूर रेयति य होये । अच्चित्तमहाखंधो वेळा इव अतर जियतो य ॥ १ ॥ " अचित्तमद्दाखंभो सागमेन्तो यससापरिपातो भवति, तिरियमसंखेज्जजोयणप्पमाणो अणियतकाळठीती बट्टो उडुमो चोदसरज्जुप्यमाणो सुमपोग्गल परिणामपरिणओ पढमसम दंडो भवति वितिए कवाडं तइए मंगं करेइ उत्थे लोगपूरणं पंचमादिसमएस पडिलोमं संहारेण असमर्थते सव्वा वस्त्र खंधओ विणासो, एस जलनिहिबेला इव लोगपुरणरेयकरणेण ठितो लोग पुग्गळाणुभावो, सव्वण्णुचयणतो सद्धेतो इत्यलं प्रसंगेन । ' णाणादय्वा पहुच नियमा ~50~ क्षेत्रानुपूर्वी ॥ ४६ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........ मूलं [१०१] / गाथा [१०...] ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०१] गाथा ||१०..|| श्रीअनु० दासब्बलोएवी ' त्यादि (१०१-७०), अस्य भावना-व्यादिप्रदेशावगाव्यभेदैः सकललोकस्यैव व्याप्तत्वादिति । अनानुपूालोचनायां स्वे हारिकाद्रव्यं प्रतीत्य असंख्येयभाग एव. तस्य नियमत एवैकप्रदेशावगाढवान, णाणादन्याई पडुच्च णियमा सबलोएति. विशिष्टेकपरिणाम-18 बिङ्किः प्रत्येक प्रदेशावगाडैरपि समप्रलोकव्याप्तः, आधेयभेदेन वाधारभेदोपपत्तेः, वस्तुनश्वानन्तधर्मात्मकत्वात्तत्सहकारिकारणसन्निधाने सविद तस्य २ धर्मस्थाभिव्यके, धम्मिभेदेन च क्षेत्रप्रदेशाविशेषेऽष्यानुपूर्वीतराभिधानप्रवृत्तेरपि सूक्ष्मधिया भावनीयं । एवं अवत्तबगदवाणिवि, भावार्थ उक्त एव, नवरमवक्तव्यकैकद्रव्यं द्विप्रदेशावगाडं भवति, स्पर्शनायां तु यथाऽऽकाशनदेशानामेव स्पर्शना, ततः18 | खल्वानुपूाविद्रव्याधारवादिष्टानामेव षदिकस्थितानंतरप्रदेशेरेव सह वाऽवगन्तव्या, पह पुन: किल सूत्राभिप्रायो यथाऽऽकाशप्रदेशाव-18 गाढस्य द्रव्यस्यैवं चिन्तनीयेति वृद्धा व्याचक्षते, भावार्थस्स्वनंतरद्वारानुसारतो भावनीय इति । कालर्थितायामपि यद्याकाशप्रदेशानामेव काल धित्यते ततः किल नभप्रदेशानामनाथपर्यवसितत्वात् स एव वक्तव्यः, सूत्राभिप्रायस्त्वानुपूल्याविद्रव्याणामेवावगाहस्थितिकालविन्स्यते इत्येके, 18 न चेह क्षेत्रखंडानामपि विशिष्टपरिणामपरिणवाधेयद्रव्याधारभावोऽपि चिन्त्यमानो विरुध्यत इनि, युक्तिपतितश्वायमेव, क्षेत्रानुपूष्यधिकारादिति, तत्र 'एग दव्यं पडच जहनेणं एक समय ' मित्यादि, अस्य भावना-द्विप्रदेशावगादं तदन्यसन्निपाते त्रिप्रदेशावगादं भूत्वा समयानन्तरमेव पुनर्विपदेशावगानमेव भवति, उत्कृष्टतस्त्वसंख्येयं कालं भूत्वेति, आधेवमेदारहाधारभेदो भावनीय इति, शेष भावितार्थ ।। अन्तरचिंता प्रकटार्था, नवरमुत्कृष्टता असंख्येयं कालं, नानन्तं यथा उनानुपूज्यामिति, कस्मात् ', सर्वपुरलानामवगाहक्षेत्रस्य स्थितिकालस्य चासस्ययत्वास, क्षेत्रानुपूज्यधिकारस्य व्याख्येयावात, क्षेत्रानुपूर्वधिकारे च क्षेत्रप्राधान्याद्, असंख्यकाळापारतच पुनस्तत्प्रवेशानां तथाविधाय-18 भावेन तथाभूताधारपरिणामभाषावित्यतिगहनमेतदवहितैर्भावनीयमिति ॥ भागविम्तायामानुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्येभ्योऽसंख्येयेषु भागेष्वि-16 -%A 4 दीप अनुक्रम [११६] ॥१७ % % ~51 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........ मूलं [१०१] / गाथा [१०...] ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] “अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: श्रीअनु० हारि.वृत्ती कालानु पूर्वी प्रत सूत्रांक [१०१] गाथा ||१०..|| ॥४८॥ युक्तं, अत्रै म्याचक्षते-यदा यदा खप्रदेशानुपुब्विमादि चिंतिजति तदा तदा पण्णवणाभिप्पायपरिकप्पणाए समूणातिरित्तभागो भाणितव्यो, जया पुण अवगाहिदव्या तदा संखेनेसु भागेसुप्ति, जहा दम्वाणुपुब्बीए वहा माणितव्य, तत्र विनेयजनानुपहार्य क्षेत्रानुपूर्ध्या एव प्रशाम्तत्वात् । | द्रव्यानुपूर्यास्तूपापिलेन गुणीभूतत्वात् क्षेत्रानुपूर्वीमेवाधिकृत्य प्रज्ञापनाभिप्रायः प्रतिपागते-तत्रानुपूर्वद्रिव्याणि षद्रव्येभ्योऽसरव्येयभागैर-12 विकानीति वाक्यशेषः, इत्थं चैतदंगीकर्तव्य, यस्मावनानुपूर्व्यवकन्यकद्रव्याणि तेभ्योऽसंख्येवमागरविकानीति, क्षेत्रानुपूधिकारात् क्षेत्र-18 खण्डान्यधिकृत्येयमालोचना, ततः खल्वानुयादिद्रव्याधारलोकक्षेत्रस्य चतुर्दशरज्ज्वात्मकत्वेन तुल्यत्वात्तदंतर्गतप्रदेशानां च सर्वेषामेवानुपूादिभिर्द (व्याप्तत्वात समत्वं द्र) घ्याधारलोकक्षेत्रस्य प्रत्युत श्यादिप्रदेशसमुदायेष्वाकाशस्खण्डेषु प्रतिखण्डमकैकानुपूर्वीगणनादानुपूर्वीणामेकाल्पता युक्तिमती, अवक्तव्यानानूपूर्वीणां तु द्विप्रदेशकैकप्रदेशिकखंडानां गणनात् बहुता, तकिमर्थ विपर्यय इति?, अत्रोच्यते, इह व्यादिप्रदेशा| धेयपरिणामद्रव्याधारत्वेन क्षेत्रानुपूर्दोऽभिधीयते, तत्र त्रिप्रदेशाभिधेयपरिणामवंत्यनंतान्यपि द्रव्याणि विशिष्टैकत्रिप्रदेशसमुदायलक्षणक्षेत्रव्यवस्थितान्येकैका क्षेत्रानुपूर्वी, एवं चतुःप्रदेशेष्वाधेयपरिणामवंत्यपि असंख्येयप्रदेशाधेयपरिणामवत्पर्यवानि विशिष्टैकचतुःप्रदेशादसंख्ये| यप्रदेशान्तसमुदायलक्षणक्षेत्रव्यवस्थितानि प्रविभेदमकैकैवेति, किन्तु यदेकं त्रिप्रदेशसमुदायलक्षणमानुपूव्यपदेशाई क्षेत्रं तदेव तदन्या-18 नंतचतुःप्रदेशाद्याधेयपरिणामवद्व्याध्यासितमेकैकक्षेत्रप्रेदशटचा परिणामभेददो भेदेनानुपूर्वीव्यपदेशमईति, असंख्येयाश्च प्रभेदकारिणः क्षेत्रप्रदेशा इति, न चायमवक्तव्यकानानुपूर्वीणां न्यायः संभवति, नियतप्रदेशात्मकत्वादतोऽसंख्येयभागरधिकानीति स्थितं, न च तजेनैव स्वभावेन त्रिप्रदेशाधेयपरिणामवतां द्रव्याणामाधारता प्रतिद्यते, नैव चतु:प्रदेशाद्याधेयपरिणामवतामपि, तेषामति विप्रदेशाधेयपरिणामोपपत्तेः विपर्ययो वा, तदेवमनन्तधर्मात्मके वस्तुनि सति विवधितेवरधर्मप्रधानोपसर्जनद्वारेणाखिलमिह भावनीयमित्यळ दीप अनुक्रम [११६] C+ + ~52~ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूल [१०२-१०३] / गाथा [१०...] ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०२१०३] गाथा ||१०..|| प्रसंगेन । भावचिन्तायामानुपूद्रिव्याणि नियमात् सादिपारणामिके भावे, विशिष्टाधेयाधारभावस्य सादिपारिणामिकात्मकत्वाद् एवमनानुपूर्वीअ- भावानुपूर्वी हारि.वृत्ती वक्तव्यकान्यपि, अल्पबहुत्वचिन्तायां द्रव्यार्थनां प्रत्यानुपूर्वीमामेकैकगणनं, प्रदेशावता तु भेदेन तद्गतप्रदेशगणनं, द्रव्यार्थप्रदेशार्थतां तूमय- अल्पबहुत्वं ॥४९॥ गणनं, तत्र सम्बत्योबाई गमववहाराणं अवत्तबगदव्वाई दबट्टयाए, कथं , द्विप्रदेशात्मकत्वादवक्तव्यकद्रव्याणामिति, अवाणुपुल्विदल्याई दव्बयाए विसंसाधियाई, कथं ?, एकदेशात्मकत्वादनानुपूर्वीणां इति, आह- यद्येवं कस्माद् द्विगुणान्येव न भवत्येकप्रदेशात्मकत्वात् तद्विगुणत्वभावादिति, अत्रोच्यते, तदन्यसंयोगवोऽवधीकृतावक्तव्यकबाहुल्याच्च नाधिकृतद्रव्याणि द्विगुणानि, किंतु विशेषाधिकान्येव, ' आणुपुब्बीदबाई दग्वट्टयाए अखेज्जगुणाई' अत्र भावना प्रतिपादितव, 'पदेसट्टयाए सव्वत्थोवाई गमववहाराण अणाणुपुश्विब्वाई गति प्रकटार्थ, 'अवत्तब्बगदव्वाई पदेसट्टयाए विसेसाधिताई' अस्य भावार्थ:-इह खलु रुचकादारभ्य क्षेत्रप्रदेशात्मकत्वादवक्तव्यकणिव्यतिरिक्ततदन्यप्रदेशसंसर्गनिष्पन्नायक्तव्यकगणनया तथा लोकनिष्फुटगतप्रदेशावक्तव्यकायोग्यानानुपूर्वीयोग्यभावतश्चेति सूक्ष्मबुद्ध्या भावनीय इति । इह | | विनेयजनानुमहाथै स्थापना लिख्यते, शेष भाविता यावत् । सेत्तं गमक्वहाराण अणोषणिहिया खत्ताणुपुवी' सेयं नैगमध्यवहारयो । | रनोपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी । “से किं तं संगहस्से' त्यादि (१०२-८७) इयमानिगमनं द्रव्यानुपूर्व्यनुसारतो भावनीया, नवरमत्र वाक्षेत्रस्य प्राधान्यमिति । औपनिधिक्यपि प्रायो निगसिद्धेव, गवरं पंचत्यिकायमइओ लोगो, सो आयामओ उडमहे पसिटिओ, तस्स तिहार | परिकल्पणा इमेण विहिणा-बहुसमभूमिभागा रयणप्पभाभागे मेरुमझे अहषदेसो कयगो, तस्स अहोपयराओ अहेण जाव णव योजणशतानि तिरियलोगो, ततो परेण अहे ठितत्तणी अहोलोगो साहियसत्तरज्जपमाणो, कयगाओ उपरिहत्तो णव जोयणसतानि जाव जोइसकस | उवरिवको ताव तिरियलोगो, तओ उडुलेोगठितत्तणओ उरि बट्टलोगो देसूणसत्तराजुप्पमाणो, अहोलोराडोगाण मज्झे अट्ठारसजोयण दीप अनुक्रम [९१७११८] SA: ~53. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूल [१०२-१०३] / गाथा [१०...] ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] “अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: श्रीअनु: हारि.वृत्ती प्रत सूत्रांक [१०२१०३] गाथा ||१०..|| औपनिधिका क्षत्रानु पूर्वी तियेग्लोकादि ॥५०॥ A सतप्पमाणो तिरियभागठियत्तणो तिरियलोगो, ' अहब अहो परिणामो वेत्तणुभावेण जेण उस्सणं । असुभो अहोत्ति भणिओ बम्बाण तेण-1 होलोगो ॥१॥ईति स्वरिमंति व महखेतं खेत्तओ य दव्यगुणा । उपजंसि य भावा तेण व सो उड़लोगो चि ॥ २॥ मज्मणुभावं खेच जंतं तिरियं वयणपज्जयो । भण्णइ विरिय विसालं अतो य तं निरियलोगोति ||३॥' होलोक क्षेत्रानुपूा रमप्रभादीनाम- नादिकाळसिद्धानि नामानि यथास्वममूनि विज्ञातव्यानि, तयथा-'धम्मा वंसा सेला अंजण रिहा मघा च माधवती । पुढवीर्ण नामाई रयणादी होति गोताई ॥१॥ नमभादीनि गोवाणि, तत्रेन्द्रनीलादिबहुविधरनसंभवानरकवजे पायो रमाना प्रभा--ज्योत्सना बस्यां सा रत्नप्रभा, एवं शेषा अपि यथानुरूपा याच्या इति, नवरं शर्कग--उपला: वालुकाकधूमकृष्णातिकृष्णद्रव्योपलक्षणद्वारेणेति, तिर्यग्लोकक्षेत्रानुपूयों जंबुद्दीबे वीवे लवणममुद्दे धायासंदीवे कालोदे समुद्दे उदगरसे पुक्लरवरदीवे पुक्खरोदे समुरे उदगरसे वरुणवरे दीचे वरुणोदे समुरे वरुगरसे खोदवरे दीवे खोदोदे समुहे पयवरे दीवे घओदे समुदे खीरवरे दीवे खीरवरे समुद्दे, अतो परं सब्वे दीवसरिसणामिया समुद्दा, ते य सब्बे सोदरसा भाणियव्वा । इमे दीवणामा, संजह--णंदीसरो दीवो अरुणवरो दीयो अरुणावासो दीयो कुंडलो दीवो, एते जंबूदीवाओ णिरं. तरा, अतो परं असंखेज्जे गंतु भुजगवरे दीये, पुणो असंखग्जे दीवे गंतु कुसबरे दीये, एवं असंखेज्जे २ गतुं इमेसि एक णाम भाणियब्वं, कोंचवरे दीवे, एवं आभरणादओ जाय अन्ते सयंभूरमणो, से अन्ते समुद्दे उदगरसे इति । जे अन्तरतरा दीये तेसि इहं सुभणामा जे केह तण्णामाणो ते भाणितव्वा, सम्वेसि इमं पमाणं, 'उद्धारमागराणं अट्टाइज्जाण जत्तिया ममया । दुगुणादुगुणपवित्थर दीवोददि रज्जु एवईया | ॥१॥ ऊर्बलोकक्षेत्रानुपू कोधावतंसकाभिधानसकलविमानप्रधानविमानविशेषोपलक्षित: सौधर्मः, एवं शेषेच्वपि भावनीयमिति, | लोकपुरुषपीवाविभागे भवानि प्रैवेबकानि, न तेषामुत्तराणि विद्यत इत्यनुत्तरागि, मनारभाराकान्तपुरुषवन् नता अंतेषु ईषत्मारभारत्यलं प्रसंगेन ॥५०॥ दीप अनुक्रम [११७११८] ~54~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१०४-११३] / गाथा [११-१५] .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक श्रीअनु० हारिचा ॥५१॥ [१०४११३] गाथा ॥१११५|| प्रकृतं प्रस्तुमः, वक्ता क्षेत्रानुपूर्वी ॥ साम्पत कालानपूर्युच्यते--तत्रेदं सूत्र--से कि ते कालानुपुब्बी ' (१०४-५२) तत्र द्रव्यपर्यायत्वारका-| लस्य ज्यादिसमयस्थित्यापुपलशितद्रव्याण्येव । 'कालानुपूर्वी द्विविधा प्रजात' त्यादि, (१०५-९२) अस्या यथा द्रव्यानुपूर्यास्तथैवाक्ष-11 धिकी मनिका कार्या. विशेष त वच्यामा.तिसमय द्वितीए आणवित्ति त्रिसमयस्थित्यणुकादि द्रव्यपर्याययोः कथंचिदमेदेऽपि आनुपूयधिकारा.' समाधान्यारकालानुपूति, एवं यावसंख्येपसमयस्थितिः, एचमेकसमयस्थित्यनानुपूर्वी, द्विसमयस्थित्यवक्तव्य, शेष प्रगढाथै, यावत् णो मंजे-II -पूर्वी उजाई असंखज्जाई णो अणन्ताई' अस्य भावना-इह कालप्राधान्यान् त्रिसमयस्थितीनों भावानामनंतानामप्येकत्वात्तदनु समयपृब्याऽसंख्येय-15. समयस्थितीनो परतः खल्वसंभवात् , समयवृद्ध्याऽभ्यासितानां चानन्तानामपि द्रव्याणां कालानुपूर्वीमधिकृस्यैकत्वावसंख्येयानि, अथवा त्र्यादिप्रदेशावगाहसंबंधिध्यादिसमयस्थित्यपेक्षयेति उपाधिभूतखस्याप्यसंख्येयप्रदेशात्मकत्वादिति, एवं तिणित्ति, आइ-एकसमयस्थितीनामनन्तानामप्येकत्वाचेषां चानन्तानामपि कालापेक्षया प्रत्येकमेकत्वाद् द्रव्यभेदग्रहणे चानम्तप्रसङ्गः कथमनानुपूर्वी (अ) वक्तव्यकयोरसंख्येयत्वमिति, अत्रोच्यते, आधारभेदसंबंधस्थित्यपेक्षया, सामान्यतश्चाधारलोकस्यासंख्येयप्रदेशात्मकत्वादित्यनया दिशाऽतिगहनमिदं सूक्ष्मबुद्धयाऽऽलोकनीयमिति । 'एग दुव्वं पच्च लोगस्ल असंखेजतिभागे होज्जा ४ जाव देसूणे वा लोगे होज्जा', कई भणंवि-पदेसूणति, कथं ?, उच्यते, दबओ एगो बंधो सुहमपरिणामो पदेसुणे लोए अवगाढो, सो व कयाइ तिसमयठितीओ लन्भइत्ति संख्या आणुपुवी, जे पुण समचलोगागासपदे-14 सावगाडं दब्वं तं नियमा चउत्थसमए एगलमयठितीओ लभड, तम्हा तिसमबठितीय कालाणुपुब्बी नियमा एगपदेसूणे चेव लोए लम्भति, अबा तिसमयादिकालाणुपुन्विरव्वं जहण्णओ एगपदेसे अवगाहति, सत्थ च पदेसे एगसमयठितियं कालओ अणाणुपुच्चिदव्यं दुसमयठितियं - च अवत्तव्वगं अवगाहति, जम्हा एवं सम्हा अचित्तो महाखंधो चऊत्यसमए कालओ आणुपुब्विदव्वं, तस्स व सबलोगावगाढस्सवि 5545% दीप अनुक्रम [११९१३६] ~55 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१०४-११३] / गाथा [११-१५] .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत % सूत्रांक [१०४११३] गाथा ॥१११५|| श्रीअनु: एगपदेसूणता कज्जा, कम्हत्ति ?, उच्यते, जे कालओ अणाणुपुब्विअवत्तव्वा ते तस्स एगपदेसावगाडा, तस्स य तमि पदेसे अप्पाहणत्तविक-18 कालानुहारि.वृत्ती क्खाओ, अतो तप्पदेसूणे लोके कतो, एत्व दिलुतो जहा खेत्ताणुपुव्वी पदेसोना इत्यर्थः, "एगम्मि तप्पदेसे काफ्णुपुवादि विणि वा दब्बा। पूज्योदि कास्थितिः ओगाईते जम्हा पदेसूणोत्ति तो लोगो ॥१॥ अण्णे पुण आयरिया भणति- कालपदेसो समओ समयचउत्थंमि इवति जवेलं। तेणूणवत्तणचा ।। ५२॥ ४ज लोको कालमयखंघो ॥२॥" अयमत्र भावार्थ:-इह कालानुपूळधिकारात्कालस्य च वर्चनादिरूपत्वात्पर्यायस्य च पर्यायिभ्योऽभेदात्स *खल्वचित्तमहाखधश्चत समयात्मककालरूप: अत: कालप्रदेशः, कालविभाग: समय इति, ततश्च समये चथं भवति-वर्तते यवेलामति- IR यस्यां वेलायामसौ स्कन्धः, स हि तदा विवक्षयक वाद् न गृह्यते, अतस्तेणूणत्ति विवक्षितः, चतुःसमयात्मकस्कन्धस्तेनोनः परिगृह्यते, कथमेतदेवं 4 बचण 'चि वर्तनारूपत्वात्कालस्य, जे लोको कालमयखघोत्ति विवक्षयैव यस्मालोकः कालसमयस्कन्धो वर्तते, अतस्तस्य प्रदेशस्य समया-14 गणने प्रदेशेनोनो लोक इत्येवमन्यथापि सूक्ष्मबुद्धया भावनीयमिति । 'णाणादब्वाई पदुश्च णियमा सम्बलोए 'त्ति ज्याविप्रदेशावगाहयादि| समयस्थितीनां सकललोके भावात , अन नुपूर्वीद्रव्यचिन्तायां एग दव्यं पडुनच लोयस्य असोज्जतिभागो होज्जा, सेसपुच्छा पडिसहितब्बा, भावार्थस्त्वेकप्रदेशावगाहैकसमयस्थितेषिक्षितत्वादिना प्रकारेणागमानुसारतो वाच्यः, आदेशांतरेण वा अस्य भावना-अचित्तमहास्कन्धो दंडावत्थारूविदव्वत्तण मोक्तुं कवाडावत्थामवणं तं अन्नं चेव दव्वं भवति, अण्णागारभावतणओ बहुतरसंघातपरमाणुसंघातत्तणओदयठि तितो दुपदेसियभवणं व, एवं मंधापूरणलोगापूरणसमएसु महास्कन्धस्याप्यन्यान्यद्रव्यभवनं, अतो काळाणुपुश्विदव्वं सव्वषुच्छासु संभवतीत्यर्थः, Mणाणादब्वाई पटुकच नियमा सब्बलोए होजति भावितार्थ द्रव्यप्रमाणद्वार एवेति, अवक्तव्यकद्रव्यचिन्तायां • एगं दव्वं पदुर लोगस्स असंखेज्जतिभाग होज्जा' द्विमदेशावगाहद्विसमयस्थितिविवक्षितभावात् , आदेशांतरेण वा महासंधवग्जमण्णदब्वेसु आदिलचउपुच्छामु ACAॐबन्य CAMERICRSts दीप अनुक्रम [११९१३६] .. अथ कालानुपूर्वी-अधिकारः अन्तर्गत् 'काल-समय'वर्णनं आरभ्यते ~56~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ...... मूलं [१०४-११३] / गाथा [११-१५] .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] “अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१०४११३] गाथा ||१११५|| BY BSPERMA श्रीअनु दोजा, अस्य हवयं-देशोनलोकावगायपि द्विसमयस्थितिर्भवति, शेष सुगम, यावदन्तरचिन्तायां 'एगं दवं पडुकच जहणणं एक समय कालानुहारि चाउकोसेण दो समया' अन्तरं वेगं बव्वं पबुरच अहण्णेणं एकसमय, एगहाणे विनि वा पचारि षा असंखम्जे वा समया ठातिकण ततो पूच्या | अन्नहिं गतूर्ण तत्व एग समयं ठाइऊण अन्नहिं गतुं तिणि वा चत्तारि वा असंज्जा वा समया ठाति, एवं आणुपुञ्चिदव्यस्सेगस्स जड्-दा अन्तर ॥५३॥ ण्णणं एगं समयं अंतर होति, उलोसेण दो समया, एका ठाणेहिं तिन्नि वा चत्तारि वा असंखेजे या समये ठाइऊण ततो अन्नहिं ठाणे दो समया ठातिऊण अण्णहिं तिष्णि वा चत्तारि वा असंखेज्जा वा सनया ठाति एवं उकोमेणं दो समया अंतर होइ, जइ पुण मक्झिमठाणे ४ तिमि समया ठावद तो मझिमे वा ठाणे तं आणुपुब्विव्यं वत्ति अंतरं चेव ण होइ, तेणेवं पेय दो समया अंतरं । आह-जहा अन्नादि ठाणे दो समया ठितं एवमन्नहिपि किमेकन चिट्ठति?, पुणोचि अन्नहिं दो अण्णहि एकति, एवं अणण आयारेण कम्हा असंखाजा समया | अंतरं न भवति ?, उच्यते, एत्य कालाणुपुष्वी पगता, तीए य कालस्स पाधणं, जहा य अण्णण पदेसहाणेण अंतरं काजइ तदा खेत्तदारेण करणाओ खेत्तस्स पाहणं कतं भवति ण पुण कालस्स, अतो जेण केणइ पगारेणं तिसमयादि इच्छति तेणेव कालपाहणतणओ आणुपुञ्ची लब्भइत्ति कार्ड दो चेव समया अंतरंति स्थित, णाणादव्वाई पडुरुच णस्थि अंतरं, जेण असुण्णो लोगो, अणाणुपाठवअंतरपुच्छा, एकद्रव्यं प्रकृत्योच्यते-जहण्णेणं दो समया, पढमे ठाणे एगसमय ठाइऊण मझिमे ठाणे दो समय ठाइकण अन्तिमे एग समय ठाति, एवं जहग्येण अंतरं दो समया, जति पुण मलिमेवि एक समयं ठायइ ततो अंतरं चेव न होति, मझिमिछठाणे अणाणुपुब्धी चेवत्ति, तम्हा दो चेव जहण्णेणं समया, उकसणं असंखेजकालं, पहमे ठाणे एक समयं चिहिऊण मज्झिमे ठाणे असंखेग्जे समए चिहिऊण अन्तिमे ठाणे एक| समयं ठाति, एवमसंखेग्जं काळं उफोसेणं अंतर हॉति, णाणादव्वाई पडुच्च णस्थि अंतरं, भागद्वारं तथा भावद्वारं अल्पबहुत्यद्वारं च क्षेत्रा :45 ४ ॥५३॥ दीप अनुक्रम [११९१३६] ~57 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [११४] गाथा दीप अनुक्रम [१३७] श्रीअनु० हारि. वृत्ती ॥ ५४ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [११४] / गाथा [१५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: नुपूर्व्यनुसारतो व्याक्षेपान्तरमपास्य स्विमितोपयुक्तेनान्तरात्मना कालप्राधान्यमधिकृत्य निखिलमेव भावनीयमिह पुनर्भावितार्थत्वाविस्तरभयाच्च नोक्तमिति शेषं सूत्रसिद्धं यावत् 'अहवोणिहिया कालाणुपुथ्वी तिविहा पनते त्यादि ( ११४-९८) अत्र सूर्यकियानिर्वृत्तः कालस्तस्य सर्वप्रमाणानामाद्यः परमः सूक्ष्मः अमेयः निरवयवः उत्पलपत्रशतवेधाद्युदाहरणोपलक्षितः समयः, तेसिं असंखेज्जाण | समुदयसमितीए आवलिया संखेन्जाओ आवलिआओ आणुचि ऊसासो, संखेन्जाओ आवलियाओ णिरसासो, दोण्डवि कालो एगो पाणू, सचपाणूकालो एगो थोवो, सत्तथोवकालो एग लवो सतहत्तरिलबो एगमुहुत्तो, आहोरतादिया कंठा जाव वाससय सदस्सा, 'इच्छयठाणेण गुणं पणमुष्णं चदरासीत्तिगुणितं च । काऊण तइयवारा पुब्वंगादीण गुण संखं ॥ १ ॥ पुरुवंगे परिमाणं पंच सुष्णं चत्ररासीय १, तं एवं पुब्बंगं चुलसीए सतसहस्सेहिं गुणितं एवं पुब्वं भवति, तस्स इमं परिमाणं [दस सुष्णा ] उप्पर्ण च सहस्सा कोटीणं सत्तरि लक्खा य२, एगं पुब्वं चुलसीए पुब्वसतसहस्सेहिं गुणितं से एगे तुडियंगे भवति, तस्स इमं परिमाणं पण्णरस सुण्णा य, तओ चउरो मुण्णं सन्त दो णव पंच ठब्वेज्जा ३, एवं चुलसीवीए सतसहस्सा गुणिवा सव्वठाणे कायव्वा, ततो तुडियादयो भवति, तेसि जहासंखं परिमाणं तुडिए सिं सुण्णा, तो छवि एगो सत्त अ सत्ता चउरो ट्वेज्जा ४ अडडंगे पणवीसं सुण्णा ततो चड दो चड नव एको एको दो अट्ठ एको चरो य ठवे ज्जा ५ अडडे ती सुण्णा तओ छ एको छ एक्को वि सुण्णं अट्ठ जब दो एक पण दिगं ठवेज्जा ६, अबरंगे पणतीसं सुण्णा, वओ च चड सत्त पण पण चड वि सुण्णं णव सुष्णं पण पात्र दो य उदेज्जा ७, पत्तालसिं सुण्णा तओ क णव च दो अट्ट सुण्णं एको एको णव अट्ट पण सत्त अड्डू सत्त च दो य ठवेनाहि अथवे य८ हूहूयंगे य पणचत्तालसिं सुण्णा, तओ च छ छ णव दो जव मुण्णं ति पण अट्ट च सत्त पंच एको दो अट्ट मुण्णं दो य ठवेज्जा ९, हूहूए पण्णासं सुण्णा, तभो छ सत्त सत्त एगो णव सुण्णं अड जब सं ... अत्र 'समय' शब्दात् आरभ्य शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त 'काल'स्य वर्णनं ~58~ सम्यादयः शीर्षप्रहेलि कान्ताः ॥ ५४ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [११४] गाथा दीप अनुक्रम [36] श्रीअनु० हारि वृत्ती ॥ ५५ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [११४] / गाथा [१५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४] भूमिकामसूत्र २२] "अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः , पण छ सस बह दो दो एको सुणं णव च स एवं वेज्जा १० उप्पलंगे पणपण्ण मुण्णा, तओ पर अट्ठ एको णव सुण्णं सत्त णव ति वो चत्र ति छ एको दो तिष्णि सुष्णं सत्त एको छ ड एवं च वेज्जा ११, उप्पले सहि सुष्णा, तओ छ पण चट एको सन्त पण पण तिएको छ सत्त दो सत्त एगो सुष्णं सत्तं सुण्णं ति सुष्णं एको पत्र ति दो एक ठवेज्जा १२, पउमंगे पणसहि सुष्णा, चत्र सुष्णं ति दो सुनं सुनं अट्ठ अट्ठ वि पण ण एको एको पण चंद्र पाद य अठ्ठ सन्त पण छ छ छ ति सुण्णं एगं च ठवेज्जा १३, पउने तरि मुण्णा, तत्र छति पण ति णव एको दो गव पण दो एक्को चड, सुष्णं सुण्यं णव तिएको ति छ दो एको वि अह सत्त सुष्णं सत्त अड य बेन्जा १४, गलिगे पंचसत्तरि सुष्णा, ततो चड दो सुण्ण सत्त पण दो चड चड सत्त सत्त पण छवि छ सत्त छ ति सुष्यं एको छ दो अट्ठ सत पण पडएको ति सत्त उवेज्जा १५, गलीणे असीतिं सुण्णा, ततो छ एको सुष्णं सुण्णं णब पण सत्त एक पण सुण्ण पण दो एको एको तिएको अट्ट अट्ठ मुण्णं सत्त दो जब वि सत्त पण चह दो चड चडएको छ वेवजा १६, अत्यणिरंगे पंचासी सुण्णा, तत्र च च सिएको छ पण सत्त सत्त चड ति चड सुष्णं पण च एको सुण्ण ति सुष्णं च पण सप्त अ णव सुष्ण दो चड छ छ एको एको छ एको पंच य ठवेज्जा १७, अस्थिणिउरे जडति सुण्णा, तओ छ णव अट्ठ दो पण एको पण एको एको दो पण छवि अट्ठ एको दो ति पण अट्ठति ति पण पत्र दो छ ति णव सत्त णव सत्त ति पण तिति चउरो य ठवेज्जा १८, अयंगे पंचणवति मुण्णा, तओ चढछ दो तिच अ दो सच छ सत्त सन्त सत छ दो चउ ति सुष्णं सत्त छ ति च अट्ट सुष्णं अट्ठ अटु चत्र छ छ दो सुण्ण णव एको सत्त एको चड छ तिष्णि व ठवेज्जा १९, अडते सुण्णसतं, ततो छ सत्त एको घर ति अट्ठ अट्ठ एगो पण च दो ति णव चड अट्ठ सत्त अट्ट सुष्णं ति अट्ठ ड अट्ट सुण्णं पाव णव णव चड अट्ट ति दो अट्ट णव वि धड सुण्ण जब पण सुण्ण तिण्णि य ठवेज्जा २०, ' पतंगे सुसतं पंचाचितं, तओ ~59~ समृयादयः शीर्षप्रहेलि कान्ताः ।। ५५ ।। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ................. मूलं [११४] / गाथा [१५...] .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [११४] C समयादयः देशीर्षप्रहेलि कान्ताः गाथा ||१५..|| श्रीअनु० च अढ सच सुण्णं सत्त मुण्णं दो अट्ठ पण णव पण दो ति घट ति णव सत्त ति णव सत्त ति णव दो ति दो णव णव ति ति मुण्ण हारि.वृत्तौ । | दो पण चउ पाच छ णव पण णव छ पण दोन्निय ठवेज्जा २१, णतुते सुण्णसयं दसाधित, तओ छ पण अट्ठ पण चउ णव वि णव अट्ठ पर ॥५६॥ सुण्ण अह ति ति अट्ट चर छ अढ सत्त छ अट्ट सत्त छ छ पण पण ति पण पण अटु सुण्णं सत्त णव ति ति चउ एको छ चउ अट्ट पण | एको दोणि य ठवेज्जा २२, पयुसंगे पणरमुत्तरं मण्णसतं, तओ चड सुपणं णव एको पण पर एको गव सुण्ण एका एको बणव ति सुण्ण छ चउछ सुण्ण सुण्ण णव मुण्ण मुण्ण एको छ सत्त अट्ट णव चतु अट्ठ एको पण पण ति पण पर मुण्ण छ सस सुण्ण एको ति एको अट्ट एग ठवेज्जा २३, परते वीसुत्तरं सुण्णसतं, तओ छ वि णव णव पण णव एको अट्ट छ एको ति ति सत्त दो ति सत्त छ दो चउ पण छ पण सत्त चउ दो णव पण णव अट्ट ति पण पण ति अढ णव सुण्णं अट्ट सत्त अट्ट ति सुण एको सुष्णं ति दो पण एगं च ठवेज्जा २४, चूलियंगे पणवीसुत्तरं सुषणसतं, तओ चउ दो छ चउ ति छ चउ अट्ठ दो एको छ अट्ट पण णव चउ पण पण चङ अट्ठ पण णव चर पण णव सच छ सत्त पण दो सत्न दो पण अट्ट एक्को छ दो सुण्ण छ सत्त पण दो सत्त अट्ट दो तिणि मव सत्त दो । एग च ठवेज्जा २५, चूलियाए तीमुत्तरं सुण्णसतं, तो छ एक्को चउ अट्ट सुण्ण ति व सुण्ण णव सत्त चउ ति वे पण छ एको छ दु सुण्णं *एको पण छ एको दो अट्ट सुष्णं पण चउछ णव अट्ट दो छ पण णव णव एकोछ अहति छणव दो एक छ ति छ चा सत्त सुण्ण एक च ठवेज्जा २६, सीसपहेलियंगे पणतीसुत्तरं सुण्णसतं, तओ च चउ नव छ सुण्णं णव एको अट्ट ति चउ दो दो सत्त णव सत्त अट्ट सत्त ला णव एको छ अह छ अह एको सुण्ण णव छ अट्ट एको मुण्णं ति ति अटू दो ति छ सत्त सुण्ण चर चर छ णव अह अह चउ ति चउ णव छ दो सुण्ण णव २५, सीसपहेलियाए चचालं सुण्णसर्व, ततो छ णव दो ति अट्ठ एको सुण्णं अट्ट सुण्ण अट्ट चउ अट्ट छ छ णव अट्ठ एको दीप अनुक्रम [१३७] ॥५६॥ REARS ~60~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [११५ ११८] गाथा ||१६|| दीप अनुक्रम [१३८१४२] श्रीअनु० हारि. वृत्ती ॥ ५७ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [११५-११८] / गाथा [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [ ४५], चूलिकासूत्र -[२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: 1 दोणं च छ पण सप्त जब जब छ पण ति सत्त णव सन्त पण एको एको भड दो सुण्णं एको सुण्ण ति सच सुण्ण ति पण दो वि छ दो अट्ठ पण सच य ठवेज्जा २८, एवं सीसपहेलिया चत्रणवतिठाणसतं जाव य संववहारकालो ताब संववहारविसए, वेण य पढमढविणेरइयाणं भवणवंतराण य भरहेरवास सुसमदुस्समाए पच्छिमे भागे णरविरियाणं आउप उवभिज्जन्ति, किं च-सी पहेलि याए य परतो अस्थि संप्रेक्जो कालो, सो य अणतिसईणं अववद्दारिउत्तिका ओवम्मे पक्खित्तो, तेण सीसपद्देढियाए परतो पछिओवमादि उवण्णत्था, शेषमानिगमनं कालानुपूर्वी पाठसिद्धं । ' से किं त' मित्यादि, ( ११५-१००) उत्कीर्त्तनं संशब्दनं यथार्थाभिधानं तस्यानुपूर्वी अनुपरिपाटी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा – पूर्वानुपूर्वीत्यादि पूर्ववत् तत्र पूर्वानुपूर्वी उसभ' इत्यादि, आहवस्तुत आवश्यकस्य प्रकृतत्वात् सामायिकं चतुर्विंशतिस्तव इत्यादि वक्तव्यं किमर्थमेतत्सूत्रान्तरमिति, अत्रोच्यते, शेषश्रुतस्यापि सामान्यमेतदिति ज्ञापनार्थं, तथाहि - आचाराद्यनुयोगेऽपि प्रत्यध्ययनमेतत्सर्वमेवाभिधातव्यमित्युदाहरणमात्रत्वाद्भगवतामेव च तीर्थप्रणेतृत्वाभू शेषं सूत्रसिद्धं यावत् 'से तं उत्तिणागुपुब्वि' त्ति 'से किं त' मित्यादि ( ११७-१०१ ), इहाकृतिविशेष: संस्थानं, तत् द्विविधं जीवाजीवभेदात् इह जीवसंस्थानेनाधिकारः, तत्रापि पंचेंद्रियसंबंधिना, तत्पुनः स्वनामकर्मप्रत्ययं पद्विधं भवति, आह च- 'समचतुरंसे' व्यादि, तत्र समतुल्यारोहपरिणामं संपूर्णागोपाङ्गावयवं स्वांगुळाष्टशतोच्छ्रायं समचतुरभं, नाभीत उपर्यादि लक्षणयुक्तं अधस्तादनुरूपं न भवति तस्माप्रमाणादीनतरं योधपरिमंडलं, नाभीतः अषः आदि लक्षणयुक्तं संक्षिप्तविकृतमध्यं कुब्जं स्कंधपृष्ठदेश वृद्धमित्यर्थः लक्षणयुक्त मध्यमीवासुपरिहस्तपादयोरप्यादिरलक्षणं न्यूनं च लिंगेऽपि वामनं, सर्वावयवाः प्रायः आदिलक्षणविसंवादिनो यस्य तत् हुंडं, उक्तं च- 'तुलं वित्थरबहु उस्सेहबहुं च मढइकोटुं च । होट्टुङकायमडई सम्वत्थासंठियं हुंडं ॥ १ ॥ पूर्वानुपूर्वक्रमश्च यथाप्रथममेव प्रधानत्वादिति शेषमानिगमनं ~61~ कालानुपूर्वी 114011 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ......... मूलं [११५-११८] | गाथा [१६] ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] “अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: श्रीअनु० हारि वृत्ती प्रत सूत्रांक [११५११८] गाथा ||१६|| ॥५८॥ * पाठसिद्धमेति । 'से किं तं सामायारियाणुपुच्ची' स्यादि, इह समाचरण समाचार:-शिष्टाचरित: क्रियाकलाप: तस्य भाष: 'गुणवचन-ठा संस्थान मानणादिभ्यः कर्मणि ध्याचे ति (पा-५-१-१२४) ज्य, सामाचार्य, सोऽयं भावप्रत्ययो नपुंसके भावे भवति, पित्करणसामाचा सामान खीलिंगोऽपि, अत: खियां की सामाचारी, सा पुनबिविधा-'पदविभागे' ति वचनात् इह दशषिधसामाचारीमधिकृत्य भण्यते, 'इच्छामिच्छे भानुपूळ त्यादि (१६-१०२)वत्र इच्छाकार: मिथ्याकारः तथाकारः, अत्र कारशब्द: प्रत्येकमभिसंबश्यते, तषणमिच्छा-क्रियाप्रवृश्यभ्युपगमः करणं काय पछया करणं इचहकार। आशावलाभियोगन्यापारप्रतिपक्षो व्यापारणं चेत्यर्थः, एवमक्षरगमनिका फार्थी, नवरं मिध्या-वितथमयथा यथा भगवद्विरुक्तं न तथा पुष्कतमेतदिति प्रतिपत्ति: मिथ्यादुष्कतं, मिथ्या-अक्रियानिवृत्युपगम इत्यर्थः, अषिचार्य गुरुवचनकरणं तथाकारः, अवश्यं गंतव्यकारणमित्यतो पछामीति अस्थार्थस्य संसूचिका आवश्यकी, अन्यापि कारणापेक्षा या या क्रिया सा किया अवश्या क्रियेति सूचितं, निषिद्धात्मा अहमास्मिम् प्रविशामीति शेषसाधूनामन्वाग्यानाय त्रासादिदोषपरिहरणार्थ, अस्यार्थस्य संसाधिका नौवधिकी, इदं करोमीति प्रकछनं आमकाना, मकवाचार्येणोक्त इथ त्वया कर्तव्यमिति पुन: प्रसन्नं प्रतिप्रच्छन्न, छंदना-पोसालमा भक्तं अश्व इनि, निमंत्रणं अहं ते भक्त समस्या दास्थामीति, सच-"पुरुबगहिएण छंदण निमंतणा होइडमाहिएणं ।' सवाहमित्यभ्युपगमः श्रुतश्चर्यमुपसंपत्, नतं च-'सुय मुहदुक्खे खेते मग्गे विणयोवसंपदा एवं । एवमेताः प्रत्तिपत्तयः सामाचारीपूर्वानुपूग्यामिति, आह-किमर्थोऽयं मनियम इनि, येनेत्यमेव पूर्वानुपूर्वी प्रतिपायत इति, उच्यते, इह मुमुक्षुणा सममसामाचार्यनुष्ठानपरेण आझायलाभियोग एष स्वपशेषतापहेतुत्वारप्रथमं वर्जनीयः, सामायिकाख्यप्रधानगुणलाभात् , ततः किंचित्स्खलनसंभव एव मिध्वादुकतं दातव्यं, ततोऽप्येवंविधेनैव सता यथावद् गुरुवचनमनुष्य, सफलप्रयास ॥५८ त्वात्, परमगुरुषचनाव्यवस्थितस्य स्वसामाबिकवत: स्खलनामलिनस्य वा गावचनातष्ठानमावऽपि पारमार्थिकफलापेक्षयाऽनिष्पापदानीत्यत: ** SH दीप अनुक्रम [१३८१४२] ~62~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .......... मूलं [११९-१२३] | गाथा [१७] ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] “अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: श्रीअनु० हारि.वृत्ती द्विनाम प्रत सूत्रांक [११९१२३] गाथा ||१७|| ॥ ५९॥ ॐ35 क्रमनियमः, शेष सुगम यावनिगमममिति । 'से कित' मित्यादि (११९-१०४) तत्र कर्मविपाक उदयः सवय एवौदविका, यद्वा तत्र भवस्तेन वा नित इत्येवं शेषेवपि व्युत्पत्तियोंजनीया इति, नबरनुपशमः मोहनीवस्य कर्मणः, (सोया प्रकृतीना) उदयचतुर्णामष्टानां वा15 प्रकृतीनां क्षयः, कस्थपिदंशस्य क्षयः कस्याभिदुपशम इति भयोपशमी, प्रयोगविनसोबः परिणामः, अमीषामेवैका दिसंयोगरचनं सन्निपातः, कमः पुनरमीषा स्फुटनारकादिगत्युवाहरणभावता प्राप्यस्तदन्याधारश प्रथम मौदायकस्तत: सर्वस्तोकस्यापिशामिकः ततस्तद्वहुतरत्वादेव बायोपशमिकः ततोऽपि बहुत्वात् क्षायिकः ततोऽपि सर्वबहुत्वात्पारिणामिकः तत्त: औदयिकादिमेलनसमुत्पन्नकः सन्निपातिक इति, शेष प्रकटार्य यावत् 'से तं आणुपुचि' ति निगमनं वाच्यं ।। . 'से किं तं दुनामे १२ दुबिहे पन्नते, तं०-एगक्सरिए य अणेगक्खरिए य' (१२२.१०५) एकादा संख्यावाचका, व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यंजन-अक्षरमुच्यते, तकचेह सर्वमेव भाष्यमार्ण अकारादि इकारान्तमेवार्थाभिव्यंजकत्वाच्छणस्य, एकं च तदक्षरं पर एकाक्षरेण निव्वतं एकाक्षरिकं, एवमनेकाक्षरिकं नाम, ही:-छतजा श्री:-देवताविशेष:-धी:-बुद्धिः श्री प्रतीता, से किं ते अणेगक्खरिये स्यादि प्रकटार्थ, यावत् 'अवसिय जीवदव्यं विससिय नेरइय' इत्यादि, तत्र नरकेषु भवो नारक: तिर्यग्योनी भवः तिर्यक् मननान्मनुष्यः दीव्यत्ति देवः, शेष निगदसिद्ध बाषद् द्विनामाधिकारः, नवरं पर्याप्त के विशेषः पर्याप्तनामकादयात् पर्याप्तकः, अपर्याप्तनामकम्मोदयाचापर्या-14 पक इति । एकेन्द्रियादिविभागेषु स्पर्शनरसनप्राणपक्षोत्राणांद्रियाणि कमिपिपीलिकाश्रमरमनुष्यावीनामेककद्धानि, सूक्ष्मचावरविशेषोऽपि सूक्ष्मवादरनामकर्मोदयनिबंधन इति, संमूर्षिछमगर्भग्युत्कोतिकभेदेषु संमच्छिमः तथाविधकोवयादगर्भज एफेंद्रियाविः पंचेंद्रियावसानः, गर्भज्युक्रान्तिकस्तु गर्भज: पंद्रिय एक, 'से तं दुनामे' ति । 'से कि तं तिनामे ?' (१२३-१०९) अविकृतं नाम विविध प्रशासं, तथथा ॥ ५९॥ दीप अनुक्रम [१४३१५०] ... अथ 'नाम्न: 'दुनाम', तीनाम' आदि भेदा: वर्णयते ~63~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [११९ १२३] गाथा ||१७|| दीप अनुक्रम [१४३ 140] श्रीअनु० हारि. वृत्ती ॥ ६० ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [११९-१२३] / गाथा [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [ ४५], चूलिकासूत्र -[२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: द्रव्यनाम गुणनाम पर्यायनाम, एतानि प्रायो ग्रंथत एव भावनीयानि नवरं द्रव्यगुणपर्यायस्वरूपं द्रव्यं धर्मास्तिकायादि, गुणा गत्यादयः, तद्यथा-गतिगुण धर्मास्तिकायः स्थितिगुणोऽधर्मास्तिकायः अवगाहगुणमाकाशं उपयोगगुणा जीवा वर्त्तनादिगुणः कालः पुत्रळगुणा रूपादयः, पर्यायारत्वमीषामगुरु लघवः अनंता आह-तुल्ये द्रव्यत्वे किं पुद्रास्तिकायगुणादीनां प्रतिपादनं न धर्मास्तिकायादिगुणादीनां ( यथा) पुलानामिन्द्रियप्रत्यक्षविषयतया तस्य तद्गुणानां च सुप्रतिपादकत्वं न तथाऽन्येषामिति इह च वर्णः पंचधा कृष्णदीलोदितकापोतशुक्लाख्यः प्रतीत एव कपिशादयस्तु संसर्गजा इति न तेषामुपन्यासः, गंधो द्विधा-सुरभिर्दुरभिध, तत्र सौमुख्यकृन् सुरभि: दौर्मुख्यकृत् दुरभिः, साधारणपरिणामो ऽस्पष्टप्रद इति संसर्गजत्वादेव नोक्तः, एवं रसेध्वपि संसर्गजानभिधानं वेदितव्यं रसः पंचवि धस्तिक्तकटुकषायाम्म पुराख्यः श्लेष्मादिदोषहन्ता तिकः वैशद्यच्छेदनकृत्कः अनरुचिस्तंभनकम कपायः आश्रवणक्लेदन दलहानबृंहण कृम्मधुरः छषणः संसर्गज, स्पर्शोऽष्टविधः स्निग्धशीतोष्णलघुगुरुमृदुकीठनाख्यः संयोगे सति संयोगिनां बन्धकारण स्निग्धः तथैवाबन्धकारणं रूक्षः वैशयकृत्सुमनःस्वभावः शीतो मार्दवपाककृष्णः प्रायस्तिर्यगूर्ध्वगमनहेतुर्दषुः अधोगमनहेतुर्गुरुः संनविलक्षणो मृदुः अनमनात्मकः कठिन, संस्थानानि संस्थानानुपूज्य पूर्वोक्तानि, पर्यायानां त्वेकगुणकालकादि, तंत्रकगुणकाल कस्तारतम्येन कृष्णकृष्णतरकृष्णतमादीनां यत आरभ्य प्रकर्षवृत्तिः, द्विगुणकालकस्तु ततो मात्रया कृष्णतरः एवं शेषेष्वपि भावनीयं यावदनंतगुणकृष्ण इति तत्पुनर्नाम सामान्येनैव त्रिविधं प्राकृतशैलीमधिकृत्य, श्रीलिंगादिनाम्नां उदाहरणानि प्रकटार्थान्येव, 'से तंतिणामे' ति 'से किं तं चउनामे' त्यादि, (१२४-११२ ) वत्राऽऽगमेन पद्मानि पयांसि अत्र 'आगम: उदनुबंध: स्वरादम्स्यात्परः आगच्छतीत्यागमः आगम उकारानुबंध: स्वरादत्यात्परो भवति, सिद्धं पद्मानीत्यादि से तं आगमेणं, लोपेनापि ते अत्र इत्यादि, अनयोः पदयोः संहितायां 'पदात्परः पदान्ते लोपमकार:' 1 ~64~ त्रिनाम चतुर्नाम च ।। ६० ।। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२४ १२६] गाथा ॥१८ २३|| दीप अनुक्रम [१५१ १६३] श्रीअनु० हारि वृत्ती ॥ ६१ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ ( मूलं वृत्तिः) मूलं [ १२४-१२६] / गाया [१८-२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: *%%* ( कातन्त्र रूप. ११५ ) पदान्ते यौ एकारोकारौ ताभ्यां परः अकारो लोपमापद्यते, ततः सिद्धं ते अत्र से तं लोवेणं, से किं तं पयतीए यथाऽग्नी एतौ इत्यादि एतेषु पदेषु 'द्विवचनमनौ' ( कातन्त्रं ६२) द्विवचनमौकारान्तं यत् भवति तलक्षण न्तरेण स्वरेण स्वरे परतः प्रकृ त्या भवति, सिद्धं अभी एती इत्यादि विकारेणापि दंडस्य अमं इत्यादि, अत्र 'समानः सवर्णे दीर्घो भवति परच टोपमापयते' (का० २४) सिद्धं दंडा इत्यादि से तं विगारेणं, एवं चतुर्णाम | पंचनाम्नि 'से किं' मित्यादि सूत्रं ( १२५-११३ ) तत्राश्व इति नामिक द्रव्याभिधामकत्वात्, स्विति नैपातिकं, खलुशब्दस्य निपातत्वात् धावतीत्याख्यातिकं क्रियाप्रधानत्वात् परीत्यपसर्गिकं परि सर्वतोभाव इत्युपसर्गपाठे पठितत्वात् संयत इति मिश्र, समेकीभाव इत्यस्योपसर्गत्यात् 'यती प्रयत्न' इति च प्रकृतेरुभयात्मकत्वात् मिश्रमिति, तदेतत्पंचनाम || 'से किं तं छणाने ?, छव्विहे पण्णसे' इत्यादि (१२६-११३ ) अत्र पड् भावा औदयिकादयः प्ररूप्यन्ते तथा च सूत्र से किं तं उदथिए १, २ बिहे पण्यत्ते, सं० उदय उदयनिष्कण्णेय, अत्रोदयः अष्टानां कर्मप्रकृतीनां ज्ञानावरणीयादिलक्षणानामुदयः सप्ताऽवस्थापरित्यागेनोंदीरणावलिकामतिक्रम्योदयाच लिकायामात्मीयात्मीयरूपेण विपाक इत्यर्थः, 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे, अत्र चैवं प्रयोग:-उदय एव औदधिकः, उदयनिष्पन्नस्तु द्वेधा-जीवोदयनिष्फण्णे व अर्जावोदयनिष्कण्णेय, तत्र जीवे उदयनिष्पन्नो जीवोदयनिष्पन्नः, जीवे कर्मविपाकानेवृत इत्यर्थ, अथवा कर्मोदय सहकारिकारणकार्या एवं नारकत्वादय इति प्रतीतं, अन्ये तु जीवोदयाभ्यां निष्कण्णो जीवोदयनिष्पन्न इति व्याचक्षते इदमप्यदुष्टमेव परमार्थतः समुदायकार्यत्वात् एवमजीवोदयनिष्कण्णोपि वाच्यः तथा चौदारिकशरीरप्रायोग्य पुद्ररूपणशरीरपरिणतिश्च न तथाकमोंदयमन्तरेणेति अत उक्तमौदारिकं वा शरीरमित्यादि, औदारिकशरीरप्रयोगपरिणामिकतया द्रव्यं तच्च वर्णगंधादिपरिणामितादि च न चेदमौदारिक शरीरव्यापारमन्तरेण तथा परिणमतीति एवं वैक्रियादिष्वपि योजनीयं, इह च वस्तुतः द्वयोरपि द्रव्यात्मकर ... अत्र औदयिक आदि षड् भावानां वर्णनं क्रियते ~65~ 2 पंचनाम उपनाम च | ॥ ६१ ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२४ १२६] गाथा ॥१८ २३|| दीप अनुक्रम [१५१ १६३] श्रीअनु० हारि. वृत्तौ ॥ ६२ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ ( मूलं वृत्तिः) मूलं [ १२४-१२६] / गाया [१८-२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [ ४५], चूलिकासूत्र -[२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: " एकत्र जीवप्राधान्यमन्यत्राजीवप्राधान्यमाभीयत इति, ततश्चोपपन्नमेव जीवोदय निष्पन्नं अजीवोदयनिष्पन्नं चेत्यलं विस्तरेण से तं उदयिए 'से किं तं उमसमिए?, उपसमिए दुबिहे पन्नत्ते, तं० डवसमे य उवसमनिष्कण्णेय, तत्रोपशमो - मोहनीयस्य कर्मणः अनन्तानुबन्धादिभेदभिन्नस्य उपशमः, उपशमश्रेणीप्रतिपद्मस्य मोहनीगभेदाननंदानुबंध्यादीन् उपशमयतः, यत उदयाभाव इत्यर्थः णमिति पूर्ववत्, उपशम एबीप शमिक:, उपशमनिष्पन्नस्तूपशान्तक्रोध इत्यादि, उदद्याभावफलरूप आत्मपरिणाम इति भावना से तं उवसमिए । 'से किं तं खइए ?, खइए दुबिहे पण्णत्ते, तंजा-खए य खयनिष्पन्ने य, तत्र क्षयः अष्टानां कर्मप्रकृतीनां ज्ञानावरणीयादिभेदानां क्षयः कर्माभाव एवेत्यर्थः, 'ण' मिति पूर्ववत् क्षय एव क्षायिकः, क्षयनिष्पष्णस्तु फलरूपो विचित्र आत्मपरिणाम:, तथा चाद- 'उप्पण्णणाणदंसणे' त्यादि, उत्पन्ने श्या|मतापगमेनादर्शमंडलप्रभावत् सकलतदावरणापगमादभिव्यक्ते ज्ञानदर्शने यस्य स तथाविधः, अरहा अविद्यमान रहस्य इत्यर्थः रागादिजेतृस्वाज्जिनः केवलमस्यास्तीति केवली, संपूर्णज्ञानवानित्यर्थः, अत एवाह-श्रीणाभिनियोधिकज्ञानावरणीय इत्यादि, विशेषविषयमेव, यावत् अनावरण:- अविद्यमानावरण: सामान्येनावरणरहितत्वात् विशुद्धांवरे चन्द्रबिम्बवत् तथा क्षीणमेकान्तेनापुनर्भावतया च निर्गतावरणो- निरावरणः आगंतुकेतरावरणस्याप्यभावात् राहुरहितचन्द्रविम्ववत्, तथा क्षीणमेकान्तेनापुनर्भावतयाऽऽवरणं यस्यासौ क्षीणावरणः, अपाकृतमळाव रणजात्यमणिवत्, तथा ज्ञानावरणीयेन कर्मणा विविधम्-अनेक प्रकारें प्रकर्षेण मुक्ता ज्ञानावरणीयकर्मविप्रमुक्त इति, निगमनम्, एकार्थिकानि वैतानि नयमतभेदेनान्यथा वा भेदो वाच्य इति, केवलदर्शी- संपूर्णदर्शी, क्षीणनिष्फलेन च, निद्रादिस्वरूपमिदं 'मुहपढियो हो निद्दा दुइपडियोहोय निनिहा य । पया होति ठियस्स उपयळपया य चकमओ || १ || अतिसकिलिकम्मवेद होइ श्रीणगिद्धीओ महानिदा दिणयितियवावारपसाणी पाये || २ || सातावेदनीयं प्रीतिकारी, कुच कोपे' कीधनं क्रोधः, कोपो रोषो दोषोऽनुपशम इत्यर्थः, मानः स्तंभो गर्व उस्को ~66 ~ औदयिकादियो भावाः ॥ ६२ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूल [१२४-१२६] / गाथा [१८-२३] ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२४१२६] गाथा श्रीअनुरु हारि.वृत्ती ॥६३।। ||१८ २३|| है अहंकारो वर्षः स्मयो मत्सर ईध्येत्यर्थः, माया प्रणिधिरुपधिकिति वंचना दम्भः कूटमभिसंधानं साठयमनावामित्यर्थः, लोभो रागो गाय- औदायिकामिच्छा मूच्छोऽमिलापो संग: काभा स्नेह इत्यर्थः, माया लोभत्र प्रेम क्रोधो मानश्च द्वेषः, तत्र यदईदवर्णवादहेतुहिंगं अहंवारिभद्धानविपातकादयो भावाः दर्शनपरीषदकारण तन्मिध्यावनि, यन्मिध्यास्वभावप्रचितपरिणाम विशेषाद् विशुध्वमानकं सपतियातं सम्यक्त्वकारणं सम्यग्दर्शन, यन्मिध्यास्वस्वभावचितं विशमाविशुद्धबद्धाकारि तत्सम्यग्मिध्यादर्शनं, त्रिविधं दर्शनमोहनीयमुक्तं कर्म, चारित्रमोहनीयं द्विविध-कषायवेपनीयं नो.1 कषायवेदनीयं च, बादश कषायाः अप्रत्याख्यान्याचा: क्रोधाद्याः, नव नोकपायाः हास्याश्यः, नारकतिर्यग्योनीसुरमनुष्यदेवानां भवनशरीरस्थितिकारणमायुष्क, तांस्तानात्मभावान् नामयतीति नाम कर्मपुद्गलद्रव्यं, प्रति स्वं गत्यभिधानकारणं, जातिनाम पंचविधमेकेन्द्रियजाविनामादिकारण, शरीरनाम शरीरोत्पत्तिकारणं, सवंगोपांगनाम यथा शरीरनाम पंचविधौदारिकशरीरनामादिकार्येण साधितं यदेषामेवांगोपांगनिव्वतिकारणं तदंगोपांगनाम, तथाऽन्यत् शरीरनामः कथं', अंगोपांगाभावेऽपि शरीरोपलव्धेः, तरच प्राक् शरीरत्रये नान्यत्र, बोंदिः तनुः शरीरमिति पर्याय:, अनेकता च जघन्यतोऽग्यौदारिकलैजसकार्मणवादिभावात, दंतु तद्गतांगोपांगसंघातभेदात, संघातः पुनरे कांगादेरनन्तपरमाणुनिपुत्तत्वादिति । तथा सामायिकादिचरणक्रियाभिद्धत्वारिसद्धः, तथा जीवादिवत्वबोधाद् बुद्धः, तहा याह्याभ्यन्तरप्रन्थ मेदनेन मुक्तत्वान्मुक्तः, तथा प्राप्तव्यप्रकर्षप्राप्ती परि:-सर्वप्रकारैनिदृतः परिनिवृतः, संसारान्तकारित्वादन्तकृत, एकान्तेनैव शारीरमानसदुःखप्रवीणाः सर्वदु:खपहीणा इति, सक्तः शायिकः । 'से किं तं सोचसमिए, खओवसमिए दुबिहे पण्णत्ते, तं०-वओवसमे य खओ वसमनिष्फण्णे य.' तत्र ॥६३॥ क्षयोपशमश्रतुणों पातिकर्मणां, केवलशानाप्रतिपनकानां ज्ञानाबरणदर्शनावरणमोहनीयांतरायाणां क्षयोपशमः, ण मित्ति पूर्ववत् , इ चोदार्णट्र स्व क्षया अनुदर्णिस्य च विपाकमधिकृत्योपशम इति गृह्यते, आह-औपशमिकोऽप्येवंभूत एव,न, तत्रोपशमितस्य प्रदेशानुभवतोऽप्यवेदनादस्मिंश्र दीप अनुक्रम [१५११६३] KALA ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ...... मूलं [१२४-१२६] / गाथा [१८-२३] ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] “अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२४१२६] गाथा ||१८ २३|| श्रीअनु: वेदनादिति, अयं च क्षयोपशमः क्रियारूप एव, क्षयोपशमनिर्वृत्तस्त्वाभिनिवोधिकज्ञानादिलब्धिः परिणाम आत्मन एवंति, तथा पाह-'खओवस-18 औदयिकाहार.वृषामिया आभिणियोहयणाणलद्धी' त्यादि, सूत्रसिद्धमेव, नवरं बालवीर्य मिथ्यारष्टेरसंयतस्य, पडितवीर्य सम्यग्दृष्टे: संयतस्य, बालपंडितवीर्य दया भावाः क तु संजतासंजतस्य श्रावकस्य, से तं खओवसमिए । ' से किंतं पारिणामिए', परिणमनं परिणामः अपरित्यक्तपूर्वावस्थस्यैव तद्भावगमनमिति 12 भावार्थः, उक्तं च-परिणामो अर्थान्तरगमनं न च सर्वथा ह्यवस्थान | न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥१३॥ स एव पारिणामिकः, तत्र लासर्वभेदेष्वन्वयानुवृत्या सुखप्रतिपत्त्यर्थं जीर्णग्रहणमन्यथा नवेष्वष्यविरोधः, तत्रापि कारणस्यैव वथा परिणतेरन्यथेत्ये(था तदे)तदभावादिति कृतमत्र प्रसङ्गेन । अभ्रकेण सामान्येन वृक्षास्तान्येव वृक्षाकाराणि संध्यापुद्गलपरिणाम एव, गन्धर्वनगरादीनि प्रतीतान्येव, स्तूपकाः संध्याच्छेदावर ४ णरूपाः, उक्तंच-'संझाछेदावरणो उ जूवओ सुके दिण तिणि यक्षादीप्तिकानि-अग्निपिशाचा: धूमिका-रुक्षप्रविरला धूमामा महिका-स्निग्धा घना च & रजउद्धातो रजस्वलादिः, चन्द्रसूर्योपरागा राहुग्रहणामि, चन्द्रपरिवेशादयः प्रकटार्धाः, कपिहसितादि सहसादेव नभसि ज्वलन्ति सशब्द का रूपाणि, अमोघादयः सूत्रसिद्धाः, नवरं वर्षधराविषु सदा तद्भावेऽपि पुद्गलानामसंख्येयकालादूलतः स्थित्यभावात्सादिपरिणामतेति, अनादिप-11 रिणामिकस्तु धर्मास्तिकायादीनि, सद्भावस्थ स्वतस्तेषामनादित्वादिति, शेषं सुगमं यावत् 'से तं पारिणामिए । से किं तं सनिवाइए 'इत्यादि, * सन्निपातो-मेलकस्तेन निवृत्तः सान्निपातिकः, तथा चाइ-'एतेसिं चे' त्यादि, अयं च भंगकरचनाप्रमाणतः संभवासंभवमनपेक्ष्य षड्विंशतिभंग-1 करूपः, इह च गाविसंयोगभंगकपरिमाणं प्रदर्शित, सूत्र 'तत्थ णं दस दुगसंयोगा' इत्यादि, प्रकटार्थ, तथाऽपरिशातत्यादिसंयोगभंग-18॥४॥ भावोत्कीर्तनझापनार्थमिदं, 'तत्थ णं जे ते दस दुगसंयोगा ते पं इमं इत्याधुत्तानार्थमेव, अतः परं सान्निपातिकभंगोपदर्शनां सविस्तरामजानानः पृष्ठति विनेय:- कतरे से णाम उदइए' इत्यादि, आचार्याह-'उदइएत्ति मणूसे इत्यादि सूत्रसिद्धमेव, इह च यद्यप्यौदायकोपशमिकमात्रनिर्वृचः दीप अनुक्रम [१५११६३] ~68~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूल [१२४-१२६] / गाथा [१८-२३] ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२४१२६] गाथा % ||१८ २३|| श्रीअनु0असंभवी, संसारिणो जपन्यतो अन्योदविका गोपशमिकपरिणामिकभापत्रयोपतत्यान, तथापि भंगकरचनामानार्थत्वानमः, म्योरय- पणनामानि हारि.वृत्तासंभवी वेदितव्य इति, अबिरुद्धास्तु पंचदश एवं सानिपातिकभदास्त अत्रानधिकना अपि प्रदेशान्तरे उपयोगिन इनि सानिपातिकताम्यान्निद-14 श्यते-'उदइयख ओनसमिय परिणामियति गलिचरकवि । पययागणचि चोलयभाव नवसमे ॥६५॥ विदय तहेव सिद्धस्म । अविरलमनिवादित पमत हुँनि पन्नरस ॥ २॥ आंदविकतायोपशमिकपारणामिकमानिपानिक एकको गतिचतु केऽपि, तयथा-उदा त परदा खवसमिया इंदियाई परिणामिय जीव, जया खइयं समतं नदा ओदश्यम्बओवसमखझ्यपारिणामिकनिपन्नः सन्निपातिकः, को गतिचतुष्पु, तचथा-उदापनि रहार खओवसमियाई दियाई खइर्य समतं पारिणामिए जीवे, एवं तिर्यगादिवपि वाच्यं, तिर्यन्यपि आयिकसम्यग्दृष्टयः कृतभंगरूयाऽन्यथाऽनुपपवेरिति भावनी, नदभावे भाविकामाचे चशब्दात शेषश्त्रयभावे चौपशमिकेनापि चत्वार एव, उपशममात्रय गतिचतुष्यपि भावान 'ऊसरदेस दड्डेलब पविझाति वणश्वो पाप । इयमिछम्म अणुदए उवसमसम्म लाइ जीवो ॥१॥' अविशिष्योक्तत्वात , तथा 'वसामिय तु सम्मत् । ओ चा अकतिपुंजो अखवियमिनही रह सम्म ॥१॥ नित्य अणिव्यतिरेण विशिष्यवोक्तावान, अमिलाप: पूर्ववत , नवरं क्षायिकस यक्वस्थाने ओवशमिकसम्माचेनि वक्तव्य, एते चाटी भंगा: प्राक्तना. भत्तार इति द्वादश, उपशमयां एगो भङ्गस्तम्य मनुष्येष्वेव भावात् , अभिलाप: पूर्ववत् , नवरं मनुज्यविषय एव, केवलिनचैक एव-उद*इए मणुस्से सस्य समतं पारिणामिए जीवे, तथैव सिद्धम्स एक स्व-खश्य समन पारिणामिए जीये, एवमेते प्रयो भंगा: महिता: अविरुद्धसानिपातिकभेदाः पंचदश मति, कसं प्रसंगेन । से ते सनिवातिये नाम, योजना सर्वत्र कायो, से तं छ णामे, गतं पडनाम । ॥६५॥ 'से कि तं सत्त नामे' त्यादि (१२७-१२७ ) सप्तनाम्नि सप्त स्वराः प्रशपाः, तंजहा-'सज्जे' त्यादि (*२५-१२७), 'पजो रिषभो AC% दीप अनुक्रम [१५११६३] EXRAPE ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१२७-१२८] / गाथा [२४-५६] ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२७१२८] गाथा ||२४ ५६|| श्रीअनु गंधारो मध्यमः पंचमस्वरः रेवतश्चैव निषादः स्वराः सप्त व्याख्याताः, संख्यामसहन कश्चिदाह-'कर्ज करणाय जीहा य सरस्स ता असंखेजा। हारि.वृचा सरसंख असंखेज्जा करणस्स असंखयत्तातो ॥१॥ सत्त य सुत्तणिबद्धा कह ण विरोहो गुरू तओ आह। माणुवाती सम्वे चादरगहणं वगंतब्द ॥२|| आश्रित्य सरा प्रोक्ताः 'एतेसि ण' मित्यादि, तत्र-णाभिसमुत्थो ज सरो अविकारी पप्प जं परेसं तु। आभोगियरेणं वा उपकारकर सरहाणं । 'सज्ज व सिलोगो 'णीसाया' सिलोगो,(*२६।२७-१२८) जियऽजीयणिसीयत्ता णिस्सासिय अहव निसरिया तेदि । लीयेसु सन्न| बित्ती पओगकरणं अजीवसु ॥१शा तस्थ जीवणिस्सिआ 'सज्ज खति' दो सिलोगा (२८।३०-१२८) गोमुही-काहला तीए गोसिंग अण्णं या मुद्दे कानति तेण एसा गोमुही गोधा चम्मावणद्धा गोहिता सा य ६६रिया आडंबरेत्ति पडदो, 'सरफटमपहिचारी पाओ विहं णिमित्तमंगेमु । सरणिव्यित्तिफलाओ लक्खे सरलक्षणं तेण ॥ १॥ 'सज्जेण लभति विति' सत्त सिलोगा (*३२३३॥३४॥३५॥३६॥३७॥३८-१२९) 'सजादि तिघा गामो ससमूहो मुच्छणाण विष्णेओ। तो सत्त एकारके तो सत्त सराण इगवीसा ॥ १ ॥ अण्णोण्णसरविसेसा उपायंतस्स मुच्छणा भणिया । कत्ताप मुच्छिओ इब, कुणते मुच्छ व सोयाति ॥ २॥ मंदिमादियाणं एगीसाए मुच्छणाण सरबिसेसो पुव्वगते सरपा हुड भणिओ, सनिग्गनेसु य भरहविसाहलादिसु विष्णेओ इति, 'सन सरा कओं(४३.१३०) एस पुरछासिलोगो। सच सरानाभीओ' ★ उत्तर सिलोगो (४४-१३१) गेयस्स इमे तिणि आगारा 'आदिमि' गाहा (४५-१३१) किं चान्यत् 'छदोसे' गाहा (०४६-१३१) इमे | कानोसा बम्जणिज्जा-'भीतद' गाहा (0१७-१३१) भीतं-उन्नस्तमानसं इत-वरित उरिपत्थ-श्वासयुतं चरितं च पाठान्तरेण इस्वस्वरं वा भा-16 णितवं, अत्यावस्येन अतिता अस्थानता वा उत्ताल, श्लक्ष्णस्वरेण काकस्वरं, सानुनासिकमनुनासं नासावरकारीत्यर्थः, 'भगुणसंपउत्तं गेयं भवति' से य इमे-'पुण्णं रत्तं च गाहा (०४८.१३१) स्वरकलाभिः पूर्ण गेवरागेणानुरर्फ अण्णाण्णसरविससफुडसुभकरणचणयो अलंकृतं,12 दीप अनुक्रम [१६४ २०४] ~70~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूल [१२७-१२८] / गाथा [२४-५६] ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] “अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२७१२८] गाथा ||२४ श्रीअनु हारि.वृत्ती DIE ॥६७॥ ५६|| अक्सरसरफुद्धकरणतणओ व्यक्तं विश्वरं विफ्रोशतीय विद्यमविपुटु मधुरं कोकिलारववत्, तालवंशसरादिसमणुगतं समं ललितं ललतीव स्वरघोलनाप्रकारेण सोई दिवसहफुमणामहुप्पादत्तणओ पा सकुमाले, एभिरभिर्गुणयुक्तं गीतं भवति, अन्यथा विडचना, किंचान्यत्-'उरकंठ' गाहा (#४९-१३१) जइ रे सरोविसालो तो उरविशुद्ध, कंठे जा सरो बहितो अफुडितो य कंठविशुद्धं, सिरं पत्तो जाणाणुणासितो तो सिरविशुद्ध, अथवा अरकंठसिरेषु श्लेषणा अव्याकुलेषु विशुद्धेषु गीयते, किंविशिष्ट ', उच्यते--मवयं मृदुना स्वरेण मार्दवयुक्तेन न निष्ठुरेणेत्यर्थः, स च स्वरो अक्षरेषु घोलनास्वबिशेषेषु च संचरन् रंगत व रिभितः, गेयनिबद्ध पदमेवं गीयते-तालसरेण समं च शरं समताले मुरवलिकादिआतोबजाणाहताणं जो पाणि पदुक्लेवो या तेण य सम नृत्यतो वा पदुक्खेवस, परिसं पसत्थं गिज्जति, सत्तसरसीभरं व गिजा, के व ते सत्तसरसीभरसमा ', उच्यते, इमे- अक्खरसम' गाहा (१५०-१३१) दीहक्खरेदीहं सरं करोति, हस्से हस्त, प्लुते प्लुतं, सानुनासिके निरनुनामिके जं गेयपद णामिकादि अणंतरपदवबेण भद्रं तं जत्थ सरो अणुवादी सत्येव गिजमाणं पदसमं भवति, हत्थतलपरोप्पराहतसुराण संतीतालसम लया ट्रांगदारुदतमयो वा अंगुलिकोशिका सेनाहतः तंत्रिस्वरप्रचालो लय: संयमणुसरतो गेय लयसमं, पढमतो बंसतंतिमादिएहिं जो मरो गहितो तस्सम गिज्जमाणं गहसम, केहि चेव बंसतंतिमादिएहिं अंगुलिसंचारसभं गिज्जइवे सं-चारसम, सेसं कंख्यं । जो गेयसुत्तनिबंधो, सो इमरिसो 'णिद्दोस सिलोगो (७५१-१३१) सालियादिवत्तीसमुत्तदोसवीजतं णिहोस अस्थेण जुत्तं सारवं च अत्य| गमकारणजुतं कन्वलंकारहिं जुत्तं अलंकिय उपसंहारोवणदि जुरी अवनीतं गं अनिद्राभिहाणेण अविरुवालग्जणिज्जेण बद्धं तं सोवया सोत्पासं वा, पदपादाक्षरमित नापरिमितमित्यर्थः, मधुरंति-त्रिधा शब्दअर्थाभिधानमधुरं च । 'तिष्णि व विचाई ति जं वृत्तं तस्स व्याख्या 'समं असम' लिलोगो (२५२-१३१) कंठयः। 'नुष्णी य भणीतीयोति अस्व व्याख्या 'सकया' सिलोगो (५५३-१३१) भणितित्ति दीप अनुक्रम [१६४ ॥६७॥ TERROR २०४] ~71 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूल [१२७-१२८] / गाथा [२४-५६] ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१२७१२८] गाथा ||२४ ARTH ५६|| श्रीअनु: भासा, सेसं कलयं । इत्थी पुरिसा वा केरिसं गायइति पुच्छा 'केसी' गाहा (१५४-१३१) उत्तरं 'गौरी' गाहा (५५५-१३१) इमो सर-31 हारि वृत्ती मंडलसंक्षेपार्थः, 'सत्त सरा ततो गामा' गाहा (५६-१३२) तनी ताना ताणे भन्नइ मजादिसरेस एकोके सत्तत्ताणओ अडणपणासं, एतेलानामानि वीणाए सत्ततंतीय सरा भवंति, सज्जो सरो सत्तहा तंतीताणसेरण गिजा, ते सब्वे सत्तट्ठाणा । एवं सेसेमुवि ते चेब, इगतंतीए कंठेण | ।। ६८॥ वा गिज्जमाणो अत्रणपण्णासं ताणा भवन्ति, ते सं सत्त नाम । ___'से किं तं अट्ठणामे' (१२८-१३३) अदुविधा-अष्टप्रकारेण, उच्यन्ते इति वचनानि तेषां विभक्तिर्वचनविभात्तिः, विभजनं विभक्तिः सि औजासत्यादित्रित्रिवचनसमुदायारिमका प्ररूपिता अर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतो गणधरैरिति, तंजहा-'निइसे पढमें त्यादि (१५७/५८१३३) सिलोगदुर्ग णिगदासद, उदाहरणप्रदर्शनार्थमाइ-'तत्थ पढमे त्यादि. (*५९-१३३) सत्र प्रथमा विभक्तिनिर्देश, सचार्य अई चेति निर्देशमात्रत्वात् , द्वितीया पुनरुपदेशे, उपदिश्यत इत्युपदेशः, भणइ कुरु वा एतं या तं चेति कर्मार्थत्वात् , तृतीया करणे कृता, कथं ?, भणितं वा कृतं वा तेन वा मया बेति करणार्थः, इंदीत्युपदर्शने णमो साहाएत्ति उपलक्षणं, नमःस्वस्तिस्वाहास्वधाऽवषड्योगाच्च (पा, २-३-१६) नमोका देवेभ्यः स्वस्ति प्रजाभ्यः स्वाहा अग्नये, भवति चतुर्थी संप्रदाने, तत्रैके व्याचक्षते--इदमेव नमस्कारावि संप्रदानं, अन्ये पुनरुपाभ्यायाय गां प्रयच्छतीत्यादीनि । 'अवणय' इत्यादि(*६१-१३३)अपनय प्रहणे (गृहाण अपनय अस्मान् इत इति वा पंचमी अपादाने 'ध्रुवमपायेऽपादान'मिति (पा.१-४-२४) कृत्वा, षष्ठी तस्यास्य वा गतस्य च भृत्य इति गम्यते स्वामिसंबंधे भवति, पुनः सप्तमी वस्तु अस्मिन्निति आधारे ॥६८॥ GI काले भावे, यथा कुण्डे बदराणि वसंते रमते चारित्रे अवतिष्ठत इति, आमंत्रणी तु भवेत् अष्टमी विभक्तिः, यथा हे जुवानत्ति, वृद्धवैयाकरण दर्शनभिदमिदयुगीनानां त्वियं प्रथमैव, तदेतदष्टनामेति । CARCIRLS दीप अनुक्रम [१६४ २०४] ~72~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१२९-१३०] / गाथा [५७-८२] ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत श्रीअनु: हारि.वृत्तौ सूत्रांक [१२९१३०] गाथा ||५७८२|| 'से किं नवनामे' इत्यादि (१२९-१३५) नवनाम्नि नव काव्यरसाः प्रज्ञप्तः, रसा इब रसा इति, रक्त प.."मिदुमधुरिभितसु-I&I भतरणीतिणिदोसभीसणाणुगता । मुहदुह कम्मरसा इव कव्वस्स रसा दर्षनेते ॥ १ ॥ 'वीरो सिंगारो' इत्यादि (७६३-१३५) वीरः शंगार: अभुतश्च रौद्रश भवति योद्धव्यः वीडनको बीभत्सो हास्यः करुणः प्रशान्तन, एते च लक्षणत उदाहरणतोक्यते-तत्र वीररसलक्षण-14 माभधित्सुराह-'तत्थ' गाहा (६४-१३६) व्याख्या-तत्र परित्यागे च तपश्चरणे-तपोऽनुष्ठाने शत्रुजमविनाशे च-रिपुजनण्यापत्तो च यथा-18 संख्यमननुशयधृतिपराकमलिनो वीरो रसो भवति, परित्यागेऽननुशयः नेदं मया कृतमिति गर्व करोति, किंवा कृतमिति विषाद, तपश्चरणे | श्रुति न स्वार्तध्यानं, शत्रुजनविनाशे च पराक्रमो न वैकलव्यम् , एतल्लिंगो वीरो रसो भवति, उदाहरणमाह-वारी रसो यथा-'सो नाम' गाहा (७६५-१३६) निगसिद्धा, सिंगारो णाम रसो (६६.१३६) शृंगारो नाम रसः, किंविशिष्ट इत्याह-रतिसंयोगाभिलापसजननः तत्कार-14 णानि, मंडनविलासविब्वोकहास्वलीलारमणलिंगो, तत्र मंडनं कटकादिभिः विलास:-कामगो रम्यो नयनादिविधमः विव्योकः देशी पदं अंगजविकारार्थे हास्यलीले प्रतीते रमणं-कीडनं एतच्चिन्ह इति गाथार्थः, उदाहरणमाइ-शृंगारो रसो यथा 'मधुर' गाहा, (*६७-१३६) निगदसिद्धा, अब्भुतहक्षणमाह-'विम्हयकरो' गाहा (०६८-१३६) विस्मयकर: पूर्वी वा तत्प्रथमतयोरपयमाना भूतपूर्व वा पुनरुत्पन्ने यो रसो भवति स हर्षविषादोत्पत्तिलक्षण: तीजत्वात् अद्भूतनामेति गाथार्थः, उदाहरणमाहअब्भुतो रसो यधा 'अद्भुततर गाहा | (*६९-१३६) निगदसिद्धा । रौद्ररसलक्षणमाह-'भयजणण' गाहा (*७०-१३७) भयजननरूपशब्दान्धकारपिताकथासमुत्पन्न इत्यत्र भवज-1& ननशब्दः रूपादीनां प्रत्येकमभिसंबद्धपते, भयजननरूपदर्शनात् समुत्पन्न एव भयजननशब्दशवगाद्यजननांधकारयोगात भयजननचिन्तासमूद्भूतः भयजननकथाश्रवणात समुत्पन्नः-संजातः, किंविशिष्ट ? इत्यत्राह-'सम्मोहसंभ्रमविषादमरणलिंगो रौद्रः, तत्र सम्मोहः-अत्यन्तमूढता संभ्रमः-11 * * ॥६९॥ ॥९ दीप अनुक्रम [२०५२०४] ... अत्र नव-रसानां वर्णनं आरभ्यते ~734 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१२९-१३०] / गाथा [५७-८२] ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत नवरसाः सूत्रांक [१२९१३०] गाथा ||५७८२|| X46454 श्रीअनु किंकर्तव्यतावदान्येन आत्मपरिणामः, विषादमरणे प्रतीते इति गाथार्थः । उदाहरणमाह-रौद्रो रसो यथा 'भिउडि गाहा (१७१-१३७) हारि वृत्ताला भृकुटि:-कलाटे पछिभंगः, तथा विभितं ग्यत्कृतं मुखं यस्य तथाविधः, तस्यामंत्रणं हे शुकृतिविषितमुख! संदष्टोध-प्रस्तओष्ठ इस्थः, इतः। माइतीततश्च रुधिरोत्कीर्ण:-विक्षिप्तरुधिर इति भावः, हसि-पसुं व्यापादयस्यतः असुरनिभ:-असुराकारः भीमरसित:-भयानकशब्द! अतिरौद्रः ॥७ ॥ रौद्रो रसो इति गाथार्थः । श्रीइनकलक्षणमाह-'विणओं' गाहा (*७२-१३७) विनयोपचारगुष्यगुरुदारव्यविक्रमोत्पन्न इति, विनयोपचारादिषु व्यतिक्रमशयः प्रत्येकमभिसंबद्धयते, भवति रसो बीडनकः, लक्जाशंकाकरण इति गावाः, उदाहरणमाह-बीडनको रसो यथा। 'किलोइय' गाहा (*७३-१३७) विदेशाचारोऽतिनववध्याः प्रथमयोन्यवेदर तरंजित तनिवसनमभतयोनिसंज्ञापनार्थ पटळकविन्यस्तसंपादितपूजोपचारः सकललोकप्रत्यक्षमेव तद्गुरुजनो परिवंदते इत्येवं चात्मावस्था सखीपुरतो वधूभणति किं लौकिकक्रियायाः - ज्जनकतरम् ? इह हि लज्जिता भवामि, निवारेज्जा-विवाहो तत्र गुरुजनो परिवदति यद्वधूपोति-वधूनिवसनमिति गाथार्थः । बीभत्सरसलक्षणमाह-'अमुई' गाहा (७४-१३८) अशुचिकुणपदर्शनसंयोगाभ्यासगंधनिष्पन्नः, कारणाशुचित्वावशुचि शरीरं तदेव प्रतिक्षणमासन्नकुणपभावात् । कुणपं तदेव च विकृतप्रदेशत्वाद् दुर्दर्शन तेन संयोगाभ्यासात्तद्धोपलब्धेर्वा समुस्पन्न इति निर्वेदाइ बिहिंसालक्षणो रसो भवति बीभत्स इति गाथार्थः, उदाहरणमाह-बीभत्सो रसो यथा 'असुइ' गाहा (*७५-१३८) सूत्रसिद्ध । हास्यलक्षणाभिधित्सवाऽऽद-रूबवय' गाहा (*७६-१३८) रूपवयोवेषभाषाविपरीतविडम्बनासमुत्पनो हास्यो मनामहर्षकारी प्रकाशाग:-प्रत्यक्षलिंगो रसो भवतीति गाथार्थः, उदाहरणमाह-'हास्यो। रसा यथा 'पामुत्तमसी' गाहा (*७७-१३९) प्रकटार्थी । करुणरसलक्षणमाइ- पियविपिओग' गादा (८-१३९) प्रियविप्रयोगांधव-IN व्याधिनिपातसंभ्रमात्पन्नः शोचितविलपित्तप्रम्लानरूदितलिंगो रसः करुणः, तत्र शोषित-मानसो विकारः, शेष प्रकदार्थमिति गाथार्थः, उदाहर. SACA ॥७ ॥ दीप अनुक्रम [२०५२०४] ~74~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२९ १३०] गाथा ||५७ ८२|| दीप अनुक्रम [२०५ ૨૧] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ १२९-१३०] / गाया [५७-८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: श्रीअनु० हारि. वृत्त ॥ ७१ ॥ णमाह-'करुण रसो यथा 'पज्झाय' गाहा (४७९-१३९) प्रध्यावेन अतिचिंतया कांतं वाप्यागतप्रण्डुताक्षं स्यन्दमानाश्रु ज्योतलोचनमिति भाव:, शेषं सूत्रसिद्धमिति गाथार्थः । प्रशान्तरसलक्षणमाह- 'निहोस' गाहा (८०-१३९) निर्दोषमनः समाधानसंभवः, हिंसादिदोषरहितस्य इंद्रियविषयविनिवृत्त्या स्वस्थमनसो यः प्रशान्तभावेन- क्रोधादित्यागेन अविकारलक्षण:- हास्यादिविकारवर्जितः असौ रसः प्रशाम्तो शातव्य इवि गाधार्थः, उदाहरणमाह-प्रशान्वो रसो यथा 'सम्भाव' गाथा (८१-१३९) निर्विकार' न मातृस्थानतः उपशांत प्रशांतसौम्यदृष्टि-उपशांता इंद्रियोपत्यागेन प्रशांता कोधादित्यागतः अनेनोभयेन सौम्या दृष्टिस्मिन् तद्यथा हीत्ययं मुनेः प्रशांतभावाविशयप्रदर्शने, यथा मुनेः शोभते मुखकमलं पीवरश्रीकं प्रधानलक्ष्मीकमिति गाथार्थः । एते णव' गाड़ा ( ८२-१३९ ) एते नव काव्यरसाः, अनन्तरोदिता: द्वात्रिंशदोषविधिसमुत्पन्नाः-अनृतादिद्वात्रिंशत्सूत्रदोषास्तेषां विधिः समुद्भवा इत्यर्थः तथाहि वीरो रसो संग्रामादिषु हिंसा भवति तपः संयम करणादावपि भवति, एवं शेषेष्वपि यथासंभवं भावना कार्या तथा चाह-गाथाभ्यः उक्तणाः विभ शुद्धा वा मिश्रा वा, शुद्धा इति काञ्चिद्रायाः सूत्रबंध अन्यतमरसेनैव शुद्धेन प्रतिबद्धाः काञ्चन मिश्राः द्विकादिसंयोगेनेति गाथार्थः ॥ उक्तं च भवनाम, अधुना दशनामोच्येत तथा चाह 'से किं तं दसनाम ?' (१३०-१४०) दसनाम दशविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-'गोणं नोगोण' मित्यादि, एतेषां प्रतिवचनद्वारेण स्वरूपमाह'से किं तं गोणे' गुणनिष्पण्णं गौणं, क्षमतीवि भ्रमण इत्यादि, 'से किं तं नोगोणे?' नोगोणो- अयथार्थे, अकुंतः सकुंत इत्यादि, अविज्जमानकुंतारुयप्रहरणविशेष एव सकुंत इत्युच्यते, एवं शेषेष्वपि भावनीयं । 'से किं वं आदापपदेणं १ २' आदानपदेन धर्मो मंगलमित्यादि, इहादिपदमादानपदमुच्यते । 'से किं तं पडिवक्खपदेणं २' प्रतिपक्षेषु नवेषु प्रत्ययेषु प्रामाकरनगर खेटकर्यटम डम्प द्रोणमुखपत्तनाश्रमसंबाधस ~75~ नवरसाः ॥ ७१ ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२९ १३०] गाथा ||५७ ટા दीप अनुक्रम [२०५ ૨૧] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ १२९-१३०] / गाया [५७-८२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित [आगमसूत्र [४] भूमिकामसूत्र [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः श्रीअनु० हारि वृत्ती ।। ७२ ।। निवेशेपु निवेश्यमानेषु सरसु अमांगलिकशब्दपरिहारार्थं असिवा सिवेत्युच्यते, अन्यदा स्वनियमः अभिः शीतला विषं मधुरकं, कलालगृहेषु अम्लं स्वादु सृष्टं न त्वम्छमेव सुरासंग्क्षणायानिष्टशब्दपरिहारः, इदं सर्वदा- जो लत्तए इत्यादि, जो रक्तो लाक्षारसेन स एवारक्तः प्राकृतशैल्या अलक्तः, यदपि च लावु 'ला आदान' इति कृत्वा आदानार्थवत् सेत्ति तदलाबु, यः शुभकः शुभवर्णकारी 'से' चि असौ कुसुंभकः, आतपन्तं छपन्तं अस्पथे उपन्तं असमंजसमिति गम्यते विपरीत भापक इत्युच्यते विपरीतचासौ भाषकचेति समासः अभापक इत्यर्थः, आहे नोगौणान भियते, न तस्य प्रवृत्तिनिमित्तकतज्जभावमात्रापोक्षितत्वात् इदं तु प्रतिपक्षधर्माध्यासमपेक्षत इति भिद्यत एव। से किं पाहणचाए, पाहणता एवं चंपकप्रधानं वनं पवनं अशोकप्रधानं अशोकवन मेत्यादि, शेषाणि वृक्षाभिधानानि प्रकटार्थानि आदमपि गौणा भिज्जते न तत्तन्नामनिबंधनभूतायाः क्षपणादिक्रियायाः सकलस्याधारभूत वस्तुव्यापकत्वादशोकादेच बनाव्यापकत्वादुपाधिभेदसिद्धर्युज्जत इति, 'से किं तं' अणादिसिद्धश्चासावन्तश्चेति समासः अमनमन्तस्तथा वाचकतया परिच्छेद इत्यर्थः, उत्किमनादिसिद्धान्तेनानादिपरिच्छेदे - नेत्यर्थः, धर्मास्तिकाय इत्यर्थः, आदि पूर्ववत् अनादिः सिद्धान्तो वाऽस्य सदैवाभिधेयस्य तदन्यत्वायोगात् अनेनैव चोपाधिना गौणादाभिधानेऽप्यदोष इति । से किं तं नाणं ? पितुपितुः पितामहस्य नाम्ना उन्नामित- उत्क्षिम यथा बंधुदत्त इत्यादि । 'से किं तं अवयवेणं, अवयवः शरीरैकदेशः परिगृह्यते तेन शृंगीत्यादि (१८३-१४२) प्रकटार्थे, तथा परिकरबन्धेन भटं जानीयात्, महिलां नित्रसमेन, सिक्युना द्रोणपार्क, कवि चकया गाथया तत्तदप्यधिकृतावयवप्रधानमेवेति भावनीयमतस्तेनैवोपाधिना गौणाद्भिन्नमेवेति । से किं तं संयोएणं ?, संयोपणं संयो:-संबंध: स चतुर्विधः प्रशप्तः, तद्यथा 'द्रव्यसंयोग' इत्यादि सूत्रसिद्धमेव, नवरं गावः अस्य संतीति गोमान्, छत्रमस्यास्तीति छत्री, हलेन व्यवहरतीति हालिकः भरते जातः भरतो वाऽस्य निवास इति वा 'तत्र जातः' (पा.४-३-२५) 'सोऽस्य निवास' इति (पा. ४--३-४९) वा ~76~ दश नामानि ॥ ७२ ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२९ १३०] गाथा ||५७ ટા दीप अनुक्रम [२०५ २०४] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ १२९-१३०] / गाया [५७-८२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: श्री अनु० हारि. वृत्तौ ॥ ७३ ॥ अण् भारतः, एवं शेषेष्वपि द्रष्टव्यं, सुषमसुषमायां जातः 'सप्तम्यां जनेर्ड' (पा. ३-२-९२) सप्तम्यन्ते उपपदे जने: ड प्रत्यय:, सुषमसुषमजः, एवं शेषमपि ज्ञानमस्यास्तीति ज्ञानी, एवं शेषमपि, संयोगोपाधिनैव चास्य गौणाद्भेद इति । 'से किं तं पमाणेणं, पमाणे' प्रमाणे चतुर्विधं प्रशतं तथवा-नामप्रमाणमित्यादि, नामस्थापने क्षुण्णायें, नवरमिह जीविका हेतुर्यस्था जातमात्रमपत्यं श्रियते सा रहस्यवैचित्र्यात्तं जातमेवाकरादिपूज्झति, तदेव च तस्य नाम क्रियत इति, आभिप्रायिकं तु गुणनिरपेक्षं यदेव जनपदे प्रसिद्धं तदेव तत्र संव्यवहाराय क्रियते अन्धकादि, अत एव प्रमाणता, उक्तं द्रव्यप्रमाणनाम से किं तं भावप्पमाणनामे' भावप्रमाणं सामासिकादि, तत्र द्वयोर्बहूनां वा पदानां मीलनं समासः, स जात एषां समासितो 'उभयप्रधानो इन्द्र' इति द्वन्द्वः दंतोष्ठ, तस्य चकारः अर्थः, इतरेतरयोगः अस्तिप्रभृतिभिः क्रियाभिः समानकाडो युक्तः स्वनौ च उदरं च स्तनोदरं, एवं शेषोदाहरणान्यपि द्रष्टव्यानि, 'अन्यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहि:' पुष्पिताः कुटजकदम्बा यस्मिन् गिरौ सोऽयं गिरिः पुष्पितकुटजकदम्बः, गिरर्विशेष्यत्वादन्यपदार्थप्रधानतेति तत्पुरुषः समानाभिकरणः कर्मधारयः, धवलयासौ वृषभःश्च विशेषणविशेष्यथ हुलमिति तत्पुरुषः, धवलत्वं विशेषणं वृषभेण विशेष्येण सह समस्यति, द्वे पदे एकमर्थं ब्रुवत इति समानाधिकरणत्वं, एवं श्वेतपटादिष्वपि द्रयं, अयं कर्मधारयसंज्ञः, त्रीणि कटुकानि समाहृतानि 'वद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे (पा. २-१-५०) तत्पुरुष: त्रिकटुकमित्युत्तरपदार्थप्रधानः, 'संख्यापूर्वी द्विगु, रिति द्विगुसंज्ञा, एवं त्रिमधुरादि, तीर्थे काक इव आस्ते 'ध्वांक्षण क्षेप' इति (पा, २-१-४२) तत्पुरुषः समासः तर्थिंकाकः, वणहत्यादीनामस्मादेव सूत्रान् निर्बंधनज्ञापकात्सप्तमीसमासः, पात्रेसमिवादिप्रचेपाडा, अनु प्रामादनुप्रानं ग्रामस्य समीपेनाशनिर्गता, 'अनुर्यत्समया (पा.२-१-१५) अनु यः समयार्थः, ग्रामस्व अनु समीप:, द्रव्यमशनिं ब्रवीमि यस्य यस्य समीपे तेन सुबुत्तरपदेन, ग्रामस्य समीपे प्रामेणोत्तरपदेन अव्ययीभावः समासः, प्रामस्तूपलक्षणमात्रं समासः अतः पूर्व 3 ... अत्र 'प्रमाण'स्य चत्वारः भेदानां वर्णनं आरभ्यते ~77~ तद्धितनानि प्रमाण नाम ॥ ७३ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१२९-१३०] / गाथा [५७-८२] ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] “अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत S सूत्रांक [१२९१३०] गाथा ||५७८२|| हा पदार्थप्रधाना, 'अव्ययं विभक्तिसमीप' इति (पा. २.१-६) सिद्धे विभाषाधिकारे पुनर्वचनं येषां तु समयाशब्दो मध्यवचनः तेषामप्राप्ले हारि.वृत्तौल मामस्य मध्येनापनिर्गता अनुत्समया' इति (पा.२-१-१५) समासः, अनुप्राम, एवमणुणइयं इत्यादि, यथा एकः पुरुषः तथा बहवः पुरुषा अत्र-निप्रमाण ॥७४ ॥ 'सरूपाणामेकशेष एकविभक्का' (पा. १-३-६४) विति समानरूपाणां एकाविभाक्तियुक्ताना एकः शेषो भवति-सति समास एकः शिष्यते, अन्ये नाम लुप्यन्ते, शेषश्न आत्मार्थे लुप्तस्य लुप्रयोः लुप्तानां वाऽर्थे वर्तते, बहुवर्येषु बहुवचनं, पुरुषी पुरुषाः, एवं कार्षापणाः, वदेतत्सामासिकं । 'से किं तं 8 तद्धितए,२ तद्धितं कर्मशिल्पादीति, तथा चाह-'कम्मे सिप्पसिलोए' इत्यादि (*१२-१४९) कर्मतद्धिवनाम दौषिकादि, तत्र दूषा: पण्यमस्य 'सदस्य पण्यं' (पा. ४-४-५१) तदिति प्रथमासमधेने, अस्येति पतपर्थे, यथाविहितं प्रत्ययः ठकू दौधिकः, एवं सूत्रं पण्यमस्य सूत्रिक इत्यादि, तथा शिल्पवद्धितनाम वर्ष शिल्पमस्य तत्र 'शिल्प' (पा. ४-४-५५) मस्मिन्नर्थे यथाविहितं प्रत्ययः ठक् वास्त्रिका, एवं संतुवायन शिल्पमस्य तांत्रिका, इह तुण्णाएति भाणितं, म चात्र तद्वितप्रत्ययो दृश्यते कथं तद्वित', उच्यते, सद्वितप्रत्ययप्राप्तिमात्रमंगीकृत्योक्तं, प्राप्तिवन तद्धितार्थेन विना भवति, अन्तः स्थगितार्थस्तद्धितार्थः, तद्धितः प्रत्ययस्तहिं केन बाधितः १, उच्यते, लोकरूडेन बचनेन, यतस्तेनार्थः प्रतीयते, येन चार्थः प्रतीयते स शब्दः, अधयाऽस्मादेव वचनादत्र जातास्तद्धिता इति तद्वितसंज्ञा, श्लाघातद्धितनाम श्रवण इत्यादि, अस्मादेव सूत्रनिबंधात् श्लाघार्थस्तद्धितार्थ इति । संयोगतद्धितमाह-राक्ष: श्वसुर इत्यादाववस्मादेव सूत्रनिबंधात् तद्धितार्थतेति, चित्रं च शब्दप्राभृतमप्रत्यक्ष चन इत्यतो न विना, समीपतद्वितनाम गिरेः समीपे नगरं गिरिनगर, अत्र अदभव' (पा. ४-२-७०) त्यण न भवति, गिरि-13।।७४॥ नगरमित्येव प्रसिद्धत्वात्, विदिशाबा: अदूरभवं पगरं वैविशं, अदूरभवेत्यण भवति, एवं प्रसिद्धत्वात् , संजूहसद्विवनाम तरंगवतीकार इत्यादि संजदो-अन्यसंदर्भकरण, शेषं पूर्ववडापनीयमिति । ऐश्वर्यतद्धितनाम 'राज्ञे त्यादि, अत्रापि राजादिशब्दनिधनमैश्वर्यमवगंतव्यं, शेष EXSEX दीप अनुक्रम [२०५२०४] ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३१ १३४] गाथा ||८३ १०२|| दीप अनुक्रम [२०५ ૨૧] श्रीago हारि.पृती 11194 || "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं वृत्तिः) मूलं [१३१-१३४] / गाथा [८३-१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: सूत्रोपक्षं शापक सिद्धमेव । अपत्यतद्धितनाम सुप्रसिद्धेनाप्रसिद्धं विशेष्यते, विशेष्यते मात्रा पुत्रः, यथा आश्वलायनः, इद्द पुत्रेण माता, संजहा वित्थगरमाता चकवटिभातेत्यादि तदेतत्तद्धितं । 'से किं तं धातूए,' भू सप्तायां परस्मैपदे भाषा इत्यादि तत्र भू इत्ययं धातुः सन्तायामर्थे वर्त्तते ते धातोः) इत्ययं प्रमाणभावः, नामनैरुक्तं निगदसिद्धं, भावप्रमाणनामता चास्य भावप्रधानशब्दनयगोचरत्वात्, गुरवस्तु व्याचक्षते -- मासादिनाम्ना गुणाभिधानादितिभावः, अनेनैव चोपाधिना शेषभेदा भावनीया इत्येवं यथागमं मया अपौनरुक्त्यं दर्शितम्, अन्यथापि सूक्ष्मधिया | भावनीयमेव, अनन्तगमपर्यांयत्वात्सूत्रस्य तदेतत्प्रमाणनाम, तदेतन्नामेति, नामेतिमूलद्वारमुक्तं । अधुना प्रमाणद्वारमभिधित्सुराद्द- 'से किं तं पमाणे' ( १३१-१५१ ) प्रमीयत इति प्रमिति प्रमीयते वा अनेनेति प्रमाणं, चतुर्विधं प्रज्ञप्तं इत्यादि, प्रभेयभेदात् द्रच्यादयोऽपि प्रमाणं, प्रस्थकादिवत् ज्ञानकारणत्वात् तत्र द्रव्यप्रमाणं ( १३२-१५१ ) द्विविधं प्रदेशनिष्पन्नं विभागनिष्पन्नं च प्रदेशनिष्पन्न परमाण्वाद्यनतप्रदेशिकांत, स्वात्मनिष्पन्नत्वादस्य तथा चाण्वादिमानमिति, विभागनिष्पन्नं तु पंचविधं प्रज्ञप्तं, विविधो भागः विभाग:-विकल्पस्ततो निर्वृचमित्यर्थः, पंचविधं मानादिभेदात् तत्र मानप्रमाणं द्विविधं प्रज्ञानं तद्यथा-वान्यमानप्रमाणं च रसप्रमाणं च 'से किं त' मित्यादि, धान्यमानमेव प्रमाणं | 'दो असतीओ पसती दो पसतीओ य इति अत्र आह-ओमत्यामियं जं भन्नष्यमाणं सो असती, उप्पराहुतमिदं पुण प्रसूतिरिति इद च मानमधिकृत्य द्वे प्रसूती, 'से किं त' मित्यादि, धान्यमानप्रमाणं तं सुगममेव, नवरं मुचोली-मोहा मुखः कुल इति । 'से किं त' भित्यादि, रसमानमेव प्रमाणं २, धान्यमानप्रमाणात्सेतिकादेः प्रमाणेन चतुर्भागविवर्द्धितं अभ्यन्तरशिखायुक्तं शिखाभागस्य तत्रैव कृतत्वात् रसमानं विधीयत इति तद्यथा चतुःषष्टिक्रेत्यादि तत्थ व छप्पण्णपसतपमाणा माणिया, तीसे पडसट्टिभागो, चडसट्टिभागा यचउपप्रमाणा, एवं बत्तीसियादओवि जाणियब्बा, वारको पटविशेषः शेषा अपि भाजनविशेषा एव तदेतन्मानं 'से किं ~79~ द्वितीये प्रमाणद्वारे द्रव्यप्रमाणं ।। ७५ ।। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१३१-१३४] / गाथा [८३-१०२] ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत श्रीअनु सूत्रांक [१३११३४] गाथा ||८३१०२|| 181 उम्माणपमाणे?' उम्मीयतेऽनेनोन्मीयत इति बोन्मानं-तुलाकर्षादि सूत्रसिद्ध, नवरं पत्रम्-एलापत्रादि चोय:-अबुलविशेष: मच्छपिया-सकारा- प्रमाणद्वारे हार वृत्तााता विसेसो । 'से कितं ओमाणप्पमाणे ?, अवमीयते-तथा अवस्थितमेव परिच्छिासेऽमेनावमीयत इति वाऽवमानं हस्तेन पेत्यादि, चतुईस्ता लायन दण्डादयः सर्वेऽपि विषयभेदेन मानचिन्तायामुपयुञ्जत इति भेोपन्यासः, खातं खानमेव चितभिष्टकादि करकचित-करपत्रविदारित कटपटादि का प्रमाणे ।। ७६ ॥ ४ प्रकटार्थमेव । 'से किं तं गणिमए ?,' गणिर्म-संस्त्याप्रमाणमेकादि तत्परिच्छिन्नं वा बझमेव, भृतकभृतिभक्तवेतनकायव्ययनिवृत्तिसंसृवानां द्रव्याणां गणितप्रमाण निषिलक्षणं भवति, अन्न भूतक:-कर्मकर! भूति:-त्तिः भक्त-भोजन वेतन-कुंविदाये।, भूतत्वे सत्यपि विशेपेण लोकप्रतीतत्वादेवाभिधानं, एवेषु चायब्यय संसृतानां प्रतिबद्वानामित्यर्थः, गणितप्रमाणं निवृत्तिलक्षणं इयत्ताऽवगमरूपं भवति, तदेतदवमानं । 'से किं तं पडिमाणप्पमाणे ?' प्रतिमीयतेऽनेन गुंजादिना प्रतिरूपं वा मानं प्रतिमान, तत्र गुब्जेत्यादि, गुंजा चहिया, सपादा गुंजा कागणी, पादोना दो गुंजा निष्फावो-बल्लो, तिणि णिष्फावा कम्ममासओ चेव चउकागणिकाोत चुतं भवति, बारस कम्ममासगा मंडलओ, छत्तीस जिल्फावा अडथालीसं कागणिओ सोलस मासगा सुवण्णो' अमुमेवार्थ पर्शयति-- पंच मुंजाओं' इत्यादि, एवं चतु:कर्ममासक: काकण्यपेश्रया, एवं अष्टचत्वारिंशाद्भिः काकणीभिः मंडलको, भवतीविशेषः, रख-रूपं चन्द्रकान्तादयो मणय: शिला-राजपट्टक: गंधपट्टक इत्यन्ये, शेष सूत्रसिद्ध । से कि खेत्तप्पमाणे' इत्यादि, प्रदेशा:-क्षेत्रप्रदेशाः निष्पन्न, विभागनिम्पन्न त्वंगुलादि सुगर्भ, णवरं रयणी-हत्थो, दोणि हत्था कुच्छी रिसेडी य लोगायो निष्फाजति, सो य लोगो चउद्दसरजूसितो देहा देसूणसत्तरजूविच्छिण्णो, तिरियलोगमञ्झे रज्जुविहिष्णो, एवं बंभलोगमज्झे पंच, उबरि लोगते एगरविच्छिष्णो, रज्जू पुण सयंभुरमणसमुहपुरथिमपरुचस्थिमवेदयंता, एस लोगो बुद्धिपरिदेणं संवटे घणो दीप अनुक्रम [२०५ KI७६॥ २७०] ... अत्र 'क्षेत्र-प्रमाण'स्य वर्णनं मध्ये 'लोक-श्रेणे: वर्णनं ~80~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१३१-१३४] / गाथा [८३-१०२] ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत श्रीअनुः हारि.बृत्ती सूत्रांक [१३११३४] गाथा ||८३१०२|| ॥ ७७॥ MI कीरा, कथं १, उपयते, णालियाए दाहिणिल्लमहोलोगखंड हेट्ठा देसूणतिरज्जूविपिण्ण उवरि रजअसंखविभागविचिकन अतिरित्त-| सत्तरज्जूसितं, एयं पेतुं ओमस्थिय उत्तरे पासे संघातिज्जइ । इदाण उड्डुलोए दाहिणिलाई खंडाई बंभलोगबहुसममो देसभागे पिरज्जुवि-18 पिछण्णाई सेसतेसु अंगुलसहस्सदोभागविच्छिण्णाई देसूणअन्धुहरज्जूसिताई, एताई घेत्तुं उत्तरे पासे विवरीताई संपातिअंति, एवं कतेसु किं जातं, हेहिम लोगद्ध देसूणचउरग्नविच्छिण्णं सातिरित्तसचरज्जुस्सियं देसूणसत्तरज्जूबाहों, उवरिल्लमद्धपि अंगुलसहस्सदोभागाधियतिरग्जूविच्छिणं देसूणसत्तर-जूसिय पंचरज्जुबाहलं, एवं घेत्तु हेहिलउत्तरे पामे 'संघातिज्जति, जंतं अहे खंडस्ल सचरक्त आहियं उपरि घेतं पत्तरिहरस खडस्ल रजओ वाह ततो उहाय संघातिजति, सहावि सत्त रज्जूरुण धरंति, ताहे जे दक्षिणि तस्स जम- 1 धियं बाहलओ तस्सद्ध छित्ताओ उत्तरओ बाहले संघतिजा, एवं किं जात ?, वित्थरतो आयामतो य सत्तरज्जू बाहलतो रज्जूए असंखभागेण अधिगाओ छ रज्जू , एवं एस लोगो ववहारतो सत्तरज्जुप्पमाणे दिट्ठो, एत्थं जे ऊणातिरित्तं बुद्धीय जधा जुज्जइ वहा संघातिज्जा, सिद्धते य जस्थ अविसिट्ठ सेविगहणं नस्थ एताए सतरजूआयताए अवगंतब्ब, संप्रदायप्रामाण्यात् , प्रतरोऽप्येवंप्रमाण एव, आह-लोकस्य कथं प्रमाणता ?, उच्यते, आत्मभावप्रामाण्यकरणात,तदभाये तयुदयभावप्रसंगात् । ‘से किं तं अंगुले ? अंगुले ( इत्यादि ) आत्मांगुलं उच्छ्यांगुल प्रमाणांगुलं, तत्रात्मांगुलं प्रमाणानवस्थितेरनियत, उच्छ्यांगुलं त्वंगुलं परमाण्वादिक्रमायातमवास्थितं, उस्सेहंगुलाओ य कागणीरयणमाणमाणीतं, तओवि बद्धमाणसामिस्स अखंगुलप्रमाणं, ततो य पमाणाओ जस्संगुलस्प पमाणमाणिज्जति तं पमाणांगुलं, अवस्थितमेव,अत्र बहुवक्तव्यं तच नोच्यते,पन्थविस्तरभयाद् विशेषणवत्यनुसारतस्तु विज्ञेयमिति । नव मुखान्यात्मीयान्येव पुरुषः प्रमाणयुक्तो भवति, द्रौणिकः पुरुषो मानयुक्तो भवति, मह-। त्यां जलद्रोण्या उदकपूर्णायां प्रवेशे जलद्रोणादूनात्तावन्मात्रोनायां वा पूरगादित्यर्थः, तथा सारपुद्गलोपचितत्वात्तुलारोपितः सन्नभारं तुलयन दीप अनुक्रम [२०५ २७०] ... अत्र 'प्रमाण'-अधिकार: मध्ये 'अङ्गुल'स्य भेदा: आदि वर्णनं क्रियते ~81 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१३१-१३४] / गाथा [८३-१०२] ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक आत्मागुला ॥ ७८॥ [१३११३४] गाथा ||८३१०२|| 545% ॐ पुरुष उन्मानयुक्तो भवति, तत्तोलमाणे सकलगुणोपेता भवंति, आहच-'माणुम्माण' गाहा (१९६-१५६ ) भवंति पुनरधिकपुरुषाश्चक्रवादूदय उक्तलक्षणमानोन्मानप्रमाणयुक्ता, लक्षणव्यंजनगुणैरुपेताः, तत्र लक्षणानि- स्वस्तिकादीनि व्यंजनानि मशादीनि गुणा:-आन्त्यादयः उत्तमकुलप्रसूता उत्तमपुरुषा मुणितव्या इति गाथार्थः ॥ उत्तमादिविभागप्रदर्शनार्थमेवाह-'होति पुण' गाहा-(९७-१५७) भवंति पुन धिकार रधिकपुरुषाशकववादय: अष्टशतमंगुलानां उम्बिद्धा-म्मिता उरचैस्त्वेन वा पुन:शब्दोऽनेकभेदसंदर्शकः, षण्णवतिमधमपुरुषाश्चतुरुत्तरं, शत-| मिति गम्यते, मक्झिमिला स-मध्यमाः, तुम्यो यथानुरूप शेषलक्षणादिभावाभावप्रतिपावनार्थमिति गाथार्थः ।। स्वरादीनां प्राधान्यमुपदर्शयन्नाइ'हीणा वा गाहा (१९८-१५७) उक्तलक्षण मानमधिकृत्य हीनाः सयाज्ञापकप्रति गम्भीरो ष्वनिः सत्व-अदम्यावष्टंभः सार:-शुभपुद्गलोपचयः तत एवंभूना: उत्तमपुरुषाणां-पुण्यभाजा अवश्य परमंत्राः प्रेष्यत्वमुपयान्ति, उक्तं च-'अस्थिवर्धाः सुखं मांसे, त्वचि भोगाः नियोऽक्षिषु । गतो | थानं स्वरे चाज्ञा, सर्व सखे प्रतिष्टित ॥१॥" भिति गाथार्थः, शेवं सुगम यावत् वावी चतरस्सा पहला पुखरिणी पुष्करसंभवतो वा सारिणी रिजू दीहिया सारिणी घेव का गुजालिया सरमेगं तीए पंनिठिता दो सरातो सरसरं कवाडगेण उदगं संचरइत्ति सरसरपंती, विविध-1 रुक्खसहितं कवळादिपच्छन्नघरेसु य बोसभिताण रमणवाणं आरामो, पत्तपुरफफलछायोवगादिलक्खोवसोभित बहुजणविविहवेसुप्रणममाणस्स भोवणवा जाणं उजाणं, इत्यीण पुरिसाण एगपक्खे भोजे जे काणणं, अथवा जस्स पुरओ पव्वयमस्वी वा सव्ववणाण य | असे वर्ण काणणे, शीण वा एगजाइयरुक्षेहि य वर्ण, अर्णगजाइपति उत्तमेदि व अणसंड, पगजातियाण अणेगजातिवाण वा रुक्खाण पंती -11॥७८॥ | णराई, अहो संकुडा उबरि विसाला फरिदा, समक्खया खाहिया, अंतो पागाराणतरं बहत्यो रायमग्गोचारिया, दोण्ड दुवाराण अन्तरे गोपुर, तिगो णामागासभूमि विपहसमागमो य, संघाडगो सिपहसमागमो पेष नियं, चउरस्सं चत्रपहसमागमो चेव, चत्वरं छप्पहरामायमं वा, एतं (A दीप अनुक्रम [२०५ २७०] ~82 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१३१-१३४] / गाथा [८३-१०२] ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१३११३४] गाथा ||८३१०२|| श्रीअनुपाचचरं भण्णा, देवलं चउमुह, महतो रायमम्मो, तरा पहा, सन्-सोभणाचिटु जे भयंते पोत्ययवायणं वा जत्य अण्णतो वा मणुयाणं आत्मांगल हरि वृत्ताअच्छनहाणं वा सभा, जत्युदगं दिजति सा पवा,बाहिरा लिंदो, सुकिधी अलिंदो या सरण, गिरिगुहा लेणं, पव्वयस्सेगदेसलीणं या लेणं कप्प- मुत्सेवा॥७९॥ लिंगादि व जस्थ लयंति तं लेणं, भै भायणं, तं च मम्मयादि मात्रो-मात्रायुक्तो, सो य कंसभोयणभीडका, उपकरणं अणेगविहं कडगपिडग- गुलं च सूपादिकं, अहया नवकरणं इमं सगवरहादिय, वत्थ रहो' ति जाणरहो संगामरहो य, संगामरहस्स कडिपमाणा फलयवेड्या भवति, IF जाणं पुण गंडिमाइयं, गोलषिसए पाणं विहस्तप्रमाण चतुरखं सवेदिक उपशोभित जुग लाखाण थिही अम्गय हस्तिन तपरि कोहरं Mागिळतीव मानुषं गिझी लाडाणं अं अणपल्लाणं तं अण्णविसएमु थिल्डी भणइ, उरि कूडागारछादिया सिविया दीहो पाणविसेसो पुरि सरस, खप्रमाणवगासदाणचणओ संदमाणी, लोहित्ति कावेली लोहकडाईति-लोहकडिलं, एतं आयंगुलेणं मविञ्जति, तयाऽद्यकालीनानि च जोजनानि मीयते, शेष निगदसिद्धं यावत् से तं आयंगुले ॥ से किं तं उस्संहगुले २, मलयांगुळ कारणापेक्षया कारणे कार्योपचारादनेकाविधं प्रज्ञ, तथा चाह-'परमाणु' इत्यादि (*९९-१६०) परमाणुः त्रसरेणू रघरेणुरमं च वालस्य लिला यूका चयः, अवगुणविवर्द्धिताः क्रमशः उत्तरोत्तरपद्धचा अंगुलं भवति, तस्य णं जे से सहमो से उप्पेत्ति स्वरूपल्यापनं प्रति सावत् स्थाप्यो, अनधिकृत इत्यर्थः, 'समुदयसमितिसमागमेणं' ति अन्न समुदायलयादिमे लक: परमाणुपुद्गलो | निष्फजते, तन्त्र चोदकः पृच्छनि-से ण भंते !' इत्यादि, सो भदन्त ! परमाणुः असिधारं वा क्षुरधारां वा अवगाहेत-अवगाह्यासीत अमि: ॥७९॥ बाखड्गः रोनापितोपकरणं, प्रत्युत्तरमाह-इन्तावगाहेत 'हन्त संप्रेषणप्रत्यवधारणविवादेवि वि वचनात् , स तत्र छियेत भिवेत वावत्र दो-1 ला बिधाकरणं भेदोऽनेकधा विदारणं, प्रश्ननिर्वचन-नायमर्थः समर्थः, नैतदेवमिति भावना, अत्रैवोपपत्तिमाह-न खलु तत्र शस्त्र संक्रामति, सूक्ष्म-16 XA दीप अनुक्रम [२०५ २७०] ~834 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३१ १३४] गाथा ||८३ १०२|| दीप अनुक्रम [२०५ २७०] “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [१३१-१३४] / गाथा [ ८३-१०२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -[२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः: श्री अनु० हारि वृत्ती ॥ ८० ॥ त्वादिति भावः स भदन्त ! अनिकायस्य वहेर्मध्यं मध्येन अंतरेण गच्छेत् यायात् १, इन्त गच्छेत् स तत्र दोवेत्यादि पूर्ववत् नवरं शस्त्रमत्रिमयं गृह्यत इति, अवादि च- 'सत्यन्गिविस' मित्यादि, एवं पुक्खलसंवर्तमपि भावनीयं, नवरं अस्यैवं प्ररूपणा इह वद्धमाणसामिणो निब्बाकाळाओ तिसीए बाससहस्सेमु ओसप्पिणीए ( पंचमहारगेमु उस्सप्पिणीए ) य एकवीसाए वीइते एत्थ पंच महामेा भविस्संति, तंजा-पढमे पुरखलसंवहुए य उद्गरसे बीए खीरोदे तइए ओदे चत्थे अमितोदे पंचमे रसोदे, दत्र पुक्खलसंवत्तोऽस्य भरतक्षेत्रस्य अशुभमावं पुष्कलं संवसंयति, नाशयतीत्यर्थः एवं शेषनियोगोऽपि प्रथमानुयोगानुसारतो विज्ञेयः, स भदन्त ! गंगाया महानद्याः प्रतिश्रोतो - शीघ्रमागच्छेत् १ स तत्र विनिघातं - प्रस्खलनमापयेत प्राप्नुयाच्छेषं पूर्ववत् स भदन्त ! उदकाव वा उदकबिंदु वा अवगाह्य तिछेनू, स तत्रोदकसंपर्कात्कुध्येत वा पर्यापयेत वा?, कुथनं पूर्तिभावः, पर्यायापत्तिस्तु अन्यरूपापत्तिः, शेषं सुगमं, यावत् अनन्तानां व्यावहारिकपरमाणुपुद्रलानां समुदयसमितिसमागमेन सा एका उच्णदिणकेति वेत्यादि, अत्र उच्क्ष्णमणिकादीनामन्योऽन्याष्टगुणत्वे सत्यध्यानंतत्वादेव परमाणुपुद्रलसमुदायस्याद्योपन्यासोऽविरुद्ध एवं तत्र क्षणिकायपेक्षया उत्-प्राबल्येन ऋणमात्रा उच्छूक्ष्णश्ररणोच्यते, ऋणऋणात्योपत ऊर्ध्वरेण्यपेक्षया ऊर्ध्वाधस्तिर्व कूचलन धर्मोपलभ्यः ऊर्ध्वरेणुः पौरस्त्यादिवायुप्रेरितस्त्रस्यति गच्छतीति त्रसरेणुः रथगमनोखातो रथरेणुः, बालापलिक्षायूकादवः प्रतीताः शेषं प्रकटार्थ यावदधिकृतांगुळाधिकार एब, नवरं नारकाणां जघन्या भवधारणीयशरीरावगाना अंगुला संख्येयभागमात्रा उत्पद्यमानावस्थायां न त्वन्यदा, उत्तरक्रिया तु तथाविधप्रयत्नः भावादाचसमयेऽप्यंगु संख्येयभागमात्रैत्रेति, एवमसुरकुमारादिदेवानामपि, नवरं नागादीनां नवनिकाय देवानामुत्कृष्टोत्तरबैक्रिया योजन सहस्रमित्येके, पृथिवीकायिकादीनां त्वंगुळासंख्येयभागमात्रतया तुल्यायामप्यवगाहनायां विशेषः, 'वणऽणंतसरीराण एगामिल तरिगं पमाषेण । अगलोद्गपुढवीणं असंखगुणिया भवे बुड्डी ~84~ उत्सेधांगुर्ल ॥ ८० ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१३१-१३४] / गाथा [८३-१०२] ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक भारत्नं उत्से [१३११३४] गाथा ||८३ १०२|| श्रीअनु० ॥१॥"से कि पमाण' २ एकैकस्य राज्ञश्चतुरन्तचक्रवर्तिनः, तत्रान्यान्यकालोत्पमानामपि तुल्यकाकणीरवप्रतिपादनार्थमेकैकमहर्ण, काकिणी हारि.वृत्ती निरुपचरितराजशब्दविषयज्ञापनार्थ राजमहणं, षखंडभरतादिभोक्तृत्वप्रतिपादनार्थ चतुरनचक्रवार्चन इत्यत्रान्ये, पत्तारि मधुरखणफला | | एगो सेयसरिसवो, सोल सरिसवा एगं घण्णमासफलं, दो घण्णमासफलाई गुंजा, पंच गुंजाओ एगो कम्ममासगो, सोलस कम्ममासगा टांगुलंच ॥८१ ॥ " गो सुवण्णो, एते य मधुरतणफलादिगा भरहकालभाविणो चिप्पंते, जतो सब्वचकवट्टीणं तुल्लमेव कागणीरयणंति, षट्तल द्वादशाभि अष्टकर्णिकं अधिकरणिसंस्थानसंस्थितं प्रज्ञ, नत्र तलपनि-मध्यभाण्डानि अश्रय:-कोटयः कर्णिका:-कोणिविभागा: अधिकरणिः-सुवर्णकारोपकरण प्रतीवमेव, तस्य काकणिरत्नस्य एकैका कोटि: उच्छ्याप्रमाणविष्कम्भकोटीविभागा, विक्खंभो-वित्थारो, तस्स य समचउरस्मभावत्तणओ सव्वकोटीण तुल्लायामविष्कभगहणं, तच्छ्रमणस्य भगवतो महावीरस्या गुलं, कहं १, जतो वीरो आदेसंतरतो आयंगुलेण चुलसीतिभंगुलमुब्बिद्धो, उस्सह पुण सतसह सयं भवति, अतो दो उस्सेहंगुला वीरस्स आयंगुलओ, एवं वीरस्सायंगुलाओ अवं उस्सेहंगुलं | &ादिह, जेसि पुण वीरो आयंगुलेण अठुत्तरमंगुलसतं तेसि वीरस्स आयंगुळेण एकमुस्सेहंगुलं उस्सेहंगुलस्थ य पंच णवभागा भवंति, जेसि Dपुणो वीरो आयंगुलेण वीसुत्तरमंगुलसयं तसि धीरस्सायंगुलेणगमुस्सेहंगुलं उस्सेहंगुलस्स य दो पंचभागा भवंति, एवमेत सव्वं तेरासिय करणेण दट्टब्ब, उच्छ्यांगुलं सहस्रगुणितं प्रमाणाङ्गुलमुच्यते, कथं', भण्णाति-भरहो आयंगुळेण बीसुत्तरमैगुलसतं, तं च सपायं धणुयं, | उस्सेहंगुलमाणेण पंचधणुसया, जइ सपारण धणुणा पंच धनुसए लभामि तो एगण धणुणा किं लभिस्सामि ?, आगतं च धणुसताणि सेढीए, एवं सव्वे अगुलजोयणादयो दहब्वा, एगमि सेढिपमाणांगुले चउगे उस्सेहंगुलसया भवंति, तं च पमाणं गुलं उस्सेहंगुलप्पमाणण अद्भा-5॥१॥ दितियंगुलवित्थर, ततो सेढीप पारो सता अढाइयंगुलगुणिया सहस्सं उस्सेहंगुलाण, तं एवं सहस्सगुणितं भवति, जे यापमाणगुलाओ दीप अनुक्रम [२०५ २७०] ~-85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१३५-१३७] / गाथा [१०३-१०६] ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१३५ १३७] गाथा ||१०३१०६|| श्रीअनु | पुढवादिषमाणा आणिग्जति ते पमाणगुलविक्र्वभणं आणेतव्वा, प सूइअंगुलेणं, शेष सुगम, यावत् तदेतत्क्षेत्रप्रमाणमिति, नवरं काण्डानि 131 समयहारि वृत्तील रत्नकाण्डादीनि भवनप्रस्तटान्तरे टंका:-छिन्नटेकानि रत्नकूदादयः कूटाः शैला: मुंडपर्वताः शिखरवन्तः शिखरिणः प्राग्भाग-पदवनता इति । 'से किं ते कालप्पमाणं' इति (१३४-१७५) कालप्रमाणं द्विविधं प्रशतं, तद्यथा-प्रदेशनिष्पन विभागनिष्पन्नं च, तत्र प्रदेशनिष्पन्न ॥८२॥ एकसमयस्थित्यादि यावदसंख्येयसमयस्थितिः, समयानां कालप्रदेशस्वादसंख्येयसमयस्थितेश्वोर्ध्वमसंभवात् , विभागनिष्पन्नं तु समयादि,8 तथा चाइ-समयावलिय गाहा (१०३-२७५) कालविभागाः खल्विमाः, समयादित्वाच्चैतेषामादौ समयनिरुपणा क्रियते, तथा चाह-से है किं तं समय' (१३७-१७५) प्राकृशिस्याऽभिधेयवल्लिंगवचनानि भवन्तीति न्यायादथ कोऽयं समय इति पृष्टः सन्नाइ-समयस्य प्ररूपण करिष्याम इति, तद्यथा नाम तुमदारकः स्यात् सूचिक इत्यर्थः तरुणः प्रधद्धमानवयाः, आइ-दारका प्रवर्द्धमानवया एव भवति किं विशेषणेन ?, दू हैन, आसन्नमृत्याः प्रवर्धमानवयस्त्वाभावस्तस्य चासन्नमृत्युत्वादेव विशिष्टसामर्थ्यानुपपत्तेः, विशिष्टसामध्यप्रतिपादनार्थश्वायमारंभ इति, अन्ये तु वर्णादिगुणोपचिनो मिनवयस्तरुण इति व्याचक्षते, बळं-सामर्थ्य तदस्यास्तीति बलवान, युग:-सुषमदुष्षमादिकालः सोऽस्य भावेन न कालदोषतयाऽस्यास्तीति युगवान् , कालोपद्रवोऽपि सामर्थ्यविनहेतुरिति, जुवार्ण युवा वयाप्राप्तः, दारकाभिधानेऽपि तस्यानेकधा भेदाद्विशिष्टययोऽवस्थापरिमहार्थमिदमदुष्ट, 'अस्पातक:' आतन्को-रोगः अत्राल्पशव्योऽभाववचन:, स्थिरामहस्सा लेखकवत् | प्रकृतपटपाटनोपयोगित्वाच विशेषणाभिधानमस्योपपद्यत एव हवः पाणिपादपार्श्वपृष्टान्तरोरुपरिणतः, मोगावयबरुत्तमसंहनन इत्यर्थः, तलयमलयुगलपरिपनिभचाहुः परिध:-अर्गला तमिभयाहस्तत्थ य तदाकारमाहुरिति भावार्थः, आगंतुकोपकरणजे सामयमाह-पर्मेष्टकदुपनमुष्टिसमाइतनिचितकाय इति, ऊरस्यबलसमन्वागतः, आन्तरोत्साहवीर्ययुक्त इत्यर्थः, व्यायामवस्वं दर्शयति-लंघनप्लवनशीमव्यायामसमर्थः, ESSA5% दीप अनुक्रम [२७१२७८] ... अथ 'काल' विभागे 'समय-आवलिका-आदि वर्णनं क्रियते । ~86 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [139 १३७] गाथा ||१०३ १०६ || दीप अनुक्रम [२७१ २७८] श्रीअनु० हारिपृची ॥ ८३ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१३५-१३७] / गाथा [१०३-१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: *** जैनशब्दों शीघ्रवचन: छेक:- प्रयोगशः दक्षः शीघ्रकारी प्राप्तार्थ: अधिगतकर्मनिष्ठां गतः, प्राज्ञ इत्यन्ये, कुशल:- आढोचितकारी मेधावी सकृत् श्रुतदृष्टकर्मश: निपुण:-उपायारम्भकः निपुणशिल्पोपगतः - सूक्ष्म शिल्पसमन्वितः स इत्थभूतः एकां महतीं पटशाटिकां वा पट्टशाटकं वा श्लक्ष्णतया पटशाटिकेति भेदेनाभिधानं गृहीत्वा 'सयराह' मिति सकृद् झटिति कृत्वेत्यर्थः इस्तमात्रमपि उत्सारयेत् पाटयेदित्यर्थः । तत्र चोदकः- शिष्यः प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापको- गुरुस्तमेवमुक्तवान्- किं? येन कालेन तेन तुमवायदारकेण तस्याः पटशाटिकाया सकृद्धस्तमात्रमपसारितं पाटितमसी समय इति, प्रज्ञापक आह- 'नायमर्थः समर्थः नैतदेवामेत्युक्तं भवति, कस्मादिति पृष्ट उपपत्तिमाह यस्मात्संख्येवानां तन्तूनां समुदयसमितिसमागमेनेति पूर्ववत्, पटशाटिका निष्पद्यते, तत्र उवरिल्लात्त उपरितने संती अलि-अविदारिते 'हेडिल्ले' त्ति अधस्तनस्तन्तुर्न छियते, अन्यस्मिन्काले आयोऽन्यस्मिंश्रपरस्तस्मादसौ समयो न भवति एतच्च प्रत्यक्षप्रतीतं, संघातस्त्वतानां परमाणूनां विशिष्टेकपरिणाम योगस्तेषामनन्तानां संघवानां संयोगः समुदयस्तेषां समुदयानां याऽन्योऽन्यानुगतिरसौ समितिस्तेषामेकद्रव्यनिवृत्तिसमागमेन पटः निष्पद्यत इति, समयस्य चातोऽपि सूक्ष्मत्वात् परमाणुव्यतिक्रान्तिलक्षणकाल एकसमय इति, न, पाटकप्रयत्नस्याचिंत्यसक्कियुक्तत्वाद्, अभागे च तन्तुविसंघातोपपत्तेस्तुल्यप्रयत्रप्रवृत्तानवर तप्रवृत्तगंत्रतुल्य कालेनेष्टदेशप्राप्युपलब्धेः प्रयत्नविशेषसिद्धिराद्वचनाथ उत्तंथ- आगमश्चोपपत्तिश्व, संपूर्ण दृष्टिलक्षणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां सद्भावप्रतिपत्तये ॥ १ ॥ आगमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषक्षयाद्विदुः । वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूयाद्धेत्वसंभवात् ॥२॥ उपपत्ति किर्या सद्भावप्रसेविका । सा त्वन्वयव्यतिरेकलक्षणा सूरिभिः स्मृते ॥३॥” ति निदर्शनं देहोभयमपि, अलं विस्तरेण, गमनिकामात्रमेतत्, शेषं सूत्रसिद्धं यावत् 'हट्टस्से त्यादि(#१०४-१७८) हृष्टस्य- तुष्टस्य अनवकल्लस्य- जरमा अपीडितस्य निरुपक्लिष्टस्य-व्याधिना पूर्व सांप्रत वाऽनभिभूतस्य जन्तोः मनुष्यादेः एक उच्छ्वासनिच्छ्वास एकः प्राण इत्युच्यते- 'सत्त पाणूणि' सिलोगो ( ०१०५-१७९ ) निगदसिद्ध एव ~87~ समय निरूपणं ॥ ८३ ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [13 १३७] गाथा ||१०३ १०६ || दीप अनुक्रम [२७१ २७८] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१३५-१३७] / गाथा [१०३-१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: श्रीअनु० हारि वृत्ती ॥ ८४ ॥ उच्छ्वासमानेन मुहूर्त्तमाह तिष्णि सहस्सा' गाहा ( *१०६ -१७९) सन्तहिं ऊरसासेहिं थोवो सत्त धोवा य हवे, सत्तथोवेण गुणितस्सविजया लंबे अणपण्णं उसासा लवे, मुहुचे य सतहत्तर वा भवंति से अउणपण्णासाए गुणिता एयप्पमाणा हवंति, शेषं निगदसिद्धं यावत् एतावता चैव गणितस्स उवओगो इमो अंतोगुहुत्ता दिया जाब पुम्बकोडिचि एतानि धम्मचरणकालं पडुच नरतिरियाण आउपरिणामकरणे उवज्जंति, णारगभवणवंतराणं दसवास सहसादिया, उवज्जति आउयर्थिताए तुडियादिया सीसपहेलियता, एते प्रायसो पुब्बगतेसु जवितेसु आउसेडीए उज्जेतिति ॥ 'से किं तं उमय' ति ( १३८-१८० ) उपमया निर्वृत्तमौ पमिकं, उपमामन्तरेण यत्कालप्रमाणमनतिशयिना प्रहीतुं न शक्यते तदपमिकमिति भावः तच्च द्विधा पल्योपमं सागरोपमं च तत्र धान्यपत्यवत्पल्यः तेनोपमा यस्मिंस्तत्पल्योपमं तथाऽर्थतः सागरेणोपमा यस्मिन् | तत्सागरोपमं, सागरवन्महत्परिणामेनेत्यर्थः । तच पत्योपमं त्रिधा- 'उद्धारपलिओ मं' इत्यादि, तत्र उद्धारो वालाणां तत्खण्डानां वा अपोद्धरणमुच्यते, तद्विषयं तत्प्रधानं वा पल्योपमं उद्वारपल्योपमं तथाऽद्धति कालाख्या, ततश्च वालाप्राणां तत्स्वंदानां च वर्षशतोद्धरणादद्वापल्यस्तेनोपमा यस्मिन्, अथवाऽद्धा आयुःकालः सेोऽनेन नारकादीनामानीयत इत्यद्धापल्योपमं तथा क्षेत्रमित्याकाशं ततञ्च प्रतिसमयमुभयथापि क्षेत्र प्रदेशापहारे क्षेत्रपल्योपममिति । 'से किं तं उद्धारपलिओवमे अपोद्धारपत्योपमं द्विविधं प्रशनं तद्यथा-खंडकरणात् सूक्ष्मं, बादराणां व्यावहारिकत्वात् व्यावहारिकं प्ररूपणा मात्रव्यवहारोपयोगित्वाद्वयावहारिकमिति, 'से ठप्पे' ति सूक्ष्मं तिष्ठतु तावद् व्यावहारिकप्ररूपणापूर्वकत्वादेतत्प्ररूपणाया इत्यतः पञ्चात्प्ररूपविष्यामः तत्र यत्तद्वयावहारिकमपोद्धारपल्योपमं तदिदं वच्यमाणलक्षणं तद्यथा नाम पल्यः स्यात् योजनं आयामविष्कम्भाभ्यां वृत्तत्वात्, योजनमूर्ध्वमुच्चत्वेन अवगाहनतयेति भावना, तयोजनं त्रिगुणं सत्रिभागं परिश्येष्ण, परिधिमधिकृत्येत्यर्थः, स एकाहिकव्याहिक याहि कादीनां ~88~ उच्छ्वा सादि निरूपणं पल्योपमं च ॥ ८४ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत श्रीअनु: हारि.तो सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२|| ॥८५।। SARABAR उत्कृष्ट सप्तरात्रिकाणां भृतो वालापकोटीनामिति प्रायोग्यः, तत्रैकाहिक्यो मुण्डिते शिरस्यकेनासा या भवतीति, एवं शेषेष्वपि भावना कार्येति । पल्योप कथंभूत , इत्याह-'सम्मढे सण्णिाचिए' ति सम्मृष्ट:-आकर्णभृतः प्रचविशेषानिविदा, किंबहुना ', इत्थं भृतोऽसौ येन तानि वालाप्राणि | 31 नानिर्दहन , नापि वायुईरेत् , न कुथेयुः, प्रचयविशेषात्सुपिराभावाद्वायारसंभवान्नासारतां गच्छयुरित्यर्थः,न विध्वंसेरन ,अत एव न कतिपयपरिशाटमप्यागच्छेयुः, अत एव पूतित्वेनाद्विभक्तिपरिणामः ततश्च पूतिभावं न कदाचिदागच्छेयुः, अथवा न पूतित्वेन कदाचित्परिणमेयुः, 'तेणं बाल-18 ग्गा समए' ततस्तेभ्यो बालाप्रेभ्यः समय २ एकैकं वालाप्रमपहत्य कालो मीयत इति शेषः, ततश्च वावता कालेन स पल्यः श्रीणो नीरजा । निर्लेपो निष्ठितो भवति एवावान् कालो व्यावहारिफापोद्धारपस्यौपममुच्यते इति शेषः, तत्र व्यवहारनयापेक्षया पल्यधान्य इव कोष्ठागारः। स्वल्पवालामभावेऽपि 'क्षीण' इत्युच्यते तदभावज्ञापनार्थ आह-नीरजाः, एवमपि कदाचित्कवितसूक्ष्मवालापावयवसंभव इति तदपोहायाहनिर्लेप इति, एवं त्रिभिः प्रकारैः विरित्तो निष्ठितः इत्युच्यते, रसवतीदृष्टान्तेन चैतद्भावनीयं, पकार्थिकानि वा एतानि, 'सेत्त' मित्यादि निगमनं, शेष सूत्रसिद्ध, यावत् नास्ति किंचित्प्रयोजनमिति, अनोपन्यासानर्थकताप्रतिषेधायाह-केवलं तु प्रशापनार्थ प्रज्ञाप्यते, प्ररूपणा क्रियत इत्यर्थः । आह-एवमप्युपन्यासानर्थकत्वमेव, प्रयोजनमन्तरेण प्ररूपणाकरणस्याप्यनर्थकत्वात् , उच्यते, सूक्ष्मपल्योपमोपयोगित्वात्सप्रयोजनैव प्ररूपणेत्यदोषः, वक्ष्यति च 'तत्थ णं एगमेगे वालग्गे' इत्यादि, आह-एघमपि नास्ति किंचित्प्रयोजनमित्युक्तमयुक्तमस्पैव प्रयोजनवाद्, एतदेवं, पतावत: प्ररूषणाकरणमात्ररूपत्वेनाविवक्षितत्वावित्येवं सर्वत्र योजनीयमिति, शेषमुत्तानार्थं यावत्तानि बालापाण्यसंख्येयखंडीकृतानि दृष्ट्यवगाहनातोऽसंख्येयभागमात्राणि, एतदुक्तं भवति-यत् पुगलद्रव्यं विशुद्धचक्षुर्दर्शनः छमस्थः पश्यति तदसंख्येयभागमात्राणीति, अथवा क्षेत्रमधिकृत्य मानमाह-सूक्ष्मपनकजीवस्य शरीरावगाहनातोऽसंख्ययगुणानि, अयमत्र भावार्थ:-सूक्ष्मपनकजीवावगाहनाक्षेत्रादसंख्येयगुणक्षेत्रावगाहनाना दीप अनुक्रम [२७९ २९२] ~89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३८ १४२] गाथा ||१०७ ११२|| दीप अनुक्रम [२७९ २९२] श्रीअनु० हारि. वृत्ती ॥ ८६ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ १३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: मित्यादि, बादरपृथिवीकायिकपर्याप्तकशरी तुल्यानीति वृद्धवादः शेषं निगदसिद्धं यावत् 'जावइया अद्वाइज्जाण' मित्यादि, यावन्तोऽर्द्ध तृतीयेपु सागरेश्य पोद्धारसमया वालाप्रापोद्धारोपलक्षिताः समया आपोद्वारसमयाः एतावन्तो द्विगुणद्विगुणविष्कंभा इपिसमुद्रा आपोद्वारेण प्रज्ञप्ता, असंख्येया इत्यर्थः उक्तमपोद्धारपल्यापर्यं, अद्धापल्योपमं तु प्रायो निगदसिद्धमेव नवरं स्थीयते अनयेत्यायुष्ककर्मपरिणत्या नारकादिभवेध्विति स्थितिः जीवितमायुष्कमित्यनर्थान्तरं यद्यपि काया दियोगगृहीतानां कर्मपुलानां ज्ञानावरणादिरूपेण परिणामितानां यदवस्थानं सा स्थितिः तथाप्युक्तमुद्रानुभवनमेव जीवितमिति तच रूढितः इयमेव स्थितिरिति, पज्जचापज्जन्तगविभागो य एसोणारगा करणपज्ज सीए मेव अपजत्तगा दबंदि, ते य अंतोमुद्दत्तं छाद्वे पुण पडुरूच जियमा पज्जतगा चैब, तओ अपज्जत्तगकालो सब्वागातो अबणिज्जति, सेसो थ पञ्जन्त्तगसमयोत्ति, एवं सव्वत्थ दव्वं, एवं देवावि करणपज्जतीय चेव अपअतगा दव्या, उद्धिं पुण पडुच्च नियमा पत्ता चैव, गन्भवतियपंचिदिया पुण तिरिया मणुया य जे असंखेज्जावासाडया ते करणपज्जतीए व अपञ्चत्तगा दहव्वा इति उक्तंच 'नारगदेवा तिरिमयुग गम्भजा जे असंखवासाऊ । एते उ अपज्जता उववाते चैव बोद्धव्या ॥ १ ॥ सेखा तिरियमगुस्सा उद्धिं पप्पोववाय काळे या । ओविय मइया पशतिवरे व जिणबवणं ॥ २ ॥ इत्थं क्षेत्रपल्योपममपि प्रायो निगदसिद्धमेव, नवरं अष्फुष्णा वा अणकुष्णा वत्ति अन्त्र अष्फुण्णा-स्फुटा आक्रान्ता इंतियावद्विपरीतं अणकुण्णा, आह-यद्येते सर्वेऽपि परिगृह्यते किं बालाप्रैः प्रयोजनं, उच्यते एतद् दृष्टिवादे द्रव्यमानोपयोगि स्पृष्टास्पृष्टैश्च भेदेन मीयंत इति प्रयोजनं, कूष्माण्डानि-पुंस्फलानि मातुडिंगानि - बीजपूरकाणि, अस्पृष्टाञ्च क्षेत्रप्रदेशापेक्षया वाळामाणां बादरत्वादिति, 'धम्मत्थिकाए' इत्यादि, (१४१-१९३ ) धर्मास्तिकायादयः प्राग्निरूपितशब्दार्था एव णवरं धर्मास्तिकाय: संग्रहनयाभिप्रायादेक एव, धर्मास्तिकायस्य व्यवहारनयाभिप्रायादेशादिविभागः, धर्मास्तिकायस्य प्रदेशा इति ऋजुसूत्र नयाभिप्रायादत्या ~90~ उद्धाराद्वाक्षत्रपल्योपमानि ॥ ८६ ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३८ १४२] गाथा ||१०७ ११२|| दीप अनुक्रम [२७९ २९२] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ १३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: श्रीअनु हारि. वृत ॥ ८७ ॥ | एव गृह्यन्ते, असंख्येयप्रदेशात्मकत्वाच्च बहुवचनं, अद्धासमय इति वर्तमानकाल:, अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वादिति ॥ 'कति णं भंते! सरीरा' इत्यादि (१४२-१९५) कः पुनरस्य प्रस्ताव इति उच्यते, जीवद्रव्याधिकारस्य प्रक्रान्तत्वात्सरीराणामपि च तदुभयरूपत्वादवसर इति व्याख्या चास्य पदस्यापि पूर्वाचार्यकृतैव न किंचिदधिकं क्रियत इति, 'ओरालिय' इत्यादि शीर्यत इति शरीरं, सत्थ ताव उदारं उराले उरलं उरालियं वा उदारियं, तित्थगरगणघरसरीराई पडुच्च उदारं, उदारं नाम प्रधानं उरालं नाम विस्तराळं, विशालंति वा जं भणितं होति, कहं १, सातिरेगजोयण सहस्समवद्वियप्पमाणमोरालियं अण्णमेदमित्तं णत्थि, वेडब्वियं होज्जा लक्खमहिये, अवयं पंचधणुसते इमं पुण अवहितपमाणं अतिरेगजोयणसहस्सं वनस्पत्यादीनामिति, उरलं नाम स्वल्पप्रदेशोपचितत्वाद् वृहत्वाच्च भिण्डवत् उराले नाम मांस। स्थिस्नाय्वाद्यवयववद्धत्वात् वैकये विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया, विक्रियायां भवं वैक्रियं विविधं विशिष्ट वा कुर्वति तदिति वैकुर्विक, आहियत इत्याहारकं गृह्यते इत्यर्थः, कार्यपरिसमाप्य पुनर्मुच्यते याचितोपकरणवत्, तेजोभावस्तैजसं, रसायाहारपाकजननं निबंधनं च कर्मणो विकारः कार्मण, अष्टविधकर्मनिष्पन्नं सकलशरीर निबंधनं च उक्तंच तत्थोदारमुराउं डर ओरा समह व विष्णेयं । ओराडियंति पढमं पदुच्च तित्बेसरसरीरं ॥ १ ॥ भण्णइ य तोराळं बित्थरवंत वणस्वातं पप्य । पयतीय जरिथ अण्णं एहमेचं विसाति ॥ २ ॥ उरलं शेवपदेसोवचियंपि महल्लगं जहा में मंसट्टिण्दारुवद्धं उरालियं समयपरिभासा ।। ३ ।। विविहा बिसिगा वा किरिया विकिरिय ती अं तमिह । नियमा विउब्वियं पुण णारगदेवाण पयतीए ॥ ४ ॥ कज्जमि समुप्पण्णे सुयकेवलिणा विसिद्धीय जं एत्थ आरिज भणति आहारवं वं तु ॥ ५ ॥ पाणिदयरिद्धिसंदरिसणत्थमत्यावगणहेडं वा । संसयवोच्छेदयत्यं गमणं जिणपायमूमि ॥ ६ ॥ सव्वस्व उदसिद्धं रसादिश्राहारपागजणणं च तेयगलद्धिनिमित्तं वेयगं होइ नाय ॥ ७ ॥ कम्मवि *** अथ 'शरीर'स्य पंच-भेदानां वर्णनं प्रस्तूयते ~91~ शरीरपश्चर्क ॥ ८७ ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३८ १४२] गाथा ||१०७ ११२|| दीप अनुक्रम [२७९२९२] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ १३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित [आगमसूत्र [४] भूमिकामसूत्र २] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः श्रीअनु० हारि,वृत्तौ टू ॥ ८८ ॥ बागो (गारो) कम्पणमट्ठविविचित्तकम्मणिफण्णं । सव्वेसि सरीराणं कारणभूतं मुणेयच्वं ॥ ८ ॥ अत्राह किं पुनरयमैौदारिकादिः क्रमः १, अत्रोच्यते, परं परं सूक्ष्मत्वात् परं परं प्रदेशबाहुल्यात् प्रत्यक्षोपलब्धित्वात् कथित एवदारिकादिः क्रमः, 'केवइया णं भंते! ओरालियसरीरा पण्णत्ता' इत्यादि, ताणि य सरीराणि जीवाणं बद्धमुकाणि दव्वखेत्तकालभावेहिं साहिज्जति, द्रव्यैः प्रमाणं वक्ष्यति अभव्यादिभि:, क्षेत्रेण श्रेणिप्रतरादिना, कालेनावलिकादिना, भावो द्रव्यान्तर्गतत्वान् न सूत्रेणोक्तः, सामान्यलक्षणत्वाच्च वर्णादीनामन्यत्र चोकत्वात्, 'उरालिया दुविहा बछिया मुलिया, बद्धं गृहीतमुपात्तमित्यनर्थान्तरं तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया इत्यादि सूत्रं । इदानीमर्थतः संखेज्जा असंखेज्जा पण वरंवि संखातुं एत्तिएण जहां इत्तिया णाम कोडिप्पभितिहि तवोऽवि कालादीहिं साहिज्जति, काळतो वा समए समए एकेक सरीरमवद्दीरमाणमसंखेज्जाहि उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति, सितओवि असंखेज्जा लोगा, जे यद्धिला तेदिवि जइवि एकेके पदेसे सरीरमेकं विजति ततोविय असंखज्जा लोगा भवंति, किंतु अवसिद्धतदोस परिहारत्थं अप्पणप्पणियाहि ओगाहणाहिं ठविज्जति, आह-कमणता मोरालसरीरीणं असंखेज्जाई सरीराई भवंति, आयरिय आह-पत्तेयसरीरा असंखेज्जा, तेसि सरीरावि ताव एवइया चैव बद्धेञ्जया, मुझेल्लया अनंता, कालपरिसं खाणं अनंताणं उस्सप्पिणी अब सप्पिणीणं समयरासिप्पमाणमेत्ताई, खेत्तपरिसंखाणं अनंताणं लोगप्पमाणमेत्ताणं खेत्तखंडाणं पदेसरासिप्पमाणमेत्तारं दध्वओ परिसंखाणं अभव्यसिद्धियजीवरासीओ अनंतगुणाई, ता कि सिद्धरासिप्पमाणमेत्तारं होता है, भण्णति-सिद्धाणं अणतभागमेसाई, आह ता किं परिवडियसम्मदिहिराक्षिप्यमाणाई होज्जा १, तेसिं दोन्हवि रासणं मज्झे पाडिज्जतित्ति का भण्णइ जदि तप्पमाणाई होताई ततो तो चेत्र निबेलो होवि, तम्हा ण तप्पमाणाइं, तो किं तेसिं हेट्ठा होज्जा ?, भण्णइ-कयाई हेट्ठा कयाई वा होंति कदाई तुल्लाई, तेण सदाऽनियतत्वात् ण णिच्चकालं तप्पमाणंति ण तरि वोत्तुं, आइ-कहूं मुकाई अणताई भवंति उरालिमाई ?, जदि ताव ~92~ औदारिक शरीरे बद्धमुक्तविचार: ॥ ८८ ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२|| श्रीअनु रालियाई मुकाई जाव अविकलाई ताव घेप्पंति, सो तेर्सि अणंतकालवत्थाणाभावतो अणंतत्तणं ण पावइ, अह जे जीवेहि पोग्गला ओरा-II हारि.वृत्तौलियतण घेतं मुक्का तीतद्धाए तेसिं गहणं, एवं सब्बे पोग्गला गणभावावण्णा, एवं तं भण्णति-अभवसिद्धी एहितो अणंतगणा सिटाणमा तभागोत्ति तं विरुझति, एवं सम्वविहितो बहुएहि अणंतत्तं पावति, आयरिय आह-ण य अविकलाणामेव केवलाण गहणं एतं. ण याला ॥८९॥ ओरालियगहणमुक्काणं सवपोग्गलाणं, किंतु जं सरीरमोरालियं जीवेणं मुकं होति तं अणतभेदाभण्णं यो ति जाव ते य पोग्गला तं जीव18 णिवत्तियं ओरालियं ओरालियसरीरकायप्पओगंण मुयंति, ण जाब अण्णपरिणामेण परिणमंति, ताव साई पत्तेयं २ सरीराई भणति. & एवमेकेकस्स ओगलियसरीरस्स अर्णतभेदभिण्णतणओ अणंताई ओगलियसरीराई भवंति, तत्थ जाई दव्याई तमोरालियसरी-& भरपोर्ग मुयंति ताई मोक्तुं सेसाई ओरालिवं चेव सरीरनेणोपचरिकाति, कह ?, आयरिय आइ-लवणादिवत , यथा लवणस्य ४) तुलाढककुलवादिष्वपि लवणोपचारः, एवं यावदेकसकरायामपि सैव लवणाख्या विद्यते, केवल संग्याविशपः, एवमिहापि || | प्राण्यंगैकदेशेऽपि प्राण्यंगोपचारः लवणगुडादिवत् , एवगनः तान्यौदारिकादीनि, बाह-कथं पुन तान्यनन्तलोकप्रदेशप्रमाणान्येकस्मिन्नेव लोके अवगाहंत इति, अवाच्यते, गपैकप्रदीपाविषि भवनावभासिन न्येषामध्यतिबहूनां प्रदीपानामधिषस्तत्रयानुप्रविशत्यन्योऽन्याविरोधात्, एवमौदारिकान्यपाति, एवं सर्वशरीरेष्वप्यायोज्यनिति, अत्राह-किमुन्कमेण कालादिभिरुपसंख्यानं कियते ?, कस्माद् । | द्रव्याविभिरेव न क्रियते, कालान्तगवस्थायित्वेन पुद्गलानां सरीरोपचया इतिकृत्वा कालो गरीयान, तस्माउदादिभिरुपसंख्यानमिति । ओरा-IN८९।। | लियाई ओहियाई दुविहाइपि, जहेयाई ओहियओरालियाई एवं सम्बेसिपि एगिंदियाण भाणियव्याई, कि कारण ?, तद ओरालियाइपि ४ ते व पहच्च बुच्चंति । दीप अनुक्रम [२७९ २९२] ~93 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२|| श्रीअनु०४ 'केवतिया ण मैतेयेउब्वियं' इत्यादि, वेउब्विया बवेल्लया असंखेज्जप्पदेसरासिप्पमाणमेसाई, मुकाई जहोरालिबाई । 'केवइयाण मैते ६ क्रियाहाहारि.वृत्ती आहारग' इत्यावि, आहारगाई बढाई सिय अस्थि सिब णस्थि, किं कारण?, जेण तस्स अंतरं जहण्णेणं एक समय, कोसेणं बम्मासा, सेण ण | बरकतेजसहोंविवि कदाई, जदि हॉवि जहण्णेणं एक वा दो वा तिष्णि वा उकोसेण सहस्सपुरत्तं, दोहितो आढत्तं पुत्तसण्णा आव गव, भुकाई जह ओ कार्मणानि ॥१०॥ रालियाई मुकाई। 'केवइयाणं भैते तेयासरीरा पण्णचा?' इत्यादि, या पद्धा अर्णता अणंताई उस्सप्पिणीहिं, कालपरिसंखाणं, खेतओ अणंता लोगा, वव्वनो सिद्धेहिं अणरागुणा सयजीवाणतभागूणा, किं कारणं अर्णताई?, तस्सामीणं अणन्तत्तणतो, आइ-ओरालियाणपि सामिण अर्णवा', आयरिओ पाह-ओरालियसरीरमणवाण एगं भवति, साहारणचणओ, तेयाकम्माई पुण पत्तेयं सब्यसरीरीण, तेयाकम्माई पडुच्च पत्तेयं चेव सन्धजीवा सरीरिणो, ताई च सम्बसंसारीणति का संसारी सिद्धेहिते ऽणन्तगुणा हॉति, सन्यजीवाण अणन्तभागूणा, के पुण ते,ते व संसारी सिद्धेहि अणा, सिद्धा सव्वजीवाणं अर्णतभागो जेण तेण तणाणंतभागूगा भवंति, मुकाई अर्णताई, अणतादि उस्सप्पिणीहिं कालपरिसंखाण, खेत्तओ अर्णता, दोवि पूर्ववत्, दब्बतो सम्बजीवेदि अणतगुणा, जीवधम्मस्स अर्णनभागो, कहं सवजीवा अर्णतगुणा, जाई ताई तेयाकम्माई मुकाई ताई तहेव अणत मेदाभिण्णाई असंखेजकाळपत्यादीणि जीहितोऽणतगुणाई हवंति, केण पुण अणतएण गुणिताई?, व जीवाणंततं तेणेव जीवाणतरण गुणिय जीववागो भण्णति, एत्तियाई होजा, आयरिय आह-एत्तिर्य ण पावति, किं कारणं', | वसंखेजफालावरचालणओ सेसि वव्याण, तो किरियाई पुण हवेज्जा ?, जीववरगस अणतभागो, कई पुण एतदेवं घेत्तवं १, आयरिय आह-ठवणारासीहिं णिदर्शनं कीरइ, सवजीवा दस सहवाई बुद्धीए चप्पंति, तेर्सि वग्गो इस कोडीओ हवंति, सरीराई पुण दससयसहस्साई बुद्धीए अवधारिननि, एवं किं जातं', सरीरयाई जीवेदितो सयगुणाई जाताई, जीवास्स सत्तभागे संबुचाई, गिदरिसणमेतं, इहरहा सम्भावतो ॐॐॐॐॐES का ॥९ दीप अनुक्रम [२७९२९२] ॥ ... अथ 'वैक्रिय'शरीर-अधिकार: मध्ये नारकाणां आदिनां वैक्रियशरीराणां वर्णनं ~94~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३८ १४२] गाथा ||१०७ ११२|| दीप अनुक्रम [२७९ २९२] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ १३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: श्रीअनु० हारि. वृत्तौ ॥ ९१ ॥ एते तिणिवि राम्री अनंता दया एवं कम्मवापि वस्स सहभावितणओ तत्तुखाई भवंति एवं ओहियाई पंच सराई भणिताई । ते 'रइयाणं भंते!' इत्यादि बिसेसिय पारगाणं बेडब्बिगा पल्या जाव. या एव पारगा पुण असंखेजा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीहिं कालप्यमाणं खेसओ असंखेज्जाओ सेढीओ तास पदेसमेन्ता धारगा, आद-ययरंग अर्धजाओ सेडीओ, आयरिय आह-सयलपयरसेडीओ दाव न भवंति जदि दाँतीओ तो पवरं मेष भण्णति, आइतो ताओ मेीओ कि देसूणपवश्वतिणीओ होज्जा, विभागच भागवत्तिर्णाओ होजा?, जा अ णं सेटीओ पतरस्त असंखेज्जतिभागो, एयं विसेसिययरं परिसंखाणं कथं होत, अदवा इदमणं विसेभितंतरं विक्खंभसूईए एएसं संखाणं भण्णति, भगइ-वासि णं सेटीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमयाभूतं वितियवगमूलोप्पाइयं तावइयं जाव असंखेज्जाइसंमितस्स, अंगुलविक्खंभखेत्तबत्तिणो सेडीरासिस्स जं पढमं वमगमूढं तं विवरण बामूळेण पप्पाविज्जवि, एवइयाओ सेढीओ विक्खंभसूई, अहवा इयमण्णप्पारेण पमाण भण्णइ अहवा तमंगुळवितिययग्गमूळपणव्यमाणमेत्ताओ, तस्सेचंगुलप्यमाणखेत्तवत्तिणो सेदिरासिस्त जं वितियं वग्गमूलं तरस जो घणो एवतियाओ सेडीओ विक्खंभसूई, वालि णं ढणं पसरासियमाणमेसा नारगा, तस्स सरीरा च तेलिं पुण ठेवणंगुळे विदारणंदो छप्पण्णाई सेडिबग्गाई अंगुळे बुद्धी घेण्यंति, तरल पढमं मूलं सोलस, बिवियं चचारि तइयं दोणि, तं पढमं सोलसयं चितिएण चक्करण वग्गामूलेण गुणियं चडसडी जाया, वितियवगमूलरस पडकयस्व पणा चेव चउसी भवति एत्थ पुण गणितधम्मो अणुयत्तिओ होति, जदि बहुयं धोवेण गुणिज्जति तेण दो पगारा गुणित, इहस्था विणिवि हवंति इमो तइओ पगारो-अंगुल वितियवग्गमूडं पढमवगगमूळपडुप्पण्णं, पोडशगुणाश्रत्यार इत्यर्थः एवंपि सा देव चड्डी भवति एते सध्ये रासी सम्भावतो असंखेज्जा दडवा, एवं ताई नारगयेउब्वियाई बढाई, मुकाई जोद्दियओरालियाई, एवं सन्यो सरीरीणं सम्बलरशिई मुकाई भाणियम्बाई, यणस्वइतेवाकम्माई मोतुं, ~95~ नारकाणां वैक्रियांगि ॥ ९१ ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२|| श्रीअनुठा देषणारगाणं तेयाकम्माई दुविहाईपि सहाणवेसध्वियसरीराई, सेसाणं षणसतिबज्जाणं खदाणारालियसारसाई । इवाणिं जस्स ण भणिय पुरावा हारि.वृत्तात क्रियाणि भणीहामो-'असुगमाराणं भंते' इत्यादि, असुराण घेउध्विया पद्धेल्लया असंखेज्जा, असं आदि जसप्पिणीहि कालओ, सहेव खेत्तओ असं-IC ।। ९२ ॥ खेज्जाओ सेतीओ पतरस्स असंखेजतिभागो, तामिण सीण विक्संभसूई अंगुळपढमवग्गमूलस्स संखज्जतिभागो, तस्स गं अंगुलविखंभ-1 खेत्तवत्तिणो सेविससिस्सस पदम वमामूलं तत्व जामो सेगीओ तासिपि संखेजतिभागो, एवं नेरदपहितो संखेन्जगुणहीणा विक्संभसूई।। भवति, जम्हा महादंडावि असंखाजगुणहीणा सम्बे चेष भुवणवासी खणष्पमापुषिनेरहादिलोवि, किमु न सम्वाहतो .. एवं जाव थपियकुमाराणंति, पुढविआउतेउस्स उपडाज फंटा भाणियब्वा । 'बाउकाइयाणं भंते!' इत्यादि, बाउकाइयाण बेडब्बिया बहेल्लया असंखज्जा, समए समए अवहीरमाणा पलिओवमस्त असंवजनिभागनेणं कालेणे अवहीति, जो चेवणं अवहिता सिया, सूर्य, कई पुण पलिओवमरस असंखजतिभागसमयमेत्ता भति', आयरिय आइ-वाफकाइया पब्विहा- मुहुमा पश्चतापजना, पादरावि व पम्जत्ता अपाजता, तत्थ तिष्णि रासी पनेर्य असंखयाटोगप्पमाणपदेसतिप्पमागमताजे पृण वावग पाजता से पनरासंखेजतिभागमेत्ता, तत्थ ताव दिई रासीणं वेउब्बियलली व पश्थि, पायरपाजताणपि अमेजतिभागंभताण पडी अस्थि, जेसिपि लही अस्थि तओवि || पटिओषमाऽससेग्जभागसमयमेता संपर्य पुच्छासमा वेब्धियनिगा, कई भणनि-सम्वे बेषिया बायंति, अवेरब्बियाणं वाणं चेवर। ण पवत्चचि, ण जुज्जति, कि कारणं , जेण सब्बेसु चेच लोगादिसु चळा पाययो विति, सम्हा अबेडब्वियापि वार्तवीति घेचव्वं ॥९२ ।। समावो ते से वाईयब्धं, 'वणफरकाझ्याण' मित्यादि कंठय ।। दीप अनुक्रम [२७९ २९२] ~964 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२|| श्रीअनु: 'बदियार्ण मंत!' इत्यादि, विओरालिया बजेशपा असंविजाहिं उस्मपिणी ओसप्पिणीहि काळपमाणे संचव, खेतओ असंख- दीन्द्रिया दीनां हारि.वृत्ती| जाओ सेडीओ, तहेव पयरस्म असंखज्ज इभागो, केवलं विफलंगसूईए विसेको, विक्संभसूई असंखनाओ जोयणकोडाकोडीआत्ति विसमिती परं परिसंखाणे, अहवा इदमणं विससिततरं-असंखेकजाई सेटिवगमूलाई, कि भणित होति?, एककाए सेदीए जो पदेसरासी पदमं वग्गमूलं ॥ ९३ ॥ विवि त जाव असंखेजाई वगमलाई संकलियाईजो पाएसरासी भवति तापमाणा विक्खंभई पेपियाणं, णिदरिसणं-सेढी पंचसहिसहस्साई पंच सयाई छत्तीसाई पदेसाणं, तीसे पढ़मं वगमूलंबे सवा छप्पण्णा बितियं सोलम तइ चारिचउत्थं दोष्णि, एवमेताई वगमू-14 लाई संकलिताई दो सता असत्चग भवंति, एवइया पदेसा, तामिण वीर्ण विक्खंभसूईए, ते सम्भावाओ असंखजा वगमूलरासी पत्तेल पत्तेयं घेत्तया । इदाणिं इमा मग्गणा-किपमाणाहिं ओगाहणाहिं रइजमाणा दिया पयरं पूरिकनु ?, लसो इम सुत्तं वेईदियाणं ओरालियबदल्लयहिं पयर अवहीरति असंखेग्जाहिं उत्सपिणीआसपिणीदि काहओ, तं पण पतरं अंगुलपतरासंखेन्जभागमेचाहिजओगाहणाहिर रइजनीहिं सब पूरिज्जति, तं पुण केवइएणं कालेणं रइज्जइ वा पूरावा?, भण्णति, असंखेम्जादि उस्सपिणीओसप्पिणीति, कि पमाणेण पुण खेतकालावहारेणी, भण्गइ-अंगुलपतरम्स आवलियाए य असंखेजतिपलिभागेणं जो सो अंगुलपतरस्स असंखेजतिभागो एपहिं पलिभागेहि हीरति, एस खेतावहारो, आह असखेतिभागरगहण चेव सिद्धं कि पलिभागम्यहणेणं', भण्णनि-एक वेदियं पति जो भागो सो पलिभागो, जं भाणसं अवगाहोत्ति, कालपलिभागी अवलियाए असंखेजतिभागो, पण आवलिभ.ए असंखजइभागमेनेर्ण कालपलिभागे ||९३ एकको खेतपलिभागो सोहिज्जमाणेहिं सब लोगपतरं सोहिग्जइ खेत्तो, कालो असंखेजाहिं उत्सप्पणियोसपिणादि, एवं इंदियोरा-1 दालियाणं भयमभिहितं संखपमाणं ओगाहणापमाणं च, एवं इंदियघारिरियपंचदियतिरिक्खजोणियाणवि भाणितव्याणि, पंपियतिरियसवे दीप अनुक्रम [२७९२९२] ~97 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३८ १४२] गाथा ||१०७ ११२|| दीप अनुक्रम [२७९ २९२] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ १३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: श्रीअनु० हारि. वृत्तौ ॥ ९४ ॥ उब्वियबल्या असंलेज्जा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणी काळतो तब खेतओ असंखेज्जाओ सेढीओ पतरस्स असंखेज्जशिभागे विक्भसूई, नवरं अंगुलपटमवामूलस्स असंखेज्जतिभागो, से जहा असुरकुमाराणं । मणुयाणं ओलिय तथा सिय संखेज्जा थिय असंखेज्जा, जहण्णपचे संखेज्जा, जस्थ सम्बधोवा मणुस्सा भवंति आइ-क एवं ससमुच्छिमाणं गाणं अह तव्विरहियाणी, आयरिय आह-ससमुच्छिमाणं गाणं, किं कारणं १, गम्भवमंतिया जिच्चकालमेव संजा, परिमिक्षेत्रवर्त्तित्वात् महाकायत्वात् प्रत्येकशरीरवर्तित्वाच्य तस्स सेतराणां महणं उोसपदे, जहणपदे गम्भवतियाणं चेव केवळाणं किं कारणं? जेण संमुखिमाणं पडली मुहुचा अंतरं अंतोमुद्वत्तं च ठिती, जद्दण्णपदे संखेज्जन्तिभणिते ण णज्जति कयरंभि संखेज्ज होगा, वेणं विसेसं कारेति, जहा संखेज्जाओ कोढीओ, इणमण्णं विवक्षिततरं परिमाणं ठाणणिरेस पडुच्च वुहचवि, कई ?, एकूणती सहाणाणि, तो सामविगाए सण्णाए णिसं फीर, जहा-विजमलपदं एक्स्स उपरि चतुजमलपदस्य हेडा, किं भणितं होति १, अहं २ ठाणाणं जमछपदचि सण्णा सामयिकी, तिष्णि जमलपदाई समुदियाई डिजमकपदं अहवा तइयं जमपरं तिजमलपदं, एवस्स विजमलपदस्त उपरिमेसु ठाणेसु व ंति, जं भणितं चबीसहं ठाणाणं उवरिं बरंति चत्तारि जमलपदाई चउजमढपदं अक्ष पर जमपदं २, कि बुचं १ बत्तीसं ठाणाई चरजमलपर्व, एयस्स चउजमलपदस्स हेडा बरंति मणुस्सा, अण्णेहिं तिहिं ठाणेहि न पार्वति जवि पुण बसीस ठाणाई पूरंगाई तो चराजमपदस्स सवार भण्णंति, वंण पावंति तम्हा हेट्ठा भ्रांति अइमा दोणि वम्मा जमलपदं भण्णति, छ बग्गा समुदिता तिजमलपदं, अहवा पंचमच बग्गा वइयं जमलपदं, अट्ट बग्गा पारि जमपदाई परजमढपदं, अड्वा सतमअट्टम दम्मा चड जमलपदं, जेणं छष्टं बग्गाणं उबरिं वरंति सत्तममाणं च हेतु', तेण तिजमलपदस्स बिउजमलपदस्स देठ्ठा भण्णंति, संखे ••• अत्र "मनुष्याणां संख्यानां वर्णनं क्रियते ~ 98~ मनुष्याणां संख्या ॥ ९४ ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२|| ॥९५॥ श्रीअनु साओ कोटीओ ठाणविसेसेणाणियनिवाउ । राणि विधियतरं फुई संस्थाणमेष णिदिसति, जहा 'अहवा अनं-छवमो पंचमवम्यहारिपचोक | पप्पण्यो, पम्मा ठविनंति, तंजा-एकस्स पम्मो एको, एस पुण बट्टी रहिओचिका पम्गो व ण भवति, तेण दोण्ह पम्गो पसारि एस पढमो वग्गो, एतस्स बम्गो सोळस एस बितिओ वग्गो, एतस्य वम्गो ये ससा छप्पण्णा एस नईओ कमी, एक्स वनो पहिओ सहस्माई पंच सताई छत्तीसाई एस चउत्थो बग्गो, एतस्स इमो सम्मो, संजदा-चत्तारि कोटि सता अढणसिं च कोडीओ अक्षणावष्णं च सतसहस्साई सत्तट्ठी सहस्साई यो व सवाई छण्णुया, इमा ठवणा-४२५४९६७२९६ एस पंचमो बग्गो, एतस्स गाहाओ-बत्तारि योखिसबा पणत्तीसं पहाति कोडीओ | अषणापण्णं लक्खा सत्ताईचेव य सहस्सा ॥१॥दोबसया छण्णउया पंचमवग्गो समासतो होइन। एतस्स कमओ वग्गो छहो जोड योगा।' एयरस पंचमवनस्स इमो बम्गो होति एका कोडाफोडिसयसहसंपतरासीह कोडाकोटि मास्था पत्तारि य कोदाकोटि सया सत्चहिमेव कोसीओ चत्ताहीसं चकोवि सतसहस्सा कोडिसहस्सा लिणि य सयरा कोडीसता पंचाणाई सतसहस्सा एकावण्णं च सहस्सा एकच सता सोलमुत्तरा, इमा ठवणा१८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ एस बहो वम्गो, एतस्म गाहाओ 'लक्खं कोडाफोडीओ चउरासीई मेवे सहस्सा । चत्तारि व सचहा होति मया कोडिकोण ॥१॥ चोवालं लक्खाई कोडीणं सत्त चेव य | सहस्सा | तिणि सया सत्तारा कोडी होति णायव्वा ॥२॥ पंचाणाई लक्खा एकाक्ष्णं भवे सहस्साई । छ सोलसुत्तर सया य एस बडोदू हवति वग्गो ॥३॥ एत्थ य पंचनद्वेहि पओयणं, एस बठ्ठो वमो पंचमेण वमोण पदुष्पाइज्जति, पडुप्पाइए समाणे जे होई एक्श्या जह- गणपदिया मणुस्सा भवंति, ते य इमे एवइया -९२२८११६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६, एक्मेयाई अउणसं ठाणाई एवइका अण्णपरिता मणुस्सा । छ विष्णि२ मुण्णं पंचेव य नव व तिग्ण पत्तारि। पंचेव तिष्णि णव पंच सत्त तिष्णेव|॥१॥ चउछ दो घर ॐॐॐॐॐ ९५॥ दीप अनुक्रम [२७९ ***Sextet २९२] ~99~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........... मूलं [१३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: श्रीअनु: प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२|| ॥९६॥ %A7% एको पण दो छ एक्केक्कगो य अव । दो दो णव सत्तेव य ठाणाई उवरि हुंताई। अहवा इमो पढमक्खरसंगहो-छत्ति तिसु पण तिचपचूमवष्ट| पत्तिण पसति तिच छ दुचएपदुबएए अबे येणस पढमक्खरसंगता ठाणा ||१॥ एते उण गिरभिळापा कोडीहि या कोडाकोडीहिं वचिकाला तेसिं पुणं पुव्यपुर्वगेहि परिसंखाणं कीरति, चउरासीति सतसहस्साई पुग्वंग भण्णाति, एवं एवइतेणं चेव गुणिवं पुवं भण्णइ, तं च इम-सत्तरि | | कोडि सतसहस्साई छप्पणण्णं च कोडिसहस्साई, एतेण भागो हीरति, ततो इदमागतफलं भवति-एकारसपुबोडीकोडीओ बावीसे च पुत्वकोडिसतसहस्साई चउरासीइंच कोडिसहस्साई अट्ठ य दयुत्तराई पुब्बकोडिसता एकासीई च पुव्वसयसहस्साई पंचाणज्यं च पुव्वसहस्साई तिषण य छप्पण्णे पुवसता, एयं भागलद्धं भवति, तो पुवेहि भाग ण पवच्छइति पुवंगेहि भागो हीरति, ततो इदमागतं फलं भवति-एक्कवीसं पुब्वंगसत्तसहस्साई सत्तरी य पुव्वंगसहस्साई उच्च एगूणसट्ठीइ पुब्बंगसताई, तओ इदमण्ण वेगलं भवति, तेसीइ मणुयसतसहस्साई पण्णासं च मणुयसहस्साई तिण्णि य छत्तीसा मगुस्ससता, एसा जहण्णपदियाणं मणुस्साणं पुवसंखा, एतसि गाहातो-मणुयाण जहण्णपदे एक्कारस पुव्व कोडिकोडीओ। बावीस कोडिलक्खा कोडिसहस्सा य चुलसीई॥१।। अढे व य कोडिसया पुठवाण बसुत्तरा तओ होति । एक्कासीती लक्खा पंचाणउई सहस्साई ॥२॥ छप्पण्णा तिणि सता पुव्वाणं पुववणिया अण्णे । एत्तो पुरुवंगाई इमाई अहिवाई. अण्णा ॥शालक्खाइ एक्कवीसं पुष्यंगाण सत्तरि सहस्साई । उच्चेवेमूणहा पुब्बंगाणं सया हॉति ॥ तेसीति सयसहस्सा पण्णासं खलु भवे सह-IV साई। सिणि सया छतीसा एचनिया वेगला मणुवा ॥५॥ एवं चेव य संखं पुणो अमेण पगारेण भण्णति विसेसोवल भणिमित्तं, तंजहा-'अहवा HIN||९६॥ अण्णं छष्णउतिछदणदो य रासी' छन्नई छेदणाणि जो देह रासी सो छण्णउतिछेदणदायी, किं भणितं होंति ?, ओ रासी दो वारा छरेण छिज्जमाणो छिज्जमाणो छण्णउति वारे छेद देह सकलस्वपज्जवसित तत्तिया का जहन्नपविया माणुस्सा, तत्तिओरालिया बढेहया, को पुण दीप अनुक्रम [२७९२९२] A4%AC % ~100 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: श्रीअनु हारि.वृत्ती प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२|| ॥९७॥ रासी छनउतिळवणतदाई होना?, भण्णइ-एस चेव छट्ठो बग्यो पंचमवम्गपदुप्पण्णो जइओ भाणतो एस बन्नति छेदणए देति, को पचआर, मनुष्य भण्णइ--पढमवग्गो छिज्जमाणो दो छेदणते देति बितिओ चत्वारि तइओ अट्ठ चउत्यो सोलस पंचमो बत्तीस छट्टो चउसट्टी, एतेसि पंचम- शरीर मानं छहाणं वगाणं छेयणगा मेलिया छण्णउति हति, कई पुण', जहा जो वग्गो जेण जण वग्गेण गुणिज्जद सि दोहवि तत्व छेयणात लभंति, जहा बिनियवग्गो पढ़मेण गुणितो हिज्जमाणो छेदणे छ. देह, वितिएण तइओ बारस, सइएण उत्थो गुणिओ चउवीस, चउत्थेण | पंचमो वग्गो गुणितो अडयालीस छेदणे देव, एवं पंचमएणविछट्टो गणिओ छण्ण रइ छेदणए देइत्ति एस पञ्चओ, अहवा रूव ठवेऊण त छष्णउतिवारे दुगुणादुगुणं कीरइ, कतं समाणं जइ पुठवभणितं पमाणं पावद तो छेज्जमाणपि ते चेव छेदणए दाहित्ति पञ्चओ, एत जहण्णपदेऽभिहितं, उक्कोसं पदं इवाणि, तरथ इमं सुत्तं 'उकासपदे असंखेज्जा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि अवहीरति कालओ खिचओ रूवपक्वित्तेहि मणूमेहि सेढी अबहीरति, कि भणित होइ ?, उफोसपदे जे मंणूमा हवंति तेसु एकमि मणुसरूवे पक्खिते समाणे तेहि मणूमेदि सेढी अवहीरीत, तसे य सेढीए कालखेत्तेहिं अबदागे मगिजाति, कालतो ताव असंखेजाहिं तस्सपिणिओसपिणीहि, खेत्तो अंगुलपढम वगमूलं तइयवमामूलपडुपण्णं, कि भणितं होति?-तीसे सेटीए अबहीरमाणीए जाव लिट्ठाइ वाव मणुस्सावि अवहीरमाणा णिठंति, कहमेगा सेढी एहमेतेहि खोहिं अबहीरमाणी २ असंखेग्जादि उस्मप्पिणिओसप्पिणीहि अवदीरति !, आयरिओ आह- सत्तःतिसुटुमत्तणओ, सुते व भणित- मुहुमो य होइ कालो तत्तो मुहुमवरयं हववि खेत्तं । अंगुलसेदीमे उस्सप्पिणीओ असंखाजा ॥१॥ बेउब्वियमद्धेलया समए २ अबहीरमाणा असंखेवजेणं कालेणं अवहीरति, पाठसिद्धं । आहारय णं जहा ओहियाई। 'वाणमंतर' इत्यादि, वाणमंतरखेउब्धिया असंखेमा असोजादि ओपपिणि उस्सपिणीहि अबद्दीप्रति तद्देव से जाओ सेदीओ तहेव विससो, तासिणं सेढीणं 1 दीप अनुक्रम [२७९ ॥९. २९२] ~101 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३८ १४२] गाथा ||१०७ ११२|| दीप अनुक्रम [२७९ २९२] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ १३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: श्रीअनु० हारि. वृत्ता ।। ९८ ॥ विक्संगसूई, किं वक्तव्येति वाक्यशेषः, कंठ्यं किं कारणं, पंचदियतिरियओरालियसिद्धत्तणओ, जम्हा महादंड पंचेदिपतिरियणपुंसहिंतो असंखेजगुणहीणा वाणमंतरा पढिज्जति एवं विभती तेसि तो तेहिंतो असंखेज्जगुणहीणा चैव भाणिवया । इदाणि पलिभागो संखेज्जजोयणसतबम्गपलिभागो पतरस्स, जं भणितं संखेज्जजोयणबग्गमेत परिभागे एकेके वाणनंतरे ठबिज्जति सम्मेचपळिभागेण देव अहीरतित्ति । ' जोइसियाण मित्यादि, जोइसियाणं वेडया पल्या असंखिज्जा असंखा उस्सपिणीओसी अहीरंति कालतो, सेराओ असं जाओ टीओ पयरस्त असंखिज्जविभागोति, तहेव सेवियाणं सदीर्ण विक्खंभसूई, किं वक्तव्येति वाक्यशेषः किं चातः श्रूयते जम्दा वाणमंतरेदितो जोइसिया संविज्जगुणा पढिज्जति तदा विक्संभवितेति तेर्दितो संखेज्जगुणा चैव भण्णइ, गवरं परिभागबिसेसेो जहा बेटप्पण्णंगुलसते वम्मापलिभागो पतरस्त, एवतिए २ परिभागे उनिमाणो एककेको जोइसिओ सबहिं सध्यं पतरं पूरिज्जइ सहेब सोद्दिण्यतिथि, जोइसियाणं याणमंतेरहिंतो असेखिज्जगुणद्दीगो परिभागो संखेज्जगुण बहिया सूई । 'वेमाणिय' इत्यादि, बेमाणियाणं वेडब्बिया बद्वेल्ल्या असंखेज्जा काढओ तदेव खेतओ असंखेज्जतिभागो, तासि णं णं विभसूई अंगुलवतियग्गमूलं तइयवग्गमूळपडुप्पण्णं, अहया अन्नं अंगुलित ईयवमामू उघणप्यमाणमेचाओ बेटीओ सहेव, अंगुलविक्वं भले तबत्तिणो सेटिरासिस पमूलं चितियंतइचत्य जावे असंखेज्जाईति तेसिपि जं वितियं वग्गमूलसेढिपदेसरासिस्स (तं इएण ) पगुणिज्जति, गुणिते जं होइ तत्तियाओ सेडीओ विक्खंभसूई भवति, तइयरस वा वग्गमूलस्स जो घणो एवतियाओ वा विक्खंभसूई, निरिक्षणं तद्देव, बेछप्पण्णसत्तमं गुतिस्त्र पढमग्गमूल सोलस, वितियं तइएण गुणितं अट्ठ भवति, तइयं वितरण गुणितं, ते च अट्ठ, वतियरस बि घणो सोबि ते अट्ट एव, एया सम्भावओ असंखेज्ञा रासी दहव्वा, एवमेयं वैमाणियष्यमाणं जेरइयप्पमाणाओ असंखिजगुणणं भवति, किं ~102 बैक्रिय शरीरिमान ॥ ९८ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४३ १४४] गाथा ||११३ ११५|| दीप अनुक्रम [२९३ २९७] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१४३-१४४] / गाथा [११३-११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४] भूमिकामसूत्र २२] "अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः श्रीअनु० हारि. वृती ॥ ९९ ॥ कारणं १, जेण महादंडए बेमानिया जेरइरहिंतो असंखेज्जगुणहीणा देव भण्णंति एतेहिंतो य णेरड्या असंखिजगुणग्भाद्देअत्ति, 'जम समयविरुद्धं बद्धं बुडि (द्धि) विकले होजाहि वं जिणवयणविन्नू समिकणं मे सोहिं ॥ १ ॥ सरीरपदस्व चुण्णी जिण मद्दखमासमणच्या समता, से ते कालप्यमाणेति, उतं कालप्रमाणं । साम्प्रतं भावप्रमाणमभिधित्सुराह से किं तं भावप्यमाणे' इत्यादि ( १४३-२१०) भवनं भूतिर्वा भावो वर्णादिज्ञानादि, प्रमितिः प्रमीयतेऽनेन प्रमाणोतीति वा प्रमाणं, सत्तश्च भाव एव प्रमाणं भावप्रमाणं, त्रिविधं प्रज्ञप्तं ( १४४-२१० ) तद्यथा-ज्ञानमेव प्रमाणं तस्य वाप्रमाणं ज्ञानप्रमाणं गुणप्रमाणमित्यादि, गुणनं गुणः स एव प्रमाणहेतुत्वाद् द्रव्यप्रमाणात्मकत्वाच्च प्रमाणं, प्रमीयते गुणैर्द्रव्यमिति, तथा नीतयो नयाः अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिचिन्तयः तद्विषया वा ते एव वा प्रमाणं जयप्रमाणं, नय समुदायात्मकत्वाद्धि स्याद्वादस्य समुदायसमुदायिनोः कथंचिदभेदेन नया एवं प्रमाणं नयप्रमाणं संख्याप्रमाणं नयसंख्येति वाऽन्ये, नयानां प्रमाणं नयप्रमाणमिति कृत्वा, संस्थानं संख्या सैव प्रमाणहेतुत्वात्संवेदनापेक्षा स्वतस्तदात्मकत्याच प्रमाणं संख्याप्रमाणं, आद-संख्या गुण एव यत उक्त संख्या परिमाणे इत्यादि तस्किमर्थं भेदाभिधानमिति १, उच्यते, प्राकृतशैल्या मानश्रुतावप्यनेकार्थताप्रतिपादनार्थं वक्ष्यति च भेदतः संख्यामप्यधिकत्यानेकार्थतामिति शेषं सूत्रसिद्धं यावदजीवगुणप्रमाणं । जीवगुणप्रमाणं त्रिविधं प्रज्ञतं, ज्ञानगुणप्रमाणमित्यादि, ज्ञानादीनां ज्ञानदर्शनयोः सामान्येन सत्य चारित्रस्यापि सिध्याख्यापयोपचारेण न दोष इति गुरवस्तु व्याचक्षते -कम| वर्त्तिनो गुणाः सद्दवर्त्तिनः पर्याया इत्येतदव्यापकमेय, परिस्थूर देशनाविषयत्वात् भावैस्वहाणमिति न दोषः 'से किं त' मित्यादि, अथ किं तज्ज्ञानगुणप्रमाणं वञ्ज्ञानगुणप्रमाणं चतुर्विधं प्राप्त, तद्यथा- प्रत्यक्ष मित्यादि, तत्र प्रतिगतमक्षं प्रत्यक्षं, अनुमीयतेऽनेनेत्यनुमानं, उपनीयतेऽने ~103~ ~ भाव प्रमाणे भेदाः ॥ ९९ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१४३-१४४] / गाथा [११३-११५] ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१४३१४४] गाथा ||११३११५|| श्रीअनु०का नेत्युपमानं, गुरुपारम्पयेणारतीत्यागमः । अथैतद व्याचष्टे-अथ किं तत्प्रत्यक्षी, प्रत्यक्षं विविध प्रक्ष, नापा-इंद्रियप्रत्यक्षं च नोइंद्रियपत्यक्षं | जायज्ञान हार वृत्ताच, सत्रेन्द्रिय ओप्रादि, सनिमित्तं यदसैनिक शब्दादिज्ञानं तर्विद्रियप्रत्यक्षं व्यावहारिक,मोनिय प्रत्यय नु यदात्मन एवालिनिकमवध्यादीनि | गुणे ॥१०॥ IN समासार्थक, व्यासास्तु नंद्यध्ययनविशेष विवरणादेवायसेयः, अक्षराणि तु सुगमान्येव यावत्प्रत्यक्षाधिकार इति । उक्तं प्रत्यक्ष, अधुनाऽनुमान-अप्रत्यक्षमनु मानं च मुख्यते-तथा चाह-से कि अणुमाण?' अनुमान विविध प्रशार, तद्यथा-पूर्ववत शेषवत धमाधम्यंत्रक यति । से कितं पुध्यवमित्यादि, विशे-151 पत: पूर्वोपलब्ध लिभ पूर्वमित्युच्यते, तदस्यास्तीति पूर्ववत , तद्वारेण गमकमनुमानं पूर्ववदिति भावः, तथा चाह-'माता पुतं' इत्यादि (११४-10 २१२। माता पुर्व तथा नई पालयावस्थायां युधानं पुनरागसं कालान्तरेण काचिन स्मृतिमती प्रत्यभिजानीयात् मे पुत्रोऽयमित्यनुभिनुयात् पूर्वलिगेनोक्तस्वरूपेण केनचित, यथा-शतेन व स्यादि, मरपुत्रोऽयं तव साधारणलिंगक्षसोपलव्ध्यन्यथानुपपत्ते, साधम्र्यवेधम्यष्ठान्सयो: सी-13 तराभावावयमहेतुरिनि चेन , न, हेनोः परमार्थनिकलक्षणवान समभापत एबमोपलम्धेः, उक्तं च न्यायवादिना पुरुषचंद्रेण-"अम्पयानुपपन्नत्वमा हेतोः खलक्षणम | सच्यासवे हि तद्धर्मों, दृष्टान्तद्वयलक्षणः ॥ १॥ तदमावेशगभ्यां तयोरेव खलक्षणायोगादिति भावना, नथा 'धूमादेयथापि स्याखां, सत्यासत्वे च लक्षणे । अन्यथानुपपनत्वप्राधान्याममणकता ||शा' किंच-"अन्यथानुपपनत्वं, या तत्र जयेण किमा। इत्यत्र बहु बकाय, नपच प्रन्धविस्वरभयादन्यत्र च यत्नेनोकरवानाभिधीयत इति । प्रत्यक्षविषयत्वादेवास्यानुमानलकास्थानमयुक्त, न, पिण्डप-17 सिदिचावपि पुत्री न पुत्र इति संदेहान् पिंडमात्रम्य च प्रत्यक्षविषयत्वात मत्पुत्रोऽयमिति चाप्रतीते सकिनस्वादिति कृतं प्रसंगन, प्रकृतं प्रस्तुम:, | तय क्षतमागन्तुको प्रण: लाञ्छनं मसतिलकाः प्रीतास्तदेतत्पूर्ववदिति । 'से कि सेसव' मित्यादि, उपयुक्तागोऽन्यः स सेप इति कार्यादि ॥१०॥ गृह्यते, सदस्याम्तीति शेपबद्, भावना पूर्ववयिनि, पंचविध प्रज्ञम, सयथा 'कार्येणे' स्य.वि, नत्र कार्यण कारणानुमानं यथा इय:-अध: हिसितेन दीप अनुक्रम [२९३२९७] ~104 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४३ १४४] गाथा ||११३ ११५|| दीप अनुक्रम [२९३ २९७] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१४३-१४४] / गाथा [११३-११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: श्रीअनु० हारि. वृत्तौ ॥१०१॥ शब्दविशेषेणानुभिन्वत इत्यध्याहारः, तत्कार्यत्वासितस्य, एवं शेपोदाहरणयोजनापि कार्येति । तथा कारणेन तंतवः पटकारणं (न) पट तंतुकारणमित्यनेनैतत् ज्ञापयति- कारणमेव कार्यानुमापकं नाकारणं, पटः तन्तूनां तत्कार्यत्वात्तस्य, आह-निपुणवियोजने तत एव तंतुभावास्पटोऽपि तन्तुकारणामिति, ननु तत्त्वनोपयोगित्वाभावात्तदभाव एव तन्तुभावादिति, न, नैव पटोत्पत्तौ सर्वथैव तन्त्यभावस्तेषामेव तथापरिणतिभावेनोपयोगात्, न चोद्यं पटपरिणाम एव तंतवः, तत्त्वेनोपयोगित्वाभावाद्भावे च पटभावेऽपि तंतुवत् पुनस्तंतुभावेऽपि पट उपलभ्येत न चोपलभ्यत इत्यतस्तंतवः पटकारणं, न पट: संतुकारणमिति स्थितं इदं च मेोन्नतिः वृष्टिकारणं चन्द्रोदयः समुद्रवृद्धेः कुमुदविकासस्य चेत्याद्युपलक्षणं वेदितव्यं गुणेन सुवर्ण निकपेण, तद्वतरूपातिशयेनान्ये, तद्गुणत्वाचस्य, एवं शेषोदाहरणयोजनाऽपि कार्या, अवयवेन सिंह दंष्ट्या तदवयवत्वात्तस्य, आह-तदुपलब्धौ तस्यापि प्रत्यक्षत एवोपलब्धेः कथमनुमानविषयता १, उच्यते, व्यवधाने सत्यन्यतोऽनुमेयत्वाद्वा न दोषः एवं शेषोदाहरणयोजना कार्येति, नवरं मानुष्यादिकृतावयवोऽभ्यूझ इत्येके, अन्ये तु द्विपदमित्येवमादिकमेवावयवमभिदधति, मनुष्योऽयं तद्विनाभूत पदद्वयोपलभ्यन्यथानुपत्तेरिति, गोम्ही कर्णसृगाली, वयाऽऽभवेणानि धूमेन, अत्राश्रयतीत्याश्रयो धूमो यत्र गृह्यते, अयं चाग्निकार्यभूतोऽपि तदाश्रितत्वेन लोकरूडेर्भेदेनोक्त इति, शेषोदाहरणयोजना सुगमा, तदेतच्छेषवदिति । 'से किं तं दिट्टसाधम्म' मित्यादि, साधर्म्यवत् द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा सामान्यदृष्टं च विशेषदृष्टं च तत्र सामान्यदृष्टुं यथा एकः पुरुषः तथा बहवः पुरुषा इत्यादि, सामान्यधर्मस्य तद्भावगमकत्वादिति विशेषदृष्टं तु पूर्वदृष्टपुरुषादि प्रत्यभिज्ञातं सामान्यधर्मादेव विशेषप्रतिपत्तेरित्यमुनाऽशेनानुमानसा, ' तस्स समासतो ' इत्यादि, तस्येति सामान्येनानुमानस्य समासतः संक्षेपेण त्रिविधं ग्रहणं भवति, तद्यथा अतीतका ग्रहणमित्यादि, ग्रहणं परिच्छेदः, तत्राती तका ग्रहणं उद्भततृणादीनि दृष्ट्राऽनेन दर्शनेन तदन्यथानुपपत्त्या साध्यते यथा सुदृष्टिरासीदिति, प्रत्युत्पन्नकाळग्रहणं तु साधुं गोचरागतं भिक्षां ~105~ ~ अनुमान प्रमाणं ॥१०१॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१४३-१४४] / गाथा [११३-११५] .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] “अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत श्रीअनुः हारि.वृत्ती + सूत्रांक [१४३१४४] गाथा ||११३११५|| ॥१०२॥ % | प्रविष्ट विचदिन' गृहस्थपारितापनिकया प्रचुरमापर्याप्तः भक्तपानं यस्य स तथाविधं तं दृष्ट्रा तेन साध्यते मुभिक्षं वर्तत इति, अनागतकालमहणं अभ्रनिर्मलस्वादिभ्यः साध्यते भविष्यति सुदृष्टिरिति, विशिष्टानाममीषां व्यभिचाराभावान , व्यत्ययः सूर्य, इत्युक्तमनुमान। 'से किं तं उबम्मेाटा प्रमाण इत्यादि, औपम्य विविध प्रशम, तद्यथा-साधोपनीतं च वैधयोंपनीतं च, तत्र साधोपनीतं त्रिविध-किचित्साधर्म्य प्राय:साधय सर्वसाधर्म्य, किंचिरसाधम्र्थ मन्दरसर्षपादीनां, नत्र मदरसर्षपयोर्मूर्तत्वं समुद्रगोष्पदयोः सोबकत्व आदित्यखयोतकयो: आकाशगमनोयोतनवं चन्द्रकुंदयोः शुक्षुत्वं, प्रायःसाधयं तु गोगवययोरिति, ककुदपुरविषाणावेः समानत्वान्नवरं सकम्बलो गौHतकंठस्तु गवय इति, सर्वसाधर्म तु नास्ति, तदमेदप्रसंगात् , प्रागुपन्यासानर्थक्यमाशंक्याह-तथापि तस्य तेनैवौषम्यं क्रियते, तद्यथाऽहंता अईता सदृशं तीर्थप्रवर्तनादि कतमित्यादि, स एव तेनोपमीयते, तथा व्यवहारसिद्धः, तदेतत्साधोपनीतं, धोपनीतमपि त्रिविध-किंचिद् वैधम्योपनीत किंचिौधये शाबलेवबाहुलेययोभिन्ननि| मित्तत्वात् जन्मादिन एव, शेष तुल्यमेष, प्रायोवैषम्य वायसपावसयो: जीवाजीयादिधर्मवैधरिसरवायभिधानवर्णद्वयसाधर्म्य चास्त्येव, सर्ववैधयं एतत्सकलातीतादिविसरशं तत्प्रवृत्त्यभावादतस्तदपेक्षया वैधय॑मिति, तदेतद्वैधोपनीतमित्युक्तं उपमान । 'से कितं आगमे त्यादि, नंद्यध्यबनविवरणादवसेयं याव से तं लोउत्तरिये आगमे' अहया आगमे तिषिहे पन्नते, जहा-सुत्तागम' इत्यादि, सत्र च सूत्रमेवागमः सूत्रागमः तदभिधेयश्चार्थोऽर्थागमः तदुभयरूपः तदुभयागमः, अथवा आगमविविधः प्रशतः, तयधा-आत्मागम इत्यापि, सत्रापरनिमित्त बास्मन एवागम आस्मागम यथाऽहंतो भवत्यात्मागमः स्वयमेवोपलब्धेः, गणधराणां सूत्रत्त्यात्मागमः अर्थस्थानन्तरागमः, अनन्तरमेव भगवतः सकाशाद M॥१०॥ |पदानि भुला स्वयमेव सूत्रमन्यनादिति, रक्त-'अत्थं भासद अरहा सुत्तं गुंधति गणहरा विषण मित्यादि, गणधर शिष्याणां जंघस्वामिप्रभुतीनां सूत्रस्थानन्तरागमः गणधरादेष श्रुतेः अस्य परंपरागमः गणधरेणैष व्यवधानात् । तत कार्य प्रभवायपेक्षया सूत्रस्याप्यस्यापि मारमाऽऽगमो दीप अनुक्रम [२९३२९७] ~106 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४३ १४४] गाथा ||११३ ११५|| दीप अनुक्रम [२९३ २९७] श्रीअनु० हारि वृत्तौ ॥१०३॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१४३-१४४] / गाथा [११३-११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: नानन्तरागमः वलक्षणविरहात्, किंतु परंपरागमः इत्यनेन चैकान्तापौरुषेयागमव्यवच्छेदः, पौरुपं तात्यादिव्यापारजन्यं, नभस्थेव विशिष्टशब्दानुपलब्धेः अभिव्यक्त्यभ्युपगमे च सर्ववचसामपौरुषेयत्वं भाषाद्रव्याणां ग्रहणादिना विशिष्टपरिणामाभ्युपगमाद् उक्तं च- गिन्हई य काइएणं णिसरति तद वाइरण जोगेण' मित्यादि, कृतं विस्तरेण, निर्लोठितमेतदन्यत्रेति सोऽयमागम इति निगमनं वदेतत् ज्ञानगुणप्रमाणे । 'से किं तं दंसणगुणप्यमाणे' इत्यादि, दर्शनावरणकर्मक्षयोपशमादिजं सामान्यमात्रग्रहणं दर्शनमिति, उक्तं च "जं सामण्णग्गद्दणं भावाणं कट्टु नेय आगारं । अविसेसिऊण अत्यं दंसणमिति बुच्चए समए ॥१॥" एतदेव आत्मगुणप्रमाणं च इदं च चतुर्विधं प्रज्ञप्तं चक्षुर्दर्शनादिभेदात्, तत्र चक्षुर्दर्शनं तावच्चक्षुरिन्द्रियावरणक्षयोपशमे द्रव्वेंद्रियानुपघाते च तत्परिणामवत आत्मनो भवतीत्यत आह-चक्षुदर्शनतः घटादिष्वर्थेषु भवतीति शेषः अनेन च विषयभेदाभिधानेन चक्षुषोऽप्राप्तकारिता माह, सामान्यविपयत्वेऽपि चास्य घटादिविशेषाभिधानं कथंचित् तदनर्थान्तरभूतसामान्यख्यापनार्थं, उक्तंच'निर्विशेषं विशेषाणां प्रहो दर्शनमुच्यते' इत्यादि, एवम चक्षुर्देर्शनं शेषेद्रियसामान्योपलब्धिलक्षणं, अचक्षुर्दशेनिनः आत्मभावे जीवभावे भवतीत्यनेन ओत्रादीनां प्राप्तकारितामाह, उकं च "पुढे सुणे सह रूवं पुण पासती अपुढं तु' इत्यादि, अवधिदर्शनं-अवधिसामान्यग्रहणलक्षणं अवधिदर्श निनः सर्वरूपिद्रव्येषु, 'रूपध्ववचे' (ता.१ अ.२८सू.) रिति वचनादपयविवि ज्ञानापेक्षमेतत्तु (तून) दर्शनोपयोगिनः विशेषत्वात्ताप तड़का इत्युपन्यासः, केवलदर्शनं केवलिन:, (अन्यत्र ) सामान्याऽर्थग्रहणसंभवात् क्षयोपशमोद्भवत्वात् पठ्यते विशेषग्रहणादर्शनाभाव इति, तदेतदर्शनप्रमाणं । 'से किं तं चारितगुणप्यमाण' मित्यादि, चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं ज्योपशमरूपं तस्य भावधारित्रं, अशेषकर्मचयाय चेष्टा इत्यर्थः, पंचविधं प्रज्ञतं तच्च सामायिकमित्यादि, सर्वमप्येतदविशेषतः सामायिकमेव सत् छेदादिविशेषेर्विशेष्यमाणमर्थतः संज्ञावच नानात्वं लभते तत्राचं विशेषणाभावात् सामान्य संज्ञायामेव चावतिष्ठते सामायिकमिति, तत्र सावद्ययोगविरतिमा सामायिक, तथे ... अत्र 'प्रमाण' अधिकार मध्ये 'चारित्र' प्रमाणं वर्णयते ~107~ ~ आगम प्रमाणं दर्शन प्रमाणं च ॥१०३॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४३ १४४] गाथा ||११३ ११५|| दीप अनुक्रम [२९३ २९७] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१४३-१४४] / गाथा [११३-११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: श्रीअनु० हारि वृत्ती ॥१०४॥ स्वरं यावत्कथितं च, तत्र स्वल्पकाळामित्वरं तदाद्यचरमाईतीर्थयोरेवानारोपितव्रतस्य शैक्षकस्य यावत्कथाऽऽत्मनः तावत्कालं यावत्कथं, जाबअवमित्यर्थः, यावत्कयमेव यावत्कथितं तन्मध्यमाईतीर्थेषु विदेशवासिनां चेति । तथा छेदोपस्थापनम्, इह यत्र पूर्वपर्यायस्य छेदो महाव्रतेषु चोपस्थापनमात्मनः तच्छेदोपस्थापनमुच्यते, तथ साविचारं निरतिचारं च तत्र निरविचारमित्वर सामायिकस्य शैक्षकस्य यदारोप्यते, यहा तीर्थान्तरप्रतिपत्तौ यथा पार्श्वस्वामितीर्थाद्वर्द्धमानतीर्थे संक्रामतः, मूलघातिनो यत्पुनर्प्रतारोपणं तत्सातिचारम् उभयं चैतदवस्थित कल्पे, नेत्तरस्मिन् । तथा परिहारः- तपोविशेषस्तेन विशुद्धं परिहारविशुद्धं, परिहारो वा विशेषेण शुद्धो यत्र तत् परिहारविशुद्धं, परिहारविशुद्धिकं चेति स्वार्थप्रत्ययोपादानात्, तदपि द्विधा - निर्विशमानकं निर्विष्टः कायो वैस्ते निर्विकायाः स्वार्थिकप्रत्ययोपादानान्निर्विष्टकायिकाः, तस्य वोटारः परिहारिकाश्चत्वारः चत्वारोऽनुपरिहारिकाः कल्पस्थितश्चेति नवको गणः, तत्र परिहारिकाणां निर्विशमानकं, अनुपरिहारिकाणां भजनया, निर्विष्टकायिकानां कल्पस्थितस्य च परिहारकाणां परिहारो जघन्यादि चतुर्थादि त्रिविधं तपः श्रीमशिशिरवर्षासु यथासंख्यं जघन्यं चतुर्थ षष्ठमष्टमं च मध्यमं षष्ठमष्टमं दशमं च उत्कृष्टमष्टमं दशमं द्वादशं च शेषाः पंचापि नियतभक्ताः प्रायेण, न तेषामुपवस्तव्यमिति नियमः, भक्तं च सर्वेषामाचाम्लमेव, नान्यत् एवं परिहारिकाणां षण्मासं तपः सत्प्रतिचरणं चानुपरिहारिकाणां ततः पुनरितरेषां षण्मासं तपः, प्रतिचरणं चेतरेषां निर्विष्टकायानामित्यर्थः कल्पस्थितस्यापि पण्मासं, इत्येवं मासैरष्टादशभिरेष कल्पः परिसमापितो भवति, कल्पपरिसमाप्तौ च त्रयी गतिरेषां भूयस्तमेव कल्पं प्रतिपद्येरन् जिनकल्पं या गणं वा प्रति गच्छेयुः स्थितकस्पे चैते पुरुषयुगद्वयं भवेयुर्नेतरत्रेति । तथा सूक्ष्मसंपरायं, संपर्येति संसारमेभिरिति संपरायाः क्रोधादयः, लोभांशावशेषतया सूक्ष्मः संपरायो यत्रेति सूक्ष्मसंपरायः, इदमपि संविश्यमानक " 2 108~ चारित्र प्रमाणं ॥१०४॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ................. मूलं [१४५] / गाथा [११५] ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१४५] ॥१०५॥ S A गाथा ॥११५|| श्रीअनु। विशुध्यमानफमेवाद् द्विधैव, तत्र अणिमारोहतो विशुध्यमानकमुच्यते, ततः प्रच्यवमानस्य संक्लिश्यमानकमिति, तथा अथाव्यात, अमेत्यव्ययं नयप्रमाणे याधामध्ये, आमिविधी, याथातथ्येनाभिविधिना वा व्यास, देतद् गुणप्रमाण । का प्रस्थक से किं तं णयप्पमाणे' इत्यादि (१४५-२२२) वस्तुनाऽनेकधर्मिण एकेन धर्मेण नयनं नयः स एव प्रमाणमित्यादि पूर्ववत् , त्रिविध दृष्टान्तः प्राप्तमित्यत्र नैगमादिभेदामयाः, ओघतो दृष्टान्तापेक्षया त्रिविधमेतदिति, तथा चाह-तद्यथा प्रस्थकदृष्टान्तेन, तयथा नाम कश्चित्पुरुषः परशुकुठारं गृहीत्वा प्रस्थककाष्ठायाटवीमुखो गन्छेजा-यायात् , तं च कश्चित्तथाविधो दृष्टा वने-अभिदधीत-क भवान् गच्छति', तत्रैव नयमतान्युच्यन्ते, तत्राऽनेकगमो नेगम इतिकृत्वाऽऽह-अविशुद्धो नैगमो भगति-अभिधत्ते-प्रस्थकरय गच्छामि, कारणे कार्योपचारात , तथा व्यवहारदर्शनात् , तं च कश्चिकिळवन्तं, वृक्षं इति गम्यते, पश्येत्-उपलभेत, दृष्ट्वा च वदेत्-किं भवान् छिनति, विशुद्धतरो नैगमो भणति-प्रस्थकं छिनशि, भावना प्राग्वत, एवं तक्षन्त-सनू कुर्वन्तं वेधन केन विकिरन्तं लिखन्त-लेखन्या स्रष्टकं कुर्वाण एवमेव-अनेन प्रकारेण विशुद्धतरस्य नैगमस्य नामाउडियउत्ति-नामाहितः प्रस्थक इति, एवमेव व्यवहारस्यापि, लोकव्यवहारपरत्वात्तस्य चोक्तवाद्विचित्रमादिति, 'संग्रहस्ये त्यादि, सामान्यमात्रमाही संपहः चितो-धान्येन व्याप्तः, स च देशतोऽपि भवत्वत आह-मित:-पूरितः, अनेनैव प्रकारेण मेयं समारूतं यस्मिन्नाहितामेराकृतिगणत्वात् सत्र का महणान्मेयसमारूढा, धान्यसमारूढ इत्यन्ये, प्रस्थक इत्यन्ये, अयमत्र भावार्थ:-पस्थकस्य मानार्थत्वाच्छेदावस्थामु च तदभावाद्यथोक्त एव प्रस्थकः इति, असावपि तत्सामान्यव्यतिरेकेण तद्विशेषाभावादेक एव, ऋजु वर्तमानसमयाभ्युपगमावतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्न-1 ॥१०५॥ | खेनाकुटिल सूत्रयति ऋजुमबस्तस्य निष्फण्णस्वरूपाक्रियाहेतुः प्रस्थको उपि प्रस्थको बर्वमानस्तस्मिन्नेव मानादि प्रस्थकस्तथा प्रतीते:-प्रस्थकोऽय-131 मिति व्यबहारदर्शनात , महातीतेनानुत्पन्नेम वा मानेन मेयेन वार्थसिद्धिरित्यतो मानमेये वर्तमान एवं प्रस्थक इत्ति हृदयं, त्रयाणां शन्दनयाना दीप अनुक्रम [२९८] RECAERS SIKKARARY ... अथ 'नय'प्रमाणं वर्णयते ~109~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४५] गाथा ||११५|| दीप अनुक्रम [२९८] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१४५] / गाथा [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: श्रीअनु० हारि. वृत्ती ॥१०६॥ मित्यादि, शब्दप्रधानत्वात् शब्दादयः शब्दनयाः शब्दमर्यऽन्यथावस्थितं नेच्छन्ति शब्देनार्थं गमयन्तीत्यर्थः, आधास्तु अर्थप्रधानत्वादनयाः, यथाकथंचिच्छन्दनार्थोऽभिधीयते इति, अर्थेन शब्दं गमयन्तीति, अतोऽन्वर्यप्रधानत्वात् त्रयाणां शब्दसमभिरूदैवम्भूतानां प्रस्थ कार्याधिकारः प्रस्थकः, तद्व्यतिरिक्तो ज्ञाता लक्षण एव गृह्यते भावप्रधानत्वाच्छन्दादिनयानां यस्य वा बलेन प्रस्थको निष्पद्यते इति स चापि प्रस्थकज्ञानोपयोगमन्तरेण न निष्पद्यत इत्यतोऽपि तज्ज्ञोपयोग एव परमार्थतः प्रस्थकमितिच, अमीषां च सर्ववस्तु स्वात्मनि वर्त्तते नान्यत्र यथा जीवे चेतना, मेयस्य मूर्त्तत्वादाधाराधेययोरर्थान्तरत्वाद् अर्थान्तरत्वे देशादिविकल्पैर्दृश्ययोगात्, प्रस्थकञ्च नियमेन ज्ञानं तत्कथं काष्ठभाजने वर्त्तेत ?, समानाधिकरणस्यैवाभावादतः प्रस्थको मानमिति वस्त्र संक्रमादपप्रयोग इत्योपयुक्तिर्विशेषयुक्तिस्तु प्रतीततन्मतानुसारतो वाच्येति, संदेतत्प्रस्थकदृष्टान्तेन से किं तं वसहिष्टान्तेन तथा नाम कश्चित्पुरुष पाटलीपुत्रादौ वसंतं कचित्पुरुषो वदेत्-क भवान् वसतीति, अत्रैव नयमताम्युच्यन्ते तत्र विशुद्धो नैगमो भणति लोके वसामि तन्निवासक्षेत्रस्यापि चतुर्दशरज्ज्वात्मकत्वाहोकादनर्थान्तरत्वात् ( लोकवास )व्यवहारदर्शनात् एवं तिर्यग् लोकजम्बूद्वीप भारतवर्षदक्षिणार्द्धमरत पाटलिपुत्र देवदत्त गृहगर्भगृदेष्वपि भावनीयं एवमुत्तरोत्तरमेदापेक्षया विशुद्धतरस्य नैगमस्य वसन् वसति तत्र तिष्ठतीत्यर्थः एवमेव यवहारस्यापि लोकव्यवहारपरत्वात् लोके च नेह वसति प्रोषित इति व्यव हारदर्शनात् संग्रहस्य विष्नपि संस्कारकोपगतः - संस्तारकारूढः शयनक्रियावान् वसति, स च नयनिरुक्तिगम्य एक एव ऋजुसूत्रस्य येण्या| काशप्रदेशेवगाढस्तेषु वसति, संस्कारकादिप्रदेशानां तदणुभिरेव व्याप्तत्वात् सत्रावस्थानादिकमुक्तं, अन्वर्थपरिप्रापितस्थं च पूर्ववत् त्रयाणां शब्दनयानामात्मनो भावे वसति, स्वस्वभावाऽनपोक्षेनैव तत्र वृत्तिकल्पनात् तदपोहे स्वेतस्थावस्तुत्वप्रसंगादिति वदेतत् वसतिष्टष्टान्तेन ॥ से किं त' मित्यादि, अथ किं तत्प्रदेशादृष्टान्तेनी, प्रकृष्टो देश: प्रदेशः, निर्विभागो भाग इत्यर्थः स एव दृष्टान्तस्तेन, नयमतानि चिन्त्यन्ते, त ~110~ नये वसति दृष्टान्तः ॥१०६॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [१४५] / गाथा [११५] ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: नये प्रदेश टान्त प्रत सूत्रांक [१४५] गाथा ॥११५|| .. श्रीअनु ग मो भणति-पण्णां प्रदेश:, तद्यथा-धर्मप्रवेशः, अत्र धर्मशब्देन धर्मास्तिकावः परिगृह्यते तस्य प्रदेशो धर्मप्रदेशः, एवमधर्मादिष्वपि योज्यं, हार.प्रतापायावर देशप्रदेश स्थन देशो ज्यादिभागस्तस्य प्रदेश इति, सर्वत्र पठीतत्पुरुषसमासः, सचापि सामान्यविपक्षया एकः, विशेषविषमयाऽनेक इति. ॥१०७॥ एवं वदन्तं नैगम मेनहो भणतिय भणसि पण्णां प्रदेश: तन्न भवति, कस्मादी, यस्मायो देशप्रदेशःस तस्यैव द्रव्यस्य, तदव्यतिरिक्तत्वादेशस्य, यथा को दृष्टान्त इत्यत्राह-दासेन मे स्वरः क्रीत:, दासोऽपि मे खरोऽपि मे, तत्संबन्धित्वात खरस्य, एतावता साधम्य, तन्मा भण-षण्णां प्रदेशः, षष्ठस्य वस्तुतोऽविद्यमानत्वात् , परिकल्पने च प्रभूततरापत्तेः, भण पंचानां प्रदेश इत्यादि, अविशुद्धश्चार्य संग्रह, अपरसामान्याभ्युपगमात्, एवं बदन्त संप्रहं व्यवहारो भणति-पद्रसि पचानां प्रदेशस्तन भवति-न युज्यते, कस्माद्, यदि पञ्चानां गोष्टिकानां किञ्चिद्व्यं सामान्यात्मकं भवति तद्यथा हिरण्यं वेत्यादि एवं प्रदेशोऽपि स्यात् ततो युध्येत वक्तुं पञ्चानां प्रदेशः, न चैतदेवं, तस्मात् भण पञ्चविधः, पञ्चप्रकारः प्रदेशस्तद्यथा धर्मप्रदेश इत्यादि, इत्थं लोके व्यवहारदर्शनात् , एवं वदन्तं व्यवहारमृजुसूत्रो भणति-यणसि पञ्चविधा प्रदेशस्तन भवति, कस्माद् ?, यस्माद् यदि ते पञ्चविधः प्रदेश एवमेकैको धर्मास्तिकायादिप्रदेश: शब्दभूतिप्रामाण्यात्तथाप्रतीते: पञ्चविधः प्राप्तः, एवं च पंचविंशतिविधः प्रदेश: इति, तत् मा भण पञ्चविधः प्रदेशः, भण भाज्य: प्रदेशः, स्वाद् धर्मस्वेत्यादि, अपेक्षावशेन भाज्य: यो यस्यायिः | स एवास्ति, परकीयस्य परधनवत् निष्पयोजनस्वात् खरविषाणवदप्रदेश एवेल्यतः स्याद्धर्मस्य प्रदेश इति, एवं जुसूत्र साम्पतं शब्दो भणति| भाज्य: प्रदेशस्तन्न भवनि, कस्माद् ?, यस्मादेवं ते धर्मप्रदेशोऽपि स्याद्धर्मपदेश इति विकल्पस्यानिवास्तित्वातु स्यावधर्मप्रदेश इत्याद्यापत्तेः, अन- वधारणादनवस्था भविष्यति, सन्मा भण भाज्य: प्रदेशो, भण-धर्मप्रदेश: प्रदेशो धर्म इत्यादि, अयमत्र भावार्थ:-धर्मप्रदेश इवि धर्मात्मकः प्रदेशः, स प्रदेशो नियमात् धर्मास्तिकायस्तदव्यतिरिक्तत्वात्तस्य, एवमधर्माकाशयोरपि भावीय, एवं जीवात्मकः प्रदेशः प्रदेशो नोजीव इति, शमी-1 दीप अनुक्रम [२९८] ॥१०॥ %E5% ~111 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१४५] / गाथा [११५] ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१४५] गाथा ॥११५|| श्रीअनुवाव्यतिरिक्तोऽपि सकलजीवास्तिकायाव्यतिरिक्तत्वानुमपत्तेरनेकद्रव्यत्वानोजीवो जीयास्तिकायकवेषा इत्यर्थः, एवं सम्धप्रवेशोऽपि भावनीय नये प्रदेश हारि.वृत्ती इनि, एवं भणन्तं साम्प्रतं शब्दे नानार्थशब्दरोहणात् समभिरूड इति समभिरूढो भणति-बदू भणसि धर्मप्रदेशः स प्रदेशो धर्म इत्यादि तन्मवंदा दृष्टान्तः भण, किमित्यत आद-इह खलु बी समासौ संभवतः, तद्यथा-तस्पुरुषश्च कर्मधारयश्च, तन्न ज्ञायते कवरेण समासेन भणसि', किं तत्पुरुषेण | ॥१०८॥ कर्मधारयेण वा ?, यदि तत्पुरुषेण भणसि तन्मे भण, दोषसंभयादित्यभिप्रायः, दोषसंभव श्वार्य-धर्मस्य प्रदेशो धर्मप्रवेश इति भेदाऽऽपतिः, यथा राशः पुरुष इति, सैलस्य धारा शिलापुत्रस्य शरीरमित्यभेदेऽपि षष्ठी श्रूयत इति चेत् उभयत्र दर्शनासंशये एवमेव दोपा, अब कर्मधारयेण ततो विशेषतो-विशेषेण भण-धर्मश्चासौ प्रदेश इति समानाधिकरणः कर्मधारयः, अत एवाइ-स च प्रदेशो धर्मस्तदव्यतिरिक्तवासस्य, एवं शेषेष्वपि भावनीय, एवं भणन्तं समभिरूढं एवम्भूतो भणति-यद् भणसि तत्तथा-तेन प्रकारेण सर्व-निर्विशेष फस्नमिति देशप्रदेशकल्पनावर्जितं प्रपूर्ण आत्मस्वरुपेणाविकलं निरवशेष तदेवैकत्वानिरवयकं एकाहणगृहीत परिकल्पितभेदत्वादन्यतमाभिधानवाच्य, वेशोऽपि मे अवस्तु प्रदेशोऽपि मे अवस्तु, कल्पनायोगाद् , इदमत्र हृदय-प्रदेशस्य प्रदेशिनो भेदो वा स्यादभेदो वा?, यदि भेदस्तस्येति संबन्धो वाकयः, स| चातिप्रसंगदोषप्रहप्रस्तत्वादशक्यो वक्तुं, अथाभेदः पर्यायशब्दतथा घटकुटशठनबदुभयोरुच्चारणवैयर्थ्य, तस्मादसमासमेकमेव वस्त्विति, एवं निजनिजवचनीयसत्यतामुपलभ्य खर्यनयानां सर्वत्रानेकान्तसमये स्थिर: स्यात् न पुनरसद्माई गडेदिति, भणितं च-"निययवयणिज्जसकचा सम्बणया परबियालणे मोहा। ते पुण अपिट्टसमय वि भवंति सच्चे व अलिए वा ॥१॥ तदेतत् प्रवेशदष्टान्तेन नयप्रमाणं, तदेतत्रयप्रमाण । | 'से कितं संखप्पमाण' मित्यादि (१४६-२३०) संख्यायते ऽनयेति संख्या सैव प्रमाण, संख्या अनेकविधा प्रज्ञप्ता, तयथा-नामसंस्थे-132.cn सत्यादि, इह संख्याशखयो: ग्रहणं प्राकृतमधिकृत्य समानशब्दाभिधेयत्वात् , गमेशब्दन वागूरइम्याविग्रहणवत् , उक्तच-गोशब्दः पशुभूम्य दीप अनुक्रम [२९८] ... अत्र 'संख्या प्रमाण'स्य भेदा: वर्णयते ~112 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८] .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१४६१४८] गाथा ||११६११८|| संख्या श्रीअनुः शवाग्विगर्थप्रयोगवान् । मंदप्रयोगो वृष्टयेषुववस्वर्गाभिधायकः ॥१॥ एतेषां च विशेषोऽर्थप्रकरणादिगम्य इति यो यत्र विकल्पे अर्थविशेषो । हारि.वृत्ती 18 पटते स तत्र नियोक्तव्य इति । 'से किं तं नामसंखे' त्यादि सूत्रासिद्ध, यावत् 'जाणगसरीरभवियसरीरतथ्वहरिते रब्बसंखे तिविहे | पण्णते' इत्यादि, तयथा-एकभाविक रक्तप्टेन पूर्वकोटी, अयं च पूर्वकोट्यायुरायु:क्षयात्समनन्तरं शोषु सत्पत्स्यते यः स परिगृखते, अधि-II .गणन ॥१०९॥ | कतरायुधस्तेषु उत्पत्त्यभावात् , बदायुष्कः पूर्वकोटीत्रिभागमिति, अस्मात् परत आयुष्कबन्धाभावात्, अभिमुखनामगोत्रोऽन्तर्मुहर्चमिति संख्या च | अस्मात्परतो भावसंखत्वभावादिति, को नयः के सखमिच्छतीत्यादि सूत्रसिद्ध, नवरं नैगमव्यवहारी लोकव्यवहारपरत्वात् त्रिविध शख-18 मिच्छतः, ऋजूसूत्रोऽतिप्रसङ्गभयात् द्विविध, शब्दादयः शुद्धतरत्वादतिप्रसानिवृत्त्यर्थमेवैकविधमिति । औपम्येन संख्यानं औपम्यसंख्या, अनेकार्थत्वाद्धातूनामुपमार्थप्रधाना कीर्तना, परिच्छेद इत्यन्ये, इयं च निगदसिद्धा, परिमाणसंख्या-प्रमाणकीर्तना, ज्ञानसंख्यापि शानकीर्त्तनैव, व्यमपि निगदसिद्धं । 'से कि तं गणणसंख्या' इत्यादि, एतावन्त इति संख्यानं गणनसंख्या, एको गणना नोपैति तत्रान्तरेण एत्थ संख्यां | वस्त्वित्येव प्रतीते:, एकत्वसंख्याविषयत्त्वेऽपि वा प्रायोऽसंव्यवहार्यत्वावल्पत्वादत आह-द्विप्रभृति: संख्या, तद्यथा-संख्येयकं असंख्येयकं अनन्तकं, एत्य संखिज्जकं जाहण्णादिगं तिविधमेव, असंखिज्जगं परिचादिगं तिहा कार्ड पुण एकक जहण्णादितिविहविगप्पेण नवविहं भवति, अणंतगंपि एवं चेव, णवरं अर्णतगाणंतगस्स उकोसस्स असंभवत्तणओ अट्टविहं कायवं, एवं मेए कए वेसिमा परूवणा कज्जति-'जहण्णगं संखिज्जगंटू केत्तियं' इत्यादि कण्ठयं, 'से जहा णामए पल्ले सिया' इत्यादि, से पल्ले बुद्धिपरिकप्पणाकप्पिए, पल्ले पक्खेवा भण्णंनि, सो य हेहा जोय- ॥१०९॥ ठाणसहस्सावगादो, रयण जोयणसहस्सावगाढं भेत्तुं वेरकंडपतिहिओ, उरि पुण सो वेदियाकतो, वेदिययातो य उवरि सिहामयो कायव्यो, दि जतो असतिमादि सव्वं बीयमेज सिहामयं विहं, सेस मुत्तसिद्धं, दीवसमुदाण उद्धारो पेप्पत्ति, उद्धरणमुद्धारः, तेहिं पल्ल EXSBHARASHTRA दीप अनुक्रम [२९९३१०] ~113 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८] ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: उत्कष्ट प्रत सूत्रांक [१४६१४८] गाथा ||११६११८|| श्रीअनु माणेहिं सरसवेहि दीवसमुरा उद्धरिम्नतिात, तत्प्रमाणा गृह्यन्त इत्यर्थः, स्यावू-उद्धरणं किमर्थ १, तस्वसे, अणवाहितसळागप,31 हारि वृत्तोला रिमाणज्ञापनार्थ, चोदगो पुच्छति- जदि पढमपरले ओक्खित्ते पखित्ते निहिते य सलागा ण पत्रिपति तो किं परूवितो?.टा संख्य ॥११॥ उच्यते, एस अणवहितवपरिमाणदसणत्वं परूवितो, इदं च ज्ञापितं भवति-पढमत्तणतो पढमपस्ले अणववाणभावोपल्यचतुष्क हत्यि , भलागापल्लो अणवडियसलागाण भरेयत्वो, जतो सुत्ने पढमसलागा पढमअणववियपस्लभेदे देसिया, अणवडियपल्यपरंपरसला गाण संलप्पा लोगा भरिता इत्यादि, असंलप्पत्ति जे संखिज्जे असंखिज्जे वा एगतरे पक्लेवेसन शाक्यते तं असंळप्पंति, कही, उच्यते, का कोससंखेजस्स अविवहुचणओ सतम्बवहारीण य अव्यवहारित्तणओ असंखि अव्ववहारित्तणओं असंखिवजमिष खिज्जति, जम्हा य जहण्णपरितासंखिजर्ग दाण पावति आगमपच्चासबवहारिणो य संखज्जववहारिणतणओ असंलप्पा इति भणितं, लोगति सळागापजागा, अइवा जहा दुगादि दस सतसहस्सलक्खकोडियादिएहि रासीहि अहिलावेण गणणसंखसंववहारा कज्जंति, न तह उपोसगसंखेज्जगेण आदिजगरासीहि य ओमत्थगपरिहाणीए जा सीसपहेलिको परिमाणरासी, एतो गणणामिलावसंववहारे ण काजहाच अतो एसे रासी असंलप्पा, इदं कारणमासम्ज भाणितं असंलप्पा लोगा भरिता इति, अहवा अणवाहितसळागपडिसळागमहासागपल्लाण सरूवे गुरुणा कते-भणिते सीसो पुच्छति-ते कई भरेयब्वा ?, गुरु आइ-- एवंविहसलागाण असंलप्पा लोगा भरिता, सेलप्पा नाम संमहा, ण संकप्पा असंलप्पा, सशिखा ।* इत्यर्थः, तहापि नकोसगं संखेज्जगंण पावतित्ति भणिते सीसो पुच्छवि-कई उकोसगससेवजसरूवं जाणिकव्वं', उच्यते, से जाणामए मंचे। इत्यादि, उपसंहारो एवं-अणवाहितसलागादि सागापरले पक्विपमाणीहिं तयोः यः पहिसलागापरले ततोषि महासलागापल्ले, होही X ॥११ या सलागा जा उपोसगसंखिज्जग पाविदिति । वाणिं नकोसगसखिजगपरूवणवं पुहतर इम भण्ण-अदा संमि मंच मामलपहिं पखि-II दीप अनुक्रम [२९९३१०] Bार ~114 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४६ १४८] गाथा ||११६ ११८|| दीप अनुक्रम [२९९ ३१०] श्रीजनु० हारि ॥ १११ ॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४] भूमिकामसूत्र २२] "अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः प्यमाणेहिं दोहि तं आमलगं जं तं मंचे भरेदिति, अगं आगलगं ण पढिच्छतित्ति, एवमुकोसयं संखिञ्जयं दिवं तस्स इसा परूवणा जंबुद्दीवपमाणमेत्ता चत्तारि पहा, पढमो अनबतिपल्लो विविओो सलागापल्लो तइओ पडिला गापल्लो चरत्यो महासलागापल्लों, पते चडरोविं रयणप्पभाए पुढबीए पढमं रयणकंडे जोयणसदस्सावगाढं भिन्तृण वितिए वइरकंडे पविडिया हिठ्ठा, इमा ठवणा-०००० एते तु ठिता, एगो गणणं नोवेति दुष्पमितिसंखित्तिका, तत्थ पढमे अणवट्टितपले दो सरिसवा पक्खिचा, एके जहणगसंचिज्जगं, तओ एगुत्तरखुट्टीए विगि चड पंच जाव सो पुणो अष्णं सरिसवं ण पढिच्छतिति ताहे सभापवणं पहुच्च दुबति, तं कोऽवि देवो दाणवो वा उत्तुं वामकरयले कार्ड से सरिसवे जंबूदवाइए दीवे समुद्दे पक्लिवेज्जा जाब मिडिया, ताड़े सलागा एगो सिद्धत्थओ छूटो सा सछागा, वो जहिं दी समुद्दे वा सिद्धत्य निहितो सह तेण आरेण जे दीवसमुद्दा तेहिं सब्बेर्हि वप्पमाणे पुणो अण्जो पनो भरिन्जर, सोऽवि सिद्धत्ययाण भरितो जंमि णिहितो ततो परतो दीवसमुद्देसु एककं पक्षिवेज्जा जाव सोऽवि विडिओ, ततो सागापले बितिओ सरिसवो छूटो, जत्थ मिट्टतो तेण सह आदिल पुणो अण्णो पक्षो आइज्जति, सोवि सरिसवाणं भरितो, ततो परतो एकेक दीवसमुद्देसु पक्सि णिद्वावितो. ततो सागापरले वतिया सागा पक्वित्ता, एवं एतेणं अणवट्टितपस्टकरण कमेण सहायमद्दणं कारण सागापल्लो सलागाण भरितो, क्रमागतः अणवद्वित्तो, तो सागापो सलागं ण पविच्छत्तिकार्ड सो चेव उक्तो, भिद्वितद्वाणा परतो. पुम्बकमेण पक्खितो निडितोय, ततो अणोि उक्खता मिठाणा पुच्चकमेण पक्त्रित्तो णिडिओ य, ततो सागापल्ले सलागा पक्खिता, एवं अगं अगं श्रणवडि तेण अतिरनिभिरतेण जाहे पुणो सागापल्लो भरितो अणषातो य, ताहे पुण सागापल्लो उक्त पक्खित्तो गिडितोय पुण्यकमेण, | वाहे पडिसलागापल्ले पिया परिसढागा हूडा, एवं आइरनिकिरणेण जाहे विष्णथि पडिसागसागअणवद्वितपल्ला य भरिता ताहे ~115~ सल्यचतुष्कं ॥ १११ ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८] ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: श्रीअनु प्रत सूत्रांक [१४६१४८] गाथा ||११६११८|| | पटिसलागापल्लो पक्षितो, पविखप्पमाणो णिहितो य, ताहे महासलागापल्ले महासलागा पकिसत्ता, ताहे सलागापल्लो लक्खितो पतिहारि.वृत्तालापमाणो णिहितो य, तारे पडिसलागा पलिखना, ताहे अणवहितो उक्वित्तो पक्वित्तो य, ताहे सळागापल्ले सखागा पक्खित्ता, एवं आइरण-15 पाणिकिरणकमेण ताय कायव्वं जाव परंपरेण महासलागापडिसलागसलागणवाहितपल्ला य चउरोषि भरिया, ताहे उकोसत्तिच्छिय, पत्थ ॥११२॥ जावरिया अणवहितपल्ले सलागपल्लि पडिमलागापल्ले महासलागापल्ले य दीवसमुहा उद्धरिया जे य चतपल्लट्ठिया सरिसवा एस सब्बोऽपि एतप्पमाणो रासी एगरूबूणो उकोसयं संखेजय हवति, जहण्णुकोसयाण मज्झे जे ठाणा ते सव्वे पत्तेयं अजहण्णमणुकोसया संखेग्जया भाणियव्या, सिद्धते जत्य संखेज्जयगणं कर्य तत्थ सव्वं अजहण्णमणुकोसयं दद्रुष्वं । एवं संखिजगे परूविते सीसो पुच्छति-भगवं! किमेतेण अणवट्टिते पल्ले सलागापढिसलागामहासलागापलिलयावी हि य दीवसमुद्धारगहणेण य उक्कोसगसंखेज्जगपरूवणा कज्जति?, गुरू भणतिणस्थि अण्णो संरोजगस्स फुडतरो परूषणोबायोति, किंचान्यत्- असंखेग्जगमणतगरासीविगप्पणावि एताओ चेव आधाराओ, रूबुत्तरगुणद्धताओ परूवणा कज्जतीत्यर्थः, उक्तं त्रिविध संख्येयकं । इदाणं णवाविहं असंखेम्जग भणति-'एवमेव उकोसए' इत्यादि सुत्नं, असंखेज्जगे परूविग्जमाणे एवमेव अणवहितपनदीचूद्धारएण उकोसगं संखिम्जगमाणीए एगसरिसवरूवं पक्वित्तं ताहे जहण्णगं भवति, 'तेण परं' इत्यादि सूत्र, एवं असंखेजग अजहण्णमणुकोसट्ठाणाण य जाव इत्यादि सुतं, सीसो पुच्छति-'उकोसगं' इत्यादि सुत्तं, गुरू आह-जहण्णगं परित्ताअसंखेजगं' सि, अस्य व्याख्या- जहण्णगं परिचासंखेजयं विरल्लियं ठविज्ञति, तस्स विरहिलयठावियस्स एकेके सरिसवट्ठाणे जहण्णपरित्तासंखेज्जगमेचो रासी दायब्बो, ततो सेसिं जहणपरित्तासंखेज्जमेत्ताणं रासीर्ण अण्णमण्णम्भासोत्ति-गुणणा कमजति, गुणिते जो रासी जातो सो रूवूणोति रूवं पार्डिजइ, तमि पाडिते उकोसगं परित्तामलेग्जग होति, एत्थ दिनो-जहण्णगं परित्तासंखेज्जग बुद्धीकाप दीप अनुक्रम [२९९३१०] 82%%5Cks CHORT ॥११२॥ ~116 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४६ १४८] गाथा ||११६ ११८|| दीप अनुक्रम [२९९ ३१०] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: श्रीअनु० हारि. वृचौ ॥११३॥ け जाए पंच रूपाणि ते विरडिया इमे ५५५५५, एकेकस्स हेडा जहण्णगपरितासंखेज्जगमेत्तरासी ठविया ५५५५५ एतेसि पंचगाणं अण्णमण्णभासोति गुणितो जाता एकतीसं सता पणवीसा, एत्थ अण्णमण्णमासोति जं मणितं एत्य अण्णे आयरिया भणति वग्गियसंवगिति भणितं, ५५५५५ अत्रोच्यते--स्वप्रमाणेन राशिना रासी गुणिज्ज माणो बग्गियंति भण्णति, नो चेत्र संबद्धमाणो शमी पुब्बिल्ठगुणकारेण गुणिज्जमाणी संवारिंगयंति, अतो अण्णमण्णवभत्थस्स वग्गियसंवग्गियस्व य नार्थभेद इत्यर्थः अन्यः प्रकारः, अहवा जइण्णगं जुत्तासंखेज्जगं तं रूवणं कति, सतो कोसगं परित्तासंखेज्जगं होति उक्तं तिथिपि परित्तासंखेज्जगं । इदाणिं तिविहं जुत्ता खेज्नगं भण्णति, तस्स इमो समोतारो, सीसो भणति भगयं ! जं तुम्भे जद्दण्णगं जुत्तासंखेज्जगपरूवणं करेह तमहं ण याणे, अतो पुच्छा इमा-जइण्णजु'संखेज्जगं कत्तियं होति १, आचार्य उत्तरमाह-जहणगं परित्तासंज्जगं" इत्यादि सूत्रं पूर्ववत्कंठ्यं, नवरं पडिपुण्णेत्ति-गुणिते रूवं न पाहिज्जति अन्यः प्रकारः अथवा 'उकोसए' इत्यादि, सूत्रं कंठ्यं, आवइतो जहण्णत्तानं खेनए सरिसवरासी एगावलियाएव समयशसी वत्तिओ देव, जत्थ सुत्ते आवलियागद्दणं तत्व जहणजुत्तासंखे जगपडिपुण्णप्पमाणमेत्ता समया गहितच्या 'वेण पर' मित्यादि, जद्दण्णजुत्तासंखेज्जगा परतो एगुत्तररखडिता असंखेज्जा अजहणमणुको स जुत्तासंखेज्जगडाणा गच्छति, जाव उक्कोसगं जुत्तासंखेज्जगं ण पावतीत्यर्थः सीखो पुच्छतिउक्कोसगं जुत्तासंखेज्जगं केत्तियं भवति १, आचार्य आह-जहण्णगजुत्तासंखेज्जगपमाणराक्षिणा आवढियासमयरासी गुणितो रूवूणो उक्कोस जुत्तासंखेज्जगं भवति, अण्णे आयरिया भण्णंति-जहणजुत्तासंखेज्जरासिस्स वग्गो कञ्जति किमुक्कं भवति?, आवलिया आवलियाए गुणिज्जति रूणिओ उस जुत्तासंज्जगं भवति, अन्यः प्रकार:-'अहवा जहण्णगं' इत्यादि सूत्र, कंठ्यं । शिष्यः पृच्छति — 'उकोसगं' इत्यादि सूत्र, आचार्य उत्तरमाद-- 'जहण्णग' मित्यादि सूत्र, कंठ्यं, अन्यः प्रकारः 'अहवा जहण्णगं इत्यादि सूत्र, कंट अण्णे पुण आयरिया उकासगं ~ 117 ~ 2 गणना संख्यायां असंख्येयाः ॥११३॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८] .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१४६१४८] गाथा ||११६११८|| ॥११॥ श्रीअनुः 8| असंखेज्जासंखेज्जगं इमेण पगारेण पण्णवेति-जहण्णगअसंखज्जासंखेज्जगरासिस्स बम्गो कजति, तस्स रासिस्स पुणो क्यो कन्जति, तस्सेवा मणनाहारि.वृत्तात वग्गस पुणो वमो कजति, एवं तिणि वारा वरिंगतसंवरिंगते इमे दस पक्खेवया पक्सिप्पंति 'लोगागासपदेसा १ धम्मा २ धम्मे ३ गजी-13सरू असंख्येयाः बदेसा य ४ । दव्यडिया णिओया ५ पत्तेया चेव योद्धब्बा ६॥ १॥ ठितिबंधज्यवसाणे ७ अणुमागा ८ जोगळ्यपविभागा ९। दोण्ह य समाण समया १० असंखपक्वेवया दस उ ॥२॥ सब्बे लोगागासपदेसा, पर्व धम्मस्थिकायप्पएसा अधमथिकायप्पएसा एगजीवष्पदेसा व्यडिया णिओयत्ति-मुद्मवादरवणंतवणस्पतिसरीरा इत्यर्थः, पुढवादि जाव पंचेंदिया सब्वे पत्तेयसरीराणि गहियाणि, ठिविबंधझवसाणेत्तिणाणावरणादियस्स संपरायकम्मस्व छितिविसेसर्वधा जेहिं अज्झवसाणठाणेहि भवंति ते ठितिबंधझवसाणे, ते य असंत्रा, कही, उच्यते, पाणावरणदसणावरणमोहाउअंतरायस्स जहणिया अंतमुहत्ता ठिती, सा एगसमउत्तरखुद्रीए ताप गता जाव मोणिज्जस्म सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिओ सत्तय वाससहस्सत्ति, एते सब्चे ठिविविसेसा, ससि अज्झवसायट्ठाणविसेसेहितो णिकाजन्ति अतो ते असंखज्जा मणिवा, अणुभागत्ति-णाणावरणादिकम्मणो जो जस्स विवागो सो अणुभागो, सो य सञ्चजहण्णठाणाओ आव सम्युकोसो समणुभावो, पते अणुभागविसेसा जेहिं अज्झवसाणवाणविसेदितो भवंति ते अज्झघसाणवाणा असंखेज्जगाऽऽगासपदेसमेत्ता, अणुभागहाणावि तत्तिया चेव, जोगच्छेयपलिभागा, अस्य व्याख्या-जोगोति जोगा मणवतिकायप्पओगा, वेर्सि मणादियाणं अपप्पणो जहणठाणाओ जोगविसेसपहाणु तरवुड्डीए जाच ॥११४॥ | उकोसो मणपदकायपोथति, एते एगुत्तरबुडिया जोगविसेसहाणछेदपलिभागा भण्णति, ते मणादियाबेदपलिभागा पत्तेयं वितिया वा असंखेI जया इत्यर्थः, 'योण्ह य समाण समया 'शि वस्सप्पिणी ओसप्पिणी य, एयाण समया असंखेज्जा घेव, एते वस असंखपक्खेवया । EARCREAST दीप अनुक्रम [२९९३१०] ASRECAPRICTata ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८] ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत अनन्त संख्या सूत्रांक [१४६१४८] गाथा ||११६११८|| श्रीअनुपस्थिविलं पुणो रासी सिण्णि वारा वग्गिओ, वाहे रूबोणो कंओ, एवं उकासयं असंखेज्जासंखेजयप्पमाणं भवति, उक्तं असंखेज्जगं | इवाणि हारि.वृत्ती अणतयं भण्णति-सीसो पुच्छति 'जहण्णगं' इत्यादि सुत्त, कंठ्य, गुरू आह-'जहण्यागं असंखज्जासंखेज्जगं' इत्यादि सुनं, कंध्य, अन्यः प्रकार:-'उक्कोसए' इत्यादि ॥११५॥ |मुतं, कंठय, 'तेण पर मित्यादि सुर्त, कंठ्य, सीसो पुच्छति-'उकोसयं परिचाणंतये' इत्यादि - सुतं, कंठ्य, गुरू आह-'जहण्णणं इत्यादि मुक्त, कंध, अन्यः प्रकार:-'अहवा जहण्णगं' इत्यादि मुलं, कंठ्यं, सीसो पुच्छति-'जहण्णगं परित्ता' इत्यादि सुनं, कंठ्य, आचार्य आह|'जहण्णगं परित्ताणतणं इत्यादि सुतं, कंठ्य, 'अहवा उक्कोसए' इत्यादि मुत्तं, कंठ्यं, एत्थ अण्णायरियाभिप्पायतो वरिंगतसंवग्गितं भाणियब्वं, | पूर्ववत् , जहष्णो जुत्ताणतयरासी जावइओ अमब्बरासीवि केवलणाणेण तत्तितो घेव विट्ठो, 'तेण परं' इत्यादि सुतं, कंघ, आचार्य आह'जहण्णएणं' इत्यादि मुत्तं, कंठ्यं, अन्यः प्रकार: 'अहवा जहण्णगं' इत्यादि सुतं, कंठय, एस्थ अण्णायरियाभिषायतो अभव्वरासीप्पमाणस | | रासीणो सति बग्गो कम्जति, ततो उदोसयं जुत्ताणवयं भवति, सीसो पुच्छत्ति-'जहण्णय अर्णताणतयं केचियं भवति'' सुसं, कंठ्य, आचार्य आह--'जहण्णएणं' इत्यादि सुत्र, कंठ, अन्यः प्रकार:-'अहवा उक्कोसए' इत्यादि सूत्र, कंठयं, 'तेण पर' मित्यादि सुतं, कंठ्य, उक्कोसयं अणताणतयं नास्त्येवेत्यर्थः, अण्णे आवरिया भणंति-जहण्णय अणंताणतयं तिणि वारा वग्गिय, सादे इमे पत्य अर्णतपक्खेवा पक्खित्ता, जहा-सिद्धा १णिओयजीवा २ वणस्सवी ३ काळ४ पोग्गला ५ चेव । सम्बमलोगागासं ६ छप्पेतेऽर्णवपक्खेचा ॥१॥ सब्वे सिद्धा सव्वे सुहमवादरा णिओय वा परिता अर्णता सव्वे पणस्सइकाइया सव्वे तीताणागतवट्ठमाणकालसमवरासी सञ्वपोग्गलदव्वाण परमाणुरासी सम्वागासपएसरासी, एते पक्विविऊण तिण्णि वारा वग्गियसवग्गिओ कार्ड तहरि उकोसयं अणंताणतयं ण पावति, तओ केवळणाणं केवल ENERASACRORECACAN5 ॥१३५॥ दीप अनुक्रम [२९९३१०] ~119~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४६ १४८] गाथा ||११६ ११८|| दीप अनुक्रम [२९९ ३१०] श्रीअनु० हारि. वृत्ती ॥१९६॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: दंसणं च पक्तिं, तहाविउकोसयं अनंताणंतयं ण पावति, सुत्ताभिप्पायाओं, जओ सुत्ते भणितं तेण परं अजहष्णमणुकोसाई ठाणाइति, अण्णायरियाभिप्पायतो केवलणाणदंसणेस पक्खिते पत्तं उकोसयं अणंताणंतयं, जओ सव्वमणन्तयमिह णत्थि अण्णं किंचिदिति, जहिं अणवाणंतयं मग्गिज्जति तहिं वजहणमणुकोसयं अनंतानंवयं गहियव्वं, उक्ता गणनासंख्या 'से किं तं भावसंखा' इत्यादि, प्राकृतशैल्याऽत्र शखाः परिगृह्णन्ते, आह चन्य एते इषि प्ररूपकप्रत्यक्षा लोकप्रसिद्धा वा जीवा आयुः प्राणादिमन्तः स्वस्वगविनामगोत्राणि तिर्यग्गतिद्वीन्द्रियौदारिकशरीराङ्गोपाङ्गादीनि नीचेतरगोत्रलक्षणानि कर्माणि श्रद्धायापन्ना विपाकेन वेदयन्ति त एव भावसंख्या इत्युक्ता भावसंख्या:, 'सेत' मित्यादि निगमनत्रयं समाप्तं प्रमाप्यद्वारं ॥ अधुना वक्तव्यताद्वारावसरः, तत्राद्द- 'से किं तं वतव्वया' इत्यादि (१४७-२४३) तत्राध्ययनादिषु सूत्रप्रकारेण विभागन देशनियतगंधनं वक्तव्यता, इयं च त्रिविधा स्वस्त्रमयादिभेदात् तत्र स्वसमयवकन्यता यत्र यस्यां णमिति वाक्यालंकारे स्वसमय:- स्वसिद्धान्तः आख्यायते, यथा पंचास्तिकायाः, तद्यथा-धर्मास्तिकायः इत्यादि, तथा प्रज्ञाप्यते यथा गतिलक्षणो धर्मास्तिकाय इत्यादि, तथा प्ररूप्यते यथाऽसावसंख्येयप्रदेशात्मकादिभिः तथा दर्श्यते मत्स्यानां जलमित्यादि, तथा निदर्श्यते यथा तथैवैषोऽपि जीवपुद्रानामिति, उदाहरणमात्रमेतदेवमन्यथापि सूत्राखापयोजना कर्त्तव्येति शेषः, स्वतमयवक्तव्यता, परसमयवक्तव्यता तु यत्र परसमय आख्यायत इत्यादि यथा 'संति पंचमहन्भूवा, इहमेगेसि आहियं पुढवी आऊ य वाऊय, तेऊ आगासपंचमा ॥ १॥ एते पंच महभूया, तेम्भो एगति आहियं । अह तेर्सि विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥ २ ॥ इत्यादि लोकायतसमयवक्तव्यतारूपत्वात् परसमयवकन्यवेति शेषसूत्रालापकयोजनापि स्वबुद्धचा कार्या, सेवं परसमयवक्तव्यता, स्वधमयपरसमय ... अथ 'वक्तव्यता' अधिकारः दर्शयते ~120~ ~ वक्तव्यताऽधिकारः ॥ ११६॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४६ १४८] गाथा ||११६ ११८|| दीप अनुक्रम [२९९ ३१०] श्रीअनु० हारि वृत्ती ॥११७॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: वक्तव्यता पुनर्यत्र स्वसमयः परसमयश्चाऽऽख्यायेते, यथा 'आगारमावसेतो वा अरण्णा बापि पञ्चया । इमं दरिसणमावण्णा, सब्वदुक्खा विमुचती ॥ १ ॥ त्यादि, शेपसूत्रालापक योजना तु स्वधिया कार्येति, सेयं स्वसमयपरसमयवक्तव्यता ॥ इदानीं नयेर्विचारः क्रियते को नयः ? कां वक्तव्यतामिच्छति ?, तत्र नैगमव्यवहारौ त्रिविधां वक्तव्यतामिच्छतः तद्यथा- स्वसमयवतव्यतामित्यादि, तत्र सामान्यरूपो नैगमः, प्रतिभेदं सामान्यरूपमेवेच्छति स झेवं मन्यते - भिण्णाभिधेया अपि स्वसमयवक्तव्यताऽविशेषात्स्वसमयसामान्यमतिरिक्त (च्य न) वर्त्तते, व्यतिरेके स्वसमयव कव्यताऽविशेषत्वानुपपत्तेः, विशेषरूपः स नैगमो, व्यवहारस्तु प्रतिभेदं भिन्नरूपमेवे - च्छति, पदार्थानां विचित्रत्वादिति, यथाऽस्तिकायवक्तव्यता मूलगुणवश्यतेत्येवमादि, ऋजुसूत्रस्तु द्विविधां वक्तव्यतामिच्छतीत्यादि सयुक्तिक सूत्रसिद्धमेव, जय शब्दनयाः शब्दसमभिरूडएवंभूताः एकां स्वसमयवक्तव्यतामिच्छन्ति, शुद्ध नयत्वात् नास्ति परसमयवक्तव्यतेति च मन्यंते, कस्मादेतदेवं ?, यस्मात्परसमयोऽनर्थ इत्यादि तत्र 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति वचनाद हेतवस्त एत इति, परसनयानर्थत्वा दद्देतुत्वादित्येवमादयः, तत्र कथमनर्थ इति नास्त्येवात्मेत्यनर्थप्ररूपकत्वादस्य, आत्माभावे प्रतिषेधानुपपत्तेः उक्तंथ'जो चिंतेइ सरीरे णत्थि अहं स एष होइ जयोति । गहु जविभि असंते संसयडप्पायओ अण्णो || १ ||" अहेतु :- हेत्वाभासेन प्रवृत्तेः, यथा नास्त्येवात्मा अत्यन्तानुपलब्धेः हेत्वाभासत्वं चास्य ज्ञानादितद्गुणोपलब्धेः उक्तं च "ज्ञानानुभवतो दृष्टस्तद्गुणात्मा कथं च न १ । गुणदर्शनरूपं च घटादिष्वपि दर्शनम् ॥१॥" असद्भावः--असद्भावाभिधानात् असद्भावाभिधानं चात्मप्रतिषेधेनोक्तत्वात् स्यादेतत्सर्वगतत्वादिधर्म्मणोऽसस्वं रूपादिस्कन्धसमुदायात्मकस्य तु सद्भाव एवेति, न, तस्य भ्रान्तिरूपत्वान्, भ्रान्तिमात्रत्वाभ्युपगमच “फेनपिण्डोपसं रूपं, वेदना बुदोपमा । मरीचिसदृशी संज्ञा, संस्काराः कदलीनिभाः || १ || मायोपमं च विज्ञानमुक्तमादित्यबन्धुने" त्यादि, अक्रियक्षणिक ~121~ वक्तव्यतायां नयविचारः ॥११७॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४६ १४८] गाथा ||११६ ११८|| दीप अनुक्रम [२९९ ३१०] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: श्रीअनु० हारि. वृत्तौ ॥११८॥ कान्वाऽभ्युपगमेन कर्मबन्धक्रियाऽभावप्रतिपादकत्वाद्, उक्तं च- "उत्पन्नस्यावकस्थानावभिसंधाय योगतः । हिंसाऽभावान बन्धः स्यदुपदेशो निरर्थकः ॥ १॥" इत्यादि, उन्मार्गः परस्परविरोधात् विरोधाकुलत्वं चैकांतक्षणिकत्वेऽपि हिंसाऽभ्युपगमाद, उक्तं च तत्र प्राणी प्राणिज्ञानं घातकचित्तं च तता चेष्टा । प्राणैश्च विप्रयोगः पंचभिरापद्यते हिंसे ॥१॥" त्यादि, अनुपदेशः अतिप्रवर्त्तकत्वाद् उक्तं च- ''सर्व क्षणिकमित्येतत् झत्वा को न प्रवर्त्तते । विषयायो विपाको मे, न भावीति यतः १ ॥ १ ॥ " इत्यादि, यतञ्चैवमतो मिध्यादर्शनं, वयच मिध्यादशनमितिकृत्वा नास्ति परमयवक्तव्यतेति वर्त्तते, एवं समयांतरेध्ववि स्वबुध्या उत्प्रेक्ष्य योजना कार्या, बस्मात् सर्वा स्वसमययतव्वता, नास्ति परसमयवक्तव्यतेति, अन्ये तु व्याचक्षते-परसमयोऽनर्थादिदुर्णयरूपत्वाद्, यथाभूतस्त्वसौ विद्यते प्रतिपक्षसापेक्षस्तथाभूतः स्याद्वादागत्यात स्वसमय एवेदि, तदुक्तं च- "नयास्तव स्यात्पदान्ता इमे रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतगुणा यतस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितेषिणः ॥ १ ॥" इत्यादि, आह-न खलु अनेकांन्त एव मवममीषां शब्दाचानां तत्कथमेवं व्याख्यायते १ इति उच्यते, विवादस्तद्विषयः, शुद्धनाञ्चैते भावप्रधानाः, तद्भावश्रेत्थमेवेति न दोषः, सेयं वक्तव्यतेति निगमनं उच्च वक्तव्यता । सामत्रत्तमर्थाधिकारः- स च सामायिकादीनां प्राक् प्रदर्शित एवेति न प्रतन्यते, वक्तव्यतार्थाधिकारयोश्चायं भेद:- अर्थाधिकारो हाध्ययने आदिपवादारभ्य सर्वपदेष्वनुवर्त्तते, मुद्रास्तिकाचे मूर्त्तत्वबद्, देशादिनियता तु बसव्यतेति | ॥' से किं तं समोवारे ?' इत्यादि ( १४९-२४६ ) समवतरणं समवचारः, अध्ययनासन्नताकरणमिति भावः अयं च पडूविधः प्रज्ञप्त इत्यादि निगदसिद्धमेव यावभासरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्तो द्रव्यसमवतारस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— आत्मसमवतार इत्यादि, तत्र सर्वद्रव्या| प्यप्यात्मसमवठारेणात्भावे सभववरन्ति-वर्त्तन्ते, तद्व्यतिरिक्तत्वाद्, यथा जीवद्रव्याणि जीवभाषे इवि, भावान्तरसमबतारे तु स्वभावत्यागा ~122~ अर्था धिकार: सम्वतारथ ॥११८॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........... मूलं [१४९] / गाथा [११९-१२३] .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत श्राअनु हारि वृत्ती सूत्रांक [१४९] गाथा ||११९१२३|| ॥११९॥ दवस्तुस्वावंगः, व्यवहारतस्तु परमवतारेण परमावे, यथा कुण्डे पदराणि, स्वभावव्यवस्थितानामेवाल्या भावान, सयुभवसमयवारेण वदु- ओष| भये, यथा गृहे स्तम्भः आत्मभावे त्यापित मूळपायवेहलीभस्वम्भनुलादिसमुदाचात्मकत्वात् गृहस्य, वत्रच स्तम्भस्य मूबपादादया परे, आत्मा निष्पने पुनरात्मैक, तनुभये चास्य समवतारस्वथायवेरिति, एवं. घटे पीवा आत्मभावे च, सामान्यविशेषात्मकत्वात्तस्य, अबका शरीरभव्यशारी- अध्ययनारब्यतिरिक्तो द्रव्यसमक्वारे विविध प्रशसस्तपथा-आत्मवमवतारस्तदुभयसमवतारश्य, शुद्धः परसमवताये नास्त्येव, भास्पसमयतावि-आमाणादात तस्य परसमवताराभावान्, न सामन्यवतमानो गर्भो जनयुदगदी वत्तेत इति, 'चउसडिया' इत्यावि, उपपणा- दो पलसता माणी भण्णति, तस्स चनसट्ठीभागो चतसट्रिया चको पला, भवति, एवं बत्तीसियाए अट्ट पला, सोलसियाए सोलस, अहमाझ्याए बच्चीस, चउभाइयाए चटसहि, दोभाइचाए, अट्टाचीसुत्तर पळसरी, सेंस कंठ्यं । द्रव्यता त्वमीषां प्रतीव, क्षेत्रका समवतारस्तु सूत्रसिद्ध एव, एवं सर्वत्र । उभयसमवतारे तु क्रोध आत्मसमचतारेण आत्मभाव समववरति, तदुभयसमवतारेण माने समवतरति आसाभावे च, यतो मानेन क्रुध्यतीति, एवं सर्वत्रोभयसमवनारकरणे आत्मसामान्याधावाऽत्योऽन्यव्याप्त्याविक कारणं स्वबुद्ध षा वक्तव्यमित्युको भावसमववारस्तदभिधानाच्चोपक्रम इवि. सिमास उपक्रमः 'से किंतं. निक्खे। त्यादि, (१५०-२५०) निक्षेप इति शब्दार्थः पूर्ववत विविध:: प्रज्ञप्तस्तद्यथा-ओघनिष्फम इत्यावि, वन ओपो, नाम सामान्य श्रुताभिधानं तेन सिपत्र इति, एवं नामबालापरवपि केदितव्यं, नकर नाम वैशेषिकामध्ययनाथिकानसूत्राखामा पवि.] ॥११९॥ भागमूर्वा इति । 'से किं तं ओडमिका त्यादि, चतुर्विधः प्रशसस्तव्यथा-अध्ययनमक्षीणमायः श्रपणेति । किं से तं आझको त्याहि सुगम, यावद् अज्झप्पस्साणयणमित्यादि (*१२४ २५१) द नैरुफैन विधिना प्राकृतस्वभावाच्च अज्मापस्स-चिता आणयणं पगारस्सगारअगार दीप अनुक्रम [३११३१७] ... अत्र 'निक्षेप' अधिकारः वर्णयते ~1237 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५० ] गाथा || १२४ १३१|| दीप अनुक्रम [३१८३३२] श्रीअनु हारि. वृत्ती ॥१२०॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ (मूलं वृत्तिः) मूलं [१५०] / गाथा [१२४-१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित [आगमसूत्र [४] भूमिकामसूत्र २] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः णगारोवाओ अज्झयणं, इदमेव संस्कृतेऽध्ययनं, आनीयते चानेन शोभनं चेतः, अस्मिन् सति वैराग्यभावात् किमित्येतदेवं ?, यतः अस्मिन् सति कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनां अपचयो-हास उपचितानां प्रागुपनिबद्धानामिति तथाऽनुपचयश्च वृद्धिश्च नवानां प्रत्यमाणां तस्मादुक्तशब्दार्थोपपत्तेरध्ययनमिच्छन्ति विपश्चित इति गाथार्थः 'से किं तं अज्झीणे' त्यादि सूत्रसिद्धं यावत् से किं वं आगमतो भावज्झणे १, २ जाणए उवडते' सि, अत्र वृद्धा व्याचक्षते यस्मान्यमुपूर्वविद आगमोपयुक्तस्यान्तर्मुहूर्तमात्रोपयोग का लेवपलम्भोपयोगपर्याया ये ते समयापहारेणानन्ताभिरप्युत्प्पय्यवसर्पिणीमिनीपहियन्ते ततो भावाक्षीण मिति, नोआगमतस्तु भावाशीणं शिष्यप्रदानेऽपि स्वात्मन्यनाशादिति, तथा पाद- 'जह दीवा' गाहा (*१२५-२५२) वथा दीपादवाभिभूतादीपशतं प्रदीप्यते स च दीप्यते दीपः, न तु स्वतः क्षयमुपगच्छति, एवं दीपसमा आचार्य दीप्यते स्वतः परं च दीपयति व्याख्यानविधिनेति गाथार्थ: । नोआगमता चेहाचार्योपयोगस्य आगमत्वाद्वा काययोश्च नोआगमत्वान्मिश्रवचनश्च नोशब्द इति वृद्धा व्याचक्षते 'से किं तं आय' इत्यादि भावो छाम इत्यनर्थान्तरम्, अयं सूत्रसिद्ध एव नवरं संतंसावएज्जरस आएति संत-सिरिधरादिसु विज्जमानं सावज्ज-नक्षेपमहणेपु खाधीनं 'से किं तं झवणा इत्यादि, क्षपणं अपथको निर्जरेति पर्यायाः, शेषं सुगनं सर्वत्र चेह भावेऽध्ययनमेव भावनीयमिति, उक्त ओषनिष्पन्नः 'से किं तं नामनिष्फण्णे' त्यादि, सामायिक इति वैशेषिकं नाम इदं चोपलक्षणमन्येषां शब्दार्थोऽस्य पूर्ववत् 'से समासओ चउब्विहे पण्णत्ते' इत्यादि सुगमं यावत् 'जस्स सामाणिओ' गाथा, (*१२६-२५५) यस्य सस्वस्य सामानिक:- सन्निहित आत्मा क?, संयमे-मूलगुणेषु तपे अनशनादौ सर्वकालव्यापारात् सस्येत्यं भूतस्य सत्यस्य सामायिकं भवति, इतिशब्दः सारप्रदर्शनार्थः, एतावत् केवलिभाषितमिति गाथार्थ: । 'जो समो' गाहा (३१२७-२५६) यः समःतुल्यः सर्वभूतेषु कार्व जीवेषु भूतशब्दो जीवपर्यायः श्रस्यन्तीति बना:- हीन्द्रियादयस्तेषु विष्ठतीति स्वावयः पृथिव्यादयस्तेषु च तस्य सामा ~124~ नामनि ॥१२०॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ......... मूलं [१५०] / गाथा [१२४-१३१] .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१५०] गाथा ॥१२४१३१|| WIविकमित्यादि पूर्ववत् ॥ 'जह मम गाहा (७१२८-२५६) व्याख्या-यथा मम न प्रियं दुखं प्रतिकूलत्वात, मात्वा एवमेव सर्वजीकाना दुस-IN हारि.वृत्तौ प्रतिकूलत्वं न हन्ति स्वयं न घातयत्यन्यैः, चशब्बाद् घातयन्तं च नानुमन्यनेऽन्यामिति | अनेन प्रकारेण सम अणति-तुल्यं गच्छति यतस्ते- न ॥१२१॥ नासो समण इति गावार्थः । 'पत्थिय सि' गाथा (२१२९-२५६) नास्ति 'से' तस्य कश्चिद् द्वेष्यः प्रियो वा, सर्वेष्वेव जीवेषु तुल्थमनस्त्वात् , पतेन भवति समन्मः, समं मनोऽस्थेति समनाः, एषोऽन्योऽपि पर्याय इति गाथार्थः । 'उरग' गाहा (१३०-२५६) उरगसमः परकृतबिल-10 निवासात् , गिरिसमः परीपहोपसर्गनिष्पकम्पत्वात् , ज्वलनसमस्तपस्तेजोयुक्तवान् , सागरसमो गुणरनयुक्तत्वात् , नभस्तलसमो निरालंबन-18 त्वान्, मेरुगिरिसमः मुखदुःस्सयोस्तुल्यत्वात् , भ्रमरसमोऽनियतवृत्तित्वात् , मृगसमः संसारं प्रति नित्योढ़ेगात् , धरणिसमः सर्वस्पर्शसहिष्णुत्वात् जलाहसमो निष्पकत्वात् , पाजस्थानीयकामभोगाप्रवृत्तेरित्यर्थः, रविसमस्तमेोविघातकत्वात् , पवनसमः सर्वत्राप्रतियद्वत्वात् , एतस्वमस्तु य: असा श्रमण इति गाथार्थः । 'तो समणो' गाहा (११३१-२५६) ततः श्रमणो यदि सुमनाः, द्रव्यमन: प्रतीत्य भावेन च यदि न भवति पाचमना: एतत्फलमेव दर्शयति-स्वजने च जने च समः, समश्च मानापमानयोरिति गावार्थः । सामायिकवाच श्रमण इति सामायिकाधिकारे खल्वस्योपन्यासो न्वाव्य एवेत्युक्तो नामनिष्पन्नः । 'से किं तं सुत्तालावगनिफने त्यादि, यः सूत्रपदानांक नामादिन्यासः स स्त्राकापकनिष्णा इति । इदानीं सूत्राछापकनिष्पनो निक्षेप इच्छावेइति एषयति प्रतिपादयितुमात्मानमवसरप्राप्तस्यात्, पच प्राप्त लक्षणोऽपि निश्चिष्बते, कान ?, साधार्य, साधकं च अस्ति इत: तृतीयमबोनद्वारमनुगम इति तत्र निक्षिप्त इह निक्षित ||१२१॥ का भवति, इह वा निक्षिप्तस्तत्र निक्षिसो भवति, वरमादिह न निक्षिप्यते, तत्रैव निक्षेप्स्यते इति, आह-क: पुनरित्वं गुणः, सूधानुगमे सूत्रभावः,8 इह तु वदभाव इति विपर्ययः, आह-यपेयं किमर्थमिहोच्चार्यते ?, उच्यते, निक्षेपमात्रसामान्यादिति, उक्तो निक्षेपः । SRIRNSRCHERE दीप अनुक्रम [३१८३३२] ~1254 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५१] गाथा ||१३२ १३४|| दीप अनुक्रम [३३२ ३३६ ] श्रीअनु० हारि वृत्तौ ॥१२२॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१५१] / गाथा [१३२-१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित [आगमसूत्र [४] भूमिकामसूत्र २] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः 6% % % 'से किं तं अयुगमे' इत्यादि ( १५१-२५८ ) अनुगमनमनुगमः, स च द्विविधः सूत्रानुगमो नियुक्त्यनुगमध्येति, निर्मुक्त्यनुगमनधस्तद्यथा निक्षेप नियुक्त्यनुगम उपोद्घातनियुक्त्यनुगमः सूत्रस्पर्शनियुक्त्यनुगमञ्च, निक्षेपोपोद्घातसूत्राणां व्याख्या विधिरित्यर्थः, तत्र निक्षेपनिर्वृत्त्यनुगमो ऽनुगतः यः खल्बोधनामादिन्यास उक्तो बदयति चेति वृद्धा व्याचक्षते, उपोद्घातनिर्युक्त्त्यनुगमस्त्वाभ्यां द्वाभ्यां गाथाभ्यामनुगन्तव्यस्तद्यथा- 'उद्देसे' गाहा, (७१३२-२५८) 'किं कइविई' गाहा, (१३३-२५८) इवं गाधाद्वयमतिगम्भीरार्थं मा भूदव्युत्पन्नविनेयानां मोह इत्यावश्यके प्रपञ्चेन व्याख्यास्यामः सूत्रस्पर्शनियुक्तयनुगमस्तु सति सूत्रे भवति सूत्रं च सूत्रानुगमे, स चावसरप्राप्त एव तत्रेदं सूत्रमुच्चारितव्यं-'अस्खलित' मित्यादि यथाऽऽवश्यकपदे व्याख्यातं तथैव वेदितव्यमिति, विषयविभागस्त्वमीषामयं - 'क्षेत्र कयत्यो यो सपदच्छेदं सुयं सुताणुगमो । सुत्ताजावगणास्त्रो नामांदिष्णासावणिभोगं ||१|| सुत्तफाक्षियनिज्जुत्तिनिओगो सेसओ पदत्यादी । पायं साच्चिय गगणयादिमसगोयरो भणिओ ॥२॥ एवं च- 'सुतं सुत्ताणुगमो सुता लावयकओ य निक्लेवो सुत्तफासियनिती जया य सम तु वपचंति ॥३॥ शेषानाक्षेपपरिहारानावश्यके वच्यामः, 'तो तत्थ णन्जिहिती ससमयपदं चेत्यादि ततः सूत्रविधिना सूत्र उच्चारिते शास्यते स्वस्मयपदं वा पृथिवीकायिकादि, परसमयपदं वा नास्ति जीव एवेत्यादि, अनयोरेवैकं बन्धपदं अपरं मोक्षपदमित्येके, अन्ये तु 'प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधय' इति (तस्वार्थे अटसू. ४) बन्धपदं कृत्स्नकर्मक्षयान् मोक्ष इति मोक्षपदं, आह-तदुभयमपि स्वसमवपदे तत्किमर्थं भेदेनोक्तमिति, उच्यते, अर्थाधिकारभेदादू एवं सामाविकनोसामायिकयोरपि वाच्यमिति, नवरं सामायिक पदमिदमेव, नोसामायिकपदं तु 'धम्मो मंगल' मित्यादि, अनेनोपन्यासप्रयोजनमुकमत उच्चार्य इत्यर्थः, ततस्तस्मिन्कुच्चरिते सति केषांचिद्भगवतां साधूनां केचन अर्थाधिकाराः अधिगताः परिज्ञाता भवन्ति, क्षयोपशमवैचित्र्यात् केचिदनिधिगतास्ततस्तेषामनधिगतानामर्थाधिकाराणामभिगमनार्थं पदेन पदसंबंधीत्या प्रतिपदं वा वर्त्तविष्यामः व्याख्यास्यामः ~126~ निक्षेपादि मिर्युक्तवनुगमः ॥१२२॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .......... मूलं [१५१] / गाथा [१३२-१३४] .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: नैगमः प्रत सूत्रांक [१५१] गाथा ||१३२१३४|| श्रीअनु० सम्प्रति व्याख्या लक्षणमेवाइ-'संघिता य' (१३४-२६१) इत्यादि, तत्रास्वलितपोस्चारणं संहिता 'पर: सन्निकर्षः संहिते' (पा०१-४-१०९हारि.वृत्ती ति बनान् , यथा-करोमि भवन्त ! सामायिकमित्यादि, पदानि तु-करोमि भदन्त ! सामायिक पदार्थस्तु करोमास्यभ्युपगमे, भवन्त ! इत्या- संग्रहश्च ॥१२३ मन्त्रणे, समभावः सामायिकमिति, पदवियहस्तु प्रायः समासाविषयः, पदयोः पदानां विच्छेदोऽनेकार्थसंभवे सति इटानियमाय क्रियते, यथारा राज्ञः पुरुषो राजपुरुषः श्वेत: पटोऽस्येति श्वेतपट इस्थाविसमासभाक्पदाविषयसूत्रानुपानी, चोदना-चालना सत्यवस्थापन प्रसिद्धिः, यथा करोमि भदन्त ! सामाविकामित्यत्र गुर्थमन्त्रणवचनो भदन्तशब्द इत्युक्त सत्याह-गुरुबिरहे धरणे निरर्थकोऽयनिति, न, स्थापनाचार्यलाभावेन, स्थापनाचार्यामन्त्रणेन च विनयोपदेशनार्थ इति सार्थक, एवं पविध विधि-विजानीहि लक्षणं, व्याख्याया इति प्रक्रमाद्यते, वाचि PI(नामि) काविपदादिस्वरूपं त्वावश्यके स्वस्थान एवं प्रपञ्चेन वक्ष्यामि, गमनिकामायमेतदित्युक्तोऽनुगमः । _ 'से कितं नये त्यादि, (१५२-२६४) शब्दार्थः पूर्ववत् , सार मूलनयाः प्रज्ञतास्तथथा नैगम इत्यादि, तत्थ गहिति-न एक नैकं, प्रभुतानीत्यर्थः, एतैः कै?-मान:-महासत्तासामान्यविशेषज्ञानमिनीते मिनोतीति वा कम इति मैकमस्य निरूक्तिः, निगमेषु भयो नैगमः, निगमा:-पदार्थपरिच्छेयाः, तत्र सर्वत्र सक्त्येिवमनुगताकारावयोधहेतुभूतं च सामान्यविशेषं द्रव्यत्वादि व्यावृत्तावबोधहेतुभूतं च नित्यद्रग्यचत्तिमन्तं विशेष, आइ-इत्यं नैगम: सर्दि अयं अन्धमहाष्टिरेवास्तु, सामान्य विशेषाभ्युपगमपरत्वात् , साधुषविति, मैतदेवं, सामान्यविशेषवस्तूनां अत्यन्तभेदाभ्युपगमपरत्वात्तस्य, आह च भाष्यकार:-जं सामण्णविसेसे परोपरं वत्थुओ व सो भिण्णे | माण्णइ अच्चतमयो ॥१२३॥ मिच्छविही कणादब्ब ॥१॥ दोहिषि णपहिं णीय सस्थगुलपण तहवि मिच्छतं । जे सविसयप्पहाणतणेण अण्णोण्णणिरवेक्खो दि॥२॥ अथवा निलयनप्रस्थकप्रामोशाहरणेभ्य: प्रतिपादितेभ्यः सस्वयमवसेय इत्पर्क प्रसङ्गेन, गमनिकामात्रमेतत् । 'सेसाण' मित्यादि, REERSARKARIES दीप अनुक्रम [३३२३३६]] ... अथ 'नय'-अधिकार: वर्णयते ~127 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१५४-१५५] / गाथा [१३५-१४१] .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१५४ १५५] गाथा ||१३५१४१|| श्रीअनु शे षाणामपि नवानां संग्रहादीनां लक्षणभिवं शणत पश्य-अभिधास्ये इत्यर्थः । 'संगीहत गाहा (१९३६-२६४) आभिमुख्येन गृहीत:-तपात: व्यवहारजुहारि.वृत्तोल संगृहीतः पिडितः, एकजातिमापन्ना अर्थाः विषया यस्य तत्संगृहीतपिडितार्थ संघहस्य वचनं 'समासतः संक्षेपतः इवते तीर्थकरगणधरा दास्त्रशब्दाः ॥१२४ा इति, एतदुक्तं भवति-सामान्यप्रतिपादनपरः खल्वयं, सदित्युक्ते सामान्यमेव प्रतिपद्यते, न विशेषान, तथा च मन्यते-विशेषाः सामान्य-12 वोऽर्थान्तरभूताः स्युरनर्थान्तरभूता वा ?, यद्यन्तिरभूता न सन्ति, सामान्यादर्थान्तरत्वात् , खपुष्पवत् , अथानान्तरभूता: सामान्यमात्रमेपतचव्यतिरिक्तत्वात्स्वरूपवत् पर्याप्तं म्यासेन, उक्तः संप्रहः। 'बच्चइ' इत्यादि, ब्रजति निराधिक्य चयनं चय: अधिकश्चयो निश्चया-सामान्य विगतो निश्चयो विनिश्चय:-विगवसामान्यभावः बर्थ-तनिमित्तं, सामान्याभावायेति भावना, व्यवहारो नयः, क?- सर्वद्रव्येषु-सर्षद्रव्यविपये, तथा च विशेषप्रविपादनपरः खस्वयं पवित्युके विशेषानेव षटादीम् प्रतिपयते, तेषां व्यवहारहेतुत्वात् , न तदतिरिक्त सामान्य, तस्य अव्यवहारपस्तित्वात , बधा च सामान्य विशेषेभ्यो भिन्नमभिमं वा स्याद् ?, यदि मिन विशेषम्यतिरेकेणोपलभ्येत, अथाभि विशेषमात्र तत, वव्यतिरिक्तत्वात, तत्स्वरूपवदिति, अथवा विशेषेण निश्चयो विनिश्चयः आगोपालामानाद्यवयोधो, न कतिपयविवरसंबद्ध इति, वदर्थ वजति सर्वद्रव्येषु, आप भाष्यकार:- भमयदि पंचषण्णादि णिच्छए जम्मि वा जणवयरस । अत्ये विणिक्छो सो विणिपिछयथोत्ति जो गझो ॥१॥ बहुतरओति य त चिय गमेइ संतेवि सेभए मुबइ । संवबहारपरतया पबहारो लोगमिच्छतो ॥२॥ इत्याथि, तो व्यवहार इति गाथार्थः । 'पानुप्पण्णगाही गाहा (११३७-२६४) साम्प्रतमुत्पन्न प्रत्युत्पन्नमुच्यते, वर्तमानमित्यर्थः, प्रति प्रति वोत्पन्नं प्रत्युत्पन्न भिन्नेषूक्त १२४॥ (वात्म) स्वाभिकमित्यर्थः स प्रहीतुं शीलमस्येति प्रत्युत्पन्नग्राही स ऋजुसूत्र ऋजुश्रुतो वा नयविधिर्विज्ञातव्यः, तत्र ऋजु-वर्तमानं अतीका तानागतपरित्यागातू परवखिळं तत् सूचयति-गमयतीति काजुसूत्रः, पद्वाज़ बक्रषिपर्ययात् अभिमुखं भुतं तु शान, ततभाभिमुसंशानमस्पति दीप अनुक्रम [३३७३५०] XANEONE ~128~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५४ १५५] गाथा ||१३५ १४१|| दीप अनुक्रम [३३७ ३५० ] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ १५४-१५५] / गाथा [ १३५-१४१] ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: ॥१२५॥ श्रीअनु० ऋजुश्रुतः, शेषज्ञानानभ्युपगमात् अयं हि नयः वर्त्तमानं स्वलिङ्गवचननामादिभिन्नमप्येकं वस्तु प्रतिपद्यते, शेषमवस्त्विति, तथाहि अतीतहारि.वृत्तौ ॐ मेध्यं वा न भावः, विनष्टानुत्पन्नत्वाददृश्यत्वात् खपुष्पवत्, तथा परकीयमप्यवस्तु निष्फलत्वात् खपुण्यवत्, तस्माद्वर्त्तमानं स्वं वस्तु, तच्च न लिङ्गादिभिन्नमपि स्वरूपमुज्झति, लिङ्गभिन्नं वटस्वटी तटमिति, वचनभिन्नमापो जलं, नामादिभिन्नं नामस्थापनाद्रव्यभावा इति, उक्त ऋजुसूत्रः । इच्छति प्रतिपद्यते, शेषमवस्विति, तथाहि अतीतमेध्यं वा न भावः । विशेषिततरं-नामस्थापनाद्रव्यविरहेण समानलिंगवचनपर्यायध्वनिवाच्येन च प्रत्युत्पन्नं वर्त्तमानं, यः कः १-'शप् आक्रोशे' शप्यतेऽनेनेति शब्दः तस्यार्थपरिग्रहादभेदोपचारान्नयोऽपि शब्द एव, तथाहि अर्थ नामस्थापनाद्रव्यकुंभा न संख्येवेति मन्यते, तत्कार्याकरणात् खपुष्पवत् न च भिन्नलिंगवचनं, भेदादेय, स्त्रीपुरुपवत् कुटवृक्षबद्, अतो घट: कुंभ इति स्वपर्यांयध्वनिवाच्यमेवैकमिति गाथार्थ: । 'वत्थूओ' गाहा (*१३८-२६४) वस्तुनः संक्रमणं भवति अवस्तु नये समभिरूडे, वस्तुनो-घटास्वस्थ संक्रमण अन्यत्र कुटारूयादौ गमनं भवति अवस्तु, असदित्यर्थः, नये पर्यालोच्यमाने, कस्मिन् ? - नानार्थ समभिरोहणात् समभिरूडस्तस्मिन् इयमन्त्र भावना-घट कुम्भ इत्यादिशब्दान् भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वाद्भिन्नार्थगोचरानेव मन्यते, घटपटादिशब्दानिव तथा च घटनाद् घटः, विशिष्टचेष्टावानय घट इति, तथा 'कुट कौटिल्ये' फुटना कूटः कोटिल्ययोगःत् कुट इति, तथा 'कुम्भ पूरणे' कुंभनात् कुंभ:, कुत्सितपूरणादित्यर्थः, ततञ्च यदि घटारार्थे कुटादिशब्दः प्रपद्यते तदा वस्तुनः कुटादेस्तत्र संक्रांति: कृता भवति, तथा च सति सर्वधर्माणां नियतस्वभावत्वादन्यसंकास्योभयस्वभावापगमतोऽवस्तुतेत्यलं विस्तरेण उक्तः समभिरूढः । ' वंजण' इत्यादि, व्यज्यते व्यनक्कीति व्यजनं-शब्दः, अर्थस्तु तगोचरः तच्च तदुभयं शब्दार्थलक्षणं एवंभूतो नयः विशेषयति इदमत्र हृदयं शब्दमर्थेन विशेषयति, अर्थ च शब्देन 'घट चेष्टायामित्यत्र चेष्टया घटचेष्ठां (शब्द) विशेषयति, घटशब्देनापि चेशं, न स्थानभरणक्रियां, ततश्च यदा योषिन्मस्तकज्यवस्थितश्चेष्ठावानर्थो घटशब्देनो 2 ~ 129~ नयाः ॥१२५॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५४ १५५] गाथा ||१३५ ९४९|| दीप अनुक्रम [३३७ ३५० ] श्रीअनु० हारि वृत्ती ॥१२६॥ "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१५४-१५५] / गाथा [१३५-१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र - [२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी - रचिता वृत्तिः: च्यते तदा स पटः तद्वाचकश्च शब्दः, अन्यदा वस्त्वन्तरस्येव चेष्टाऽयोगादघटत्वं तद्भ्यश्चावाचकत्वमिति गाथार्थः । इत्थं तावदुक्ता नयाः, भेदप्रभेदास्तु विशेषश्रुतादवसेयाः । साम्प्रतं एत एवं ज्ञानक्रियाधीनत्वात् मोक्षस्य ज्ञान कियानयद्रयान्तर्भावद्वरेण समासतः प्रोच्यन्ते, ज्ञाननयः क्रियानयश्च तत्र ज्ञाननयदर्शनमिदं ज्ञानमेव प्रधानं ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारण, युक्तियुक्तत्वात् तथा चाह-'णायंमिति (१३९-२६७) ज्ञाते सम्यक् परिच्छिन् 'गोहितच्चे' चि महीतव्ये उपादेये 'अमिन्दियव्यमि' चि अग्रहीतव्ये, अनुपादेये हेये इत्यर्थः चशब्दः खभयोर्मही व्याही - वव्ययोर्ज्ञातव्यत्वानुकर्षणार्थ, उपेक्षणीय समुच्चयार्थी वा एवकाररुववधारणार्थः, तस्य चैवं व्यवहितः प्रयोगो द्रष्टव्यः सात एवं प्रहीतव्ये अमही तब्ये या तथोपेक्षणीये च ज्ञात एक नाज्ञाते, 'अत्थमिति अर्थ देहिकामुष्मिके, तत्र ऐहिकः प्रहीतव्यः सचन्दनागनादि, अग्रहीतव्यो विषशस्त्रकण्टकादि:, उपेक्षणीयस्तृणादिः, आमुष्मिको महीतव्यः सम्यग्दर्शनादिरमही तथ्यो मिथ्यात्यादिरुपेक्षणीयो विवक्षयाऽभ्युदयादिरिति तस्मिन्नर्थे 'यतिवच्य मेवे 'ति अनुस्वारलेोपात् यतितव्यमेवं अनेन प्रकारेणैहिकामुष्मिक फड प्राप्यार्धेना सत्वेन प्रवृस्यादिलक्षणः प्रयत्नः कार्य इत्यर्थः इत्थं चैतंगीकर्त्तव्यं सम्यगृहात प्रवत्तमानस्य फलाविसंवाददर्शनात्, तथा चान्येरप्युक्तं- 'विज्ञप्तिः फलदा पुंसां न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात्प्रवृतस्य फलासंवाददर्शनात् ॥ १॥" तथाऽऽमुष्मिक फलप्राप्स्यविनाऽपि ज्ञान एव यतितव्यं, तथा चाऽऽगमोऽप्येवं व्यवस्थितः यत उतं- 'पड नाणं सओ दया एवं चि सव्यजए । अण्णाणी किं काहिति, किंवा नादिति छेवपावयं ॥ १ ॥ श्वश्चैतदेवमंगीकर्तव्यं यस्मातीर्थकर गणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहार कियाऽपि निषिद्धा, तथा चाऽऽगमः 'गीयत्थों य बिहारो बीओ गीयत्थमीसिओ मणिओ । एतो तइय विहारो णाणुष्णाओ जिणवरेहिं ॥ १ ॥" नान्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यक् पन्धानं प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः एवं तावत् क्षायोपश मिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तं, शायिकमप्यंीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विशेयं यस्मादईोऽपि भवांभोधितटस्थस्य दीक्षाप्रतिपन्नस्योत्कृष्ट ~ 130~ ज्ञाननयः ॥ १२६॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१५४-१५५] / गाथा [१३५-१४१] .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -२] "अनुयोगद्वार' मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्ति:: प्रत सूत्रांक [१५४ क्रियानय: १५५] गाथा ||१३५१४१|| श्रीअनु परणवतोऽपि न तावदपवर्गमालिक संजायते यावज्जीवाजीवाचखिलवस्तुपरिच्छेवरूप केवलशान मोत्पम्नमिति, तस्मात् शानमेव प्रधानमहिका- 1 हारि.वृत्तामा मुभिकफळमानिकारणमिति स्थित, 'इति जो उवएसो सो णयो णाम' ति इत्येवमुत्तेन न्यायेग य उपदेशो शानषाधान्यख्यापनपर: स नयो नाम, शाननय इत्यर्थः, अयं चतुर्विधेऽपि सम्यक्त्रवादिसामायिके सम्यक्त्वसामायिक श्रुतसामायिकद्वयमेवेच्छति, मामात्मकत्वादस्य, देश॥१२७॥ विरतिसर्वविरतिसामायिकेतु तत्कार्यस्यात्तदायत्तत्वाकच नेच्छति, गुणभते वेच्छतीति गाथार्थः, उत्तो ज्ञाननयः, अधुना कियानयावसर:तदर्शन चेद-गव प्रधानमहिकामुस्मिकफलमानिकारणं युक्तियुक्तत्वात, तथा चायम प्युक्तलक्षणामेव स्वपनसिखाये गाथामाह'णायमि गिण्डितब्ये' इत्यादि, अस्य क्रियानुसारेण व्याख्या-शाते महीवव्ये चैवाथै ऐहिकामुभिकफलप्राप्त्यर्थिना यतितव्यमेष, म यस्मात्यवृत्यादिलक्षणप्रयत्नव्यतिरेकेण ज्ञानवतोऽप्यमिलपितार्थायानिर्दृश्यते, तथा चान्यैरप्यु-'क्रियेव फळदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानामुखितो भवेत् ॥ १॥" धाssमुमिकफळनाप्यधिनापि क्रियैव कर्तव्या, तथा च मुनीन्द्रवचममप्येवमेव व्यवस्थित, यत उक्तRI'चेयकुळगणसंघ आयरियाणं च पववणसुए य । सव्ये मुवि तेण कयं तवसंजममुज्जमतेणं ॥ १ ॥ इतश्चैतदेवमंगीकर्तव्यं, यस्मा चीर्थकरमणधेरः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि विफलमेचोक्तं, तथा चाऽऽगम:-'सुबहुंपि सुतमहीतं किं काहिति चरणविप्पमुमत ? | अंधस्स जह पलिता दविसयसहस्सकोडीपि ॥१॥" एशिक्रियाविकलवाचस्येत्यभिप्राय:, एवं तावन् क्षायोपामिर्क चारित्रमनीकृस्योक्तं, माथिकमप्य-SRI गीकृत्य प्रकृष्ठफळसाधक तस्यैव शेय, यस्मावहतोऽपि भगवतः समुत्पन्न केवलज्ञानस्यापि न सान्मुक्तिपारिक संजायते यापदाखिलकमें-14॥१२७|| न्धनानलभूता हस्वपञ्चाक्षरोद्गिरणमात्रकालावस्थायिनी सर्वसंवररूमा चारित्रक्रिया नावाप्लेवि, तस्मास्क्रियैव प्रधानभैहिकामुभिकफलकारणमिति स्थितं, 'इति जो उबएसो सो मओ णाम' ति इत्येवमुक्तन्यायेन य उपदेशः क्रिया प्राधान्यख्यापनपर: स नयो नाम, क्रियानय इत्यर्थः । IRH ला दीप अनुक्रम [३३७३५०] करणES ~131 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५४ १५५] गाथा ||१३५ १४१|| दीप अनुक्रम [3369 ३५०] श्रीअनु० हारि. वृत्ता ॥१२८॥ “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र -२ (मूलं + वृत्ति:) मूलं [१५४ - १५५] / गाथा [१३५-१४१] .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र -[२] "अनुयोगद्वार" मूलं एवं हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः: अयं च सम्यवादौ चतुर्विधेऽपि सामायिके देशविर तिसर्वविरति सामायिकद्वयमेवेद्धति, क्रियात्मकत्वादस्य, सम्यक्त्व सामायिक श्रुतसामायिके तु तदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानत्वात नेच्छति, गुणभूते बेच्छतीति गाथार्थः ॥ उक्तः क्रियानयः इत्थं ज्ञानक्रियास्वरूपं श्रुत्वाऽविदिवतदभिप्रावो विनेयः संशयापन्नः सन्नाह-किमत्र तत्त्वं १, पक्षद्वयेऽपि युक्तिसंभवात्, आचार्यः पुनराह 'सव्वेसिंपि' गाहा (१४०-२६७) अथवा ज्ञानक्रियानयमतं प्रत्येकमभिधायाधुना स्थितपक्षमुपदर्शयन्नाह 'सव्वैसिपि गाहा' गाहा, सर्वेषामिति मूलमयानाम्, अपिशब्दात्तद्भेशनां च नयानां द्रव्यास्तिकादीनां बहुविधबक्तव्यतां सामान्यमेव विशेषा एव उभयमेव वाऽनपेक्षमित्यादिरूपां अथवा नामादीनां कः कं साधुभितीत्यादिरूपां निशम्य श्रुत्वा तत्सर्वनयविशुद्धं सर्वनयसम्मतं वचनं यश्चरणगुणस्थितः साधुः यस्मात्सर्वनया एव भावनिक्षेपमिच्छतीति गाथार्थः ॥ समाप्तेयं शिष्यहितानामानुयोगद्वारटीका, कृतिः सिताम्बराऽऽचार्य जिन भट्टपाद सेवकस्याऽऽचार्यहरिभद्रस्य कृत्वा विवरणमेतत्प्राप्तं यत्किञ्चिदि मया कुशलम् । अनुयोगपुरस्सरत्वं लभतां भव्यो जनस्तेन ॥ १ ॥ इति श्रीहरिभद्राचार्यरचिता अनुयोगद्वारसूत्रवृत्तिः मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुनः संपादित: (आगमसूत्र ४५) “अनुयोगद्वारसूत्र” (हारिभद्रिया-वृत्तिः) परिसमाप्तं 132~ स्थितपक्षः ॥१२८॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 45 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “अनुयोगद्वार-चूलिकासूत्र” [हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः] (किंचित वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "अनुयोगद्वारसूत्र" मूलं एवं वृत्ति:” नामेण परिसमाप्त: Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~133