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कविवर वृन्दावनजीकी
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पवाया है, “ सवत् अठारहसौ पचहत्तर १८७५ कार्तिककृष्णा अमावस्या गुरुवारको यह पुस्तक पूर्ण भया । लिखित वृन्दावनेन निजपरोपका
रार्थम्।" इस प्रकार लिखा है। इससे स्पष्ट है कि, सवत् १८७५ में इस * ग्रन्थकी रचना हुई है। * यद्यपि यह ग्रन्थ सर्वत्र प्रसिद्ध है। तो भी हम सर्व साधारणके परिचयके । लिये उसमेंसे ३-४ पद्य यहा उद्धृत कर देते हैं.
(७).
छप्पय ।
(वीररस रूपकालकार) तप तुरंग असवार धार, तारन विवेक कर।' ध्यान शुकल असि धार, शुद्ध सुविचार सुक्खतर ॥ भावन सेना धरम, दशों सेनापति थापे। रतन तीन धरि सकति, मंत्र अनुभौ निरमापे ॥ सत्तातल सोऽहं सुभट धुनि, त्याग केतु शत अन धरि । इहिविधि समाज सज राजको, अर जिन जीते कर्म भरि ॥
(अनौष्ठय यमकालकार-शान्तरस) चार चरन आचरन, चरन चितहरन चिहन चर। चद चंद तन चरित, चंद थल चहत चतुर नर ॥ चतुक चंड चकचूरि, चारि चिदचक गुनाकर ।
चंचल चलित सुरेश, चूलनुत चक्र धनुरहर ॥ चरमचरहितू तारन तरन, सुनत चहकि चिरनंद शुचि। जिनचदचरन चरच्यो चहत, चितचकोर नचि रचि रुचि ॥
(लाटानुवधन) बाहर भीतरके जिते, जाहर भर दुखदाय। ता हरकर भरजिन भये, साहर शिवपुर राय ॥