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कल्याणकल्पद्रुम ।
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जो तुम हो तिहुँ लोकके नायक, क्षायक दानपती जगनामी । तो किन मोहि दुखी अवलोकि, द्रवौ करुणाकर कीरतधामी ॥ दानी कहाइबो औ कृपनापन, दोऊ बनै किमि हे अभिरामी। देखि अनाथ द्रवौ अब नाथ, गहो ममहाथ हे श्रीपतिखामी ॥४१॥ * द्वादश अंग उपंगविषै, यह बात अभंग प्रकाश रही है। * दान अनंतके दाता तुमी, इह नातातै मै पद आनि गही है। । भौदुखसिंधु अगाधविषै, अब डूबत हौं कहुँ थाह नहीं है।। अलीजे उबार हमें इह बार, अधार तुमीसों पुकार कही है ४२
कर्मकलंक विनाशत ही, प्रगटी अविनश्वर रिद्धि तुमे री। जानत हो सब लोक अलोकको, केवलबोध अगाध धरे री॥ । विघ्नविनाशन उन्नतशासन, शासनमाहिं महामुनि टेरी। । * मै यह जानि गही शरनागत, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी४३ ॥
आरतवंत पुकारत ही सुनि, ग्रामपती दुख देत निबेरी। * आप प्रसिद्ध त्रिलोकपती, सब जानत बात चराचर केरी ॥
जो दुख देखि द्रवोगे नहीं, तो दयानिधि वान कहाँ निबहे ! मोहि नहीं अवलंब है दूसरो, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी॥४४॥ लोक अलोक विलोकत हो, हग केवल शुद्ध प्रकाश धरे री।। नाहिं छिपी प्रभु जी तुमसों, अपराध वनी कछु जो हमसे री॥ हो तुम पूरन दीनदयाल, द्रवौ किन मोपर पीर परे री ।। लेहु उबारि हमें इह बार, हो श्रीपतिजी पत राखहु मेरी ४५॥ पुण्यप्रकाशन पापप्रनाशन, उन्नत शासन वेद भने री।
है कमलासन पै कमलासन, दासनिके दुखदंद हरे री॥ Hereap-ki-per----
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