Book Title: Vrundavanvilas
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Hiteshi Karyalaya

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Page 168
________________ Ansan ११३८ वृन्दावनविलास- . । एवमनन्तानेहसि तेषां हानिः कथं न जायेत। *हानिर्भवति परेषामिहोत्तरं शृणुत सिद्धान्तात् ॥ . भूतकालभवसिद्धानां भूतकालतः असंख्यातमक्तत्वेसि*द्धेभ्यः संसारिजीवानामनन्तगुणगणित ............"नन्तगु-१ *णत्वे भूतकालस्य चाक्षयानन्तत्वाद्भविष्यत्कालानन्तमागत्वात् । *........ संसारिजीवसिद्धेभ्योनन्तसामान्यसंख्याग्राहकपर्यायाअर्थदेशात् हानिर्लमते । सदैवेदृक् व्यपदेशं लमिष्यन्ति विशेष॥ संख्याग्राहकपर्यायार्थादेशात् हानिवृद्धी मन्ये ॥३॥ आर्या । । “यदनेकान्तःकथयति हेतोर्दोषो हि तत्कथं सिद्धम्। प्राय ऐसा जान पडता है कि, अतीत कालमें जितने सिद्ध हो चुके हैं, वे अनन्त है और उनसे अनन्तगुणें संसारी जीव हैं। यद्यपि ऐसा है । * कि, संसारचक्रसे निकलकर जितने जीव सिद्ध होते जाते है, उतनी संख्या संसारी जीवोकी संख्या से घटती जाती है, तथापि उनकी सामान्य अनन्तसंख्या कभी कम नहीं होती। जैसे कि आकाश अ-4 नन्त है । अब आप किसी एक जगहसे किसी तेज चलनेवाली सवारीपर सवार होकर किसी एक ही दिशाको निस गमन कीजिये । उस गम* नसे आप जितना चलेंगे, उस दिशाका उतना ही आकाश कम होता जायगा । परन्तु उसी दिशाके शेव आकाशमें अनन्तत्व सख्याका व्याघात कमी नहीं होगा । भावार्थ, यदि आपको इस प्रकार चलते २ अनन्त कल्प भी वीत जावेंगे, तो भी उस दिशाका शेप आकाश अनन्त ही र *हेगा । यदि कहींसे आकाशकी अनन्ततामें कमी पडेगी, तो आकाश अनन्त है, यह सिद्धान्त नहीं रहेगा । इसी प्रकार यद्यपि ससारमैसे जीव घटते जाते हैं, तथापि उनकी सामान्यसख्या अनन्त ही रहती है । १० नैयायिकादि लोग अनेकान्तको हेतुका दोष यतलाते है, सो जिम

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