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पत्रव्यवहार।
*तेषु भट्टमतानुसारिणो मीमांसकाः भावना वाक्यार्थवादिनः ।
प्रभाकरमतानुसारिणो नियोगवाक्यार्थवादिनः । वेदांतानुसारिणो विधिवाक्यार्थवादिनः । तत्र नियोगस्य सामान्यरूपं । नियुक्तोहमनेनामिष्टोमादिवाक्येनेति । निरवशेषो योगो हि । नियोगः । तत्र मनागप्ययोगस्य संभवाभावात् । प्रेरणा चो-* *दना इत्यपि नामान्तरं स चैकादशधा अव्यक्तमतभेदात् । । भावना द्विपकारा । शब्दभावना अर्थमावना च । "शब्दात्म-1
भावनामाहुरन्यामेव तिडादयः । इयं त्वन्यैव सर्वार्था सर्वा* ख्यातेषु विद्यते" । इति वचनात् । यथा अष्टसहस्रीटिप्प*णकाराः "तेन भूतिषु कर्तृत्वं प्रतिपन्नस्य वस्तुनः। प्रयोजक* क्रियामाहुर्भावनां भाववादिनः" । विधिसत्तामात्रः पुरुषा
किया गया है। इसका विशेष व्याख्यान अष्टसहनी प्रन्थमें लिखा है , १जोकि उसके खण्डनमें है । और वह इस प्रकार है कि "भमतानुयायी वाक्यका अर्थ भावना ही मानता है और प्रभाकर नियोग ही मानता है। ऐसी अवस्थामें वाक्यका अर्थ भावना ही है, नियोग नहीं है, अथवा नियोग ही है, भावना नहीं है, इसमें क्या प्रमाण है ? यदि दोनो अर्थ माने जावेंगे, तो भट्ट और प्रभाकर दोनों ही मारे जावेगे । भावार्थ । दोनो मतोंका खण्डन हो जायगा । इसलिये उपर्युक्त दोनों अर्थ मानना। । युक्तिसगत नहीं है । अथवा चोदना ज्ञान अर्थात् नियोग कार्यार्थमें ही।
है, ऐसा भ मानता है । परन्तु वह कार्यार्थमें है, खरूपमें नहीं है, है इसमें क्या प्रमाण है? यदि दोनोमे माना जावे, तो भट्ट और वेदान्ती दोनोको भागना पडेगा । भावार्य इन दोनोका मत भी विचार शून्य है,
ऐसा निरूपण किया है तथा आगे चालीस पत्रोंमे इसका विशेप व्याLख्यान किया है। जो विस्तारमयसे नहीं लिखा जा सकता।