Book Title: Vrundavanvilas
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Hiteshi Karyalaya

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Page 180
________________ ११५० वृन्दावनविलास इत्यादि इसी शीलकी महिमा है घनेरी । विस्तारके कहनेमें बड़ी होयगी देरी॥ पल एकमें सव कप्टको यह नष्ट करेरी। __इसहीसे मिले रिद्धि सिद्धि वृद्धि सवेरी ॥ ११ ॥ विन शील खता खाते हैं सब कांछके ढीले । इस शील विना तंत्र मंत्र जंत्र ही कीले ॥ • सब देव करें सेव इसी शीलके हीले। इस शीलहीसे चाहे तो निर्वानपदी ले ॥ १२ ॥ सम्यक्त्वसहित शीलको, पालें हैं जो अन्दर ।। ___ सो शील धर्म होय है, कल्याणका मन्दिर ॥ इससे हुए भवपार हैं कुल कौल औ बन्दर। ___ इस शीलकी महिमा न सकै भाष पुरन्दर ॥ १३ ॥ जिस शीलके कहनेमें थका सहसवदन है। जिस शीलसे भय-पाय भगा कूर मदन है ॥ सो शील ही भविवृन्दको कल्याणप्रदन है । दशड़ ही इस पैंडसे निर्वानसदन है ॥ १४ ॥ जिनराजदेव कीजिये मुझ दीनपै करना। __ भविवृन्दको अब दीजिये इस शीलका शरना ।। इति शीलमाहात्म्य । -

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