Book Title: Vrundavanvilas
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Hiteshi Karyalaya

View full book text
Previous | Next

Page 176
________________ वृन्दावनविलास वरसम्पदोपि चात्मान खलु विशुद्ध स्मृतो निजानन्द येन स्मृतेन झटिति प्रकटविनष्टा भवन्ति रागाद्याः।। *प्रभवति मुक्तिरधीना चैतन्यामृतपयोधिमग्नानाम् ॥ तंद्रातर इह लोके समुपगतजन्मसारमणिराशौ। । भवितव्यं न दरिद्रैः प्रच्युतसारैः प्रमादवशगत्वात् ।।। दुतविलम्वितम् । चिरंपरिभ्रमणोद्भवदुःखतो न खलु कश्चिदिहास्ति निवारकः । सुगुरुदत्तपरात्मविवेकजा दपर इष्टकृदच्छविवोधतः॥ अयि विवेकपयोधिकलाधर परमतत्वसमर्पणतत्पर। निजरसामृतपानसमुत्सुक . समयसार ..."" शतधीधुन । अन्यच्च-असाकमनिन्द्यहृद्यगद्यपद्यामन्दविनोदविभारतर १८ जिसके कि स्मरणरो चैतन्यामृत समदमें मम रहना yri रागादिक शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, और मसिलामी उन माग जाती है। । १९ इसलिये हे भाई। प्रमादफे वशीभूत होकर मJTIPATI सारभूत नणियांकी राशिवाले संभारम गार भागा मोदर दादी यने रहना चाहिये। । २०६न समारमें मुगुरदत निमार मि . जन्य दुगा निवारण पनि अन्न योनहार म गाम आठ irrr art .:.-ris t ml

Loading...

Page Navigation
1 ... 174 175 176 177 178 179 180 181