Book Title: Vrundavanvilas
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Hiteshi Karyalaya
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१०८
वृन्दावनविलास
यथा पाठ नवको रहत, सब थल नवपरमान । तथा जैनको छंद यह, वरतो सुखद निधान ॥ ११३ ॥ । जौलों रविशशि गगनमहँ, उदै अमंद धराय । * तौलौ यह रचना रहो, निर्मल जस सुखदाय ॥ ११४ ॥
अजितदास निजसुअनके, पठन हेत अभिनंद। श्रीजिनिंद सुखकंदको, रच्यो छंद यह वृंद ॥ ११५ ॥ * पौषकृष्ण चौदस सुदिन, तादिन कियो अरंभ।
अट्ठारह दिनमें भयो, पूरन शब्दब्रम ॥ ११६ ॥
जो यह छंद जिनिंदको, पढ़े पढ़ावै जीव । * सो मनवांछित पाय सुख, अनुक्रम है शिवपीव ॥ ११७ ॥ ॥
अट्ठारहसो ठानवै, संवत विक्रमभूप । * दोज माघ कलिको भयो, पूरन छंद अनूप ॥ ११८॥ इति श्रीवृंदावनकृत जैनछदावली संपूर्णी ।
(१६) अन्तापिकाप्रकरणाष्टक।
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नयमालिनी। वेतपति मल को है, कौन है जन्म सार ।
नभमहँ समुदने, क्या करै कर्म झार ॥ १ संवत् १८९८ माघसुदी दोयज शनिवारको यह पोथी वृदावनने में लिखी सो जयवंत रहो (कविवृन्दावन)।२इस छन्दके चौथे चरणकेसात अक्षर हैं। उनमेंसे पहले छह अक्षरों के साथ क्रमसे अन्तके रकारको मिला। मिलाकर छह प्रश्नोंका उत्तर होता है । और सातवें प्रश्नका उत्तर अन्तके ।
सातों अक्षरोंसे बनता है । जैसे, मार, नर, पूर, जार, पर, हार। । और मानपूजापहार।

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