Book Title: Vrundavanvilas
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Hiteshi Karyalaya

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Page 159
________________ पत्रव्यवहार। १२९ प्रश्न-सम्यग्दर्शन तत्वार्थश्रद्धानको कह्या अर तत्त्वार्थश्रद्धान आत्मज्ञानरहित होय तो मोक्ष न होय ऐसे। कह्या । सो तत्त्वार्थश्रद्धानमैं आत्मज्ञान आया कि नाही? * जुदा ही आत्मज्ञान कहां रह्या ? उत्तर-जिनेन्द्रके आगममैं षव्य, सप्ततत्त्व, नवपदार्थ, पंचास्तिकायका वर्णन है । तामैं आत्मज्ञान आय तौ! गया परन्तु आगममैं ही आगमज्ञान अर अध्यातम ऐसे वि*शेषकरि भेदरूप कहा है । तहां जो पद्व्यादिकका । आगममै खरूप कह्या, तिस मात्र ही जाणे अर अपने आ मकी तरफ न देखे, तो तहां आगमका ज्ञान आत्मज्ञानकरि रहित भया । तव ऐसे जाननेवालेकै अपना हितका अनुभव तौ नाहीं, तबमोक्ष कैसे होय. यात आत्मज्ञानकू न्यारा नाहिं अध्यात्मशास्त्रजीमै चेत कराया है । अर जे आग- ममै गुरु आम्नायतै नीके समझे होंय, तिनकै तो तत्त्वार्थश्रधान कहनेहीमै आत्मज्ञान आय गया । जिनमतकी कथनी । अनेकान्तखरूप है । सो स्यादवादकरि वचननिका विरोध मेटे है। तहां प्रमाणनय निक्षेप अनुयोगद्वारकरि स्याद्वादकू । नीके समझे मतमै विरोध न उपजै है । विना समझा पक्षपात । करि कोई विरोध उपजै है, सो यह कालका दोष है। प्रश्न-भगवानके कल्याणक महोत्सवमै इन्द्र आवै सो। । मूल शरीर न आवै विक्रियाही आवै । सो कारन कहा? । उत्तर-शास्त्रमै ऐसेही वर्णन है । मूल शरीर तिनके

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