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वृन्दावनविलासमता विवेकी छन्द विवेकी तुम बांचो।
चित्तारेकी वंकन एकी कर सांचो ॥ तत्त्वाधारं है सुखकारं जगभूषा । मिथ्यावाद छंडि कुनादं सब भूषा ॥
__ मनहर। जैसे वृन्दावनमाहिं नारायन केलि करी,
तैसे 'वृन्दावन' मित्र कर है वनारसी। वंशरीति राग रंग ताल ताल आये गये,
मान ठान आनि आनि धरेगा वनारसी ॥ कुंजगली आपनमें पण्य धरे अंवरको,
अंगनाको अर्थ लेय देत यो वनारसी ॥ हर कर्म राक्षसको निकट न आन देत, संतनिसों प्रीति जाकी ऐसा भावनारसी ॥
तोटक। सुनिमोवच मित्र पढ़ो जिनको। मत उज्वल दोषविना तिनको ।। वर शब्द विदोष गहो श्रुतिमें । नय साधि अनेक धरो मतिमें ॥
अनुभौ करि आतमशुद्ध गहो।
तजि बंध विभाव निचिंत रहो । जिन आगमसार सुशीश धरौ। शिव कामिनि पावनि वेगि वरौ ।।
दोहा। वानारसि वर नगरमें, विरले जैनी लोक । तोऊ तुमसे वसत हो, यातें मानें थोक ।।