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छन्दशतक ।
जैजो जिनंदचंदके पदारविंद चावसों ।
मुनिंदको सुदान दे उमंगके बढ़ावसों। अभंग सातभंगरंगमें पगो प्रमावसों। यही उपावसों तरो न राच भोगभावसों ॥
नेयमालिनी (न न म य य) जिनवरपद पूजाकी सुनो हो बड़ाई। ___ गज शुक मिडकासे देवजोनी लहाई ॥ सुमन सुमनसेती देहरीपै चढ़ाई।
तिहिं फलकरि तानै मालिनी खर्ग पाई ॥ मंदाक्रान्ता (म भ न त त ग ग) अर्हन्खामीसमवसृतमें राजते भीतिहंता ।
शोभा जाकी सुरगुरु कही पार नाही लहंता । जाकी काया दरशन किये दूर ही होत प्रान्ता।
सर्वेन्द्रोंकी सब दुति जहाँ हो रही मंदकान्ता ॥
स्रग्धरा (मर भ न य य य) तीनो रैनत्रिवेनी सविमलजलकी धारमें जो नहावै । * निश्चै घाती विघाती करमज मलको मूलसे सो बहावै ॥ * किसी २ ने इसे पंचचामर लिखा है । अनेक कवियोंका मत है कि, दो नगण और चार रगणका नाराच छन्द होता है। २ मालिनी
और मंजुमालिनी भी इसीको कहते हैं । ३ मेंडक (दर्दुर)। ४ स-1 म्यदर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी त्रिवैनी नदी।
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